Rahasya- a stpry plot for making film

01/09/2012 12:00

 

 

 

 

 

 

रहस्य

लेखक का नाम - राघवेन्द्र कश्यप

सच्चाई के अंशों को समाये हुए काल्पनिक घटनाओं पर आधारित यह कथा-प्लौट फिल्म बनाने के उद्‍देश्य से लिखा गया है....

 

सुरेन्द्राचार्य एक ज्योतिषी और तान्त्रिक है...इसने अपने आवास से ही ज्योतिष और तन्त्र विद्‍या का व्यवसाय फैला रखा है....उसने कुछ तन्त्र और मन्त्र साधनायें तथा ज्योतिषीय अध्ययन के बल पर भविष्यवाणी करने में इतनी सफलता पा ली कि इसका नाम धीरे-धीरे प्रसरने (फैलने) लगा.... इसे इस व्यवसाय में अच्छी सफलता मिल रही है...इसका भाग्य ऐसा है कि इसकी भविष्यवाणियां अधिकांशतः सत्य निकलती हैं...अब उसने एक कक्ष किराये पर ले उसमें अपना ज्योतिष कार्यालय चलाना आरम्भ कर दिया है... समय बीतता गया....सन्‌ १९८५ ई. से अब १९९० हो गया, और अब १९९५....२०००...२००५...२०१०....सांसारिक विकास होता गया पर समाज गिरता गया मानवीय मूल्यों और धार्मिक-आध्यात्मिक विश्वासों और तदनुरूप कर्मों की दृष्‍टि से....लोगों का मन सांसारिक बातों में ही २४ घण्टे फंसा रहने लगा....पूर्व की भांति समाज में धर्मचर्चा और ज्ञानचर्चा अब हंसी या महत्त्वहीनता की बातें होती चली जा रही थीं... सुरेन्द्राचार्य की भविष्यवाणी की क्षमता भी न्यून होती गयी...पर उसका सांसारिक आधुनिक दिखावा और अहंकार उतना ही बढता गया...सुरेन्द्राचार्य का ज्योतिष कार्यालय अब उसके आवास में और एक साधारण कक्ष में न रह एक बिजनेस-सेण्टर की बिल्डिंग में शिफ्ट हो गया था...वहां बडे ही आधुनिक ढंग से उसका ज्योतिष और तन्त्र कार्यालय चल रहा था...उसके ज्योतिषीय ज्ञान और तान्त्रिक शक्तियों का प्रभाव बहुत न्यून(कम) हो चला था, पर उसकी प्रसिद्धि न केवल अब भी बनी हुई थी अपितु और भी बढती चली जा रही थी...उसे सहस्रों (हजारों) रुपये प्रतिदिन की आय हो रही थी... सुरेन्द्राचार्य का सपना एक करोडों रुपये की बिल्डिंग क्रय करने (खरीदने) का था...ग्रहपीडा हरने और मन्त्रानुष्ठान कराने के नाम पर उसे विशेष धनप्राप्ति हो रही थी....फल कुछ मिले या न मिले, लोग इसकी चिन्ता नहीं करते थे....एक भी फल घट गया तो उसकी प्रशंसा बहुत ही प्रसरती थी...तब भी वह कृपण(कंजूस) ऐसा था कि सौ या पचास रुपये भी न्यून लेने की बात उसे बहुत भारी बात जान पडती थी...एक व्यक्‍ति बडी आशा से उससे ज्योतिष आदि सीखने का अनुरोध कर रहा था...वह स्वयम्‌ ज्योतिष आदि की पुस्तकें पढ उससे ज्ञानवर्धन की आशा रखता था....सुरेन्द्राचार्य ने उसे कहा वह औफिस में ही असिष्टेण्ट या शिष्य जैसा रहे, और जहां ग्राहकों को डील करे वहीं समय मिलने पर मुझसे सीखता भी रहे...वह शिष्य के रूप में औफिस में नियमित रूप से आने व बैठने लगा...

 प्रदेश के एक मन्त्री की पत्नी सीता देवी को सुरेन्द्राचार्य के सम्बन्ध में कई बार प्रशंसायें सुनने को मिलीं, तो उसने सुरेन्द्राचार्य से मिलने का विचार किया...उसे कई वर्षों से सन्तान नहीं हो रहा था, और एक होने को हुआ तो मर गया...सीता देवी ने सुरेन्द्राचार्य को अपनी जन्मकुण्डली दिखायी....सुरेन्द्राचार्य ने उससे ग्रहशान्ति और मन्त्रानुष्ठान आदि के नाम पर सहस्रों रुपये लिये....और समस्या समाधान का कार्य आरम्भ किया....वह रुपये पर रुपये मांगता गया जो लाख की सीमा पार कर गये पर समस्या वहीं की वहीं बनी रही...कुछ मास बीतने जाने पर भी जब सीता देवी को बात कुछ भी बनती नहीं दिखी, तो उसका मन निराश होने लगा...निराशा संग-संग क्रोध लाने लगी....उसने पति के असिष्टेण्ट श्याम को बुलाया और उसे यह बात बतायी...श्याम-"ये ज्योतिषी आदि भी क्या सन्तान उत्पन्न करवा सकते हैं जब डौक्टर्स ने कह दिया कि सन्तान कभी नही हो सकती....?" सीता देवी - "तो अब क्या किया जाये....?" श्याम -"रुपये डूब गये और क्या..." सीता देवी- " डूब कैसे गये..? उसको लौटाने होंगे....कोई सौ पचास रुपये नहीं हैं कि छोड दिया जाये...! मैं अभी फोन करती हूं...." वह क्रुद्‍ध वहां फोन करती है....शिष्य बताता  है कि अभी एक घण्टे पश्चात्‌ ज्योतिषी जी आयेंगे...सीता देवी और श्याम सुरेन्द्राचार्य से मिलने तब सीधे उसके कार्यालय पहुंचते हैं...पांच मिनट ही अभी प्रतीक्षा की थी कि सुरेन्द्राचार्य आ पहुंचा....

"प्रणाम...." सीता देवी ने हाथ जोडे...."प्रणाम ज्योतिषी जी..." श्याम ने भी हाथ जोडे...

"प्रणाम प्रणाम....धन्य भाग्य हमारे जो मन्त्रिणी जी हमारे यहां पधारीं...."

"अरे ज्योतिषी जी...थोडा दम धरिये...अभी मैं मन्त्रिणी नहीं बनी हूं, केवल मन्त्रीपत्नी हूं...."

"हां हां हां...पर वो भी आप बन जा सकती हैं....मैंने आपकी कुण्डली देखी ही है...आपका भाग्य अच्छा है..."

"हां क्यों नहीं...जब आपके आशीर्वाद से मां बन गयी तो अब मन्त्रिणी भी बन ही जाउंगी..."

"हां.....! आइये आइये....अन्दर बैठिये...."

सीता देवी ने श्याम को संकेत किया अन्दर बैठते ही....

"देखिये ज्योतिषी जी....मैडम का कहना है कि आप इनकी सन्तान की कामना अपने तन्त्र-मन्त्र से पूरी कर नहीं पाये...और जो यह आश्वासन दिया है वह न जाने कितने वर्षों में भी पूरा हो पाये या न हो पाये...अतः लम्बे विचार-विमर्श के पश्चात्‌ यह निर्णय लिया गया कि जो लाखों रुपये आपको दिये गये हैं वो आप विना विलम्ब किये अभी लौटा दें...."

"लाखों रुपये....? मात्र एक लाख और कोई बीस सहस्र रुपये.....और सुनिये....काम बहुत किया जा चुका है, और अभी भी चल रहा है...यह धर्म का नियम है कि कर्म किये जाओ और फल की चिन्ता न करो....यदि इस जन्म में न भी फल मिला तो अगले जन्म में किये कर्म का फल अवश्य मिल जाता है...."

"बहुत अच्छा पण्डी जी...तो आप यह कहना चाहते हैं कि ये जो एक लाख बीस हजार रुपये आपको मैंने दिये वो आपको अगले जन्म में सन्तान पाने के लिये दिये हैं...?"

"वो....भला ज्योतिषी तान्त्रिक को दिये रुपये भी भला किसी को वापस मिले हैं कभी....!"

"नहीं मिले हों कभी....पर आप लौटायेंगे मुझे अभी..." वह गुर्रायी....

"शान्त शान्त देवी जी....यह धर्म का स्थान है....यहां क्रोध शोभा नहीं देता है....(शिष्य को संकेत करता है....-) देवी जी को कुछ शीतल पेय पिलाओ....मैं जरा एक विशेष कार्यवश बाहर निकल रहा हूं...." ऐसा कहता वह आगे बढा और धीरे-धीरे द्‍वार से बाहर निकल गया....

"श्याम...ये तो आराम से ऐसे चला गया जैसे इन रुपयों पर उसका वैध अधिकार बनता हो....क्या किया जाये अब...?"

"क्या किया जायेगा मैडम....इन लोगों का तो बस ऐसे ही चलता रहा है...सदा की ही बात है, आज कोई नयी बात नहीं है...."

"पर मैं नहीं छोडूगी...लेकर रहूंगी अपने रुपये...देखो यहां कितने का सारा सामान है...सब मंगवा लो...."

"अरे आप भी क्या बात सोच रही हैं मैडम...छोडिये जाने दीजिये...क्या कमी है आपके पास...मन्त्री जी यदि चाहें तो कई लाख रुपये देखते-देखते आपके हाथों में आ जायें...."

"ऐसी कौन-सी बात है...जरा पूछुं तो...." पति से बात करती है....

"ये ज्योतिषी-तान्त्रिकों की बात कुछ ऐसी है कि कुछ करते बनता नहीं... कोई और होता तो अभी तक में मैं अन्दर करवा देता...श्याम क्या कहता है...?" वह उसे मोबाइल देती है...

"सर...अभी आप मैडम को वापस बुला लें....बहुत क्रोध में हैं..."

"ऐसा है, तुम अभी आ जाओ...मैं मुख्यमन्त्री से ऐसे ठगों के विरुद्‍ध विधान (कानून) बनाने की बात करता हूं..."

सीता देवी लौट जाती है, पर आवास पहुंच भी शान्त न बैठी, और सुरेन्द्राचार्य को चेतावनी दे बैठी कि या तो रुपये लौटाओ अथवा तुमसे बलपूर्वक वसूल लिया जायेगा... उसने कुछ कर्मचारियों को भेज दिया कि चाहे जैसे हो सके उससे रुपये वसूल कर लाओ....वे कर्मचारी जा सुरेन्द्राचार्य से अभद्र भाषा में रुपये वापस मांगने लगे....पर तुरत ही  श्याम को इस बात की जानकारी हुई और उसने उन कर्मचारियों को वापस बुलवा लिया...यह जान सीता देवी क्रुद्‍ध हुई -"तुमने कैसे इन्हें वापस बुला लिया जब मैंने भेजा था...?"

"मैडम आप इसकी चिन्ता न करें...सप्ताह भर के अन्दर सर को कई लाख रुपयों का लाभ होनेवाला है...मैंने प्लान सर को समझा दिया है..."  और प्लान के अनुसार जब मन्त्री मुख्यमन्त्री से बात करता है तो मुख्यमन्त्री इस सम्बन्ध में रुचि नहीं लेता है यह कहते हुए कि समाज समर्थन नहीं करता है इन लोगों के विरुद्‍ध कार्यवाही के लिये..."

"पर हमारे जो इतने रुपये डूबे...?"
"वो मैं कम्पेन्सेट कर देता हूं....पिछले बार जब आप कुछ लोगों के काम के सम्बन्ध में जो कुछ डौक्यूमेण्ट्स लाये थे, वो लेते आइये..."

इस प्रकार मन्त्री कई लाख रुपयों का काम करवा सन्तुष्ट हो गया....

 

इन बातों से सुरेन्द्राचार्य भयभीत तो नहीं हुआ, पर अपमानित अनुभव करता हुआ श्मशान घाट की ओर चल पडा...और लौकिक सिद्धि पाने के उद्‍देश्य से एक बडे खण्डहर के एक भाग को अपने तन्त्र-मन्त्र साधना के अनुकूल बना वहां साधना आरम्भ कर दी...कर्णपिशाचिनी सिद्धि और सर्वमनःकामना सिद्धि के मन्त्रों का विधिपूर्वक जाप आरम्भ किया...कोई डेढ-दो मास पश्चात्‌ एक प्रेस-रिपोर्टर सिद्‍ध उस श्मशान से होकर गुजर रहा था...वह भूत-प्रेत, साधना-सिद्धि-चमत्कार इत्यादि पर अनुसन्धान कर रहा था अपने प्रेस-रिपोर्टिंग के कर्म के संग-संग...उसने ध्यानमग्न सुरेन्द्राचार्य को देखा और उसके समक्ष कुछ दूर अपना वीडियो-रिकार्डर औन कर रख दिया...कुछ समय रिकार्डिंग कर पुनः उसने उसके आसपास की रिकार्डिंग की और वहां से चला गया...जब प्रेस में वह इस वीडियो रिकार्डिंग को कम्प्यूटर पर देख रहा था तो उसे लगा सुरेन्द्राचार्य किसी से बातें कर रहा था मानो सुरेन्द्राचार्य के सर के आसपास कोई आत्मा या भूत हो, क्योंकि कोई स्वर नहीं सुनायी दे रहा था...ध्यान से देखने पर आत्मा जैसा कुछ अस्पष्ट श्वेत आकृति दिखने भी लगी...उसने पुनः उस दृश्य को प्ले किया....सभी ध्यान से सुरेन्द्राचार्य को और उसके सर का निरीक्षण कर रहे थे कि सुरेन्द्राचार्य के मस्तिष्क में वह प्रेस का दृश्य उभरा, और वह जान गया कि लोग उसकी वीडियो रिकार्डिंग देख रहे हैं और क्या विचार मन्थन कर रहे हैं....तुरत उसका मस्तिष्क उस कम्प्यूटर के स्क्रीन पर हल्की मुखाकृति के संग उभरा और देखते ही देखते सारा स्क्रीन काला हो गया...सिद्‍ध आदि ने तुरत कम्प्यूटर चेक किया तो पाया वह शट-डाउन हो गया था, अतः वह पुनः श्टार्ट तो हो गया पर वह वीडियो-फाइल करप्ट हो गयी थी, अर्थात्‌ देखने के अयोग्य हो गयी थी...सभी ने निराशा अनुभूत की, पर तुरत सिद्‍ध ने वीडियोरिकार्डर में औरिजनल फाइल प्ले किया तो वह भलीभांति चल रही थी...सबने आराम की सांस ली....पुनः उसकी कुछ कापियां बना एक कौपी  कम्प्यूटर पर चलायी गयी जिसके निरीक्षण करते समय एक सहकर्मी ने सहसा कहा-"मैं इसे जानता हूं, यह सुरेन्द्राचार्य है - एक प्रसिद्‍ध  ज्योतिषी और तान्त्रिक..." वहां लोगों को विश्वास हुआ कि अवश्य सुरेन्द्राचार्य के अधिकार में कुछ भूत होंगे जिनसे वह कोई भी काम करवा ले सकता है...सहकर्मियों ने अपने अलग-अलग विचार व्यक्‍त किये....

"जैसे कोई बोतल वाला जिन्न या अलादीन के चिराग वाला जिन्न....हा हा हा...."

"पर सुरेन्द्राचार्य को तो अबतक करोडपति क्या अरबपति तक बन जाना चाहिये था...."

"हो सकता है ये भूत अभी-अभी उसके वश में आये हों..."

"यह भी तो हो सकता है कि ये भूत उतने पावरफुल न हों...

यह सम्भवतः सुरेन्द्राचार्य का प्रथम मानसिक-शक्‍ति-प्रयोग था...सुरेन्द्राचार्य की मानसिक शक्‍ति अबतक बहुत विकसित और प्रबल हो चुकी थी...

 

सिद्‍ध ने तुरत सुरेन्द्राचार्य को जाननेवाले उस सहकर्मी से सुरेन्द्राचार्य के आवास का फोन नम्बर ज्ञात किया और डायल किया...फोन सुरेन्द्राचार्य की पुत्री वर्तिका ने रिसीव किया...-"आप कल आ उनका इण्टरव्यू ले सकते हैं, अपराह्‌ण दो से चार के मध्य...." सिद्‍ध अगले दिन समय से अपने बाइक से सुरेन्द्राचार्य के आवास की ओर चल पडा...जिस रोड पर सुरेन्द्राचार्य का आवास था उस ओर मुडते ही एक कार से उसकी टक्कर होते-होते रह गयी....कार रुकी, ड्राइवर ने सर बाहर निकाला....-"कहां जा रहे....?" सिद्‍ध ने उससे सुरेन्द्राचार्य के आवास के सम्बन्ध में पूछा....ड्राइवर- "हूं....सीधे जाते हुए यहां से ठीक पन्द्रहवां आवास है उनका...पर एक बात और भी बता दूं...जिस काम के लिये तुम वहां जा रहे वह काम तुम्हारा वहां बनेगा नहीं..." बडी-बडी आंखें उसने फाडी और कार आगे बढा दी...

सिद्‍ध ने बाइक आगे बढायी....ठीक पन्द्रहवां आवास सुरेन्द्राचार्य का था...उसने कौलबेल बजाया....द्वार सुरेन्द्राचार्य की पुत्री वर्तिका ने खोला...

"हां, कल मैंने जो समय बताया था वह उनके सामान्य दिनों में आवास में अपराह्‌ण समय रहने का है...पर अभी उनकी साधना चल रही है, जिस कारण वह कभी भी यहां से चले जाते हैं...वो अभी कोई दो मिनट पूर्व ही निकले हैं... वैसे, आप आइये...बैठिये...हमारे यहां आपका ’समाचारपत्र’ आता है....मैं आपके लेखों और समाचारों से बहुत प्रभावित हूं..."

"हूं....तो उनसे अब कब मिलना सम्भव हो पायेगा....?"

"अभी कुछ भी कहना सम्भव नहीं है...जबतक उनकी साधना चल रही है....और कबतक चलती रहेगी यह वह स्वयम्‌ भी निश्चित नहीं कर पाये हैं..."

वर्तिका उसे सम्मान से हौल में बैठा कौफी पिलाती है...वह उसके जर्नलिज्म के संग-संग उसके व्यक्तित्व से भी बहुत प्रभावित हुई, अतः उसने बडे उत्साह से उससे बातें करने में रुचि ली...जाते समय दोनों ने एक-दूसरे के मोबाइल नम्बर्स लिये जिससे कि सुरेन्द्राचार्य के संग इण्टरव्यू के सम्बन्ध में बात की जा सके....

कई दिन बीत गये....एक दिन सिद्‍ध ने वर्तिका को फोन किया कि यदि अब सुरेन्द्राचार्य के संग इण्टरव्यू सम्भव हो सके...

"अभी भी पापा की साधना चल रही है....और....समाप्ति की कोई जानकारी अभी भी नहीं है...."

"हूं...पर यह इतना शोर क्यों हो रहा है...कहां हैं आप अभी....?"

"अभी मैं यूनिवर्सिटी में हूं....यहां अभी यूनिवर्सिटी के स्थापना दिवस का कार्यक्रम चल रहा है..."

"अच्छा....प्रेस से रिपोर्टर्स भी वहां आये हुए होंगे...?"

"उसकी मुझे जानकारी नहीं...पर, यदि आप आना चाहें तो आ सकते हैं...."

"श्योर...कहां मिलेंगी आप मुझे...?"

"अभी मैं सेमिनार हौल में हूं, कोई एक घण्टे तक...आकर मुझे डायल कर लें..."

"मैं अभी बस आधे घण्टे में पहुंच रहा हूं...."

सिद्‍ध वहां पहुंच वर्तिका से मिलता है...सभी कार्यक्रमों की जानकारी लेता है....कुछ फोटोग्राफ्स और सूचनायें एकत्र करता है....वर्तिका उसे यूनिवर्सिटी के कुछ आकर्षक स्थानों का परिचय कराती है....दोनों कोई घण्टे-दो घण्टे इधर-उधर यूनिवर्सिटी में भ्रमण करते हैं....

"ये मैंने आपको यूनिवर्सिटी के प्रायः सभी मुख्य स्थानों  परिचय करा  दिया है...अब आप यह सब कब प्रकाशित कर रहे हैं...?"

"मैं अभी जा रहा हूं प्रेस....उसके पश्चात्‌ तैयार करूंगा एक विस्तृत रिपोर्ट....और आप....? आप अभी क्या आवास जायेंगी...”

"हां....पर अभी नहीं...कोई एक घण्टे पश्चात्‌....यूनिवर्सिटी बस आयेगी, तब..."

"तबतक...?"
"तबतक टाइम पास करना होगा...कार्यक्रम चल ही रहे हैं..."

"यदि ऐसा है तो आपको मैं अपने प्रेस से परिचय करवा सकता हूं...यदि आप चलना पसंद करें तो...बहुत आनन्द आयेगा सबकुछ देख-समझकर..."

वर्तिका सिद्‍ध के व्यक्‍तित्व से तो प्रभावित थी ही, संग ही उसका मन प्रेस की जानकारी लेने को भी आकर्षित हो रहा था, अतः वह सिद्‍ध के संग प्रेस चलना स्वीकार कर लेती है...वहां सिद्‍ध वर्तिका को प्रेस का मुद्रणालय और औफिस दोनों ही दिखलाता है, संग ही सभी महत्त्वपूर्ण जानकारियां उसे देता है...अपने सहकर्मियों से मिलाता व अपने जौब की कार्यशैली भी बताता है...वर्तिका को सिद्‍ध का व्यक्‍तित्व तो आकर्षक लगा ही था, संग ही उसकी महत्त्वपूर्ण स्थिति भी उसे बहुत मन भायी...सिद्‍ध उसे सारा प्रेस घुमाते हुए दिखला रहा है और  वर्तिका कल्पना में ही गीत गा रही है- ’साथी...मिले तो मिले....ऐसा....जीवनसाथी....जीवनसाथी....’

"अब मुझे चलना चाहिये....बहुत समय हो गया मेरे बाहर रहते..."

"पुनः कब मिलेंगी....?"

"वो मैं स्वयम्‌ फोन कर बताउंगी...और, आप मुझसे नहीं पूछेंगे, मैं ही आपको बताउंगी..."

तत्पश्चात्‌ वर्तिका सिद्‍ध को बाय-बाय कर एक टैक्सी ले अपने आवास लौट जाती है....

देखते ही देखते एक मास बीत गया, पर वर्तिका का कोई कौल नहीं मिला सिद्‍ध को...हारकर सिद्‍ध ने वर्तिका को कौल किया -"एक मास बीत चुका पर आपके कौल का कहीं कोई चिह्‌न भी नहीं...?"

"वो तो है....तब भी, मैंने आपको कहा था कि मैं ही आपको कौल करुंगी, आप नहीं..."

"हां, तो मैंने पर्सनली कहां आपको फोन किया है...एक जर्नलिष्ट के रूप में ही आपको फोन किया है कि यदि मि. सुरेन्द्राचार्य के संग इण्टरव्यू निश्चित की जा सके....?"

"वो अभी भी तन्त्रसाधना में व्यस्त हैं..." वर्तिका ने इतने साधारण स्वर में कहा कि सिद्‍ध ने और कुछ बोलना पसंद नहीं किया और फोन रख दिया...सहसा सिद्‍ध का मन वर्तिका से कुछ पूछने को हुआ और उसने वर्तिका को डायल किया, पर घण्टी बजते में उसने बात करने का विचार छोड दिया और कौल डिस्कनेक्ट कर दिया...वर्तिका उसका कौल डिस्कनेक्ट हो गया देख उसे कौल करती है...

"अन्ततः आपने मुझे कौल कर ही दिया...इतने विलम्ब से किया, पर किया तो..."

"पर मैंने तो आपका मिस्ड कौल देख आपको कौल किया है...."

"चाहे जिस भी कारण से किया हो, पर किया तो....नाउ नो लौंगर देयर एग्जिष्ट्स एनी कण्डीशन...."

"इट्स ओके...मान लिया...पर...मैंने मित्रता बढाने में इतना विलम्ब इसलिये किया क्योंकि मेरा मानना है कि जो काम स्वाभाविक गति और रूप से होता है उससे जीवन को लाभ मिलता है, विकास होता है..."

"आप कब मिल रही हैं मुझसे...?"

"यदि आप यहां आयें, तो दोनों मिल विचार करते हैं..."

"ओके...मैं अभी पहुंच रहा हूं...." सिद्‍ध बाइक से वर्तिका के आवास पहुंचता है....

"पापा अभी भी अपनी तान्त्रिक साधनाओं में वैसे ही व्यस्त हैं....सो आज भी आप उनका इण्टरव्यू तो नहीं ले सकते...पर मैं ऐवेलेवल हूं....यदि आप मेरा इण्टरव्यू लेना चाहें तो....."

"श्योर...आप ये बतायें कि आपने मुझमें जो अरुचि दिखायी उसका क्या कारण हो सकता है...?"

"ऐक्चुअलि, बात ऐसी है कि, मैं आपके न्यूज और इनवेष्टीगेशन्स बडी रुचि से पढती हूं...बहुत ही डिफरेण्ट लाइफ-ष्टाइल पाया मैंने आपका...पर, अब...अभी आपसे बातें करती हुई मैं स्वयम्‌ को हल्का अनुभव कर रही हूं....(कुछ रुककर) अच्छा, आज भी क्या कुछ ज्ञानवर्धन का प्रोग्राम बनेगा...आइ मीन, कहीं घूमने-दिखाने का...?"

"आज मैं एक अन्य, और भी बडा प्रेस दिखला-घुमा सकता हूं...."

"ऐज यू डिसाइड...."

वर्तिका सिद्‍ध के बाइक पर बैठी है....सिद्‍ध की बाइक एक मल्टीप्लेक्स के आगे से गुजरती है....

"क्यों न एक फिल्म देखी जाये....?" वर्तिका बोली... दोनों फिल्म देखते हैं....तत्पश्चात्‌..."अब आगे...वहां कितना समय लगेगा....?"

"वहां भी कोई तीन घण्टे लग जायेंगे...."

"पर इतना समय कहां बचा है आज....हां...आधा-एक घण्टा कहीं और बीताया जा सकता है..."

"कहां...?"

"जैसे किसी रेष्टोरेण्ट में, या किसी पार्क में..."

दोनों निकट ही स्थित एक रेष्टोरेण्ट में जाते हैं....दोनों वहां कुछ खा रहे हैं और कौफी पी रहे हैं....कुछ छलक जाता है वर्तिका के हाथ पर...सिद्‍ध बडे प्यार से उसके हाथ पर से कौफी हटाता हुआ सहलाता है...दोनों में निकटता बढती जाती है....कभी उद्यानों में संग घूम रहे हैं तो कभी लोकल ट्रेन में, बस में संग भ्रमण कर रहे हैं...ये कितने प्यार से हंस-हंसकर बातें कर रहे हैं...और ये लो गले भी लग गये....दोनों को प्रेम हो गया एक-दूजे के संग...प्रेमगीत गा रहे हैं...

 

सुरेन्द्राचार्य ने पर्याप्‍त तान्त्रिक साधनायें कीं...उसकी मानसिक शक्‍ति बहुत प्रबल हो चुकी थी....उसने कई आत्माओं से बातें कीं...एक आत्मा को तो उसने अपना दास बना लिया था...पर वह आत्मा सुरेन्द्राचार्य को उतना ही लाभ पहुंचा सकता था जितनी उसकी शक्‍ति थी...वह आत्मा तुरत ही किसी भी व्यक्‍ति के मन-आत्मा से सम्पर्क कर उसके भूतकाल और वर्तमान के सम्बन्ध में सारी बातें जान लेता था....पर किसी के भविष्य की बातें जान लेना उसके लिये प्रायः असम्भव ही था...पर अब सुरेन्द्राचार्य भी मानसिक रूप से इतना अधिक बली हो गया था कि वह किसी भी व्यक्‍ति के मन-आत्मा से सम्पर्क कर न केवल उसके मन की सारी बातें जान ले अपितु उसके मन को प्रभावित कर उससे कुछ भी बोलवा ले या उसका कुछ भी अच्छा-बुरा करने का मन बना उससे कुछ भी करवा ले...ऐसा अनुभव करने के पश्चात्‌ उसका मन उस मन्त्रीपत्नी सीता देवी पर गया जिससे अपमानित हो ही वह इतने अधिक लगन से वह इन तन्त्र-मन्त्र की क्रियाओं में संलग्न हुआ था...सर्वप्रथम तो वह उसे धन्यवाद देना चाहा, पर दूसरे क्षण वह उसकी धमकी आदि की घटनाओं का स्मरण करते हुए उसका मन क्रुद्‍ध हुआ...पर सावधानी से उसने सीता देवी को मन से देखा....वह किचेन में कोई डिश बना रही थी...उसके हाथ में चाकु था...चाकु उसकी अंगुली पर रगड खा गया सुरेन्द्राचार्य के मानसिक प्रभाव से...वह चिल्लायी, रक्त निकलने लगा था...यद्‍यपि सुरेन्द्राचार्य समर्थ था सीता देवी को बहुत ही संकट में डाल देने में, पर मन्त्री से भय खाते हुए उसने और अधिक कुछ नहीं किया  कि यदि मन्त्री जान गया उसके इस मानसिक प्रभाव को तो वह उसे मरवा भी दे सकता है...

अब सुरेन्द्राचार्य औफिस में पूर्ववत्‌ (like before) बैठने लगा....एक व्यक्‍ति उसके पास जन्मकुण्डली बनवाने आया...साधारण जन्मकुण्डली  साधारण फलविवरण के संग बनवाने की फीस मात्र ५०१ रुपये....उसने रुपये दिये...

"वैसे तो मैं ५००१ से न्यून में कोई जन्मकुण्डली आदि कुछ भी बनाने का इच्छुक नहीं हूं...पर उतने रुपये देनेवाले भी तो हों...विदेश चला जाउं तो यह हो सकता है...पर धनव्यय भी तो बढ जायेगा...कोई बात नहीं..." वह व्यक्‍ति समक्ष (सामने) बैठा था....सुरेन्द्राचार्य ने उसका मन टटोलना आरम्भ किया...सुरेन्द्राचार्य ने उससे कोई प्रश्न नहीं पूछा, पर जो १५-२० मिनट्‍ पर्यन्त उस व्यक्ति के मन में प्रश्न स्वयम्‌ ही उठने लगे और वह उनके उत्तर सोचते रहा....इस प्रकार वह प्रायः सभी प्रमुख बातों पर विचार करते रहा, जैसे- उस व्यक्‍ति का लक्ष्य क्या है, उसका स्वभाव कैसा है...उसका सेक्सुअल रिलेशन कैसा है...वह क्या जौब करता है....और ऐसे ही प्रश्न उसके परिवार के लोगों के सम्बन्ध में भी...इन बातों पर उसका मन घूमता रहा...जब वह बाहर निकला तो ऐसा लगा जैसे किसी ने उसका माइण्ड मसाज कर दिया हो...जब उसे वह जन्मकुण्डली मिली तो उसके फलविवरणों को पढ उसके परिवार आदि के लोग बहुत प्रसन्न हुए...सुरेन्द्राचार्य का नाम और भी प्रसरा (फैला)...यद्‍यपि सुरेन्द्राचार्य कुछ वर्ष पूर्व पर्यन्त सन्तोषजनक भविष्यवाणी करने में समर्थ था, पर तत्पश्चात्‌ सांसारिकता में अ‍त्यधिक फंस उसकी वह भविष्य जान पाने की शक्‍ति बहुत न्यून हो गयी थी...अब भी उसकी वैसी ही स्थिति थी पर अन्तर इस बात का था कि अब वह तान्त्रिक व मानसिक शक्तियों को कुछ सीमा में पा गया था...ऐसे ही उसने जब कुछ और लोगों के संग किया तो लोगों को सन्देह होने लगा कि सुरेन्द्राचार्य ऐसे उनके मन की बातें जान ले रहा है...इसके पूर्व कि उसकी कुख्याति हो वह सावधान हो गया और यह काम वह अपने दास आत्मा से करवाने लगा...दास आत्मा कब किसके मन से कैसे क्या-क्या जानकारी ले ले इसका किसीको आभास भी नहीं हो पाता था...यह आत्मा की मायाविनी शक्‍ति थी...इस प्रकार सुरेन्द्राचार्य ने बहुत धन अर्जित किया...उसका सपना था एक करोडों रुपये का आवास ले उसमें अपना भव्य निवास और व्यवसाय दोनों चलाये...इसके लिये उसे अभी भी बहुत धन अर्जित करना था...वह इतना अधिक कृपण (कंजूस) स्वभाव का व्यक्‍ति था कि किसी से सौ या पचास रुपये भी कम फीस लेना उसे अच्छा नहीं लगता था...मन्त्रसिद्धि से प्राप्त दास आत्मा का उसने इतना मनमाना उपयोग किया कि एक दिन उसे वह दास कहीं भी अनुभव में नहीं आ रहा था...वह उसे कहीं भी नहीं पा पा रहा था....तन्त्र-मन्त्रसाधना से प्राप्त दास आत्मा पर्याप्त फल दे सदा के लिये चला गया था...मन्त्रसिद्धियों से प्राप्त फल भी एक निश्चित समय पर्यन्त ही मिलता रहता है, तत्पश्चात्‌ पुण्य या फलप्राप्ति की क्षमता का अन्त हो जाता है...तब, साहस न खो सुरेन्द्राचार्य स्वयम्‌ ही मन एकाग्र कर शरीर से बाहर आत्मा के रूप में निकलता है और जिस भी व्यक्‍ति को पहुंचना चाहे वहां पहुंच जाता है और सभी अभीष्ट जानकारी प्राप्त कर लेता है....पुनः निज शरीर में प्रत्यागत हो (वापस लौट) जाता है...इस प्रकार उसका काम पूर्ववत्‌ बनने लगा...परन्तु वह स्वामी के स्वभाव का व्यक्‍ति था, जबकि यह काम सेवक का था, अतः उसे यह रुचा नहीं....एक दिन वह आत्मा के रूप में बाहर भ्रमण कर रहा था तो उसने देखा कि एक व्यक्ति भोलानाथ जौब न मिलने से दुःखी हो कह रहा था- ’हे भगवान्‌, मौत आ जाये तो सभी समस्यायों से छुटकारा मिल जाये...’ सुरेन्द्राचार्य ने उससे सहानुभूति दिखायी....वह उससे कहता है- "क्यों मरना चाहते हो..."

"यह जीवन एक समस्या बन गया है....इससे छुटकारा पाने के लिये...."

"मरकर जब तुम आत्मा के रूप में भटकोगे, समस्या तब उत्पन्न हो जायेगी..."

"प्रतिदिन की रोटी-रुपयों की आवश्यकता तो नहीं रह जायेगी..."

"तो चलो मेरे संग...मैं तुम्हारी यह समस्या दूर कर देता हूं..." सुरेन्द्राचार्य भोलानाथ को मार्ग दिखाता हुआ अपने आवास ले आता है...वह उसे प्रशिक्षित कर आत्मा के रूप में अन्यों की जानकारी लेने भेजने लगता है...भोलानाथ उस दास आत्मा जैसा ही सुरेन्द्राचार्य की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में समर्थ सिद्ध होता है...भोलानाथ उस शिष्य के संग ही औफिस में रहने लगा...अब पुनः सुरेन्द्राचार्य आराम से दोनों हाथों से रुपये बटोरने में लग गया...पर कितना भी रुपया अर्जित करे (कमाये) उसकी प्यास बुझती नहीं थी, क्योंकि उसे करोडों रुपये एकत्र (इकट्‍ठा) करने थे...वह सौ - दो सौ रुपये भी आता देख बहुत उत्साहित हो जाता था...

 

दैव पथ पर चलता जा रहा है...वह मोटे शरीर का एक हसमुख व्यक्ति है जिसका व्यक्तित्व हिन्दी फिल्मों के देवेन वर्मा से बहुत मिलता-जुलता है... एक स्थान पर एक बोर्ड पर उसकी दृष्टि पडती है -’ज्योतिषाचार्य तन्त्र मन्त्र सम्राट्‍ श्री श्री सुरेन्द्राचार्य स्वामी.... जिनकी सैंकडों ही नहीं सहस्रों भविष्यवाणियां अभी तक सच्ची निकल चुकी हैं...तन्त्र और मन्त्र के अनुष्ठान से स्वामी जी सभी की मनःकामनायें पूरी करते हैं...पता-.......’

"अरे वाह!....मुझे एक ब्रैण्ड न्यू कार चाहिये....क्या तन्त्र मन्त्र  के अनुष्ठान से मेरी यह कामना पूरी हो जायेगी...!"

वह सुरेन्द्राचार्य के औफिस का पता पूछते वहां पहुंच जाता है और उन शिष्यों से कहता है- "मुझे चाहिये बहुत ही आकर्षक आधुनिक आरामदायक कुछ...क्या मिल जा सकता है स्वामी जी के तन्त्र और मन्त्र के अनुष्ठान से...?"

"आइये आइये...अवश्य...यहां लोग रिक्त (खाली) हाथ आते हैं और झोली भर ही लौटते हैं...हमारे गुरुजी तन्त्र मन्त्र सम्राट्‍ हैं...अनगिनत लोगों ने यहां से सुख-समृद्धि पायी है...आपको श्रीमान्‌ क्या काम करवाना है...?"

"करवाना नहीं, कुछ पाना है...यदि यहां से मिल जाये तो..."

"क्या...?"

"वह मैं तन्त्र मन्त्र सम्राट्‌ ज्योतिषाचार्य जी से ही बताउंगा..."

"तो आप अपना प्रश्न इस कागज पर लिखकर दे दें...."

दैव कागज पर लिखता है -"मुझे चाहिये कुछ बहुत ही आकर्षक आधुनिक आरामदायक, पूर्णतया नवीन...." शिष्य प्रश्न को सुरेन्द्राचार्य पर्यन्त (तक) पहुंचाता है....पुनः शिष्य दैव से -"देखिये, जितना ही बडा काम होता है उतने ही अधिक रुपयों की फीस देनी पडती है हमारे गुरुजी को...तभी आपके मनोरथ पूरे होंगे..."

"रुपये...?तो रुपये देने पडेंगे...? कोई बात नहीं...पर मुझे चाहिये पूर्णतया ब्रैण्ड न्यू और आरामप्रद...कितने रुपये देने पडेंगे...?

"आप कितना देना चाहेंगे...?"

"देखो, तीस-चालीस हजार रुपये तो मैं सेकेण्ड हैण्ड के लिये देने को तैयार हूं....पर ब्रैण्ड न्यू भी मुझे इतने ही रुपयों में मिल जाये यह मेरा मनोरथ है..."

"तो आप अपना मनोरथ पूर्ण करने के लिये तीस-चालीस हजार रुपये देने को तैयार हैं..."

"हां..."

"ठीक है...आपका काम हो जायेगा...रुपये दे दें, या लेते आयें...."

दैव प्रसन्नमन से आवास जाता है और सबको बताता है कि मात्र तीस-चालीस हजार रुपयों में ही उसे एक ब्रैण्ड न्यू कार मिलने वाला है...सभी आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता व्यक्त करते हैं...दैव को वह शिष्य फोन करता है कि वह कल सायंकाल पांच बजे कुल चालीस सहस्र रुपये ले आ जाये, तब वह और गुरुजी दोनों श्मशान जायेंगे जहां गुरुजी का तन्त्र-मन्त्र-अनुष्ठान चला करता है.... दैव समय से रुपये ले वहां उपस्थित हो जाता है...सुरेन्द्राचार्य उसे अपने कार में बैठा श्मशान ले जाता है....दोनों श्मशान में उसी खण्डहर के उस भाग में बैठे हैं....सुरेन्द्राचार्य -"संकल्प लें...कामना बोलें...."

"मुझे चाहिये पूर्णतया ब्रैण्ड न्यू आकर्षक आधुनिक आरामदायक, वह मुझे यथाशीघ्र(as soon as possible), नहीं, अतिशीघ्र(very soon) मिल जाये..."

सुरेन्द्राचार्य मन्त्रजाप और हवन कर रहा है...कुछ रात हो गयी है....-"आपकी कामना  अवश्य पूर्ण होगी..."

"कब..?"

"यथाशीघ्र..."

"मुझे यहां और कितना समय रुकना पडेगा...?"

"अर्धरात्रि, अर्थात्‌ रात के १२ बजे पर्यन्त...वैसे आप चाहें तो अभी भी जा सकते हैं..."

"हां...पर यहां से आवास मैं जाउं कैसे...?"

"बाहर मेन रोड से यदि कोई औटो आदि कुछ मिल जाये....मैं भी आपको कार से आपके आवास छोड दे सकता हूं, पर उसके लिये आपको मेरे रुकने तक रुकना पडेगा..."

"नहीं, नहीं, मैं चलता हूं...प्रणाम..." दैव बाहर मैदान में निकला....श्मशान से मेन रोड पर्यन्त जानेवाली मिट्‍टी वाली कच्ची सडक पर उसने देखा कि एक मारुति वैन टेंढी अवस्था में खडी है...वह उसके किनारे से निकल आगे बढा, पर पुनः पीछे मुड देखा कि यह वैन इस अवस्था में बीच सडक पर क्यों लगी है...! वह वैन के ड्राइविंग सीट की ओर आ देखा तो पाया ड्राइवर श्टेयरिंग पर सर रखा जैसे सो रहा हो...यह यदि उसे कुछ भी दूर छोड दे, ऐसा सोच उसने उसे स्वर दिया, पर कोई उत्तर न मिला...तब दैव ने उसके कन्धे पर हाथ रखा, कोई प्रतिक्रिया नहीं, तब उसने उसके कन्धे को हिलाया, और उस व्यक्ति का शरीर सीट पर गिर पडा....दैव ने उसके सर को उठाया तो उसकी आंखें आधी खुलीं, पर वह कुछ बोल नहीं पाया...सामने उसे पानी भरा बौटल रखा दिखा...उसने उससे पानी के छींटे उसकी आंखों पर मारे...उसके मुंह में भी बोटल घुसा कुछ पानी पिलाने का प्रयास किया, तो उस व्यक्ति कमलेश ने नींद भरी आंखें खोलीं...कमलेश -"कृपया मुझे हौस्पीटल ले चलो...ये चाभी है...मुझे किसी ने विष मिला ड्रिंक पिला दिया है... दैव किसी प्रकार वैन चलाता एक हौस्पीटल पहुंचता है...वहां कमलेश को ऐड्मिट करवाता है...कमलेश का उपचार कर विष उसके शरीर से निकाल दिया जाता है और बेडरेष्ट करने को कहा जाता है...दैव भी रात वहीं बीताता है...प्रातःकाल कमलेश को उसके आवास पहुंचाता है...वहां कमलेश के पत्नी-बच्चे उसका बहुत आभार व्यक्त करते हैं...तत्पश्चात्‌ वह अपने आवास लौट आता है...

दिन में वह उत्साहपूर्वक औफिस पहुंचता है...शिष्य उसे देख मुस्कुराते हैं- "श्रीमान्‌, कैसा रहा रात का अनुभव...?"

"बहुत अच्छा रहा...ये तो बतायें, जो चाहिये वह मुझे कबतक मिल जायेगा...?"

"काम आपका हो जायेगा...जो आपको चाहिये वह आपको मिल जायेगा...मन्त्रानुष्ठान चालु है..."

"तब भी, कुछ अनुमान बतायें...कितना समय लग जायेगा...फल मिलने में...?"

"फल हो सकता है एक वर्ष में मिले...या दो वर्ष भी लग जा सकता है....सच पूछिये तो श्रीमान्‌ कुछ निश्चित समय नहीं बताया जा सकता है...यह कार्य ही धैर्य का है..."

पर दैव ने धैर्य खोते हुए पूछा -"मुझे तो तुरत चाहिये था...क्या मेरे रुपये मुझे वापस मिल जायेंगे...?"
"सारी प्रक्रिया चल रही है और रुपये वापसी की बात...! दुबारा मुंह से निकालना भी मत, नहीं तो न केवल तुम्हारी कामनासिद्धि के लिये किये जा रहे मन्त्रानुष्ठान रुक जायेंगे अपितु(moreover) तुम्हारे रुपये भी डूब जायेंगे...."

लुटा-सा दैव उस औफिस से बाहर निकला और मरे हुए मन जैसी स्थिति में सोचा अब कहां जाये और क्या करे...कुछ मिनटों पर्यन्त इधर-उधर भटकता उसे कमलेश का स्मरण आया...वह उसे देखने उसके आवास पहुंचा...वहां उसका स्वागत हुआ...कमलेश आराम से विस्तर पर लेटा आराम कर रहा था...उसे नींबु+चीनी+नमक+पानी का पेय पीने दिया गया था...वह दैव को देख बहुत प्रसन्न हुआ - "मैं आपका बडा उपकार मानता हूं जो आपने मेरे प्राण बचाये...नहीं तो यदि कुछ घण्टे और वहां यदि मैं उस स्थिति में रहता तो  निश्चय ही मेरी मृत्यु हो गयी रहती..."

कुछ मुस्कुराने का प्रयास करते दैव ने कहा-"हा हा हा...मैं कौन होता हूं आपको बचानेवाला...यह आपका भाग्य ही था जो आप बच गये...मैं तो उधर जाता भी नहीं...यह तो संयोग ही था कि मैं...."

कमलेश ने जिज्ञासापूर्वक पूछा -"हां हां...आप उधर कैसे गये थे...?

"अरे क्या बताउं...आपने इस ज्योतिषी और तान्त्रिक सुरेन्द्राचार्य का नाम तो सुना होगा...उसने मेरी कामना पूरी करने के नाम पर मुझसे चालीस हजार रुपये लिये, और अब कहता है कि मेरी कामना एक वर्ष में पूरी हो सकती है, दो वर्ष भी लग जा सकते हैं, कुछ भी निश्चित समय बताया नहीं जा सकता..."

"क्या कामना है आपकी...?"

"एक ब्रैण्ड न्यू कार..."

"हा हा हा...ऐसा कोई वस्तु क्रय करना हो तो शौप जायेंगे या मन्त्रानुष्ठान कर कामनासिद्धि करेंगे...! आजकल इंष्टौल्मेण्ट पर ब्रैण्ड न्यू कार सरलता से मिल जाया करती है...जैसे, नैनो सस्ती और अच्छी कार है...क्या जौब करते हैं आप...?"

"मेरी एक ष्टेशनरी और बुक्स की शौप है....हां...इतनी अच्छी आय तो हो जाया करती है कि मैं इंष्टाल्मेण्ट पर कार ले सकुं...पर उस समय मेरे मन में यह बात तो आयी नहीं..."

"कोई बात नहीं...मैं आपको दिलवा देता हूं..."

"पर मेरे चालीस हजार रुपये, डूब जो गये...?"

"डूब कैसे गये...?मैं बात करता हूं सुरेन्द्राचार्य से...रुपये तो उसे लौटाने ही होंगे...अरे, कार क्रय करना हो तो मार्केट चलो, रुपये दो और कार लो...यदि तन्त्र-मन्त्र के बल पर लेना हो तो विना रुपये लगाये लो...नाममात्र के रुपये लगाओ -सौ, दो-चार सौ रुपये...तब भी क्या कार क्या प्रकट होगी...? कल चलते हैं उससे मिलने..."

अगले दिन कमलेश दैव को उसके आवास से ले सुरेन्द्राचार्य के औफिस पहुंचा...वहां सुरेन्द्राचार्य के शिष्यों ने उन्हें सुरेन्द्राचार्य से मिलने में बाधा डाली....पर कमलेश चिल्लाने लगा...’कैसे रुपये नहीं लौटाओगे...तुम्हारी ठगी नहीं चलेगी...’ घबडाकर सुरेन्द्राचार्य निकला- "क्या बात हो गयी....आइये आइये, शान्ति से बैठ बात करें... हां, कहिये, क्या कहना चाहते हैं आप...?"

"यदि कार क्रय करना हो तो मार्केट गया और रुपये दे कार संग ले आया...कोई उसके लिये वर्ष-दो वर्ष प्रतीक्षा करेगा...? अतः विना विलम्ब किये सारे रुपये लौटा दें..."

"रुपये श्रीमान्‌ मन्त्रानुष्ठान में इन्वेष्ट कर दिये गये हैं...फलप्राप्ति में चाहे जितना भी समय लगे...धैर्य रखें..."

"आजतक नहीं सुना कि कार क्रय करने के स्थान पर मन्त्रानुष्ठान किये जाने से कार प्रकट होगी..."

"हमें यह नहीं बताया गया था कि कार का क्रय करना है, केवल कामनासिद्धि की बात कही गयी थी..."

"तब भी, हमें नयी कार या तो सप्ताह भर में दिला दो या वापस कर दो हमारे चालीस हजार रुपये..."

"ऐसे नहीं... रुपये वापस नहीं होते ...”

"सीधे से रुपये दे रहे या नहीं...? मेरे पास दूसरे उपाय भी हैं सच्चाइ के रुपये वापस लेने के..."

"क्या हैं...?"

"तुम्हें...अभी तुम्हारी गर्दन पकड मैं यहीं तुम्हारी धुलाई करने लग जाउंगा...उठुं क्या...?" कमलेश ने मुक्का मारा टेबल पर कि कुछ वस्तुयें उछलीं..."

उसके आक्रामक मुख को देखते हुए सुरेन्द्राचार्य ने चालीस हजार का लोभ छोड देने में ही अपनी भलाई समझी...- "ठीक है...आप चलें, निकट के एटीएम को...वहां मैं रुपये निकाल आपको देता हूं..."

तीनों एटीएम पहुंचे...दैव और कमलेश रुपये ले वैन की ओर बढे, और सुरेन्द्राचार्य औफिस की ओर...दैव की प्रसन्नता की सीमा नहीं थी...दोनों कुछ मिनट वैन में बैठे प्रसन्नतापूर्वक बातें करते रहे, तत्पश्चात्‌ कमलेश ने वैन चालु करना चाहा पर वैन ष्टार्ट हुआ नहीं...सुरेन्द्राचार्य क्रुद्ध मन से औफिस में बैठा था और मन से कमलेश और दैव को देख-सुन रहा था...उसने अपनी मानसिक शक्ति से वैन को चालु होने नहीं दिया...तब परेशान हो दोनों ने वैन को धक्का दे आगे बढाने का प्रयास किया...पर यह क्या...! वैन जैसे जाम पड गया हो, और हिला तक भी नहीं...तब कमलेश ने दैव को कहा वह वैन में बैठे तबतक वह किसी मेकैनिक को बुला लाता है... कमलेश एक मेकैनिक के समीप पहुंचता है...सुरेन्द्राचार्य ने अपनी मानसिक शक्ति से वैन को तो जाम कर ही रखा है, अब वह मेकैनिक के मन को भी कमलेश के विरुद्ध कर देता है...इससे मेकैनिक उसके संग चलना अस्वीकार कर देता है...अधिक रुपये देने का लोभ देनेपर भी जब मेकैनिक चलने को नहीं माना तो कमलेश को आश्चर्य हुआ और वहां से वह चलने को पीछे मुडा और आगे बढा...परन्तु सहसा वह एक समीप खडी बाइक से टकरा गया...बाइक पलट गयी...इसपर मेकैनिक ने क्रोध में कुछ कहा...कमलेश ने भी क्रोध में ही उसको उत्तर दिया...देखते ही देखते दोनों में बाताबाती बढने लगी...तब अन्य मेकैनिक आदि भी वहां आ कमलेश को धमकाते हैं कि चुपचाप चले जाओ नहीं तो मार खाओगे...अपमानित अनुभव करता कमलेश वहां से बाहर रोड पर आ सोचता है कि अब क्या करे....एक मेकैनिक उसका परिचित है, कमलेश उसे मोबाइल से फोन कर बुलाना चाहता है, पर सुरेन्द्राचार्य की दृष्टि उसके मोबाइल पर जाती है और मोबाइल से उसका उस मेकैनिक से सम्पर्क नहीं बन पाता है...कमलेश को लगता है कि उसका दिन आज अच्छा नहीं है....ऐसा विचार करते ही वह स्वयम्‌ को बहुत दुर्बल अनुभव करने लगता है...उसे लगता है जैसे उसपर दीनता (miserability) छा गयी है....सुरेन्द्राचार्य उसकी दीनता को अपने मन की आंखों से देख रहा है...यह देख कि उसका दुश्मन अब बहुत ही दुर्बल स्थिति में पहुंच गया है उसे अपनी मानसिक शक्ति से मारने लगता है...कमलेश को लगता है कि  कोई उसे घूंसे और कोडे से मार रहा है...उसे तीव्र पीडा हो रही है पर उससे बचने का कोई उपाय उसे नहीं सूझ पा रहा है...वह कुछ ही मिनटों में ’आह आह’ चिल्लाता पथ पर गिर पडता है और अचेत हो जाता है....कुछ मिनट और प्रतीक्षा कर जब दैव कमलेश को नहीं लौटता पाता है तो उसी दिशा में आगे बढता है जिस दिशा में कमलेश गया था...कुछ दूर जाने पर वह कमलेश को पथ पर अचेत गिरा पाता है...वह उसे उठा एक औटो में बिठा हौस्पीटल ले जाता है...वहां कमलेश को ऐड्मिट करा दैव एक मेकैनिक को संग लाता है वैन को रिपेयर करवाने...परन्तु मेकैनिक के श्टार्ट करते ही वैन चालु हो जाता है, क्योंकि तब सुरेन्द्राचार्य ने उसपर अपना मानसिक प्रभाव नहीं डाल रखा था...सुरेन्द्राचार्य ने कमलेश की मानसिक पिटायी कर सन्तुष्ट मन से अपने अन्य कार्यों में स्वयम्‌ को व्यस्त कर लिया था...दैव तत्पश्चात्‌ वैन से बैंक जा चालीस सहस्र रुपये जमा कर देता है, आवास जा आराम से खाता-पीता है, तत्पश्चात्‌ हौस्पीटल जाता है कमलेश को देखने...कमलेश को चेत (होश) आ गया था...डौक्टर्स ने इसे मेण्टल एण्ड हेल्थ वीकनेस बता हेल्थ टौनिक और पौष्टिक आहार आदि लेने का परामर्श दे कमलेश को छुट्‍टी दे दी...दैव कमलेश को ले उसके आवास चला जाता है...कुछ ही घण्टों में कमलेश खा-पी स्वस्थ अनुभव करने लगता है...वह निज संग घटी बात दैव एवम्‌ परिवार के लोगों को बताता है पर सभी इस पर ध्यान न दे इसे स्वास्थ्य की दुर्बलता ही मानते हैं..

 

सिद्‍ध और वर्तिका का प्रेम प्रसंग दिन प्रतिदिन और भी अधिक बली होता चला जा रहा है....दोनों प्रेमगीत गा रहे हैं...दृश्य विविध स्थानों के...एक उद्‍यान में वर्तिका सिद्‍ध के कन्धे पर सर रखी धीमे-धीमे बोल रही है....-"हमलोग विवाह कर लें तो कैसा रहेगा...?"

"और भी अच्छा होगा...."...

"जैसे...?"
"जैसे, हमारे पास होंगे पूरे २४ घण्टे होंगे आनन्द के संग बीताने को...."

"तो....?"

"तो क्या...?"

"तो क्या करें अब, इसके लिये...?"

"विवाह के लिये तो विवाह ही किया जा सकता है...चलो, बात करते हैं तुम्हारे पिता से..."

"चलो..."

इस समय सुरेन्द्राचार्य औफिस में था, अतः दोनों वहीं पहुंचते हैं....वर्तिका और सिद्‍ध सीधे जाकर सुरेन्द्राचार्य से मिलते हैं....सिद्‍ध सुरेन्द्राचार्य को प्रणाम करता है....वर्तिका सिद्‍ध का परिचय कराती है और कहती है कि दोनों विवाह करना चाहते हैं, और इसके लिये उनकी अनुमति चाहिये...

"मैं यह जानना चाहता हूं कि तुम दोनों में से कौन किसको अधिक चाहता है...?"

"हमदोनों एक-दूसरे को समान ही रूप से चाहते हैं...."

"ऐसा नहीं हो सकता है....एक में कुछ न्यूनता और दूसरे में कुछ प्रेम अवश्य होगा....किसमें है,,,?"

"पापा, आप भी कैसी बात कर रहे हैं...जितना सिद्‍ध मुझे चाहता है उतना ही मैं इसे चाहती हूं..."

"अच्छा...ये तो बताओ...तुम दोनों में से कौन दूसरे से मिलने को अधिक उत्सुक रहा करता था जिससे तुमदोनों का प्रेम आज इस स्थिति में आ पहुंचा है कि विवाह करने जा रहे हो....?"

"हूं..." दोनों चुप रह गये...तत्पश्चात्‌ चुप्पी तोडते हुए सिद्‍ध ने कहा - "यह मैं था जो आरम्भ में अधिक उत्सुक था वर्तिका संग मित्रता बढाने को..."

"अर्थात्‌ तुम चाहते हो वर्तिका से विवाह करना...और जिसे जो चाहिये होता है उसे उसके लिये मूल्य देना पडता है...बताओ, तुम कितने लाख रुपये देने को तैयार हो वर्तिका से विवाह करने के लिये...?"

"पापा, आप यह कैसी बात कर रहे हैं...रुपये यदि कोई देगा तो आप देंगे, न कि ये....!"

"देखो, संसार का यह साधारण सा नियम है कि जिसे किसी वस्तु की कामना होती है वह उसे उसका मूल्य चुका पाता है...अतः सिद्‍ध को भी मूल्य देना होगा यदि तुम्हें यह अपने संग सदा के लिये ले जाना चाहता है...कितने लाख रुपये देने में यह समर्थ हो सकता है यह यह स्वयम्‌ ही बताये...तबतक तुम इससे नहीं मिलोगी...अब आप श्रीमान्‌ सिद्‍ध, जा सकते हैं..."

सिद्‍ध उठा, वर्तिका की आंखों में देखा, और चला गया...

 

कमलेश की मानसिक पिटायी की घटना के पश्चात्‌ सुरेन्द्राचार्य को मानसिक आक्रमण और पिटायी का जैसे स्वाद लग गया था....नगर में एक राष्ट्रीय स्तर का ’ज्योतिष और तन्त्र विज्ञान सम्मेलन’ आयोजित किया गया था जिसमें सुरेन्द्राचार्य सहित देश के कई ज्योतिषी और तान्त्रिक आमन्त्रित किये गये थे...प्रत्येक को भाषण देने के संग-संग अभी तक की निज उपलब्धियां दिखलानी थी...सुरेन्द्राचार्य ने बढ-चढकर  अभी तक की अपनी उपलब्धियां दिखायीं तथा भाषण एवम्‌ प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम में भाग लिया...परन्तु पुरस्कार मिलते समय उसी नगर का एक अन्य ज्योतिषी और तान्त्रिक प्रथम आया, जबकि सुरेन्द्राचार्य का स्थान छ्ठा था...यह देख सुरेन्द्राचार्य का हृदय जलने लगा...उसका अहंकार स्वयम्‌ को किसी भी से न्यून मानने को तैयार नहीं था...सुरेन्द्राचार्य ने विजेता ज्योतिषी से बातें कीं, पर उससे वह कोई विद्‍वत्तापूर्ण उत्तर नहीं पा पाया, जबकि विजेता की प्रशंसायें और प्रसिद्धि प्रसरती ही जा रही थी...सुरेन्द्राचार्य इसे सह नहीं पा रहा था...एक दिन विजेता कहीं आमन्त्रित हुआ भाषण दे रहा था तो इसकी जानकारी सुरेन्द्राचार्य को मिली और उसने अपनी मानसिक शक्ति से विजेता की मानसिक शक्ति को अवरुद्‍ध कर दिया जिससे वह अच्छे से बोल नहीं पाया....उसे अपना सारा ज्ञान भूला जान पडा...इससे उसकी लोगों में छवि बिगडी....सुरेन्द्राचार्य का मन कुछ सन्तुष्ट हुआ...उसने विजेता के निजी जीवन में भी बाधा डालना आरम्भ किया...उसने भोलानाथ को आत्मा के रूप में विजेता के सर पर रहने को भेज दिया...अब सुरेन्द्राचार्य जैसा चाहता था वैसा भोलानाथ विजेता के लिये समस्यायें उत्पन्न करता था...विजेता जिससे भी बातें करता, भोलानाथ उसे विजेता के विरुद्‍ध प्रेरणा देता...विजेता जो भी सोचता विचारता वह सब भोलानाथ जानता रहता...और तो और भोलानाथ ने विजेता के मल-मूत्र त्यागने में भी अपनी आत्मिक-मानसिक शक्‍ति से बाधायें डालनी आरम्भ कर दीं...सुरेन्द्राचार्य ने विजेता के जीवन को परेशान करने में अपना अधिक से अधिक समय लगाना आरम्भ कर दिया...यह उसके मनोरंजन का विषय हो गया था...विजेता को सोने में भी बहुत बाधा डलवाता रहा...इस प्रकार सुरेन्द्राचार्य का जीवन अब शैतानी खेल खेलने लगा था...उसे भोलानाथ के माध्यम से विजेता को परेशान करना इतना मन भाया कि उसने सपना देखना आरम्भ किया कि उसके अधिकार में भोलानाथ जैसे सैंकडों आत्मायें हैं, वह उन सबको आदेश दे रहा है....कई आत्मायें उसके समक्ष नृत्य कर रहे हैं...वह उन आत्माओं को पूरे संसार में कहीं भी भेज अपनी इच्छानुसार कोई भी काम करवा ले रहा है...जो भी उसके विरुद्‍ध जाता है, उसके आत्मायें उस व्यक्‍ति को मार-मारकर धराशायी कर देते हैं...इस प्रकार पूरे संसार का राजा बन बैठा है...एक गीत चल रहा है...’सारे संसार का राजा...हां हां मैं राजा...बन मैं गया हूं...है किसी में यदि बल...तो सामने मेरे आजा...’

 

सिद्‍ध के प्रेस का एक सहकर्मी वर्धन अपनी एक व्यक्तिगत समस्या को लेकर सुरेन्द्राचार्य के समीप गया हाथ दिखाने...उससे भोलानाथ ने ५०१/- रुपये की फीस ली...तत्पश्चात्‌ सुरेन्द्राचार्य ने जो भी उसे भूत भविष्य और वर्तमान के फल बताये उन्हें सुनकर वर्धन की भौंहें तन गयीं...- "ये आप क्या बता रहे हैं...?आप मेरा हाथ देख रहे हैं या किसी और का...? आपके सम्बन्ध में इतना नाम सुना था, पर सब पर आपने पानी फेर दिया...ऐसी आशा नहीं थी आपसे....अच्छा ये रहेगा कि आप मुझे रुपये लौटा दें..."

"रुपये नहीं लौटाये जाते...यदि ऐसे लौटाये जाने लगे तो मेरा औफिस बन्द हो जायेगा..."

"ये मेरे गाढे परिश्रम से अर्जित धन है...व्यर्थ लुटाने को नहीं..."

"यदि किसी भी ज्योतिषी को दिया धन कभी किसी ने लौटाया हो तो मैं भी लौटा दूं..."

"आपको लौटाना होगा...पूरे पांच सौ एक रुपये...एक भी रुपया नहीं छोडुंगा..."

"अब आप जा सकते हैं..."

"मैं केवल जा ही नहीं सकता हूं, लौट आ भी सकता हूं, वह भी पुलिस के साथ...."

"पुलिस...! पुलिस का इसमें क्या काम?...रुपये देते हैं लोग और अपना भविष्यफल सुन चले जाते हैं लोग यहां से..."

"पर यहां पुलिस में मेरे परिचय के लोग हैं...वे मेरी बात सुनेंगे और समझेंगे, न कि वह जो तुम समझा रहे हो...वे मुझे जानते हैं और तुम्हारा फलकथन कितना सच्चा है यह जान जायेंगे..."

"हूं...मैं आपका हाथ पुनः देखता हूं...." सुरेन्द्राचार्य तुरत भोलानाथ की सहायता से वर्धन की जानकारी प्राप्त करता है और उसके भूत और वर्तमान के सम्बन्ध में जानी हुई बातें दुहरा देता है, और भविष्य के सम्बन्ध में गोलमटोल बातें बता देता है...

"भूत और वर्तमान की बातों को जानने में मेरी कोई रुचि नहीं है...और, आप जो यह कह रहे कि अगले मास मेरे पैर की पीडा ठीक हो जायेगी तो यह वर्षों  से ठीक नहीं हुई है तथा डौक्टर्स भी इस सम्बन्ध में निश्चित नहीं हैं कि कैसे ठीक होगी यह पीडा...अगले दो-तीन मासों में चार चक्कों की गाडी मिलनेवाली है इसमें कोई बल नहीं...मैं स्वयम्‌ क्रय करने नहीं जा रहा, और कहीं और से मिले इसकी कोई कोई आशा नहीं...आयु...कौन जाने अभी बीस वर्ष और जीयुंगा या बीस मास और...इस वर्ष मेरा प्रोमोशन होगा, यह कदापि सम्भव नहीं...मुझे जीवन में बहुत प्रसिद्धि मिले ऐसा कोई काम मैं न तो करता हूं और न करनेवाला हूं...सामान्य ही जीवन रहेगा...इसलिये रुपये लौटा दो...."

"अब तो तुम पुलिस बुला भी लो, इतने सच्चे फलकथन किये हैं..."

"तो तु चल पुलिस ष्टेशन...:" ऐसा कहते-कहते वर्धन ने अपने छाते से सुरेन्द्राचार्य की गर्दन पकड खींचा...सुरेन्द्राचार्य कुछ क्षणों के लिये स्तब्ध रह गया...उसे ऐसी आशा न थी...कुछ सम्भलकर उसने भोलानाथ को बुलाया और कहा वह वर्धन को रुपये लौटा दे...वर्धन रुपये ले चला गया... सुरेन्द्राचार्य की आंखें लाल थीं...उसे अपनी ही जन्मकुण्डली और दशा-अन्तर्दशा के अध्ययन की आवश्यकता जान पड रही थी...

वर्धन वहां से निकला तो सीधा एल आई सी औफिस पहुंचा...वहां वह कक्ष में आराम से बैठा वह अपनी ली पौलिसी के सम्बन्ध में और अधिक जानकारी ले रहा था...वह इसकी चौथे प्रीमियम को जमा करने आया था...उसने अपने बांयें पैर के टखने के ऊपर पुनः पीडा होता अनुभव किया...वहां उसकी हड्‍डी और नसों में रह-रहकर ऐसी पीडा होने लगती थी कि वह उसे बडी कठिनाई से ही सह पाता था...वह मुख्य रूप से इसी समस्या के सम्बन्ध में भविष्य जानने सुरेन्द्राचार्य के समीप गया था, पर उसे कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिल पाया...वह कभी इधर कभी उधर विचार कर ही रहा था कि सहसा उसके टखने के समीप पुनः पीडा उभरी...एक मैसर महेन्द्र था जो वहां तुरत मालिश कर उसे पर्याप्त आराम पहुंचाता था...पर वह यहां कहां...! ओह्...यह पीडा तो अति तीव्र हो गयी...इतनी तीव्र हुई कि वह चेत खोने लगा और वह लडखडाकर कुर्सी से नीचे गिर गया...लोगों ने सुशीघ्र (फटाफट) उसे उठाया और बैठाने का प्रयास किया, पर यह क्या...ये तो सांसें नहीं ले रहे हैं....वर्धन के प्राण निकल चुके थे...लोग इतना तो समझ गये थे कि टखने के समीप हुई अतितीव्र पीडा से ही उनकी मृत्यु हुई...वहीं कुछ लोगों ने अनुमान किया कि सम्भवतः हार्ट-अटैक से उसकी म्रृत्यु हुई...यद्‍यपि वर्धन की आयु अभी मात्र ४५ वर्ष हुई थी...कक्ष के अन्दर सीसीटीवी लगा हुआ था जिसमें वह सारी घटना रिकौर्ड हो रही थी....वर्धन ने जो जीवन बीमा करवा रखा था उसका पूरी धनराशि अब उसके परिवार वालों को मिलनी निश्चित थी...यह स्वाभाविक मृत्यु थी जिसका साक्षी (गवाह) स्वयम्‌ एल आई सी औफिस था....जब बहुत समय बीता और सिद्‍ध के निकट बैठनेवाला उसका मित्र और सहकर्मी वर्धन जब लौट नहीं आया तो सिद्‍ध को चिन्ता हुई...उसने उसे फोन किया...वर्धन के मोबाइल की घण्टी बजी..."हलो..."

किसी ने सिद्‍ध से बोला जो वर्धन का स्वर नहीं था..."कौन....? मि. वर्धन कहां हैं...? मुझे उनसे बात करनी है..."

"आप कौन बोल रहे हैं...?"

"मैं उनका कौलीग बोल रहा हूं..."

"अच्छा...अच्छा रहेगा यदि आप एल आई सी औफिस आ जायें...उनकी सहसा मृत्यु हो गयी है..." सिद्‍ध यह सुन जैसे सन्न रह गया...अभी-अभी वर्धन उससे यह कह निकला था कि वह कोई दो-ढाई घण्टों में लौट आयेगा, उसे प्रीमियम जमा करनी है, पर उससे पूर्व कुछ और भी काम है...सिद्‍ध विना विलम्ब किये निकल पडा...वहां पहुंच वह देखता है बहुत भीड लगी है अभी भी...सबसे बडी चर्चा की यह बात थी कि मरनेवाले ने एक करोड का जीवन बीमा करवा रखा था जिसके अभी चौथे ही प्रीमियम को भरने का समय आया था...मरनेवाला मरा पर अपने परिवार को एक करोड का लाभ करवा गया, ऐसी चर्चा भी सुनने को मिल रही थी...सिद्‍ध का मन इसे स्वाभाविक मृत्यु मानने को तैयार नहीं था....कैसे आराम से प्रसन्नतापूर्वक वर्धन उससे बातें कर रहा था अभी कुछ ही घण्टे पूर्व...उसे ऐसी कोई भी बडी समस्या या रोग नहीं था जो उसे अभी मौत ला दे....कोई शत्रु...उसकी भी आशंका नहीं थी....सिद्‍ध ने विना विलम्ब किये वहां फोटोग्राफ्स आदि लिये और लोगों के वक्तव्य भी रिकार्ड किये...सभी सहमत थे इस बात पर कि यह एक स्वाभाविक मौत थी, अतिरिक्त सिद्‍ध के, जो यह मानने को तैयार नहीं था...उसने सिद्‍ध की पत्नी से सम्पर्क किया...वहां पहुंच बातें कीं...

भाभी - "देवर नन्दन ने बहुत आग्रह कर वर्धन से एक करोड की पौलिसी लेने पर उन्हें विवश कर दिया...वैसे, वर्धन स्वयम्‌ ही नन्दन को बहुत चाहते थे...उनने अपने पिता की मृत्यु के पश्चात्‌ नन्दन का सारा उत्तरदायित्व अपने हाथों में लिया और भलीभांति निभाया...पिता ने मृत्यु से पूर्व सारी सम्पत्ति इनके ही नाम कर दी थी कि वह सबका उत्तरदायित्व ले और समय पर नन्दन को उसका भाग दे दे...अतः वर्धन ने अपनी वसीयत तैयार करवा उसमें अपनी आधी चल-अचल सम्पत्ति अपने अनुज भ्राता नन्दन के नाम कर दी थी...अभी जो जीवन बीमा करवाया था उसका भी आधा भाग नन्दन को मिलेगा...पर, एक बात है...मैं सदा ही देवर नन्दन के विरुद्‍ध रही वसीयत करवाने के पश्चात्‌...मुझे उसे आधा भाग मिलना पसन्द नहीं आया, और मैं इसका सदा विरोध करती रही...मैंने यह भी कहा कि वे वसीयत पुनः बनवा नन्दन को कुछ ही भाग दें, आधा नहीं...नन्दन को इस बात की जानकारी थी और वह मुझसे इस बात का भय करता भी था कि कहीं वर्धन मेरे बहकावे में यदि आ गये तो...! तब भी, उसकी नन्दन के संग औपचारिक बातें, और वह भी प्यार दिखाते हुए हुआ करती थी...छः कक्षों का यह फ्लैट था जिसके एक कोने में एक कक्ष बाथरूम-टाय्लेट और किचेन के संग था जिसमें नन्दन रहा करता है...शेष पांच कक्षों में वर्धन का परिवार रहता है....नन्दन का कक्ष अन्दर अन्य कक्षों में तो खुलता ही था, उसका निकास द्‍वार बाहर की ओर भी था...जिससे चाहे तो नन्दन अन्दर सम्पर्क करनेवाले द्‍वारों को बन्द कर बाहर के द्‍वार पर ताला लगा एक सेपरेट सिंगल रूम फ्लैट जैसा भी रहता है....खाना हमलोगों के संग ही खाता है, पर चाहे तो स्वयम्‌ भी अपने किचेन में बना सकता है या बाहर भी खा सकता है...’"

"क्या अभी ष्टडी कर रहा है या जौब...?"

"उसे फोटोग्रैफी-वीडियोग्रैफी में बहुत रुचि रही है, और जो उसे बहुत रुचता रहा उसे ही उसने प्रोफेशन के रूप में भी चुना...कुछ ऐसा ही काम किया करता है..."

"तो, वर्धन की मृत्यु से यदि किसी को सबसे अधिक लाभ हुआ, अर्थात्‌ होगा, तो वह है नन्दन...."

"हां, ये तो है ही..."

"तो...कहीं उसका कोई हाथ तो नहीं वर्धन की मृत्यु में...?"
"मुझे तो पूरी आशंका है कि नन्दन का इसमें हाथ है...क्योंकि इस बात का बडा भय था कि कहीं वर्धन मेरे बहकावे में आ वसीयत में परिवर्तन करवा दें...इसलिये, यह हो सकता है कि उसने बडी चतुराई से उनकी ऐसी हत्या करवा दी जो स्वाभाविक मौत लगे...और वह भी एल आई सी औफिस में ही, जिससे बीमा की राशि विना किसी झंझट के मिल जाये....सबसे बडी बात तो यह है कि यह बीमा वर्धन ने मात्र नन्दन के बहुत आग्रह करने पर ही लिया था...नन्दन ने वर्धन की जमापूंजी कोई दस-बारह लाख रुपयों के बल पर इस एक करोड की पौलिसी को लिये जाने की बात कही थी....यह आश्वासन दिया था कि यदि चाहें तो समय से पूर्व भी, कभी भी वे जमा किये गये सारे रुपये वापस ले ले सकते हैं, इसलिये भय करने की कोई आवश्यकता नहीं है...तब भी जब वर्धन का मन तैयार नहीं हो रहा था तो वह उन्हें बहुत अनुरोध कर संग अपने एल आई सी औफिस ले गया और फर्ष्ट प्रीमियम भी उसी ने भरा था..."

"हूं...." सिद्‍ध का माइण्ड बहुत तीव्रगति से सभी बातों पर सभी कोणों से विचार कर रहा था...सिद्‍ध एक प्रेस रिपोर्टर ही नहीं, एक केस-इन्वेष्टीगेटर भी था...पर ऐसी स्थिति में ऐसे स्थान पर मृत्यु हुई थी कि एल आई सी को किसी भी प्रकार से मर्डर की आशंका नहीं हुई, और न ही कोई ऐसा कोई रोग जानने में आ पाया जो उसकी मौत का कारण जान पडे.....अतः मौत के कारण की स्पष्ट जानकारी न मिल पाने के कारण यह एक स्वाभाविक ही मृत्यु मानी गयी और जीवन बीमा के सारे रुपये विना किसी विशेष बाधा के मिल गये जो वसीयत के अनुसार आधा नन्दन को तथा आधा भाभी को मिला...इसके लिये नन्दन ने ही विशेष भागदौड की कि एल आई सी रुपये दे दे...अब नन्दन का खाना-पीना प्रायः अपने कक्ष में ही या बाहर कहीं होता था...उसके कक्ष के अन्दर के द्‍वार अब प्रायः बन्द ही रहते थे...अभी अन्य चल-अचल सम्पत्तियों बंटवारा होना शेष था....इधर जब भी सिद्‍ध ने भाभी से बातें कीं, भाभी यही आशंका व्यक्त करती रही कि बडी चतुराई से नन्दन ने ही वर्धन की हत्या करवा दी है क्योंकि उसे ही भय था वसीयत से बाहर कर दिये जाने का...तो, सिद्‍ध ने भाभी के इस विश्वास पर ध्यान देते हुा ए इस सम्बन्ध में छानबीन करने का निर्णय लिया....भाभी ने वर्धन की कार सिद्‍ध को इन्वेष्टीगेशन करने तक के लिये दे दी और संग ही यह भी कहा कि वह पेट्रोल की भी चिन्ता ने करे, पेट्रोल भरवाने  का काम उसी का रहेगा...केवल वह मन लगाकर प्रूफ के संग हत्यारे को पकडवा दे...तब सिद्‍ध ने गम्भीरता से इस केस के इन्वेष्टीगेशन का दायित्व अपने हाथों में लिया...सिद्‍ध ने स्मरण किया कि उस दिन वर्धन यह कह बाहर निकले थे कि उन्हें एल आइ सी आदि में कुछ काम है...दो-ढाई घण्टे में वापस लौट आयेंगे...अपनी कार न ले जा वह टैक्सी से ही जा-आ रहे हैं...पर एल आई सी औफिस के सीसीटीवी के अनुसार प्रेस से निकलने के कोई डेढ घण्टे पश्चात्‌ ही वह वहां पहुंचे थे...तो इस मध्य वह कहां-कहां गये....? कैसे जानकारी मिलेगी...? उसने उनके मोबाइल सिम कम्पनी के औफिस से जानकारी लेनी चाही तो वहां से यह ज्ञात हुआ कि उस दिन उस डेढ घण्टे में केवल एक ही कौल किया गया था - प्रेस से निकलते समय उनने सुरेन्द्राचार्य के औफिस को फोन किया था और कोई ढाई मिनट बात की थी...’तो वर्धन अवश्य वहीं गये होंगे....’ ऐसी सम्भावना रखते हुए सिद्‍ध ने सुरेन्द्राचार्य के औफिस में फोन कर पूछा कि उस दिन वर्धन वहां आये थे या नहीं...? शिष्य ने रजिष्टर खोल कर देखा और बताया - "हां...वर्धन उस दिन वहां आये थे, पर..."

"पर क्या...? कोई विशेष बात हुई थी...?"

"नहीं....उनने हाथ दिखलाया था अपना भविष्य जानने के लिये, ऐसा लिखा है..."

"अच्छा...कितने मिनट वहां रुके होंगे...?"

"जी, जहां तक मुझे स्मरण आ रहा है...कोई बीस-पच्चीस मिनट रुके होंगे..."
"वहां से आगे कहां गये...? कुछ ऐसी कोई बात हुई होगी...?"

"जी नहीं...हमलोगों से इस सम्बन्ध में कोई बात नहीं हुई..."

"ठीक है..." ऐसा कह सिद्‍ध मोबाइल रख लेता है पौकेट में...’प्रेस से ज्योतिष कार्यालय, और वहां से एल आई सी....इतने में डेढ घण्टे का समय पूरा सेट बैठता है...पर यह भी तो हो सकता है कि मार्ग में किसी से एक-दो मिनट के लिये भी कोई झंझट हो गया हो...सम्भवतः वहां से कुछ विशेष जानकारी मिल पाये, चलो चलें ?’ सिद्‍ध ने कार निकाली, आराम से ड्राइविंग सीट पर बैठा, और पहुंच गया एल आई सी औफिस...जब सिद्‍ध ने पूछताछ की तो उस दिन उपस्थित कर्मचारी आदि लोगों से यह जानकारी मिली कि उस कक्ष में जब वर्धन चीख मार गिर पडे तो लोगों ने उन्हें घेर लिया...उस समय भीड में एक नया व्यक्‍ति दिखा था...जो मध्यम मुटाई और लम्बाई का था, तथा टाइट वस्त्र पहने था...वह व्यक्‍ति न तो उससे पूर्व कभी वहां दिखा था और न ही उसके पश्चात्‌ कभी वहां दिखा...कब आया था...तो जब वर्धन चीख मार गिर पडे थे उसके पश्चात्‌ ही वह वहां आया था...अर्थात्‌ वर्धन की मृत्यु में उसपर सन्देह करने की आवश्यकता नहीं है...तब भी, सिद्‍ध ने सीसीटीवी फुटेज ध्यान से देखा, और उसकी एक कौपी इन्वेष्टीगेशन के लिये आवश्यक बता रख ली...संग ही, उपस्थित सभी व्यक्‍तियों के नाम, पता, फोन नं. आदि विवरण सिद्‍ध ने नोट कर रख लिये...

अब कहां पूछताछ की जाये....भाभी से और जानकारियां प्राप्त की जायें...उसने कार की गति भाभी के आवास की दिशा में बढायी...

भाभी से पूछने पर यह ज्ञात हुआ कि यद्यपि वर्धन स्वस्थ थे पर बांयें पैर के टखने के ऊपर की नसों को छूने पर या वहां हल्की सी भी चोट लगने पर उन्हें बहुत तीव्र पीडा हो जाया करती थी...अन्यथा उन्हें किसी भी प्रकार का कोई रोग आदि कोई समस्या नहीं थी....वे रोगरहित घोषित थे डौक्टर्स द्वारा...क्योंकि टखने के ऊपर नसों की समस्या डौक्टर्स के जानने में नहीं आ पायी कि वहां वैसा कुछ है, और यदि है तो क्यों है...! इस कारण से एक मैसर उन्हें मसाज करने नियमित रूप से प्रत्येक दिन आया करता था...

"उनसे अन्तिम बार कब मिला था वह मैसर...?"

"उस दिन के ठीक पिछले दिन...वैसे मैसर को जब भी बुलाया जाये तभी वह आ जाया करता था...सम्भव है, उस दिन वह औफिस से आने के पश्चात्‌ बुलाते..."

"अच्छा, उनलोगों के विवरण जिनसे उनकी हल्की भी तानातानी हुई हो...या जो उनके प्रति हल्की भी शत्रुता, द्‍वेष, जलन, ईर्ष्या, आदि कुछ भी विरोध का भाव रखते हों....?"
"अर्थात्‌ जिनपर मुझे सन्देह हो...तो वह है नन्दन....अन्य कौन उन्हें मौत की नीन्द सुला प्रसन्न होना चाहेगा...." तब भी, वह कुछ   वैसे व्यक्‍तियों के नाम, पता आदि बताती है...तत्पश्चात्‌ वह उन लोगों के भी विवरण देती है जो वर्धन के प्रति अच्छा भाव रखते हैं... सिद्‍ध के इतने विवरण नोट करते-करते एक लम्बी लिष्ट बन गयी थी...उसने सोचा वह अब किन किन से क्या क्या पूछताछ करे...

"इस मैसर से सम्पर्क क्या आपने समाचारपत्रों में विज्ञापन देख किया था...?"

"न..."

"तो...?"

"यह नन्दन के द्‍वारा लाया गया है...हुआ यूं कि एक दिन सहसा (अचानक) वर्धन अचेत हो गये थे आवास में....उन्हें यूं अस्त-व्यस्त स्थिति में देख जब मैंने उन्हें झकझोडकर उठाया, तो उन्हें चेत (होश) आ गया...और उनने बताया कि चलते हुए में बांयें टखने के ऊपर टकराने से चक्कर खा वे गिर गये और अचेत हो गये....तब नन्दन ने एक मैसर महेन्द्र को बुलाया जो नियमित रूप से वर्धन की मालिश करते रहा है...."

"अच्छा, नन्दन ने...? नन्दन को यह मैसर कहां मिला...?"

"नन्दन कभी अपने मित्रों संग बातें कर रहा था, तो संयोगवश किसी ने मैसर का परिचय उनलोगों से कराया कि यदि आवश्यकता पडे तो इसे आप बुला सकते हैं- लेस चार्ज गुड रिजल्ट...नन्दन को तो कभी आवश्यकता नहीं पडी, पर उसे वह स्मरण था, इस कारण वर्धन के लिये ही बुलाया...और तो और, ये करोड रुपये का जो लाभ मिला, यह भी नन्दन के ही मस्तिष्क की उपज थी...उसने ही इस पौलिसी की बात बतायी...पर इसके इतने बडे प्रीमियम को देखते हुए वर्धन ने कहा कि प्रश्न ही नहीं उठता इस पौलिसी के लिये जाने का, क्योंकि इतना बडा प्रीमियम प्रत्येक मास हमलोग कैसे भर सकते हैं...? कोई उद्‍योगपति तो हैं नहीं....! तब नन्दन ने विश्वास  दिलाया कि ’अभी आप अपनी दस-बारह लाख की जमापूंजी से प्रीमियम भरें...तबतक और रुपये भी अर्जित किये जा रहे हैं....मुझे तो अपना भविष्य पूर्णतया निखरा दिखता है.. और तो और, जब चाहें तब आप तबतक भरे गये प्रीमियमों की कुल धनराशि वापस ले ले सकते हैं...केवल ब्याज नहीं मिलेगा...’ यह सुन वर्धन मान गये कि यह पौलिसी ली जा सकती है, पर तब भी जब वे तैयार नहीं हुए जाने को तब नन्दन स्वयम्‌ ही प्रथम प्रीमियम की धनराशि हाथ में ले कहा कि आरम्भ का प्रीमियम वह भरेगा, ऐसा कह वर्धन को कार में बैठा लेता गया एल आई सी औफिस कि ’आप केवल वैसा करते जायें जैसा मैं कह रहा हूं...’

"हूं....लगता है, नन्दन ने पूरा प्लान बना रखा था....तभी मात्र चौथे प्रीमियम तक पहुंच ही मृत्यु हो गयी...वह भी एल आई सी औफिस में...और वह भी वीडियो-रिकार्डेड नेचुरल डेथ...किसी बहुत ही चतुर मस्तिष्क का काम है यह...एनिवे, आपको मैं दिखाता हूं...ये वर्धन के डेथ  के समय की वीडियो रिकार्डिंग...."

भाभी, उसके पुत्र और पुत्री, तथा सिद्‍ध सभी वह वीडियो-रिकार्डिंग भाभी के लैप्टौप पर देख रहे हैं....

"अरे...यह तो मैसर है..." पुत्री ने महेन्द्र की ओर संकेत करते हुए कहा...उसके भाई और मां ने भी आश्चर्य व्यक्त किया...

"कहां...कौन है मैसर..?" सिद्‍ध भी चौंका...

"ये जो टाइट वस्त्र पहने मध्यम शरीर का व्यक्ति है..." तीनों ने एकस्वर में उस व्यक्ति की ओर संकेत किया...

"हूं...पर यह आया तब है जब वर्धन चीख मारकर भूमि पर गिर चुके हैं...." सिद्‍ध ने गम्भीर मुद्रा में सोचते हुए कहा..

"तब भी कोई सम्बन्ध हो सकता है इसका उनकी मृत्यु से...यह वहां गया ही क्यों था...?" भाभी क्रुद्‍ध हुई...

पूरी रिकौर्डिंग देखने के पश्चात्‌ सिद्‍ध यह कहते हुए चला जाता है कि वह शीघ्र आपलोगों को सूचित करेगा इस सम्बन्ध में...परन्तु तबतक मेरे या इस वीडियो के सम्बन्ध में नन्दन या महेन्द्र से कुछ भी न कहें...

 

सिद्‍ध ने मोबाइल फोन निकाला और वर्तिका से बात की...वर्तिका -"इतने दिनों से तुमने मुझसे बात क्यों नहीं की...?"

"यही प्रश्न मैं तुमसे भी कर सकता हूं कि तुमने मुझसे बात क्यों नहीं की....?"

"मैं सोची क्या तुमने रुपये देने के भय से मुझसे विवाह करने का विचार छोड दिया क्या जो मुझसे बात नहीं कर रहे...!"

"बहुत अच्छा...मैंने भी कुछ ऐसा ही सोचा...मैंने सोचा....मैंने सोचा...मैंने क्या सोचा...? हां...मैंने सोचा, तुम मुझे फोन करोगी और बोलोगी कि यदि तु्म्हारे पापा रुपये लेने की मांग नहीं छोडते तो तुम अपने पापा को छोड मुझसे विवाह कर लोगी...इसी आशा में मैं था कि तुम कब मुझे ऐसा फोन करती हो..."

"न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि तुमने अभी-अभी ऐसा कहना सोचा...वास्तविक कारण मुझे बताओ..."

"पहले तुम बताओ, तुमने मुझे फोन क्यों नहीं किया...?"

"क्योंकि....क्योंकि...मैं चाहती थी कि तुम मुझे फोन करो....तत्पश्चात्‌ हमदोनों मिल बैठ समस्या का समाधान ढूंढें..."

"तो ठीक है...फोन मैंने तुम्हें कर दिया...अब आओ, हम दोनों मिल बैठ समस्या का समाधान ढूंढें..."

"कहां मिलें...?"

"अपने आवास से बाहर निकल उत्तर की ओर के मोड पर मिलो..."

"ठीक है...मैं पन्द्रह मिनट पश्चात् वहां मिलुंगी...."

"मैं भी पहुंच रहा हूं..."

कोई सात-आठ मिनट से वर्तिका वहां खडी थी कि एक कार उसके समीप आ खडी हुई, अगला द्‍वार खुला, और अन्दर से स्वर (आवाज) आया -"आ जाओ..."

’हूं...ये स्वर तो जाना-सा है...जैसे सिद्‍ध ने पुकारा हो...’ वह चुप रही तो सिद्‍ध ने सिर बाहर निकाल दुहराया -"अब आ भी जाओ..."

तुरत वर्तिका अन्दर आ उसके बगल बैठ गयी...कार चल दी....सिद्‍ध उसे बताता है कि वास्तव में वह इन दिनों वर्धन की मृत्यु के केस के इन्वेष्टीगेशन में व्यस्त है...इस कारण वह उसे प्रायः भूला हुआ था...पर अब उसे वर्तिका का स्मरण हुआ क्योंकि उसे उसकी सहायता की आवश्यकता है इस कार्य में...

"मैं तुम्हारी इस कार्य में क्या सहायता कर सकती हूं...?"

"मेरी असिष्टेण्ट बनकर...मैं जैसा-जैसा कहुं तुम केवल वैसा-वैसा करती जाओ..."

सिद्‍ध ने कार भाभी के आवास के समीप स्थित झनकु पानवाले की शौप के समक्ष (सामने) रोका...

"भई पानवाले...क्या कुछ है...?"

"कई आइटम हैं...आप क्या लेंगे...?"

"जो स्वादिष्ट हो...और हानिकारक न हो...जैसे जर्दा आदि कुछ न हो..."

"तो मीठा पान लें..."

"नहीं नहीं...पान नहीं लेना है....कुछ और..." वर्तिका बोली..."न मैं खाउंगी पान, न तुम्हें यह खाते देखना मुझे रुचेगा..."

"तो कोई बात नहीं...आप गुलकन्द लें...इलायची लें...या अब बिस्किट या चौकलेट लें...ये ही सब वस्तुयें उपलब्ध हैं मेरे पास..."

"हां...गुलकन्द...और इलायची..." ऐसा कहते हुए सिद्‍ध उसकी ओर दस रुपये का नोट बढाता है...झनकु एक-एक पत्ते पर कुछ गुलकन्द और इलायची दोनों को देता है..."वाह...आपने तो मेरा मन प्रसन्न कर दिया...." झनकु मुस्कुराता है...

"एक बात और...यदि आप जानते हों....ये सामने जो मि. वर्धन का आवास है...उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में कुछ आपको विशेष जानकारी, यदि हो, तो..."

"देखिये....कहां किसी को अन्दर की बातें जानी हुई होती हैं...जितना सुनने में आ जाये...पर सुनी-सुनायी बातों पर कितना विश्वास किया जा सकता है...!"

"तब भी...मैं उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में इन्वेष्टीगेशन कर रहा हूं...ये मेरा आई-कार्ड..."

"अरे साहब...अवश्य बताउंगा...जो मेरी जानकारी में है...वर्धन साहब पान को पान बहुत पसन्द था, और प्रायः मेरे शौप से खाते और मंगवाते रहे...कई बार तो मैंने पान भिजवाने के स्थान पर स्वयम्‌ ही जाकर दिया..."

"उनकी किसी से कोई दुश्मनी थी...? या, कोई उनके विरुद्‍ध बोलता हो....?"

"दुश्मनी तो मेरी जानकारी में किसी भी से नहीं थी...कोई उनके विरुद्‍ध भी नहीं बोलता था...पर...एक बात है...उनके यहां मालिश करनेवाला महेन्द्र आया करता था...कई बार वह भी उनके लिये पान लेने आया था...एक बार उसने बोला था कि यद्यपि वर्धन की आयु अभी मात्र ४५ वर्ष की है पर उसे लगता नहीं कि वे बहुत दिन जी पायेंगे...मैंने पूछा -’भैया ऐसा क्यों कहते हो...अभी तो उनके आनन्द लेने के दिन हैं....तो उसने बताया कि वर्धन साहब के बांयें टखने के पास ऐसा कुछ रोग है जो शायद उन्हें बहुत दिनों पर्यन्त जीने न दे..."

"हूं...और कुछ महेन्द्र के सम्बन्ध में कोई विशेष बात...? नन्दन के सम्बन्ध में...?"

"ये महेन्द्र मुझे कुछ सन्देहास्पद व्यक्ति लगा...उसे नन्दन ने ही वहां लाया था...दोनों पर ही सन्देह जाता है...क्योंकि, आप भी जानते होंगे, कि वर्धन साहब की मौत से यदि किसी को सबसे अधिक लाभ हुआ तो वह हुआ है नन्दन को...इस कारण से भी..."

"और कुछ...नन्दन का स्वभाव कैसा था...?"

"स्वभाव...तो बुरा नहीं था...पर, आये दिन उनसे स्त्रियां मिलने आया करती रहती थीं...अब भी...उनका रूम किनारे में अलग-सा है...रोड से लगा गेट...गेट के सामने ही उनके रूम का द्वार...रोड से दस-बारह पग चल उसके रूंम में पहुंच जाये कोई भी...अब वे स्त्रियां अन्दर क्या करती हैं ये तो मैंने देखा नहीं...द्‍वार केवल यहांसे दिखता रहता है..."

"और कुछ..."

"नहीं साहब...मैं इतना ही कुछ बता सकता हूं..."

सिद्‍ध वर्तिका के संग भाभी से मिलता है...सिद्‍ध -"आवश्यकता इस बात की है कि नन्दन के ऊपर दृष्टि रखी जाये....इसके लिये, उसके रूम में मिनी कैमरे ऐसे लगा दिये जायें कि उसे इस बात का सन्देह भी न होने पाये.."

 

इसके पश्चात्‌ भाभी से अनुमति पा सिद्‍ध एक कीमेकर को ले आता है और नन्दन की अनुपस्थिति में उसके बाहरी द्‍वार के लौक की डुप्लीकेट चाभी बनवा द्‍वार अनलौक करता है और अन्दर जा तीन वायरलेस मिनी कैमरे इंष्टाल कर देता है....इस अवधि में वर्तिका बाहर से द्‍वार लौक कर बाहर रोड किनारे लगी कार में बैठी सावधान चारों ओर दृष्टि घुमा रही है कि यदि वर्तिका या कोई अन्य उस रूम की ओर बढे तो वह तुरत सिद्‍ध के मोबाइल की घण्टी बजा दे....सिद्‍ध सफलतापूर्वक कैमरे इंष्टाल कर वर्तिका के मोबाइल की घण्टी बजाता है, तो वर्तिका तुरत आ बाहर से लौक्ड द्‍वार अन्लौक्ड करती है...द्वार को पुनः लौक्ड कर दोनों भाभी के समीप जाते हैं...भाभी के शेष पांच कक्षों के फ्लैट के एक कक्ष के कोने में भाभी का लैप्टौप इन्वर्टर से जुडा २४ घण्टे नन्दन के कक्ष के अन्दर के दृ्श्यों की रिकार्डिंग कर रहा है...इसके १००० जीबी के हार्डडिस्क में पर्याप्त स्थान है कई दिनों की रिकार्डिंग के लिये...पर सिद्‍ध ने जब कैमरों से सम्पर्क स्थापित करने का प्रयास किया तो केवल एक कैमरा ही सफलतापूर्वक काम कर रहा था...अन्य दोनों कैमरों के सुधार के लिये अब पुनः नन्दन के कक्ष में प्रवेश करना होगा...भाभी ने बताया कि परसों नन्दन दिल्ली जाने वाला है, उसके जाते ही वह सूचित करेगी...दोनों प्रत्येक घण्टे भाभी से नन्दन के जाने की जानकारी ले रहे थे...नन्दन के निकलते ही सिद्‍ध और वर्तिका कार से वहां पहुंच जाते हैं....पूर्ववत्‌ (as before) वर्तिका द्‍वार बाहर से लौक्ड कर कार में बैठी सावधान दृष्टि से चारों ओर निरीक्षण कर रही है कि सहसा बाहर

गेट पर एक टैक्सी रुकती है...टैक्सी से नन्दन बाहर निकलता है...यह देख वर्तिका घबडा तुरत सिद्‍ध के मोबाइल की घण्टी बजाती है...सिद्‍ध के पूछने पर वर्तिका बताती है कि नन्दन बाहर गेट पर खडा टैक्सी वाले को रुपये दे रहा है...सिद्‍ध ने तुरत भाभी को फोन किया और कहा कि किसी भी स्थिति में नन्दन को उसके रूम में जाने न दें और अपने पांच मिनट भी अपने  आवास के अन्दर बैठाये रखें...भाभी तुरत बाहर निकली और गेट से अन्दर आते देवर नन्दन को बडे प्यार से अपने आवास के अन्दर ले गयी....पूछने पर ज्ञात हुआ कि कुछ आवश्यक प्रपत्र (डौक्युमेण्ट्स) लेने उसे वापस आना पडा...तब भी भाभी ने उसे तबतक बाहर जाने नहीं दिया जबतक कि सिद्‍ध ने पुनः भाभी को कौल किया कि वह सुरक्षित बाहर आ चुका है और कार में बैठा है...भाभी ने देखा तबतक चार मिनट बीत चुके थे...उधर जैसे ही वर्तिका ने नन्दन को भाभी के आवास में अन्दर जाते देखा, उसने विना विलम्ब किये सिद्‍ध की ओर दौड लगायी और द्‍वार अन्लौक्ड किया...सिद्‍ध बाहर निकला, पुनः द्‍वार लौक्ड कर दोनों कार में जा समाये...

नन्दन के अपने कक्ष (रूम) में जाते ही सिद्‍ध और वर्तिका उस कक्ष में गये जहां लैप्टौप का सम्बन्ध उन कैमरों से था...अब तीनों ही कैमरे सफलतापूर्वक काम कर रहे थे...नन्दन के लौट आनेपर सिद्‍ध प्रत्येक दिन की रिकार्डिंग भाभी के आवास जा ले आने लगा...केवल एक दिन वह किसी स्त्री के संग सम्भोग करता पाया गया, अन्य दिनों वह सामान्य कर्मों को करता दिखता पाया गया...एक दिन की रिकौर्डिंग में वह किसी से मोबाइल से बात कर रहा था...उससे किसी ने कहा -"सेठ...कोई और काम बताओ...जितने रुपये तुमने दिये थे वे सब व्यय (खर्च) हो गये...(कुछ रुककर)...वैसे भी...इतने बडे काम के लिये इतने कम रुपये...या, कुछ रुपये ही और दे दो...."

"और रुपये...?"

"हां...इतने बडे काम के लिये केवल बीस हजार रुपये...! बहुत सस्ता रहा....ये भी तो सोचो सेठ तुम्हें कितना लाभ हुआ....इसलिये, कुछ और रुपये मांगने का मेरा अधिकार बनता है..."

"देखो...मेरे पास इस समय तुम्हारे लिये कोई काम नहीं है...और, जो डील एक बार हो चुका है -काम हो गया और पेमेण्ट भी कर दिया गया, उसे तुम अब क्या दुबारा तय करना चाहते हो...? मैं इस सम्बन्ध में विचार भी नहीं करना चाहता..." ऐसा कह नन्दन ने कौल डिस्कनेक्ट कर दिया...

सिद्‍ध ने तुरत नन्दन के मोबाइल सिम कम्पनी से सम्पर्क पूछा अभी नन्दन ने किससे बात की थी...जानकारी मिली कि यह था महेन्द्र...उसका मोबाइल नं. सिद्‍ध ने नोट किया...तुरत उसने महेन्द्र को फोन किया -"क्या मैं महेन्द्र जी से बात कर सकता हूं...?"

"हां मैं बोल रहा हूं..."

"आप क्या काम करते हैं...?"

"जी...मैं एक मैसर हूं..."

’मैसर....! यह वही मैसर महेन्द्र है...अर्थात्‌ इसी ने वर्धन की हत्या की है जिसके लिये नन्दन ने बीस हजार रुपये दिये हैं...ओ नो...केस सौल्व्ड...!’ सिद्‍ध ने तुरत मैसर से कौल डिस्कनेक्ट कर वर्तिका से बात की, तत्पश्चात्‌ दोनों भाभी के आवास पहुंचे और वह वीडियो रिकार्डिंग उन्हें दिखायी जिसमें नन्दन महेन्द्र से बात कर रहा है...सभी गम्भीर थे...यह जान जाने के पश्चात्‌ भी विना प्रमाणों के कैसे उन दोनों को अपराधी ठहराया जा सकता था...? भाभी ने महेन्द्र को फोन किया -’अभी आ सकते क्या...? मसाज कराना है..."

महेन्द्र पन्द्रह-बीस मिनटों में ही आ गया...सिद्‍ध -"बहुत भागदौड कर थक जाता हूं...मेरा तन मालिश चाहता है...करोगे...?"

"जी सर...यही तो मेरा काम है..." वह वहीं सिद्‍ध की मालिश करता है...सिद्‍ध उसे दो सौ रुपये देता है जिसे महेन्द्र चुपचाप रख लेता है...

"ये केवल दो सौ रुपये हैं...इसका सौ गुणा कितना होगा...?"

"जी...बीस हजार रुपये..."

"यदि इतने रुपये तुम्हें दिये जायें तो तुम कितना बडा काम कर सकते हो...?

"मैं समझा नहीं सर....वैसे, दो सौ रुपये की रेट से सौ व्यक्तियों की मालिश करनी होगी...पर, आपसे मैंने कम रुपये लिये, नहीं तो मेरा रेट अधिक है..."

"अच्छा...सौ व्यक्ति नहीं, केवल एक ही व्यक्‍ति का काम करना हो...बीस हजार ले...तो...वह भी केवल एक बार के लिये....?"

"सर, आप तो हंसी कर रहे हैं...इतने रुपये कौन देगा....इस छोटे-से काम के लिये...!"

"छोटा-सा काम...? तुम्हें मालिश करनी है किसी के गर्दन की...इतनी मालिश कि पुनः उस गर्दन की मालिश न हो सके...वह टें बोल दे, सदा के लिये..."

"क्या मर्डर...?"

"अरे...तुम इसे मर्डर बोलते हो, मैं इसे मालिश बोलता हूं....यदि हां तो तुम्हें यह काम अभी मिल जा सकता है...बोलो..."

"नहीं नहीं सर...मैं कोई ऐसा-वैसा काम नहीं करना चाहता...अच्छा मैं जाउं...?" वह तुरत वहां से चला गया...

वर्तिका -"यह मनुष्य बहुत काम का जान पडता है....हमारे बहुत काम आ सकता है..."

"तुम्हारे काम....नो नो...मैं नहीं चाहता तुम्हारे यह काम आये....मैं जो हुं तुम्हारा काम करने के लिये..."

"काम...?कैसा काम...?"

"मालिश...और क्या...?"

"ओ नो....."

 

सिद्‍ध ने महेन्द्र के आवास जाने का विचार किया जिससे वह उसकी वास्तविक स्थिति का अनुमान लगा सके...उसे महेन्द्र के आवास का पता पूर्व (पहले) से ही ज्ञात था, अतः यह जान कि वह अभी आवास में है वहां पहुंच गया...- "जरा अपना बैंक पास-बुक दिखाना..." उसके पास बुक में डिपोजिट की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी...कभी एक हजार...पांच सौ रुपये...तो कभी दो हजार रुपये जमा किये गये थे प्रत्येक मास...केवल एक एण्ट्री थी दस हजार रुपये की बडी धनराशि की...और वह भी जमा की गयी थी वर्धन की मृत्यु के दो दिन पश्चात्‌..."कहां से आये ये दस हजार रुपये...?"

"जी, किसी से उधार लिया था..."

"हूं..." कोई और विशेष बात न पा वह उसे पास बुक लौटा देता है...पर महेन्द्र के पासबुक सूटकेस में रखते समय उसे पासबुक के आसपास कुछ और कागज दिखते हैं जिनकी ओर उसका मन आकर्षित हो जाता है...- "ये कागज कैसे है...?जरा दिखाना..."

सिद्‍ध पाता है कि वे अधिकतर कैश-मेमोज थे...ये ये ये...फ्रिज...वाशिंग मशीन...बडी धनराशि के क्रय (खरीद) हैं...इन दोनों के क्रय में लगी धनराशि प्रायः दस हजार रुपये...क्रय तिथि...वाह...दोनों की एक ही है...ओ नो...वर्धन की मृत्यु के अगले ही दिन..."केवल दस हजार ही नहीं, कुल बीस हजार रुपये इस दिनांक में तुम्हारे संग थे...किसने दिये तुम्हें इतने रुपये...?"

"जी...वर्धन के अनुज भ्राता नन्दन ने दिये थे...मैंने उधार मांगा था..."

"क्यों मांगा था उधार..? ऐसी क्या आवश्यकता आ पडी थी...? कहां है वह कागज जो तुम्हारे नन्दन से उधार लेने का प्रमाण है...?"

"जी, लिखा-पढी तो कुछ भी नहीं हुई थी...बस मुझे आवश्यकता थी और उनने मुझे हाथ में दे दिये.."

"कब लौटाओगे रुपये...? कोई काम तो नहीं करवाया था इन रुपयों को दे...?"

"जी, लौटाना तो कभी नहीं है...क्योंकि जो मैं वर्धन साहब की मालिश करता था, उसका पारिश्रमिक इन्हीं रुपयों से कटना था...:"

"अब लौटाओगे कैसे..?"

"जब वर्धन साहब नहीं रहे तो अब नन्दन साहब ही कभी-कभी मुझसे काम ले लिया करेंगे...ऐसे ही जितने भी समय में अब उधार चुके..."

सिद्‍ध तुरत भाभी को फोन कर महेन्द्र को दिये बीस हजार रुपयों के सम्बन्ध में पूछता है, पर भाभी ऐसे किसी उधार की जानकारी न होने की बात बताती है...महेन्द्र को प्रत्येक मास वह स्वयम्‌ ही रुपये देती रही है...अर्थात्‌ महेन्द्र झूठ बोल रहा है...

"भाभी कह रही है कि तुम प्रतिमास समय से पारिश्रमिक उन्हीं से लेते रहो हो, और नन्दन के संग ऐसी कोई बात नहीं हुई थी कि अब नन्दन तुम्हें पारिश्रमिक दिया करेगा...अतः स्पष्ट बताओ, बात क्या है...?"

महेन्द्र कुछ उत्तर नहीं दे पा रहा है...

"तो तुम मानते हो कि तुमने ये रुपये नन्दन से फ्री में लिये थे...? या कोई विशेष काम करने के लिये नन्दन ने तुम्हें ये रुपये दिये थे...?"

"हो सकता है वह भूल गयी हों...मुझे पारिश्रमिक देने के समय उन्हें स्मरण आता कि औलरेडी मुझे दिया जा चुका है..."

सिद्‍ध नन्दन को फोन करता है और पूछता है, पर वह महेन्द्र को कुछ सौ रुपये मात्र देने की बात स्वीकार करता है जो उसके पारिश्रमिक से कट जायेंगे...तब सिद्‍ध उस स्थान से सम्बद्‍ध पुलिस श्टेशन पहुंचता है और इंस्पेक्टर को सारी बात बताता है...इंस्पेक्टर फोन कर महेन्द्र को पास बुक और कैशमेमोज के संग बुलाता है...और उनका निरीक्षण करता है...-"वैसे तो यह केस हमारे अधिकार क्षेत्र का है, पर जब आप देख रहे हैं तो, यू प्रोसीड औन...मुझसे जो सहायता चाहिये वह आपको मिलता रहेगा...और हां महेन्द्र, तुम दिन भर इस नगर क्षेत्र के अन्दर ही जितना भी काम कर सकते हो, पर रात ८ से प्रातः ५ पर्यन्त तुम्हारा अपने आवास में रहना अनिवार्य है..."

 

सिद्‍ध और महेन्द्र दोनों पुलिस श्टेशन से चले जाते हैं...सिद्‍ध फोन कर वर्तिका को बुलाता है...दोनों एक कैफे में बैठ कौफी पी रहे हैं...तत्पश्चात्‌ कार से आगे बढते हैं..."यूं तो मेरे पास कई सन्देहास्पद व्यक्तियों की सूची है, पर इस समय केवल नन्दन और महेन्द्र सन्देह की सूची में सबसे आगे हैं...

"However, we both now should enjoy the moments..."

सहसा चार बाइकर्स उसकी कार को चारों ओर से घेर रोक लेते हैं और धमकाते हैं -"ऐ छोकरे...तू जीना चाहता है तो रुपये कमा और आराम से खा...इधर-उधर झांकता न चल...कुछ समझा क्या...?"

इसके पूर्व कि वे कुछ और बोलें, सिद्‍ध अपना लाइसेन्सी रिवाल्वर ले बाहर निकलता है और कहता है -"मेरा काम ही है वह जिसे करने से तू रोकना चाहता है...तब मैं जीकर करुंगा भी क्या...? उसके बोल्डली बाहर आ साहस के संग ऐसे रिवाल्वर के संग बोलने से वे चारों घबडा गये और विना विलम्ब किये वहां से भाग गये...सिद्‍ध ने कार आगे बढायी और एक रेष्टोरेण्ट के आगे रोका....वे दोनों कुछ खा-पी रहे हैं....

"क्या महेन्द्र के भेजे गुण्डे थे वे....?"

"महेन्द्र इतना धनी तो लगता नहीं..."

"यदि नन्दन या महेन्द्र किसी एक से भी कडायी से पूछताछ की जाये तो रहस्य खुल जा सकता है कि किसने वर्धन की हत्या की और करवायी..."

एक व्यक्ति बगल वाले टेबल पर बैठा उन दोनों की बातें बडे ध्यान से पर सर झुकाये सुन रहा था...वह कहता है -"मैं आरम्भ से ही आप दोनों की बातें सुन रहा हूं...आपका कहना है कि मरनेवाले व्यक्ति को न तो कोई रोग था न किसी ने चोट पहुंचायी थी या किसी ने विष दिया था...पर वह सहसा चीख मार कुर्सी से गिर गया और देखते ही देखते मर गया...?"

"हां...पर एक कष्ट या रोग था कि उनके बांयें टखने के ऊपर हल्का भी चोट लगने पर उन्हें असहनीय पीडा होती थी...तब भी एल आई सी ने पूरा क्लेम दे दिया क्योंकि वह कोई रोग सिद्‍ध नहीं हो पाया था..."

"पर उस समय उन्हें चोट आदि कुछ भी नहीं लगा था...?"

"हां ऐसा ही है..."

"तब एक कारण मृत्यु का जो हो सकता है, जो मेरी जानकारी में है...सम्भवतः आप इससे सहमत न हों...वह है....वह अभी जाने दीजिये....वह मैं बाद में बताउंगा...तब जब मैं इस साधारण समझ की बात से सच न पा पाउं...मैं स्वयम्‌ ही मिलता हूं महेन्द्र से...मेरा कुछ अलग ही ष्टाइल है सच उगलवाने का...पर उसका चार्ज आपको देना पडेगा..."

"कितना...?"

"अभी तो TA+DA+other expenses, but later the reward, only after success,that brings the real culprit behind bars..."

"दोनों में से एक से भी सच उगलवा देने में कितने रुपये लगेंगे...?"

"लगने को तो बहुत लगेंगे, पर अभी आप केवल एक हजार रुपये दे दें,...क्योंकि कुछ कर दिखाने के पश्चात्‌ ही अपना मूल्य बताया जा सकता है, जो कहीं अधिक होगा..." 

सिद्‍ध से नन्दन और महेन्द्र के ऐड्रेसेज और फोन नम्बर्स तथा एक हजार रुपये ले शीघ्र वहां से चला जाता है वह व्यक्ति....दोनों उसे जाता हुआ देख रहे हैं....

"मैंने एक हजार रुपये का रिस्क लिया है, परन्तु तभी जब वह व्यक्ति विश्वसनीय लगा..."

"अब आगे का क्या प्लान है...?"

"हमलोग प्रत्येक बीतते क्षण का आनन्द लें...कोई मूवी देखें..." दोनों एक मूवी देख रहे हैं...एक गाना चल रहा है...सिद्‍ध और वर्तिका स्वयम्‌ की कल्पना हीरो-हीरोइन के स्थान पर कर रहे हैं जैसे वे दोनों ही वह गाना गा रहे हैं...गाना का अन्त होते-होते उस व्यक्ति औजस का फोन आता है कि उसने महेन्द्र से यह स्वीकार करवा लिया है कि उसने नन्दन से बीस हजार रुपये वर्धन की हत्या करने के लिये लिया था...स्वीकारोक्ति रिकार्डिड है...पर कैसे मारा यह बडा ही अलग ष्टाइल है उसका...क्योंकि उसका कहना है कि उसके मारे विना ही वह मर गया...उसका कहना है कि उसने केवल मारने को सोचा और वह मर गया...

औजस उस मूवी हौल को पहुंचता है और महेन्द्र के रिकार्डिड कथन उन्हें सुनाता है...

सिद्‍ध नन्दन को फोन करता है -"मिष्टर...महेन्द्र ने यह स्वीकार कर लिया है कि तुमने उसे बीस हजार रुपये दिये थे वर्धन की हत्या करने के लिये..."

"तो क्या हुआ...अभी कई ऐसे व्यक्ति मिल जायेंगे जो यह स्वीकार कर लेंगे कि तुमने उन्हें रुपये दिये थे वर्धन की हत्या करने के लिये..."

सिद्‍ध औजस से - "कोई प्रमाण भी तो होना चाहिये कि नन्दन ने महेन्द्र को दिये थे रुपये वर्धन की हत्या करने के लिये...? केवल आरोप लगा देने से वास्तविक अपराधी की जानकारी पायी नहीं जा सकती..."

औजस महेन्द्र से -"परन्तु इसका क्या प्रूफ है कि नन्दन ने ही तुमसे यह हत्या करवायी थी...?

"मैंने कोई हत्या नहीं की...मैं जब पहुंचा तो वर्धन वहां मरा पडा था...पर मैंने नन्दन से बीस हजार रुपये लेने के लिये यह कह दिया कि मैंने वर्धन की हत्या कर दी है..."

"पर नन्दन ने तुम्हें कौण्ट्रैक्ट किलर के रूप में वहां भेजा यह तुम्हें सिद्‍ध करना होगा..."

"ठीक है...मैं नन्दन से बात करता हूं जिसे रिकार्ड कर प्रूफ बनेगा..." वह नन्दन को फोन करता है -"साहब साहब मुझे बचा लीजिये...कुछ लोगों ने मुझे पकड लिया है और एक गोडाउन में बन्द कर दिया है...वे कहते हैं कि मैंने ही वर्धन साहब का मर्डर किया है...मुझे बचा लीजिये...."

"अरे साले कमीने...एक तो तूने उन्हें यह कहा कि मैंने तुझे बीस हजार रुपये दिये थे वर्धन के मर्डर के लिये, और अब तू चाहता है मैं तुझे बचाउं...?"

"जो सच था उन्होंने मेरे मुंह से निकलवा लिया, इतना विवश किया..."

"तो अब मर..."

"साहब मुझे मरने से बचा लीजिये...यदि मैं जीवित रहा तो आपके बहुत काम आउंगा..."

"ठीक है...कहां से बोल रहा है तू अभी...? मैं अभी अपने आदमियों को भेजता हूं..."

परन्तु तभी ’ऊह्‌ आह्‌ ..’ स्वर और ध्वनियां गूंजी और कौल डिस्कनेक्ट हो गया...

महेन्द्र -"ये रिकार्डिंग हो गयी, जो प्रूफ बन सकती है..."

सिद्‍ध, वर्तिका, औजस, महेन्द्र पुलिस ष्टेशन पहुंचते हैं और इंस्पेक्टर से मिल सारी बात बताते हैं और रिकार्डिंग की एक कौपी उसे सौंपते हैं...इंस्पेक्टर तुरत नन्दन को फोन कर थाना बुलाता है और अकेले उसे उस रिकार्डिंग को सुनाता है....नन्दन -"महेन्द्र ने मुझसे फोन कर कहा कि वह टायलेट से बोल रहा है...कुछ लोग उसे पकड यह कहने पर विवश कर रहे हैं कि आप ने ही मुझे बीस हजार रुपये दे वर्धन की हत्या का कौण्ट्रैक्ट दिया था...आप स्वीकार कर लें कि आप ही ने वर्धन को मार डालने की सुपारी मुझे दी थी, नहीं तो ये मुझे मार डाल सकते हैं...साहब मुझे बचा लीजिये...तब मैंने महेन्द्र की बात मान ली और उसका कौल दुबारा आनेपर मैंने उसकी इच्छानुसार उसे उत्तर दे दिया..." इंस्पेक्टर ने उससे कुछ और बातें कीं और उसे जाने दे दिया...पुनः सिद्‍ध आदि से बात की....

महेन्द्र-"पर मेरी तो नन्दन से ऐसी कोई बात नहीं हुई..."

तब सिद्‍ध ने नन्दन के मोबाइल सिम कम्पनी से इस सम्बन्ध में बात की तो जानकारी मिली कि नन्दन ने न तो महेन्द्र के मोबाइल से और न ही कहीं और से दिन के  १० बजे से ३ बजे तक कोई कौल रिसीव किया है...महेन्द्र ने आज १० बजे से पूर्व ही एक बार नन्दन को कौल किया था जिसके पश्चात्‌ नन्दन ने वे चार बाईकर्स सिद्‍ध के पीछे भेजे थे...तब इंस्पेक्टर ने पुनः नन्दन को वापस बुलाया और प्राप्त रिकार्डिंग के आधार पर उसे अरेष्ट कर लिया...जब नन्दन से पर्याप्त कडायी से पूछताछ की गयी तो उसने स्वीकार कर लिया कि उसने महेन्द्र को २० हजार रुपये दिये थे वर्धन की हत्या करवाने को, क्योंकि उसे भय था कि कहीं वर्धन उसे आधी सम्पत्ति पाने के अधिकार से वंचित कर दे सकता है पत्नी के बहकावे में आकर...

नन्दन और महेन्द्र को कोर्ट में प्रस्तुत किया गया जहां महेन्द्र ने यह स्वीकार करने से मना कर दिया कि उसने वर्धन की हत्या की है, क्योंकि जब वह वहां पहुंचा तो वर्धन गिरकर मर चुका था,  पर २० हजार रुपये पाने के लोभ से उसने नन्दन को यह कहा कि उसने वर्धन की हत्या कर दी है...सीसीटीवी फुटेज भी यही बताता है...

 तब कोर्ट  ने नन्दन और महेन्द्र को हत्या के षड्यन्त्र का दोषी ठहराया, पर प्रश्न यह उठा कि वास्तविक अपराधी कौन है...क्योंकि विना कारण कोई गिरकर मर जाये यह बात स्वीकार करने योग्य नहीं है...

सिद्‍ध ने मस्तिष्क दौडाना आरम्भ किया...-"वर्तिका, तुम्हारे पिता तो तान्त्रिक मान्त्रिक और दिव्य शक्तियों वाले हैं...वे यदि यह बता पायें कि किसने की है यह हत्या...वर्तिका ने सुरेन्द्राचार्य से बात की और दोनों पहुंच गये सुरेन्द्राचार्य के औफिस...वहां प्रश्न पूछने की फीस पांच सौ एक रुपये सिद्‍ध को भोलानाथ को देने पडे....

"जिस दिन वर्धन आपसे हाथ दिखाने आये थे उसी दिन एक घण्टे के अन्दर उनकी मृत्यु हो गयी...क्या कारण हो सकता है उनकी मौत का...?"

सुरेन्द्राचार्य ने कुछ घबडाते हुए कहा -"ओ हो...यह तो बहुत बुरा हुआ...पर प्रश्नकुण्डली यह बताती है कि उनकी स्वाभाविक मौत हुई थी, किसीने उनकी हत्या नहीं की..." सिद्‍ध ने यह ध्यान दिया कि सुरेन्द्राचार्य ऐसे घबडा रहा है जैसे उसी पर वर्धन की हत्या का आरोप लगाया जा रहा हो...वह सुरेन्द्राचार्य के कक्ष से बाहर निकल भोलानाथ से वर्धन के सम्बन्ध में पूछता है...रजिष्टर में वर्धन का विवरण देखता है तो पाया कि वह     

काटा हुआ था...कारण पूछने पर भोलानाथ ने बताया..-"हमने उनके विवरण को काट दिया है, क्योंकि...क्योंकि उनकी फीस उनको लौटा दी गयी थी..."

"लौटा दी गयी थी...? ऐसी क्या बात हुई थी...स्पष्ट बताओ...?" जब शिष्य ने टालमटोल करना चाहा तो सिद्‍ध ने गम्भीरता से कहा- "यह मर्डर का केस है...कुछ भी छिपाने का प्रयास करोगे तो तुम भी सन्देह की सीमा में आ जाओगे..."

"जी...वे गुरुजी की भविष्यवाणी से सन्तुष्ट नहीं थे, और उनने अपने छाते की मूंठ से सुरेन्द्राचार्य पर प्रहार करने का प्रयास भी किया था...तब जाकर ही गुरुजी ने उनके रुपये लौटाने को कहा, यद्‍यपि गुरुजी बहुत क्रुद्‍ध हो गये थे..."

"तो क्या वर्धन की हत्या में सुरेन्द्राचार्य का हाथ हो सकता है क्या....?"

"ये कैसे हो सकता है..,?"

"अपनी तान्त्रिक मान्त्रिक शक्तियों से...या किसी आत्मा या भूत को भेज दिया हो...?"

"ऐसा हो सकता है...पर इसकी मुझे जानकारी नहीं..."

"कहीं तुमदोनों में से किसी एक को भेजा हो...?"

"परन्तु आप विश्वास करें, हमलोगों को इस सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं है..."

सिद्‍ध ने जब कडायेी से भोलानाथ से पूछा तो घबडाकर उसने स्वीकार कर लिया कि आत्मा के रूप में वह कहीं भी जाकर किसी भी को कोई भी हानि पहुंचा दे सकता है, हत्या भी कर दे सकता है....पर वर्धन के सम्बन्ध में उसे कोई जानकारी नहीं है...न ही गुरुजी उसे इस सम्बन्ध में बतायेंगे...

 

दिन में संयोग से सिद्‍ध और वर्तिका से औजस मिलता है...औजस-"अब मैं एक अन्य कारण बताना चाहता हूं जो वर्धन की मृत्यु का कारण हो सकता है..."

"वह क्या...?"

"वह है मानसिक प्रहार..." दोनों चौंके...

"हां...मैं कुछ वर्ष एक योगी के सम्पर्क में रहा, तो उसने मुझे यह बताया था..."

"यदि यह मान भी लें, तो हमें इसे सिद्‍ध करना होगा...!"

औजस ने मन ही मन सिद्‍ध के गाल पर थप्पड मारा और पूछा-"कुछ अनुभव हुआ आपको...?"

"हां, ऐसा लगा मानो किसी ने मेरे गाल पर थप्पड मारा हो..."

"इसे कहते हैं मेण्टल हिट....यदि लगातार तीव्र गति से मारा जाये तो यह मेण्टल बीटिंग कहलाता है...यह सम्भव है कि उस समय वर्धन के टखने के ऊपर किसी ने ऐसा तीव्र मानसिक प्रहार किया कि वर्धन सह न सका और मर गया..."

"यह थ्योरी की बात है...यदि प्रैक्टली ऐसा कर किसी को यदि अचेत भी यदि कर दिया जाये तो मेण्टल अटैक से मर्डर की बात मान ली जा सकती है..."

"Earning mental energy is a difficult work whereas to lose it is a simple work to hit somebody mentally...मेरी जानकारी में एक आध्यात्मिक  योगी व्यक्ति हैं- राघवेन्द्र कश्यप....आइये, इस सम्बन्ध में उनसे मिल बात करते हैं..."

तीनों राघवेन्द्र कश्यप के आवास पहुंचते हैं...

"मनुष्य वास्तव में आत्मा है, यह जीवशरीर नहीं...आत्मा अनुभूति का वस्तु है...मन आत्मा का अस्त्र-शस्त्र (हथियार) है...मन के द्‍वारा ही मनुष्य अच्छा या अशुभ सभी कर्म करता है....मन की शक्ति का दुरुपयोग करना अपनी आत्मशक्ति को ही हानि पहुंचाना है..."

"क्या मानसिक प्रहार से किसी व्यक्ति की हत्या कर दी जा सकती है...?"

"हां...पर उसके लिये किसी बली आत्मा की आवश्यकता होगी...उसका मन सावधान और बली होना चाहिये..."

"यदि आत्मा बहुत बली न हो तो...?"

"तो भी मन को एकाग्र कर मन के माध्यम से कई कर्मों को करने  की शक्ति पायी जा सकती है...इसका सदुपयोग किया जा सकता है...इसका दुरुपयोग किया जा सकता है..."

तीनों वर्धन की मृत्यु की घटना बता अपराधी जान पाने की आशा करते हैं...

"जैसी घटना घटी, और उसके ठीक पूर्व वर्धन की सुरेन्द्राचार्य के संग विवाद...मुझे सुरेन्द्राचार्य का कुछ अनुमान है...वह बहुत ही दुष्ट है...अवश्य उस अपमान से आहत हो  उसने मन की आंखों से वर्धन को देखते हुए वर्धन के सबसे दुर्बल अंग पर उसने इतना तीव्र मानसिक प्रहार करना आरम्भ किया कि वर्धन सह न पाये और मर गये...वर्धन ने सुरेन्द्राचार्य को अपना सबसे दुर्बल अंग स्वयम्‌ ही बता दिया था..."

"क्या आप श्योर हैं...?अर्थात्‌ योग-साधना की शक्ति से आप यह सच जान गये हों....?"

"नहीं, मैं तो केवल अनुमान से बता रहा हूं कि ऐसा हुआ सम्भव लगता है..."

तीनों राघवेन्द्र कश्यप को नमस्कार कर चले जाते हैं,,,,

 

"यह तो स्पष्ट हो गया कि अपराधी कौन है...अर्थात्‌ सुरेन्द्राचार्य..."

"अरे, उनने केवल अनुमान से बताया है...कोई ध्यानसाधना में योग की शक्ति से जान तो बताया नहीं..."

"पर\, इतना तो लाभ हुआ, कि हम सुरेन्द्राचार्य पर सन्देह कर सकते हैं...."

"ये लो समाचारपत्र पढो, क्या छपा है, देखो..." तीनों एक समाचार-लेख पर ध्यान जमाये हैं -’एक संस्कृत छात्र सुनील उपाध्याय का शरीर कोमा जैसी स्थिति में दिली विश्वविद्‍यालय के एक छात्रावास में पडा है....जबकि कुछ व्यक्तियों ने यह बताया है कि

सुनील आत्मा के रूप में शरीर से बाहर जा रह रहा है, और उसका शरीर जीवित बना हुआ अचेत-सा पडा है....आत्मा के रूप में सुनील विश्व का आतंक है, क्योंकि उसमें इतनी प्रबल मानसिक शक्ति है कि वह किसी भी व्यक्ति को किसी भी प्रकार से हानि पहुंचा दे सकता है...अतिक्रोध उत्पन्न कर देना, अतिशय कामुकता, सन्देह, अति भय, झूठी समझ, अतिलोभ, आदि उत्पन्न कर देना उसके बायें हाथ का खेल है...वह मन के कोडे ऐसे मारता है  कि व्यक्ति को तीव्र पीडा होती है....अभी तकर उसने कितने ही स्त्री और पुरुषों में कामवासना इतनी अधिक उत्पन्न कर दी उन्हें लगा वे स्वयम्‌ ही सेक्सुअली करप्ट हो गये हैं जबकि वहां सुनील का अतिमलिन और कामभ्रष्ट मस्तिष्क काम कर रहा होता है...कितने ही लोगों को उसने अपराध, पाप, भ्रष्टाचार, आदि करने की बली प्रेरणा वह देता रहा और करवाता रहा है और करवा रहा है...जहां सुनील मानवसमाज के लिये इतना अधिक घातक बना है वहीं कुछ व्यक्ति उसके शरीर को सुरक्षित बनाये रख सुनील के अपराधों में स्पष्ट रूप से भागीदार हैं...कई व्यक्तियों से सुनील 

 ने बातें की हैं, और वे सभी इस बात के साक्षी (गवाह) हैं....’

सिद्‍ध- "यदि यह सच है, तो निश्चय ही आत्मा जैसी कोई वस्तु होती है, और सुरेन्द्राचार्य अपराधी हो सकता है...मेरा मन अब इस सम्बन्ध में मानसिक प्रहार की बात स्वीकार कर सकता है...इससे पूर्व मैं यह सोच रहा था  कि सुरेन्द्राचार्य ने ही हत्या करवायी है, परन्तु किसी ऐसे ट्रिक से जिसे हमारी बुद्धि अभी तक पकड नहीं पायी..."

 

एक दिन सिद्‍ध अपनी कार की दिशा वर्तिका के आवास की ओर करता है...वहां पहुंच बेल बजाता है...वर्तिका द्‍वार खोलती है तो ’हाय’ कह सीधा अन्दर प्रवेश कर सोफे पर बैठ जाता है...वर्तिका अवाक्‌ रह गयी -"ये क्या कर रहे हो...? तुम जानते हो, पापा तुम्हें पसन्द नहीं करते...वो अभी अन्दर ही हैं...!"

"कोई बात नहीं, प्यार किया तो भय करना क्या...एक दिन तुम्हें मेरे संग रहने संग मेरे चल देना है....कल न सही आज ही..."

वर्तिका उसके इतने बोल्ड और निर्भय प्रस्ताव को देख चिन्तित हो उठी कि यदि दोनों में कोई तनाव की स्थिति उत्पन्न हुई तो वह क्या निर्णय लेगी...! पर सिद्‍ध की प्रसन्न मनःस्थिति को देख वह चिन्ता छिपा आराम से बातें करने लगी....धीरे-धीरे दोनों खुलकर बातें करने लगे...उनका स्वर अन्य कक्षों में भी पहुंचने लगा...तब सुरेन्द्राचार्य वहां आ पहुचा...सिद्‍ध ने बैठी स्थिति में नमस्कार कहा...सुरेन्द्राचार्य ने तीव्र दृष्टि से उसे देखा पर कुछ कहा नहीं और बरामदे में जाकर चुप उन दोनों के सम्बन्ध में विचार करने लगा...सिद्‍ध और वर्तिका यह अनुभव कर रहे थे कि सुरेन्द्राचार्य उन्हीं दोनों के सम्बन्ध में ध्यान जमाये है, तब भी दोनों पुनः खुलकर बातें करने लगे....चार-पांच मिनट पश्चात्‌ सिद्‍ध और वर्तिका बाहर निकलते हैं. सिद्‍ध कार की ओर बढता है...वर्तिका -"पापा, मैं अभी आ रही हूं...सिद्‍ध के संग कहीं जाना है..."

सुरेन्द्राचार्य सिद्‍ध से-"तुम्हारा इण्टेशन क्या है...? इसके पीछे पडे हो..."

"विवाह का..."

"तुम्हें स्मरण होगा, मैंने कुछ कण्डीशन रखा था इसके लिये...कहां है वो...? लाओ, और ले जाओ, चाहे जितने भी समय के लिये..."

’रुपये यदि इसमें बाधा बन रहे हों तो मैं देने को तैयार हूं..."

"तो लाओ तुरत और लेते जाओ....कुछ घण्टों के लिये नहीं, पूरे जीवन भर के लिये लेते जाना....पर तबतक यह तुम्हारे संग कहीं नहीं जायेगी...वर्तिका,,,चलो अन्दर..."

सिद्‍ध दुविधा में खडा रहा...वर्तिका उसकी वैसी स्थिति देख चुपचाप अन्दर चली गयी...सिद्‍ध - "आप तो मुझे जानते ही हैं...मैं आपका एक इण्टरव्यू अपने ’समाचारपत्र’ में प्रकाशित करना चाहता हूं...बडा-सा, और आकर्षक हो..."

"तो, उसके लिये तुम्हें मेरे कार्यालय आना चाहिये था..."

"अभी मेरे पास समय है...आगे समय मिले या न मिले..."

"अच्छा, पूछो..."

"पहले एक फोटो आपका...(एक क्लोज अप क्लिक करता है)....अब बैठकर यदि बातें की जायें तो अच्छा रहेगा..."

"हूं..." कह सुरेन्द्राचार्य पीछे द्वार की ओर मुडता है...सिद्‍ध भी उसके पीछे जा उसके पश्चात्‌ सोफे पर बैठ जाता है...

"हूं..." सुरेन्द्राचार्य संकेत करता है...

"आप पूरे नगर ही नहीं, पूरे राज्य के जाने-माने ज्योतिषियों में एक हैं...आपकी इतनी अधिक सफलता का रहस्य..?"

"रहस्य वह होता है जो अन्यों से छुपाकर रखने योग्य होता है, तब मैं यह रहस्य कैसे खोल दूं....!"

"तन्त्र साधना और मन्त्र साधना में क्या अन्तर है....?"

"मन्त्र साधना प्रायः शुभ रूप में ही होता है...जबकि तन्त्रसाधना के शुभ और अशुभ दोनों ही रूप होते हैं...इसमें पूज्य केवल देव ही नहीं, अपितु राक्षस आदि अशुभ आत्मायें भी हो सकती हैं....वैसे, यह भी मन्त्रसाधना का ही एक रूप है..."

"आपने तन्त्रसाधना ही क्यों चुना,,,?"

"भविष्यवाणी करने, और प्राप्त शक्तियों से धन अर्जित करने के लिये तन्त्र साधना ही चुना..."

"और क्या-क्या लाभ हैं इससे....?"

"मानसिक बलवृद्धि होती है..."

"मानसिक बलवृद्धि से क्या-क्या लाभ हो सकते हैं...?"

"ऐसा बली मन पूरे संसार में कहीं से भी भूत, वर्तमान, और भविष्य का ज्ञान एकत्र कर लाता है...दूसरा लाभ, ऐसा मन अन्य मनों को प्रभावित कर दे सकता है...तीसरा, ऐसा मन अपने बल से किसी भी वस्तु या व्यक्ति की स्थिति में विचारणीय अन्तर ला दे सकता है..."

"यह तीसरी स्थिति स्पष्ट करेंगे...?"

"बली और एकाग्र मन दूर भी स्थित किसी वस्तु को उठा या सरका दे सकता है...किसी व्यक्ति के मन को कोई भी काम करने को प्रवृत्त कर दे सकता है...किसी व्यक्ति पर प्रहार कर पीडा भी पहुंचा सकता है..."

"यदि यह पीडा कण्ठ, या श्वासनली जैसे मर्म अंग पर पहुंचायी जाये तो क्या व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है...?"

"अं...हां...पर...व्यक्ति का अपना भाग्य भी तो काम करता है..."

इसी समय वर्तिका वहां का दृश्य देख आश्चर्य चकित रह गयी...सिद्‍ध के संकेत करने पर वह तुरत कौफी बना ले आयी दोनों के लिये...

"तो...दूर बैठे या निकट बैठे भी किसी व्यक्ति को कोई व्यक्ति क्या विना छूये या प्रहार किये केवल अपने मन के बल से मार दे सकता है...?"

"देखो, बात इतनी सी है कि यदि मन बली हो तो अपनी कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हो जाता है...जैसे किसी ने कामना कि कुछ ऐसा घटे, तो घटनायें उस अनुसार रूप ले उभर सकती हैं...बली मन लाभ पहुंचा सकता है और हानि भी..."

और भी बातें हुईं...अगले दिन चित्र के साथ सुरेन्द्राचार्य का इण्टरव्यू छपा...सिद्‍ध ने फोन कर वर्तिका से सुरेन्द्राचार्य की प्रतिक्रिया पूछी -"पापा यह इण्टरव्यु देख प्रसन्न हुए, बोले यह काम का मनुष्य जान पडता है..."

"क्या अब मैं तुम्हारे आवास आ सकता हूं...?"

"मैं पूछती हूं...अं......हं.....हां, कह रहे हैं कि आ सकता है, पर इतने से काम नहीं चलेगा, कुछ ऐसा करो जिससे उनका नाम बहुत फैले...और....पापा अभी औफिस जाने ही वाले हैं, तुम आ जा सकते हो..."

सिद्‍ध वहां पहुंच वर्तिका संग गप्पे मार रहा है...वर्तिका सिद्‍ध को सारा आवास दिखला रही है...एक स्थान पर एक टूटी मूर्ति रखी थी...सिद्‍ध के पूछने पर वह बतायी - "यह पापा के इष्ट देव की मूर्ति है...टूटी कैसे यह तुम जानकर हंसोगे....हुआ यह कि एक दिन पापा तन्त्रसाधना कर रहे थे तो उसी समय उनका प्रतिद्‍वन्द्‍वी तान्त्रिक भी तन्त्रसाधना में लगा था...पापा का कहना है कि विना साधना-सिद्धि के केवल पुस्तकें पढकर कोई भूत-भविष्य नहीं जान ले सकता है...पर यह पापा के मन की बुरायी थी कि उनने मन से देखा-जाना उस तान्त्रिक को, और अपनी मानसिक शक्ति से उसपर आक्रमण कर उस तान्त्रिक को उसके साधना स्थल पर ही गिरा अचेत कर दिया..."

"क्या मानसिक प्रहार या आक्रमण कर किसी को अचेत कर दिया जा सकता है...?"

"पापा तो कहते हैं कि मानसिक आक्रमण से किसी को मार भी डाला जा सक्ता है..."

"यदि तुम यह जानती थी तो मेरे इन्वेष्टीगेशन के समय कभी यह बात तुमने मुझे बतायी क्यों नहीं...?"

"कोई प्रमाण तो उनके विरुद्‍ध हो....उनमें ऐसा सामर्थ्य है...पर इसका अर्थ यह नहीं कि उनने ही हत्या की है....यदि उनके विरुद्‍ध प्रमाण मिले तो मैं भी तुम्हारा साथ दूंगी..."

सिद्‍ध वहां से लौट अपने प्रेस-औफिस पहुंचा, कुर्सी पर बैठा, चिन्तनमग्न हो गया कि यदि ऐसा सम्भव है तो...तो...तो....

 

एक बली व स्वस्थ शरीर वाला व्यक्ति सुरेन्द्राचार्य के ज्योतिष कार्यालय में प्रवेश करता है...."भैया, मुझे अपना भविष्य जानना है..."

"जन्मकुण्डली लाये हैं क्या श्रीमान्‌..." भोलानाथ ने पूछा..,

"अपना हाथ...जगन्नाथ..." पंजा दिखलाता है....

"सामान्य भविष्य फलकथन का शुल्क केवल पांच सौ एक रुपये...अभी दें..."

वह बली रुपये निकाल देता है...बुलाये जानेपर बली अन्दर सुरेन्द्राचार्य के कक्ष में प्रवेश कर बैठता है...सुरेन्द्राचार्य उसका हाथ देख उसका फल

 बताता है...बली सुन तो रहा है पर इसपर विचार नहीं कर रहा है कि फल सत्य है या असत्य...अधिकतर वह उसके कथन को काट रहा या उसकी हंसी बना दे रहा है...-"अच्छा, ये तो बतायें, मेरा आज का दिन कैसा बीतेगा...?"

"आपकी प्रश्नकुण्डली तो बता रही है कि दिन कुल मिलाकर अच्छा बीतेगा...सफलता मिलेगी...जो समस्या होगी उसका समाधान करने में आप सफल हो जा सकेंगे..."

"ठीक है...ऐसा है...आप अपने शिष्य से कहें कि वह मेरे ५०१/- रुपये मुझे वापस कर दे..."

"क्यों..? भविष्यफल आपको बताया जा चुका है...!”

"देखो...यदि आज मुझे कार्यों में सफलता मिल जायेगी, तो समस्या का समाधान होते ही तुम्हारी समस्या का भी समाधान कर दूंगा...५०१ रुपये तुम्हें मिल जायेंगे..."

"ऐसा कहां होता है...?"

"सभी स्थानों पर ऐसा ही होता है...काम होने जाने पर पेमेण्ट कर दिया जाता है...यदि पहले भी पेमेण्ट किया तो काम न हो पाने की स्थिति में रुपये वापस कर दिये जाते हैं..."

"परन्तु, किसी भी ज्योतिषी के साथ ऐसा होता सुनने में नहीं आया है...और यहां भी नहीं होगा...अब आप जा सकते हैं..."

"पर, सुनो....यह तो गुण्डागर्दी होगी कि काम भी नहीं हुआ और शुल्क भी ले ली...अगर ऐसा करना हो तो करो, पर देखो, तुममें और मुझमें कौन अधिक बलवान्‌ है..." ऐसा कह उसने टेबल पर एक भारी घूंसा मारा...कुछ वस्तुयें उछल गयीं...दोनों शिष्य दौडे-दौडे अन्दर आये...

’’हं’ मेरे ऊपर आक्रमण....!" ऐसा कह बली दोनों शिष्यों के गले पकड उठाने लगता है...तब सुरेन्द्राचार्य उठकर उन्हें छुडाना चाहता है कि बली एक हाथ से सुरेन्द्राचार्य का गला पकड लेता है...तब सुरेन्द्राचार्य किसी प्रकार अपना गला छुडा भोलानाथ को कहता है कि वह बली को रुपये लौटा दे...बली को ५०१ रुपये लौटा दिये जाते हैं...बली मुस्कुराकर रुपये लेते हुए सुरेन्द्राचार्य से कहता है- "रुपये यदि लूटने हों जनता के पौकेट्स से तो न केवल तुम अपने शरीर को और अधिक बली बनाओ, कुछ बली गुण्डों को भी पाल लो...समझे..." ऐसा कह वह बाहर निकल सीढियों से नीचे उतरने लगा...बली को कुछ अस्वस्थता अनुभूत होने लगी....सीढियों से नीचे उतर अभी वह चार-पांच पग और अधिक चला था कि उसे चक्कर आने लगा...सहसा उसे तीव्र पीडा होने लगी और एक-दो मिनट के अन्दर ही ’आह्‌ आह्‌’ चिल्लाता भूमि पर गिर अचेत (बेहोश) हो जाता है...यहां सीढियों के समीप तो कोई-कोई ही आता-जाता दिखता है, पर कुछ दूरी पर लिफ्ट के समीप लोगों की कुछ संख्या दिखती रहती है...

ऊपर औफिस में बैठा सुरेन्द्राचार्य सहसा चौंकता है, और जैसे किसी को ढूंढने लगती है उसकी दृष्टि...वह चिन्तित-सा चेयर से उठता और सीढियों से नीचे उतरता है...आगे बढने पर वह बली को भूमि पर अचेत गिरा पाता है...अन्य किसी को समीप न पा जैसे वह बली को झकझोडकर जगाने का प्रयास करता है...उसके नहीं जागने पर सुरेन्द्राचार्य कहता है -"केवल अचेत होने से काम नहीं चलेगा...जिसका हाथ मेरी ओर बढता है, उसके जीवन को मैं मौत की ओर बढा देता हूं...केवल बढा ही नहीं देता हूं, अपितु मौत दे भी देता हूं...मैं भविष्यवक्ता हूं....क्या समझा...? तू अभी उठेगा...पर उसके पश्चात्‌ तू सांसें नहीं ले पायेगा...और मरेगा..." शैतानी मुस्कान के साथ ऐसा कह वह औफिस में लौटता है और अपने शिष्यों को कुछ कहता है...दोनों शिष्य शीघ्र सीढियों से नीचे बली के समीप आते हैं और उसके मुख पर पानी के छींटें मारते हैं...बली को चेत पाता देख उसकी आंखों से बचते हुए दोनों औफिस में लौट जाते हैं...बली तीन-चार मिनटों में ही उठ चलने की स्थिति में आ जाता है....जैसे ही वह उठ खडा हो चलना चाहता है कि चिल्लाता है -"आह्‌...मैं सांसें क्यों नहीं ले पा रहा हूं...बचाओ...आह्‌..." वह लडखडाता है और गिरने की स्थिति में आता है कि कोई तुरत उसकी बांहों को थाम उसे अपने आलिंगन में ले लेता है...यह सिद्‍ध है...-"कुछ सेकेण्ड्स के लिये ऐसा मानो कि तुम स्वयम्‌ ही सांसें नहीं ले पा रहे हो...ऐसा कण्ट्रोल करो..." और पन्द्रह-बीस सेकेण्ड्स में ही बली को सांसें लेने में आ रही बाधा हट गयी जान पडने लगी...उसने मुंह खोल आराम से सांसें लीं...-"आह्‌...अब मैं कितना आराम अनुभव कर रहा हूं..."

"अभी कुछ मिनट और रुको, और देखो, एक दृश्य उभरने वाला है यहां...बहुत प्रसन्नता मिलेगी तुम्हें उससे..."

आठ-दस मिनट पश्चात्‌ इंस्पेक्टर सीढियों से उतर समीप आया बली और सिद्‍ध के, और साथ में था सुरेन्द्राचार्य, हथकडी लगे हाथों के संग...

सुरेन्द्राचार्य को कोर्ट में प्रस्तुत किया जाता है जहां वह स्वीकार कर लेता है कि उसी ने वर्धन की हत्या की थी मानसिक प्रहारों से...और बली की भी हत्या का प्रयास उसने किया...

वर्तिका- "यह सब कैसे हुआ...? अर्थात्‌ कब कैसे योजना बनायी, और इसमें सफल भी हो गये...?"

सिद्‍ध -"बली को हमलोगों ने ही तुम्हारे पापा के समीप भेजा था...बली लौटते समय सीढियों से उतर वहां खडा हुआ जहां एक सीसीटीवी लगा था और स्पष्ट वीडियो-रिकौर्डिंग कर रहा था...वहां आकर सुरेन्द्राचार्य जो जो बोला और जो जो घटना घटी वह सब रिकौर्ड हो रहा था....जब सुरेन्द्राचार्य धमकी दे ऊपर औफिस गया तभी हमलोग जान गये कि बली के चेत पाते ही सुरेन्द्राचार्य उसे सफोकेट (श्वास-अवरुद्‍ध) करेगा....अतः सामान्य वस्त्रों में इंस्पेक्टर ऊपर जा उसके औफिस के बाहर मुझसे सूचना मिलते ही उसे तुरत अरेष्ट करने की मुद्रा में खडा हो गया...जैसे ही बली ने कहा वह सांसें नहीं ले पा रहा है मैंने तुरत इंस्पेक्टर के मोबाइल की घण्टी बजा दी, और इंस्पेक्टर ने तुरत औफिस में प्रवेश कर सुरेन्द्राचार्य को अरेष्ट कर लिया...तत्पश्चात् वह उसे ले नीचे सीसीटीवी के सामने हमदोनों के समीप लाया...तुम्हारी क्या प्रतिक्रिया है इस सफल योजना पर...?"

"इस सफल योजना ने तुम्हें एक और बडा लाभ तुम्हें दिलाया है...पूछो क्या...?"

"मुझे पुरस्कार मिल सकते हैं...."

"वो तो है...पर मेर मन में वह कौन-सा लाभ है जरा अपनी मानसिक शक्ति से पढ बताओ...?"

"तुम\...तुम मिल गयी हो..."

"हां....और तुम्हें अब रुपये देने की चिन्ता नहीं करनी है..."

"राइट...पर यह मैं क्यों नहीं सोच पाया...?"

"तुम्हारा मस्तिष्क अभी काम कहां कर पा रहा है...वह तो मुझमें डूबा है..."

"अच्छा है...कुछ आराम भी मिलना चाहिये मेरे मस्तिष्क को...." दोनों एक दूसरे को आलिंगन में लिये हुए हैं, और इसके संग ही

                                                                        THE END