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Ye Jeevan Kyaa Hae - a story plot for making film

18/09/2012 15:37

ये जीवन क्या है

लेखक - राघवेन्द्र कश्यप

सच्चाई के अंशों को समाये हुए काल्पनिक घटनाओं पर आधारित यह कथा-प्लौट फिल्म बनाने के उद्‍देश्य से लिखा गया है....

 

सरण जब भी स्वयम्‌ के सम्बन्ध में विचार करता था तो उसे लगता था उसका जन्म किसी विशेष कार्य को करने के लिये हुआ है...उसे औरों जैसा नहीं जीना है...पर...कैसा जीना है...? मां से पूछा तो -"बेटे, मुझे तो लगता है तुम्हें किसी बहुत बडे पद पर रहना है, और बहुत ही अच्छे-अच्छे काम करना है...."

"जैसे...?"

"जैसे...डौक्टर...या...आइ ए एस औफिसर...!"

पापा - "मुझे तो लगता है तुम कहीं फिलौसफर बन जा सकते हो..."

"परन्तु....फिलौसफर क्या विशेष काम करता है जीवन में..."

"वह जीवन तलाशता रहता है कहां है जीवन....पूरा जीवन बीत जाता है उसका इसमें...यदि तुम्हें ऐसा नहीं करना है तो मन लगाकर पढो, और परीक्षा सबसे अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करो....यह एक बडी विशेष बात होगी..."

स्वसा - "मुझे भी वही लगता है जो पापा को लगता है....यदि तुम ऐसा कर सको तो तुम मम्मी का सपना पूरा कर सकते हो...."

इस प्रकार सरण को कहीं भी उत्तर नहीं मिल पाया...क्योंकि उसका मन किसी भी उत्तर को सुन शान्त नहीं हो पाया...वह विद्‍यालय में शिक्षकों के अध्यापन को ध्यान से ग्रहण करता है....एक दिन उसके विद्यालय में एक लघु वृत्तचित्र या फिल्म दिखायी जाती है - एक सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में कैसे एक मनुष्य ने वहां की समस्याओं को सुलझाया और वहां व्यवस्थित जीवन बसाया....देख उसके मन में कई प्रश्न उठे...उसने एक शिक्षक से पूछा- "सर, इस ग्राम में लोग एक-एक भी ग्लास पेयजल के लिये क्यों लड रहे हैं...?"

"वहां का कुंआ सूख गया है....हाथ पाइप से अशुद्‍ध जल निकलता है...लोग अन्य ग्रामों से या नगर से पेयजल लाते हैं....इस कारण..."

"पर हमलोग तो एक क्या कई ग्लास भी पानी एक-दूसरे पर या इधर-उधर फेंक देते हैं...?"

"पछताओगे...जब तुम एक ग्लास क्या एक घूंट भी पानी के लिये तरसोगे...."

"और सर...वहां अन्धेरा ही अन्धेरा है...इलेक्ट्रिसिटी नहीं है क्या...हमलोग तो दिन में भी लाइट जलाये रखते हैं...या यूं ही पंखा चलता रहता है...?"

"देखो, तुमने यह मुझसे पूछा....सम्भवतः मुझसे अधिक अच्छा उत्तर तुम्हें यहां कोई और न दे पाये...जो लोग पानी और इलेक्ट्रिसिटी का ऐसा दुरुपयोग करते हैं वे ही लोग वैसे ग्रामों में जन्म लेते हैं, और तरसते हैं...एक ग्लास भी पानी मिल जाये, या एक घण्टे के लिये भी इलेक्ट्रिसिटी बनी रहे...नहीं तो अधिकतर इलेक्ट्रिसिटी कटी रहती है..."

 

सरण आये दिन ऐसे-ऐसे प्रश्नों के उत्तर अन्वेषता (तलाशता, खोजता) रहता था....एक बार एक भाषण प्रतियोगिता आयोजित हुई विद्‍यालय में...विषय था -"मेरे सपनों का भारत"...सरण ने मां-पिता आदि कितने ही व्यक्तियों से इस सम्बन्ध में बातकर एक बडा-सा प्रेरक लेख लिख डाला....उसने इतने उत्साह और अन्तःप्रेरणा के संग भाषण दिया कि सभी उपस्थित श्रोताओं के मन को यह छू गया....उसे प्रथम पुरस्कार मिला...इसके पश्चात्‌ तो छात्र आदि उससे पूछने लगे कि वह अपने सपनों का भारत बनाने के लिये क्या कर रहा है...सरण कोई उत्तर नहीं दे पाया...कुछ समय पश्चात्‌ ऐसे ही एक दिन भाषण प्रतियोगिता के अवसर पर जब वह ओजस्वी भाषण दे रहा था तो उसपर किसी की दृष्टि कुछ विशेष पडी...उसने उसके मंच से उतरने पर उससे भेंट की - "बहुत अच्छा...! मेरा नाम जीवन है...मेरा पुत्र इसी विद्‍यालय में पढता है...फिफ्थ श्टैण्डर्ड में पढता है...तुम्हारा जूनियर है...तुम उसे भी मार्गदर्शन दो...तुम्हारी संगति से क्या जाने उसकी भी बुद्धि प्रखर हो जाये..."

जीवन सरण को निज पुत्र से मिलवाता है जो यद्‍यपि सरण से बहुत जूनियर है पर सरण उसके प्रति स्नेह का भाव रखता है और उसे अच्छी-अच्छी बातों की जानकारी दिया करता है...जीवन एक राज्यस्तरीय राजनीतिक दल का संस्थापक और अध्यक्ष है...चूंकि यह जीवन की नयी पार्टी है अतः वह उसके प्रसार (फैलाव) के लिये विभिन्न लोगों से मिलने आदि के प्रयासों में लगा रहता है...सरण एक विशेष छात्र जान पडा, अतः वह उसे भी अपने पार्टी में लाने का विचार कर रहा है...जीवन जब भी सरण से मिलता है, सरण उससे सामाजिक, राजनीतिक, आदि विविध प्रकार के प्रश्नों का उत्तर जानने का प्रयास करता है, और जीवन उसके निर्दोष और सच्चे चरित्र से प्रभावित हो उसकी जिज्ञासा की यथासम्भव शान्ति करता रहता है...जीवन अभी तक उसे अपनी पार्टी में सम्मिलित होने का प्रस्ताव नहीं दे पाया, क्योंकि इस सम्बन्ध में सरण का स्पष्ट कथन है कि "वह समाज का वास्तविक उत्थान चाहता है, और राजनीतिक छल-प्रपंच से दूर ही रहना चाहता है...पर जीवन उसकी पीठ थपथपाता है और कहता है कि उसे ऐसे ही नवयुवकों की अपनी पार्टी में आवश्यकता है...जीवन सरण की अनिच्छा व्यक्त करने पर भी उसके पीछे ऐसे पडा रहता है जैसे गुड के पीछे चींटें पडे रहते हैं, और एक दिन उसे इसमें सफलता मिल भी जाती है जब सरण दसवीं उत्तीर्ण कर कौलेज में प्रवेश करता है तब उस कौलेज में अपनी पार्टी की छात्रशाखा का आरम्भ कर उसका नेतृत्व सरण के हाथों में सौंप देता है...सरण का स्वभाव प्रायः पूर्णतया अलग है अन्य सभी छात्रों से...वह एक गम्भीर, चिन्तनशील, अध्ययनशील, और औनेष्ट तथा चरित्रवान्‌ युवक है...नेतृत्व सम्भालते ही वह एक ओर जहां अधिक से अधिक छात्रों को सदस्य बनाने में जुटा है वहीं उसके मस्तिष्क के मुख्य भाग में जल-जागृति की आग जल रही है....पेय जल की भूतकाल में स्थिति, पेय जल की इस पृथिवी पर वर्तमान में स्थिति, तथा पेय जल की इस संसार में आनेवाले समय में क्या स्थिति होगी - इस ज्वलन्त विषय पर वह अभियान आरम्भ करता है...धीरे-धीरे छात्र उसके इस अभियान में जुडते जा रहे हैं....वह पेय जल के सम्बन्ध में विभिन्न तथ्य एकत्र करता और लोगों के समक्ष प्रस्तुत करता है...संग ही आनेवाले दिनों में पेय जल के अभाव की भयावह स्थिति उत्पन्न हो जाने के संकट की ओर जनसामान्य का मन आकृष्ट करने का सफल प्रयास कर रहा है...जीवन का इसमें सभी आवश्यक सहयोग मिल रहा है जिससे उसका उत्साह सदा बना रहता है...संग ही उसकी दृष्टि निज अध्ययन पर भी  है....जल से सम्बन्धित जो तथ्य उसने प्रस्तुत किये वे सब ने सराहे...

 

देखते ही देखते उसके दो वर्ष आराम-आराम से बीत गये और वह अब ग्रैजुएशन कर रहा है...ग्रैजुएशन में उसने एक पग आगे बढा अब गुटखा, मदिरा, आदि नशीले पदार्थों के विरुद्‍ध आन्दोलन को भी अपने अभियान में सम्मिलित कर लेता है...उसके पैम्फलेट्स अब बहुत प्रसिद्‍ध और महत्त्वपूर्ण हो चले हैं....ग्रैजुएशन के तीन वर्ष पूर्ण होने तक में उसे जो दो बातें बडी महत्त्वपूर्ण रूप में प्राप्त हुईं, वे थीं- एक तो यह कि उसके पैमफ्लेट्स के विचार आदि वह इण्टरणेट पर वह अपनी ब्लौग वेब्साइट में प्रस्तुत करने लगा....और द्वितीय यह कि उसके जीवन में उसके बहुत ही निकट एक छात्रा गीति का प्रवेश हुआ....वह यह जानना चाहती है कि उसके इन सभी कार्यों का क्या उद्‍देश्य है....?

"मैं पार्टी की छात्र शाखा का सफलतापूर्वक नेतृत्व करता चला आ रहा हूं, पर मेरी रुचि राजनीति न कर जनजागृति और जनकल्याण करने में है...."

गीति उसके विचारों और व्यक्तित्व से प्रभावित हो उसके अभियान में कभी-कभी साथ दिया करती है....पेय जल, विद्‍युत्‌, मादक पदार्थ, और अब पोर्नोग्रैफी - ये चार विषय प्रमुखता से छाये थे सरण के अभियान के...इन सभी समाज सुधार के कर्मों के कारण सरण की छात्र-पार्टी विश्वविद्‍यालय के छात्रों के मध्य सबसे अधिक सदस्य संख्या वाली पार्टी बनने की ओर बढ रही थी....देखते ही देखते अमर, ईशान, और फणीश ये तीन छात्र सरण के अभियान के प्रमुख नेताओं के रूप में उभरकर आये, अर्थात्‌ सरण के सबसे निकट के सहयोगी बन गये...इस प्रकार सरण, गीति, अमर, ईशान, और फणीश इन पांचों का एक समूह इस छात्र पार्टी का नेतृत्व कर रहा था...सरण के वेब्साइट पर उसके अभियान का विस्तृत विवरण उपलब्ध है.....पेय जल, विद्‍युत्‌, मादक पदार्थ, और पोर्नोग्रैफी इन चार विषयों के विरुद्‍ध अभियान का विस्तृत विवरण बहुत ही आकर्षक है...

 

एक दिन गीति - "तुम्हारे जीवन का लक्ष्य क्या है....? अर्थात्‌ क्या बनने का स्वप्न है तुम्हारा...?"

सरण -"स्वप्न....स्वप्न तो मैंने अभी तक देखा नहीं है....पर मैं वो करते जा रहा हूं...जिसमें मेरी सबसे अधिक रुचि है..."

"तब भी, केयरियर वैसा चुनना चाहिये जिससे घर-गृहस्थी बडे आराम से चले....तुम्हारे इन कामों से तुम रुपये कैसे कमाओगे...?"

"अच्छे काम का सदा अच्छा ही परिणाम होता है....और मैं जो कर रहा हूं, और आगे जो करना चाहता हूं उससे सारे संसार को लाभ होगा...और जब सारे संसार को लाभ होगा तो मुझे भी लाभ हो जायेगा...मैं कहां इस संसार से बाहर हूं...?"

"पर अन्य सभी कुछ और काम करते, धन अर्जित करते तुम्हारा यह सम्भावित लाभ पायेंगे...तुम और क्या काम करते यह सम्भावित लाभ पाओगे...?"

"और क्या...? जब समय आयेगा तब वह भी हो जायेगा..."

"अरे नहीं...सोचो...मैं या कोई और बुद्धिमान्‌ व्यक्ति तुम्हारा क्यों अनुसरण करेगा जब तुम्हारे अपने केयरियर का कोई निश्चय नहीं होगा...?जिसका भविष्य अच्छा दिख रहा हो उसे सभी फौलो कर सकते हैं...अब, तुम्हारा कुछ होगा भी या नहीं....?"

सरण गम्भीरता से सोचता रहा...क्या उसे चुनाव लडना है....! है भी वह एक राजनीतिक पार्टी का नेता..." सरण और गीति की मित्रता दिन-प्रतिदिन बढती गयी....

 

सरण एक दिन समाचारपत्र पढ रहा है तो उसे एक आध्यात्मिक योगी व्यक्ति के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है कि ’राघवेन्द्र कश्यप एक अच्छे आध्यात्मिक योगी हैं जिनने सत्संग के अन्तर्गत प्रवचन में बताया कि मनुष्य यह शरीर न हो भावरूप आत्मा है....स्वयम्‌ को शरीर न अनुभूत करते हुए मूल आत्मा को स्वरूप से अनुभूत करने लग जाना ही मानवजीवन का सबसे अच्छा लक्ष्य है...सरण ने राघवेन्द्र कश्यप से मिलने का विचार किया और वहां पहुंचा....

"मैं हूं राजनीति आदि सांसारिक प्रपंचों से दूर रहने वाला व्यक्‍ति...ऐसे में मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूं...?"

"हां, मैं राजनीति में हूं, पर सांसारिक प्रपंचों में संसार का भला करने के उद्‍देश्य से ही लगा हूं, औरों की भांति पौकेट गर्म करने के उद्‍देश्य से नहीं...हां...और मैं यह जानना चाहता हूं कि मैं स्वयम्‌ को जो शरीर के रूप में जानता हूं, क्या वह असत्य है...? तो वास्तव में मैं क्या हूं....?"

"अच्छा, देखो सरण....सोचो तुम यह जन्म पाने से पूर्व कहां थे....? और न जाने कब तुम्हारे प्राण निकल जायें तब तुम कहां होगे...?"

"मैंने तो इन दोनों ही बातों पर कभी भी विचार नहीं किया है....(मन दौडाकर सोचने का प्रयास करता है...हारकर दुःखी मन से कहता है...) सर, बहुत अज्ञानता की अनुभूति हो रही है....केवल इतना ही नहीं, कुछ भय की भी अनुभूति हो रही है....कि आज, कल, परसों किसी दिन मेरी मृत्यु हो जाये...जिस किसी भी कारण से...तो मैं कहां होउंगा...?क्या होउंगा...किस अवस्था में होउंगा...? होउंगा भी या नहीं...?

"पूर्णतया ऐसे ही...चिन्तन करना चाहिये...जिस शरीर को तुम इतने यत्न से पाल-पोसकर बढा रहे हो वह किसी भी क्षण तुमको गुडबाय कर दे सकता है...शरीर जला दिया जायेगा...तब तुम कहां होगे....? यदि कहीं नहीं होगे तो इस होने का क्या अर्थ है....? और, यदि कहीं होगे तो उसे बनाने संवारने का प्रयत्न करो...."

"किस प्रकार से मैं इस जीवन के पश्चात्‌ भी अपना अस्तित्व बनाये रख सकता हूं...?और किस प्रकार से उसे संवार भी सकता हूं.../"

"आधी बात तो तुम्हारी...तुम्हारे बोलते ही पूरी हो गयी..."

"वो क्या...?"

"इस जीवन के पश्चात्‌ भी तुम अपना अस्तित्व बनाये रखने में समर्थ होगे..."

"सच में....? मैंने सुना है कि कभी-कभी कोई कही बात सच हो जाती है, क्योंकि वह किसी विशेष सौभाग्यशाली मुहूर्त पर बोल दी गयी होती है..."

"देखो, केवल तुम्हारा ही नहीं, सभी प्राणियों का अस्तित्व मरने के पश्चात्‌ भी बना रहता है...क्योंकि प्राणी वास्तव में एक आत्मा है...और आत्मा कभी भी मरता नहीं है...अतः शरीर छोडने के पश्चात्‌ भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है..."

"ओ....तो अपने आत्मा को अच्छी अवस्था में बनाये रखने, संवारने के क्या उपाय हैं,,,,?"
"देखो...इस संसार के सभी कर्म आत्मा को हानि पहुंचाते हैं....कर्म चाहे अच्छे हों या बुरे, सभी में आत्मा का इस संसार से सम्बन्ध बनता है जिससे आत्मा को प्रत्येक क्षण हानि पहुंचती रहती है...आत्मा, जो कि तुम स्वयम्‌ हो, निरन्तर न्यून (कम) होते चले जाते हो..."

"तब जो खेलकूद, मारामारी आदि रूप में तीव्र गति से सांसारिक सम्बन्ध बनाते रहते हैं अपने आत्मा का, उनके..."

"उनके आत्माओं  को अन्य लोगों की तुलना में कहीं अधिक तीव्र गति से हानि पहुंचती रहती है..."

"हानि पहुंचती है....तो किसी का आत्मा न्यून (कम) हो गया या बढ गया तो उससे क्या अन्तर आता है...?"
"भगवानों के चित्र तो तुमने देखे होंगे...उनके शरीर के अन्दर स्थित आत्मा का अनुभव होता है जैसे कि आत्मा प्रकाश भरा हो...लगता है प्रकाश जैसे शरीर से बाहर निकल रहा हो....आत्मा का जितना अधिक  प्रकाश, उतना ही अधिक बली और भाग्यशाली भी होता है...जबकि न्यून प्रकाश वाला आत्मा न्यून बली होता है....उसकी ज्ञानशक्ति और भाग्यवत्ता की क्षमतायें भी न्यून ही होती हैं...बली आत्मा अन्यों पर अपनी पकड बनाता है, जबकि दुर्बल आत्मा अन्यों की पकड में आ जाता है..."

 

 

सरण ने ज्योंहि कौलेज में पग रखा, किसी ने उसके कन्धे पर हाथ रखा....

"हूं...अरे...गीति....! कैसे....मेरे पीछे....?"

"तुम नायक हो, हम तो तुम्हारे पीछे ही चलेंगे..."

"मैं चाहता हूं, ऐसे ही सभी छात्र मेरे पीछे चलें, और जो आज छात्रसंघ के चार पदों में केवल एक पद पर हमारी पार्टी का सदस्य है, कल चारों ही पदों पर हमारी पार्टी के सदस्य हों..."

"वाह! बहुत दिनों पश्चात्‌ तुमने स्वप्न देखा...और उस स्वप्न में भी केवल राजनीति की बात...! कभी कुछ और भी सोच लिया करो...."

"कुछ और भी सोचा, राघवेन्द्र सर से मिलकर..."

"क्या...?"

"यही कि हम सभी वर्तमान की समस्यायों में ही फंसे रह जाते हैं और आगे किसी भी क्षण आ जानेवाली समस्यायों के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं सोचते...!"

"किधर संकेत है तुम्हारा....?विवाह पश्चात्‌ जीवन के सम्बन्ध में सोच रहे क्या...?"

"विवाह - शरीर का सम्बन्ध किसी अन्य शरीर से जुडता है.....मृत्यु - शरीर का सम्बन्ध टूटता है....आत्मा से...सोचो...अभी तुम्हारी म्रुत्यु हो जाये तो तुम कहां किस स्थिति में होगी...?"

"अं...हं...सोचने में तो यह भय देनेवाला है...पर क्या कर सकते हम इस सम्बन्ध में...?"

"एक काम कर सकती हो...कि इस यूनिवर्सिटी कैम्पस में कहीं भी पानी व्यर्थ गिरता न हो यह सुनिश्चित करो..."

 

दोनों अमर, ईशान, फणीश तथा कुछ अन्य भी छात्रों के संग सूचना यात्रा निकाल पैम्फ्लेट बांटते हैं और लोगों को सावधान करते हैं पानी के दुरुपयोग के सम्बन्ध में...शनैःशनैः सफलता की ओर बढते पग...दोनों अच्छे अंकों से उत्तीर्ण कर एम ए में प्रवेश करते हैं...अमर, ईशान, और फणीश भी संग ही एम ए में प्रवेश पाते हैं...जीवन आरम्भ से ही इन सभी की यथासम्भव सहायता करता हुआ इन सभी का मार्गदर्शक है....अभी सरण आदि के ग्रैजुएशन में रहते समय ही विधानसभा चुनाव में जीवन की पार्टी भी चुनाव लडी और उसे दो विधायक पद मिले...एक वह स्वयम्‌, और द्वितीय पर जीता था स्यन्दन...सरण आदि ने भी इस चुनाव में सहायता की थी पर कुछ ही...अब सरण का विचार है वह विविध प्रकार के समाज सुधार के कार्यों को बहुत विस्तार से आरम्भ करे....वह भारतीय समाज को विवेकी और उन्नतिशील देखना चाहता है...

जीवन -"यह विवेकी क्या होता है...?"

सरण -"विवेकी वह होता है जो जानता है कि किस बात में उसका भला है और किस बात में उसका बुरा...वह अच्छे और बुरे में अन्तर कर पाने में समर्थ होता है...ऐसा अन्तर कर वह सच या अच्छे का ही संग करता है..."

सरण के समाज कल्याणकारी कार्यों से जीवन की पार्टी का भी नाम फैल रहा है....सरण दो व्यक्तियों को गुरु मान बडे आदर उन्हें ’गीति’ कह सम्बोधित करता है - जीवन और राघवेन्द्र कश्यप को...दोनों ही से उसकी बातें होती रहती हैं....वह दोनों ही से सामाजिक, राजनीतिक, अथवा आध्यात्मिक आदि प्रेरणायें लेता रहता है...छात्रसंघ का चुनाव निकट है...सरण स्वयम्‌ अध्यक्ष पद के प्रत्याशी के रूप में खडा है....उसके मित्र और पार्टी के लोग उसकी जीत के प्रयासों में लगे हैं...सरण भाषण देता है...कि उसके अध्यक्ष बनने पर कितनी सुविधायें और व्यवस्थायें विश्वविद्‌यालय में हो जायेंगीं...वह किन रूपों में विश्वविद्‍यालय और छात्रों के लिये हितकर और लाभदायक होगा...छात्र ताली बजा रहे हैं...तभी जीवन पहुंचता है...सरण मंच पर उसके पांव छू उससे आशीर्वाद लेता है....जीवन सरण एवम्‌ अन्य तीनों प्रत्याशियों को जीताने का आह्‌वान करता है अपने भाषण में...समय पर चुनाव होता है...चार में से केवल एक पद पर जीवन की पार्टी को जीत मिलती है, और वह जीत है सरण की अध्यक्ष पद पर....जीवन बहुत प्रसन्न है...उसे सरण से अब बहुत आशायें बनती दिख रही हैं...अभी तक जीवन सरण के अभियान आदि कार्यक्रमों से अपनी पार्टीके लिये जनता की सहानुभूति बटोरने तक ही लाभदायक सरण को समझ रहा था, पर अब उसकी जीत से जीवन उससे सीधे राजनीतिक लाभ लेने की आशा करने लग गया था...जीवन- "सरण...मेरा वर्षों तुम्हारा साथ देने का फल मिलना अब आरम्भ हो गया जान पडने लगा है...क्योंकि तुमसे विधानसभा का चुनाव भी जीत लेने की आशा दिखने लगी है...."

"सर, मैं कहां राजनीति में...? मेरा काम तो है समाज की उन्नति...रही बात छात्रसंघ चुनाव जीतने की,,,,तो अध्यक्ष पद पर आकर तो अधिक समर्थ रूप में उतना अच्छा मैं वह सब कर सकता हूं जितना अच्छा मैं समाज का चाहता हूं...."

"बेटे...वही तो मैं तुमसे कह रहा हूं...विधायक बन जाने पर तुम कितना अधिक समर्थ बन जाओगे समाज कल्याण करने के लिये यह तुमने नहीं सोचा, इसलिये तुम ऐसा बोले...."

"पर विधानसभा चुनाव लडना, सरकार बनाने के लिये जोडतोड में लगना, छल-प्रपंच की राजनीति का आरम्भ हो जाता है...यह मुझे नहीं रुचता....पर छात्रसंघ चुनाव की राजनीति तक तो काम चल सकता  है...."

"हूं...अभी और अधिक समय लगेगा, तुम्हें परिपक्व होने में...."

 

अध्यक्ष बनते ही सरण ने विश्वविद्‍यालय परिसर में कहीं भी पानी, विद्युत्‌ आदि के दुरुपयोग या व्यर्थ नाश पर, पान-गुटका आदि खाने पर तुरत रोक लगवायी...संग ही जहां - जहां जिस-जिस बात की आवश्यकता थी उसकी समुचित व्यवस्था करवायी....सरण की इतनी जनकल्याणकारी मनःप्रवृत्तियों को देखते हुए पूरे विश्वविद्‍यालय में उसकी प्रशंसा होने लगी जो धीरे-धीरे फैलते हुए विश्वविद्‍यालय से बाहर भी निकली और वह पूरे नगर में प्रसिद्‍ध हो गया...अब सरण आदि सभी एम ए पार कर रिसर्च ष्टूडेण्ट हो गये हैं...सरण और गीति की बढती निकटता अब प्रेम में परिणत हो चुकी है...वे दोनों एक उद्यान में बैठे आराम-आराम से बातें कर रहे हैं...उनकी बातें धीरे-धीरे गाने में परिणत हो गयी हैं...अब वे गाना गाते हुए एक दूसरे से बात कर रहे हैं...

 

सरण अभियान द्‍वारा जीवन के समर्थन से नगर में विकास के जितने कार्यों में सफलतायें पाता चला जा रहा था वे थे -१. नगर में पानी कहीं भी व्यर्थ बहता नहीं दिखता...२. पेय जल की नगर में कहीं समस्या नहीं थी...३. विद्‍युत्‌ की चोरी कई स्थानों पर पकडी गयी, और यह काम अभी भी चल रहा था....४. नगर में विद्‍युत्‌ की कहीं भी कोई विचारणीय समस्या नहीं थी....५.गुटखा, तम्बाकु, मदिरा आदि के विरुद्‍ध अभियान अभी भी चल रहा था...सभी प्रकार के हानिकारक पदार्थों के सेवन के विरुद्‍ध जनजागरण का अभियान सामान्य गति से चल रहा था...जीवन को सरण के इन जनकल्याणकारी कार्यों से राजनीतिक लाभ मिलने में कुछ बाधा अनुभूत हो रही थी, क्योंकि सरण ऐसे कार्यों के माध्यम से अपनी पार्टी के लिये वोट बढाने का प्रयास न कर केवल समाज सुधार एवम्‌ समाज विकास का ही प्रयास कर रहा था...उसका स्वप्न एक ऐसे ही समाज के निर्माण का था....एक गाना चल रहा है जिसमें सरण के मन में स्थित स्वप्न-समाज का वर्णन हो रहा है....सरण के ऐसे ही कार्य इसमें दिखाये जा रहे हैं...गाने के अन्त के संग ही सरण गीति के संग हाथ मिलाये प्रेमपूर्ण स्थिति में....

गीति -"मैंने एक निर्णय ले लिया है...."

सरण -"अच्छा ही निर्णय लिया होगा...जरा मैं भी तो सुनुं...."

"वह यह कि मैं विवाह करुंगी...बहुत शीघ्र ही..." गीति सरण की छाती से लगी है, इसलिये पूछने की आवश्यकता नहीं है कि किससे विवाह करना है..."

"जबतक कोई स्थायी रूप से धनोपार्जन का साधन न मिल जाये तबतक विवाह की बात मैं सोच भी....केवल सोच ही सकता हूं, कर नहीं कर सकता...तबतक तुम्हें प्रतीक्षा करनी पडेगी...."

तभी उसके अन्य तीनों मित्र अमर, ईशान, और फणीश वहां आ पहुंचे....

सरण -"मित्रों...क्या सूचना लाये हो....?"

अमर -"यूं तो हम तुम्हारे भेजे हुए दूत नहीं हैं....पर....पर यह कि हम हैं स्वयम्‍प्रेरित सूचनावाहक....हमारा इण्टेन्शन तुम्हारे शुभ कर्मों में तुम्हारी सहायता करना है...अन्यथा हमारा क्या है...जैसे लोग संग मिलेंगे, हम उधर ही बह निकलेंगे...."

सरण -"तुम्हारा यह कहना कि जो होगा देखा जायेगा बहुत बुरा है...क्योंकि जब परिणाम भुगतने का समय आता है तो झेलना बहुत दुःखभरा लगता है...परन्तु यही बात यदि अच्छे कर्मों के सम्बन्ध में हो तो बात वैसी ही नहीं है..."

ईशान -"भइया, मुझे तुम केवल यह बताओ कि करना क्या है...उसमें हम तुम्हारा साथ देने को तैयार हैं....थ्योरी और दर्शन सुनने की इच्छा नहीं होती...क्योंकि हम भी अन्य लोगों जैसे ही हैं...अन्तर केवल इतना है कि हमें तुम्हारा संग मिला है...."

"गुटखा, तम्बाकु, मदिरा, आदि मादक पदार्थों के सेवन से क्या-क्या हानियां हैं, और क्या-क्या लाभ हैं, ये जनता को बताये जायें..."

"लाभ है...सरकार को...जब सरकारें ही चाहती हैं कि ये वस्तुयें बेची जायें, इस बहाने से कि इससे राजकोष को इतने अरब रुपये प्रतिवर्ष का लाभ होता है...तो अब कैसे क्या किया जा सकता है...?"

"यह विचारणीय बात है, क्योंकि वेश्यावृत्ति या स्त्री-पुरुष सम्भोग सम्बन्ध को वैधानिक रूप से मान्यता दे दी जाये कि प्रत्येक जोडे को केवल टैक्स का कूपन लेना होगा, तो सरकार इसे भी चला सकती है इसी बहाने से कि इससे राजकोष को इतने अरब रुपये प्रतिवर्ष का लाभ होता है..."

"पर गुटखा, तम्बाकु, मदिरा आदि मादक पदार्थों के माध्यम से रुपये कमाना तो रौंग वर्क करके या हानिकारक काम करके रुपये कमाना है...यदि सरकार को ऐसे रौंग या हानिकारक माध्यमों से रुपये कमाने का अधिकार है तो जनता को क्यों नहीं...? जनता भी केवल यह देखे कि कैसे अधिक से अधिक रुपये अपने बैंक अकाउण्ट में बढते जाते हैं, इससे किसी को हानि पहुंचती हो तो भी...?"

"राजकोष में रुपयों का बढना बडी प्रसन्नता की बात समझी जाती है...पर इस लिये कि इससे जनता के लिये अधिक से अधिक कल्याणकारी कार्यों को किया जा सकेगा...पर गुटखा, तम्बाकु, मदिरा आदि तो जनता के स्वास्थ्य और मस्तिष्क दोनों को नष्ट करते हैं...तो जनता के स्वास्थ्य और मस्तिष्क दोनों को नष्ट करके सरकार प्राप्त उन रुपयों से अब जनता का क्या कल्याण करेगी...? यह क्या बच्चों का खेल चल रहा है कि पहले मैं तुम्हें अस्वस्थ कर दूंगा और उसके पश्चात्‌ तुम्हारा उपचार करुंगा, और कहुंगा कि यह मेरे जीवन की बडी उपलब्धि की बात है कि मैंने इतने लोगों को स्वस्थ कर दिया...?"

"यह बात हमें बली रूप में सबके समक्ष रखनी होगी...."

"कैसे रखेंगे....?"

"जनता को समझना होगा...यदि जनता समझ गयी तो सरकारें जनता की इच्छा के विरुद्‍ध बहुत दिनों पर्यन्त टिकी नहीं रह सकती...."

"पर आज का समाज तो अपना ही दुश्मन हो चला है...गुटखा के पाउचों पर विकृत हो चले जबडों के चित्र रहते हैं कि गुटखा खाने का यही परिणाम होना है -आज या कल पर निश्चय ही...तब भी लोग हंसते हुए खाते हैं कि होता है तो हो जाने दो...!"

"पर हमारे अभियान ने अभी तक इस सम्बन्ध में प्रयास नहीं किये हैं...हमें पर्याप्त प्रयास करने हैं और प्रतिक्रियाओं से निष्कर्ष निकालना है..."

पांचों इस सम्बन्ध में तथ्य एकत्र कर एक पैम्फलेट निर्मित करवा रहे हैं...इसका विषय वस्तु इण्टर्नेट पर पहले ही प्रकाशित किया जा चुका है...

"और भी कई विचारणीय विषय हैं जिनमें मानव लाभ पाने के स्थान पर कहीं अधिक हानि ही पा जाता है...स्त्रियां फेलैशियो करतीं या स्वीकार करती हैं जिससे सुख तो उन्हें कल्पना में ही मिलता है पर हानि उन्हें ऐसी पहुंचती है कि उनका रूपरंग बदरंग होता चला जाता है...साहस दिखाना या बोल्डली बातें कर पाना उनके वश से बाहर होता चला जाता है...रोगग्रस्त होने की आशंका तो बनी ही रहती है...पर फेलैशियो में रुचि प्रायः पोर्नोग्रैफी देख ही उत्पन्न होती है...क्योंकि पोर्नोग्रैफी का पर्याप्त दर्शन करने से मानव मन नियन्त्रण खो घोर पतन की ओर चल पडता है..."

सामने से जीवन चला आ रहा है...-"अरे वाह...क्या लेक्चर चल रहा है....? कुछ हम भी तो जानें, सीखें समझें..."

"सर, हमलोग एक-दूसरे की जानकारी बढा रहे हैं...अभी पोर्नोग्रैफी के सम्बन्ध में जो जानकारी मेरे संग है वह मैं इन्ह भी दे रहा हूं..."

"पोर्नोग्रैफी....? ये क्या होता है...?"

’सर, स्त्री और पुरुषों के नग्न चित्र और सम्भोग के दृश्य पोर्नोग्रैफी के अन्तर्गत होते हैं..."

"छीः छीः छीः....कहां किसके पास है यह...मैं अभी इन्हें पकडवाता हूं..."

"आप देखनेवालों को पकडवायेंगे...आप दिखानेवालों को पकडवायेंगे...पर उनका क्या करेंगे जो देखने - दिखाने की सुविधा प्रदान करते करवाते हैं...?"

"कौन हैं ये लोग...?’

"सरकार....इण्टरनेट-वेबसाइट्स पर लोग ऐसे चित्र और वीडियोज प्रदर्शित करते हैं...हम आप जनता के लोग उन वेबसाइट्स को खोल उन चित्र और वीडियोज को देखते हैं..."

"हूं...स्थिति गम्भीर है...."

"जब सरकार ही कह रही है कि रुपये दो और पोर्नोग्रैफी देखो, तब अब समाज को डूबने से कौन बचायेगा....?"

"मेरा भी यौवन बीता है....मेरी लडकियों की बातों को केवल सुन लेने भर के ही योग्य समझा था...और मेरी सीमा वहीं तक रही...और आज भी...सच मानो...मैंने अपनी धर्मपत्नी जी को...कभी भी नग्न नहीं देखा..." जीवन गर्व से सर तानता है....

फणीश -"सर...आप महान्‌ हैं....नहीं तो आजकल के अधिकतर नेता...आप तो जानते ही होंगे सर, कि कैसे हैं...!

जीवन उत्साहित हुआ...."हूं....मेरे मन में एक बात उभर रही है...केवल ऐसे ही...सच पूछो तो, केवल ऐसे ही प्रतिबन्धित कर दी जा सकती है पोर्नोग्रैफी...."

"वो कैसे सर....?"

"वो ऐसे...कि...यहां मेरी सरकार बन जाये...मैं केवल यहां ही नहीं, पूरे देश में पोर्नोग्रैफी पर प्रतिबन्ध लगवा देने का वचन देता हूं..."

पांचों विचार करते गम्भीर मुद्रा में थे....

"देखो, और कोई उपाय नहीं है...वर्तमान सरकार के लोग तो स्वयम्‌ ही पोर्नोग्रैफी का मनोरंजन करते हैं...तब अन्यों को कैसे मना कर सकते हैं...! (कुछ रुककर) अभी होनेवाले उपचुनाव में एक सीट पर मैंने अपनी पार्टी से किसी को उतारा है...मैं चाहता हूं तुम सब इसमें पार्टी को जिताने का सफल प्रयास करो..."

"सर...मेरा मन राजनीति से...चुनाव आदि से दूर् रहने पर दृढ है...विश्वविद्‍यालय में मैं पार्टी का नेतृत्व कर रहा हूं, पर तभी तक जबतक इससे मेरे समाजोन्नति के स्वप्न को सहायता मिल रही है..."

"कोई बात नहीं...मेरा तुम्हें समर्थन है, विना किसी अनुबन्ध के...और यदि तुम्हें मेरी सहायता की आवश्यकता हो, तुरत बोलो...मैं पूरी पार्टी सहित तुम्हारी सहायता करने के लिये तैयार हूं..."

जीवन चला जाता है पर अपने पीछे एक ज्वलन्त प्रश्न छोड जाता है कि जब नाविक ही नाव डूबाये तो उसे कौन बचाये...! जब सरकार स्वयम्‌ ही गुटखा, मदिरा आदि बिकवाती है. पोर्नोग्रैफी दिखलवाती है, तो समाज को अब डूबने से, देश को पतन से अब कौन बचाये...?

अमर -"पर....यह तो बडी निराशा वाली बात उभर कर सामने आयी है...अब हमलोग ये उन्नति का काम क्यों करें, जब सरकार समाज को गिराने में, दुर्बल करने में लगी है....?...हमारे प्रयास, हमारी शक्ति व्यर्थ जायेगी...!"

सरण -"आशा कैसे यूं पूर्णतया छोड बैठे...? क्या अभी सर ने कहा नहीं कि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वे हमारी कामनायें पूर्ण करेंगे...?"

"पर, किसी भी नेता की बातों का क्या विश्वास...? चुनाव से पूर्व सभी ऐसे ही बडे-बडे वचन दिया करते हैं, पर चुनाव जीतकर वे सम्भवतः सामान्य जनता से मिलें भी नहीं...!"

 

एक व्यक्ति स्यन्दन खेत में खडा भगवान्‌ से प्रार्थना कर रहा है -"आप मेघ (बादल) फाडकर जल बरसा दें...पर्याप्त बरसा दें... मैं समझूंगा कि आपने छप्पड फाडकर धन बरसा दिया है..."

कुर्ता-पायजामा पहना एक नेता चलता हुआ उसके निकट आता है...."स्यन्दन...तुमने यह अपनी क्या स्थिति बना ली है...? कहां नगर में तुम्हारा इतना महत्त्वपूर्ण जीवन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है और कहां तुम यहां सुनसान में वर्षा की प्रतीक्षा कर रहे हो...?"

"नेता...तुम नहीं समझोगे क्या होती हैं मानवीय भावनायें...नहीं...नहीं....मानवीय भावनाओं, अच्छाइयों, और ज्ञान की बातों की कुछ पंक्तियां तुमने रट ली हैं....और उनका प्रयोग तुम स्वार्थसिद्धि में करते हो...पर, मैं अब तुम्हारी चाल में नहीं आनेवाला....चले जाओ यहां से तुम...मैं ऐसे इन्हीं परिस्थि्तियों में अच्छा हूं...सन्तुष्ट हूं..."

नेता का मुख नहीं दिख रहा है, संग ही उसकी स्वर ध्वनि भी अस्पष्ट है...-"मैंने सदा तुम्हारा भला ही चाहा...यह मेरी राजनीतिक विवशता थी कि कुछ समय के लिये मैंने तुम्हारे भले की चिन्ता करनी कुछ समय के लिये छोड दी थी..."

"केवल छोड ही नहीं दी गयी थी, मेरे विरुद्‍ध परिस्थितियां बनायी भी गयी थीं...जिससे कि तुम अपनी स्वार्थ सिद्धि कर सको..."

स्यन्दन के मस्तिष्क में बीते समय का चित्र उभरने लगा...कृषि एवम्‌ बीज मेला लगा था...स्यन्दन ने भी अपने कृषि ष्टोर से सीड्स आदि कृषि से सम्बद्‍ध वस्तुओं का ष्टाल लगाया था...स्यन्दन के कई प्रकार के बीजों, हायब्रिड बीजों, कुछ नये कृषि अनुसन्धान, विविध कृषि सम्बद्‍ध समस्याओं के समाधान आदि विविध उपलब्धियों के आकर्षणों के कारण उसे मेला का प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ....स्यन्दन प्रसन्न था...पर अब उसके समक्ष कई व्यक्ति पंक्ति में खडे थे अपनी कृषि सम्बद्‍ध समस्याओं  के समाधान के लिये...अपनी जिज्ञासा शान्ति के लिये....स्यन्दन ने विद्‍वत्तापूर्ण ढंग से सभी समस्याओं के समाधान बताये...इससे स्यन्दन की प्रशंसा और प्रसिद्धि निरन्तर बढती ही जा रही थी...यह अन्तिम दिन था...सायंकाल स्यन्दन अपने आवास लौट रहा था तब कुछ व्यक्तियों ने उसे घेर लिया...वे उससे अभद्र भाषा में बात करने लगे...तभी वहां से एक नेता की कार गुजर रही थी....कार आगे बढी....रुकी...पीछे की ओर लौटी....नेता (सर निकालकर)- "ये यहां क्या हो रहा है...?" उसके संग उसका राइफल-धारी बौडीगार्ड भी बाहर निकला...यह देख वे सभी व्यक्ति तुरत वहां से भाग निकले...स्यन्दन अपने सम्बन्ध में बताता है और नेता को धन्यवाद देता है...

नेता - "वाह...हम भी आपसे विविध जानकारियां और ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं...यदि आप पधारें तो..."

अगले दिन स्यन्दन नेता से मिलने उसके आवास पहुंचता है...नेता यह जान आश्चर्य करता है कि स्यन्दन बहुत पढा-लिखा होने पर भी सीड्स आदि का व्यवसाय करता है...-"मेरी आंखें आपमें वह कुछ पा रही है जो कल मेरे लिये बहुत लाभ का उपहार ला सकता है..."

स्यन्दन - "अच्छा...वह कैसे....?"

"कल सायंकाल मैं भी उस कृषि मेला में गया था...वहां मुझे एक व्यक्ति की प्रशंसायें सुनने को मिलीं कि उसने न केवल प्रथम पुरस्कार ही पाया है अपितु विद्‍वान्‌ भी इतना है कि उसने कई कृषि-सम्बद्‍ध समस्याओं के प्रशंसनीय समाधान बताये...आप छाये हुए थे पूरे मेला में...तो अभी, आपको करना केवल इतना ही है कि आप मेरी पार्टी के सदस्य बन जायें...हमारे निर्देश आपको मिलते जायेंगे...आप वैसे-वैसे ही करते जायें....तो हमदोनों को निःसन्देह वह-वह मिल जायेगा जो हमदोनों चाहते हैं...."

"अच्छा...!" स्यन्दन के मन को सुखद आश्चर्य हुआ कि वह कुछ चाहता है, और वह अब उसे मिल जा भी सकता है...!

"हां...यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है...(कुछ रुककर) अरे, नहीं समझे...? आपने दुकानदारी की है...किसलिये....? रुपये कमाने के लिये...और मैंने राजनीति का मार्ग पकडा....किसलिये...? गद्‍दी पाने के लिये..." नेता मुस्कुराया...

स्यन्दन भी मुस्कुराया...पर नेता के मन में क्या है वह समझ नहीं पाया...

नेता- "मुझे लगता है, आपको कुछ ट्रेनिंग देने की आवश्यकता पडेगी....कल हमारा एक असिष्टेण्ट आपकी शौप जा आपको कुछ जानकारियां देगा जिसके पश्चात्‌ आपका कार्य आरम्भ होगा...अभी आप अपने शौप जायें...."

 

स्यन्दन अपने शौप में पूर्ववत्‌ बैठा है...नेता का असिष्टेण्ट वहां पहुंचता है...- "यह फार्म आप भर दें...संग ही एक रुपया दे दें सदस्यता के..."

स्यन्दन वैसा ही करता है....

"अब आप ह्मारी पार्टी के सदस्य हो गये...सर्वप्रथम आपको करना यह है कि अधिक से अधिक व्यक्तियों को पार्टी-सदस्य बनाना है...प्रत्येक एक सौ एक सदस्य बनाये जानेपर आपको पुरस्कार मिलेगा...हां...आपके शौप में आनेवाले ग्राहकों की संख्या बहुत है...इसीलिये तो सर ने आपको इतना महत्त्व दिया है...."

स्यन्दन वैसा ही करता है....इस प्रकार नेता की पार्टी के सदस्यों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढती जा रही है...नेता ने स्यन्दन को पार्टी का जनपद-अध्यक्ष बना दिया...कुछ समय पश्चात्‌ विधानसभा चुनाव के दिन आ गये...नेता ने स्यन्दन को भी टिकट दिया...पर पार्टी को जीत केवल दो सीटों पर मिली...एक पर तो नेता स्वयम्‌ जीता...और दूसरी पर जीता स्यन्दन...गठबन्धन सरकार बनी जिसमें नेता ने भी अपनी पार्टी का समर्थन दिया...संग ही, स्यन्दन की विद्‍वत्ता और योग्यता की बहुत प्रशंसा करते हुए बहुत अनुरोध कर जिस-किसी भी प्रकार से स्यन्दन को कृषि क्षेत्र में एक अच्छे अधिकारी स्तर का पद दिलवा दिया...पद ऐसा था जहां से बहुत धन पाये जा सकते थे अनुचित माध्यमों से...नेता जीवन ने कई काम करवाये स्यन्दन के माध्यम से जिनसे आर्थिक लाभ तो केवल जीवन को ही हुए, स्यन्दन ने केवल पेपर्स साइन किये और करवाये....स्यन्दन को तब भी जीवन के इस आर्थिक भ्रष्टाचार की जानकारी नहीं थी...जब जीवन ने स्यन्दन के माध्यम से पाये जा धन की राशि एक करोड पार कर गयी पायी तो एक दिन उसने पांच सौ रुपयों की दो गड्डियां स्यन्दन को थमाते हुए कहा -"ये लो एक लाख रुपयों की छोटी सी धनराशि का पुरस्कार, जो तुम्हें अभी तक इतनी कुशलता से पार्टी सेवा करने के कारण तुम्हें दिया जा रहा है..."

स्यन्दन ने प्रसन्नता से वह पुरस्कार ले लिया और उससे दूर एक ग्रामीण क्षेत्र में दो एकड कृषि योग्य भूमि का क्रय कर लिया...यह स्यन्दन की प्रबल इच्छा थी कि वह एक बडे भूक्षेत्र का स्वामी हो जहां वह फलोद्यान, कृषि, आदि का आरम्भ करे...परन्तु यदि दो-तीन लाख रुपये और उसे यदि मिलें तो वह अपने सपने साकार कर सकता है...

जब उसकी यह कामना जीवन की जानकारी में आयी तो वह तुरत बोल पडा -"दो-तीन लाख रुपये क्या हैं...बीस-तीस लाख रुपये भी तुम्हारी झोली में आ गिर जायेंगे..."

"वो कैसे...?"

जीवन ने स्यन्दन को आर्थिक भ्रष्टाचार के उपाय बताने चाहे, पर उसके दृढ औनेश्ट मन और हदय को देखते हुए वह बोल नहीं पाया...और बात घुमाते हुए बोला - "और कैसे...वही....पार्टी सदस्य बनाकर....अधिक से अधिक पार्टी सदस्य बनाओ और अधिक से अधिक रुपये पाओ...पुरस्कार...(कुछ रुककर)...पर इस बार पहले जैसे एक फौर्म पर एक-एक सदस्य बनाने के स्थान पर एक फौर्म पर कम से कम सौ सदस्य बनाओ...."

’सौ...!’ स्यन्दन की आंखें आश्चर्य से फैलीं...

"हां...एक-एक वैसे व्यक्ति को पकडो जिसके आने से कम से कम सौ और व्यक्ति उसके पीछे-पीछे आ जा सकें...ऐसा प्रभावशाली व्यक्ति हो वह...तुम इस मुख्य व्यक्ति को ही सदस्य बनाओ...हमारे और सदस्य कार्यकर्ता हैं जो उससे सम्बन्धित अन्य व्यक्तयों को पार्टी सदस्य बनायेंगे...और तुम्हारा पुरस्कार...यदि कम से कम सौ और सदस्य उसके कारण मिल गये तो तुम्हें मिलेंगे कुल एक लाख रुपयों का पुरस्कार प्रत्येक ऐसे व्यक्ति को सदस्य बनाने पर...."

स्यन्दन को रुपयों की आवश्यकता थी और काम उसे मिल चुका था...उसने उत्साहपूर्वक ऐसे प्रभावशाली व्यक्तियों से सम्पर्क बढाना आरम्भ किया...पर, ऐसे व्यक्तियों ने उसकी पार्टी में रुचि लेने का प्रयास तभी किया जब उसे स्यन्दन से कोई लाभ प्राप्त होता दिखे...ऐसे में अपनी पदशक्ति का उपयोग करके, लाभ पहुंचाकर भी, ऐसे किसी व्यक्ति को अपनी पार्टी में लाना उसके मन ने स्वीकार किया... जीवन की स्यन्दन के सभी कर्मों पर दृष्टि थी...उसने देखा, स्यन्दन ने दो ऐसे ही प्रभावशाली व्यक्तियों को अपनी पार्टी में लाने के लिये उनके किसी कार्य में अपनी पदशक्ति का दुरुपयोग किया, जिससे स्यन्दन के ऊपर प्रश्नचिह्‌न लग सकते थे...तो उसका मन अब स्यन्दन के भले की चिन्ता नहीं कर रहा था...क्योंकि अभी तक जो भी पेपर्स अनुचित रूप से जीवन ने स्यन्दन के साइन करवा लिये थे वहां उसने स्यन्दन के भले की चिन्ता करते हुए बहुत सावधानी रखी थी कि स्यन्दन पर कोई आरोप न लगने न पाये...और इस कारण से जीवन ने वैसे पेपर्स अभी तक स्यन्दन से साइन नहीं करवाये थे जिनसे स्यन्दन की स्थिति डांवाडोल हो सकती थी...पर जब स्यन्दन ने स्वयम्‌ ही ऐसे पेपर्स साइन कर  दिये हैं जिनसे उसकी स्थिति डांवाडोल हो सकती है तो जीवन भी अब पीछे क्यों रहे...उसने वैसे पेपर्स भी स्यन्दन से साइन करवाने आरम्भ कर दिये...और जब ऐसे कई पेपर्स पास हुए तो बात तो फंसनी ही थी...बात फंसी जीवन के ही पास कराये पेपर्स के कारण...उन सन्दर्भों में जब स्यन्दन से पूछा गया तो स्यन्दन ने किसी भी प्रकार की गडबडी करने की बात अस्वीकार कर दी...प्रश्न यह उठा कि कई विषयों पर उसने बहुत अधिक पेमेण्ट अनुमोदित किया था...कहीं-कहीं तो कई गुणा अधिक पेमेण्ट्स थे... इतने अधिक पेपर्स उसके आर्थिक भ्रष्टाचार को सूचित कर रहे थे कि उसे सस्पेण्ड कर दिया गया...आरोप अधिकतर उन्हीं पेपर्स से आये थे जो जीवन के द्‍वारा पास करवाये गये थे...

स्यन्दन -"मैं आप पर आंख मून्दकर विश्वास करते हुए आपके सभी पेपर्स साइन करते गया, उन पेपर्स के सम्बन्ध में जानने की कोई चेष्टा नहीं की, और आपने मेरे संग विश्वासघात किया...!"

"देखो, जो काम सभी किया करते हैं वह पाप या अपराध नहीं माना जाता...तुम अकेले ऐसे अधिकारी नहीं रहे जो ऐसा किये...पूरे भारत में ही ऐसा चलता आ रहा है...मैं तुम्हारा सस्पेंशन वापस करवा दूंगा...और तुमपर कोई आरोप सिद्‌ध भी नहीं हो पायेगा...ऐसे-ऐसे कारणों से किये गये सस्पेंशन में कोई बल नहीं होता...(कुछ रुककर)...हां...और एक शुभ और लाभप्रद सूचना तुम्हारे लिये...मन मीठा करो...तुमने जिन दो प्रभावशाली व्यक्तियों को अपनी पार्टी में सम्मिलित करवाया, उनके सम्पर्क से अभी तक प्रत्येक से सौ से भी अधिक सदस्य बन चुके हैं...इसका पारिश्रमिक मैं तुम्हें देने के लिये तैयार हूं... कार्यकर्ताओं ने बताया है कि हजारों सदस्य भी इनके सम्बन्ध से बन जा सकते हैं...इस कारण मैं इन दोनों के कारण तुम्हें दो नहीं तीन लाख दे रहा हूं...वैसे...हजार तक भी पहुंच जाने की आशा देखते हुए तुम्हें मैं दस लाख भी देने को तैयार हूं...यदि तुम हां कहो तो अभी भिजवा दूं....?"

"हां...पर...तीन लाख रुपये...जो देने का मन आपने सर्वप्रथम बनाया..."

"केवल तीन लाख....! जब दस लाख रुपये तुम्हारी झोली में गिरने को तैयार हैं, तब केवल तीन लाख...ऐसा क्यों...?"

"पर, तीन लाख का औप्शन भी तो आप ने ही दिया है...कि इतनी धनराशि मुझे मेरे कार्यों के लिये दी जा सकती है...इससे अधिक देना आपका मन स्वीकार नहीं किया... अपने मन से आप तीन ही लाख देने के लिये तैयार थे, पर अन्य कारणों से प्रभावित हो आपका मन दस लाख भी देने को तैयार हो गया..."

"ठीक है...मैं अभी तीन लाख रुपये भिजवा देता हूं..." ऐसा कह जीवन चला जाता है...

स्यन्दन ने भूखण्ड का क्रय तो कर रखा था ही, यह तीन लाख की धनराशि ले वह चला जाता है उसे सजाने-संवारने....सर्वप्रथम उसने वहां बोरिंग करवा हैण्डपम्प लगवाया जिससे पानी की व्‍यवस्था हो गयी...आधी भूमि पर कृषि करवायी तथा आधे में फल और सब्जी के पौधे लगवाये...अब वह वर्षा के लिये भगवान्‌ से प्रार्थना कर रहा था कि जीवन आ पहुंचा...बहुत अनुरोध करने पर भी जब स्यन्दन लौटना अस्वीकार करता है तो जीवन कहता है -"मेरा एक शिष्य है सरण...बहुत अच्छा छात्र है....मैं उसे भेजता हूं कि वह तुम्हें समझाये... पर तुम उसे जो गडबडियां अभी तक हो चुकी हैं उनके सम्बन्ध में कुछ न बताना...." जीवन वहां से लौट सीधा सरण से मिलता है, क्योंकि उसे अब केवल सरण से ही राजनीति में सबसे अधिक सहायता मिलने की आशा है...जीवन को स्यन्दन और सरण दोनों ही सिद्‍धान्तवादी और अच्छे व्यक्तियों का सहयोग मिला है...सरण ने जीवन से सहानुभूति दिखायी कि स्यन्दन के यूं साथ छोड चले जाने से अब विधानसभा में विकास पार्टी की केवल एक ही सीट है...

जीवन-"यदि तुम्हें स्यन्दन का संग तुम्हें मिल जाये तो तुम्हारे अभियान में और भी गति आ जा सकती है...स्यन्दन भी तुम्हारी भांति बहुत ही औनेश्ट और अच्छा व्यक्ति है. .." सरण इस समय गुटखा आदि मन और शरीर विनाशकारी पदार्थों के विरुद्‍ध जनजागरण के  अभियान में लगा है...वे पांचों एक स्थान पर कैम्प लगाकर पैम्फलेट बांट रहे हैं और लोगों को जानकारी दे रहे हैं...विभिन्न तथ्य भी दिये गये हैं...

 

गीति -"क्या लगता है कि हमारे इन प्रयासों से समाज कभी सुमार्गगामी हो जायेगा...?"

सरण - "इसकी स्पष्ट जानकारी तभी हो पायेगी जब हम इस बात का निरीक्षण करें कि हमारे अभी तक के प्रयासों का क्या कुछ अच्छा फल किसी भी परिवार या व्यक्ति के संग घटा है...!"

गीति -"पिछले मास हमने जल-अपव्यय और गुटखा,मदिरापान के विरुद्‍ध रविनगर में कैम्प लगाया था...कई व्यक्तियों के पते नोट हैं...हम वहां चलकर जानकारी ले सकते हैं कि क्या कुछ अच्छा घटा तत्पश्चात्‌...ऐसा निश्चय कर वे पांचों रविनगर का मार्ग पकडते हैं...पैदल चल वे पन्द्रह मिनट में वहां पहुंचे....एक आवास में पहुंच जब वे पूछताछ करते हैं तो ज्ञात होता है कि उनलोगों ने सरण आदि की कही बातें और सावधानियां उन्होंने बडे ध्यान से सुनीं और माना कि क्या करना चाहिये और क्या नहीं...पर अगले दिन से सभी व्यक्ति पिछले दिन की सभी बातें भूल पूर्ववत्‌ मनमाना जीने लगे...अर्थात्‌ वही गुटखा और जल-अपव्यय आदि...और तो और, कई व्यक्तियों को बहुत प्रयास करने पर यह स्मरण हुआ कि सरण आदि ऐसा कुछ उनसे बता-सुना गये थे....यह सुन सरण आदि को बहुत निराशा अनुभूत हुई...जब वे द्वितीय आवास में गये तो सुनने को मिला -"हमलोगों ने आपकी बातें सुनीं और मानीं, पर समय आने पर वही किया जिसका हमें अभ्यास बना है...अर्थात्‌ हमलोग पूर्ववत्‌ ही जीते चले आ रहे हैं..."

सरण आदि की निराशा और अधिक बढी...

"यदि हमलोग अपने लक्ष्य के प्रति और अधिक उत्साह पाना चाहें तो कौन है इस संसार में हमें और उत्साह देनेवाला...?"

अन्य और लोगों से मिलने जाने के स्थान पर सरण आदि ने अब फोन से इस सम्बन्ध में जानकारी लेने का विचार किया...तो कई व्यक्तियों ने यह बताया कि उन्होंने उनकी जानकारियों और सावधानियों से बहुत लाभ उठाया और अब वे उनके परामर्श अनुसार ही जीवन जी रहे हैं...

 सरण-"मुझे सन्देह है कि जैसा ये फोन पर बता रहे हैं वैसी ही इनकी वास्तविकता है... ... अतः किसी एक के आवास पहुंच अब विस्तार से पूछताछ की जाये...."

पांचों फोन किये गये व्यक्तियों में एक के आवास पहुंचते हैं... और जब सच कुरेदा जाता है तो वही वास्तविकता ज्ञात होती है कि उनलोगों ने भी ऐसी बातों को केवल मनोरंजन या टाइम पास की दृष्टि से ही सुना-जाना था...अर्थात्‌ सरण आदि के प्रयासों का कोई प्रभाव उनपर नहीं हुआ...

 

पांचों ने एक उद्‍यान में मण्डली जमायी और विचार-विमर्श आरम्भ किया...

सरण -"भारतीय समाज का मनुष्य सिद्‍धान्तों की बडी-बडी बातें मात्र कर सकता है, पर करते समय वही करता है जो समाज के अधिकतर व्यक्ति करते हैं...आत्मसुधार सामान्य व्यक्तियों के लिये असम्भव तो नहीं, पर बहुत ही कठिन अवश्य है..."

गीति - "मुझे लगता है समाज सुधार के प्रयासों को अतिरिक्त समय का कार्य रखा जाये, तथा हमें अपने व्यक्तिग जीवन के विकास पर अधिक समय देना चाहिये..."

सरण -"व्यक्तिगत जीवन का विकास....! आः,,,,ऐसा लगता है मानों अभी तक मैं स्वप्न देख रहा था, और अब मैं वास्तविकता के धरातल पर पांव रखा पा रहा हूं स्वयम्‌ को...मैं अब क्या करुं...! कहां जाउं...?"

फणीश -"मित्र, साहस न खोओ...मैं तुम्हारे मन की स्थिति को समझने का प्रयास कर रहा हूं...मैं तुम्हें यह परामर्श दूंगा कि अपने स्वप्न और वास्तविकता के मध्य तालमेल बैठाना आवश्यक है...और करो यद्‍यपि मुख्य रुप से निज जीवन के विकास का कार्य, तथापि समय निकालकर कभी कभी परोपकार का भी कार्य करते रहो... ... मेरे साधारण मस्तिष्क में इतनी अच्छी बात उपज गयी... विश्वास करो यह तुम्हारी संगति का ही परिणाम है...इस परामर्श को स्वीकार करो..."

"धन्यवाद तुम्हारे इस परामर्श का...पर अभी मैं क्या करुं, हो सके तो यह भी बता दो..."

"वह तो तुम्हें बताया जा चुका है...तुम स्वयम्‌ मनन-चिन्तन करो और निष्कर्ष पर पहुंचो..."

सरण विचारमग्न है और अन्य सभी इधर-उधर देख रहे और गप्प मार रहे हैं...तभी स्यन्दन वहां से गुजर रहा होता है...- "ये आपलोग किस बात का प्रचार कर रहे हैं...? और ये पैम्फलेट कैसे हैं...? आपलोगों का जीवन....?"

फणीश - "श्रीमान्‌, ये हैं नशा-विरोधी और जल-संरक्षक सूचनायें..." एक पैम्फलेट वह स्यन्दन की ओर बढाता है...

पढकर स्यन्दन प्रसन्न होता है....-"यद्‍यपि मुझे कोई नशा नहीं है, न ही मैं जल आदि का अपव्यय करता हूं...तथापि मुझे आपलोगों का यह अभियान बहुत रुच रहा है...यद्‍यपि मैं यहां बीज आदि के क्रय के लिये आया हूं तथापि यदि मैं आपलोगों के समूह में सम्मिलित हो पाया तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी..."

अमर -"जब आग बुझ रही हो तो आप क्या गर्मी पा पायेंगे...हमलोगों ने जनजागरण का बहुत प्रयास किया...लोग हमारी बातें सुन लेते हैं, मान भी लेते हैं, पर वैसा सुधार अपने जीवन में नहीं लाते...जीते वैसे ही रहते हैं जैसा वे जीते चले आ रहे हैं...इस कारण हमारा सुधारवादी मन बुझता आग होता चला जा रहा है...हमलोगों से अब आप क्या गर्मी पा पायेंगे...?"

स्यन्दन -"पर, मैं तो स्वयम्‌ ही ऐसी आग हूं...मेरी संगति से यह बुझती आग पुनः भडक उठ सकती है..."

’अच्छा...’ सबने आश्चर्य व्यक्त किया...तब स्यन्दन ने संक्षेप में अपनी आपबीती सुनायी, जीवन का नाम लिये विना, कि किस प्रकार एक अधिकारी पद पर काम करते वह निर्दोष ही फंस गया था, पर अब वह अपने कृषि क्षेत्र, फलोद्‍यान में सुखपूर्वक जी रहा है...सभी ने स्यन्दन के कृषि और फलोद्‍यान क्षेत्र के भ्रमण के प्रति अपना आकर्षण दिखलाया...स्यन्दन तब इन सबके फोन नं नोटकर ले जाता है कि वह उनसे पुनः मिलेगा...

स्यन्दन तो चला गया पर सरण के मन को ऐसी आशा और विश्वास दे गया कि स्यन्दन जैसे अच्छे कई लोग इस संसार में हो सकते हैं...सरण अब उत्साह जगाते हुए साहस और विश्वास का गीत गा रहा है...अन्य सभी इसमें उसको संग दे रहे हैं...’मन में जो हो आश...तो पूरी हो सकती...नहीं कौन आश...यूं ही नहीं...है हमें चलते जाना...न जाने कब हो जाये जीवन का अन्त...है हमें उससे पूर्व, बहुत कुछ कर पाना..’

तत्पश्चात्‌ और भी उत्साह पाने को वे पांचों राघवेन्द्र कश्यप के समीप पहुचते हैं...

राघवेन्द्र -"यह जीवन एक यात्रा ही है...आत्मा की यात्रा है...इसमें कितने ही मिलते और बिछड जाते है....मनुष्य एकाकी (अकेला) ही इस जीवन में आया है, और एकाकी ही इस जीवन से चला जायेगा...अतः मनुष्य को अपना लक्ष्य स्वयम्‌ ही निर्धारित करना चाहिये...मनुष्य जो भी कर्म करता है उसका फल वह स्वयम्‌ ही पाता है...उसके कर्मों का फल कोई और नहीं बांट पाता है...अतः मनुष्य बहुत सोच-समझकर अपनी इच्छानुसार अच्छा ही कर्म करे...किसी के दबाब में आकर कोई कर्म न करे..."

"पर इतने लोगों के संग रहते कैसे मनुष्य अन्य सभी की बातें अनसुनी कर केवल अपनी इच्छानुसार सभी कर्म करते चला जा सकता है...?"

"मनुष्य यदि चाहे तो क्या नहीं हो सकता है...! अच्छे कार्यों में बाधायें आती हैं...पर आरम्भ में ही आती हैं....यदि विचार दृढ हों तो बाधायें धीरे-धीरे हटती चली जाती हैं...समर्थन बढता चला जाता है...पर इसके लिये यह आवश्यक है कि प्रयास सतत होते जायें..."

"क्या यह सम्भव है कि समाज सुधर जाये...? और हमलोग जितना अच्छा चाहते हैं, मनुष्य समुदाय उसी अनुसार जीवन व्यतीत करने लग जाये...?"

"कितने ही महापुरुषों ने अपना पूरा जीवन लगा दिया समाज सुधारने में...शताब्दियों से महापुरुष समाज सुधारने का प्रयास कर-कर चले गये, पर समाज देखो आज कहां पहुच गया है...? समाज की अपनी ही गति है...बुरा से और भी बुरा होता चला जा रहा है...आदर्श की बातें केवल मन में ही रह जाती हैं..."

सरण के मन को जैसे धक्का लगा...उसे यहां उत्साह पाने की आशा थी...-"तो सर, मैं अब कैसे जीउं....? क्या हो मेरी दिनचर्या प्रतिदिन की...?"

राघवेन्द्र -"किसी धार्मिक विद्‍वान्‌ मनुष्य ने कहा था -’अपना सुधार संसार की सबसे बडी सेवा है...तुम सुधरोगे तो सारा संसार सुधरेगा...और भी - तुम्हें किसी को सुधारने की आवश्यकता भी नहीं होगी...तुम जितने सुधरे होगे उतनी अच्छी प्रेरणा अन्य मनुष्यों का मन स्वयम्‌ ही प्राप्त करने लगेगा, तुम्हारे बोले विना ही’..."

गीति -"विना बोले भी कोई मेरी बात मान ले सकता है...ऐसा कैसे सर...?"

"मान लो मेरे अन्दर ऐसी अच्छाई मेरे अन्दर समायी है कि मैं सबका भला करुं, किसी भी का बुरा न करुं, और मन को ईश्वर प्राप्ति में लगा मोक्ष पा लूं...तो जो भी व्यक्ति मेरे निकट मेरे प्रति अच्छी भावना लेकर आयेगा, उसके मन में मेरे अन्दर की बातें स्वयम्‌ ही उभरने लगेंगी...और उसका मन होने लगेगा कि वह भी सबका अच्छा ही करे, किसी भी का बुरा न करे, और सत्य ज्ञान की प्राप्ति का प्रयास करे..."

"हां...तो क्या हम किसी को सुधारने का प्रयास न करें...?"

"करें...परन्तु केवल स्वयम्‌ को ही सुधारने का प्रयास करें...किसी अन्य को नहीं...हां...पर यदि कोई जिज्ञासा से कुछ जानना चाहे तो उसे बता दिया जाना चाहिये...परन्तु स्वयम्‌ ही किसी को बताने का प्रयास करना समय व्यर्थ करना है...क्योंकि उस व्यक्ति का मन किसी अन्य ही दिशा में घूम रहा है...तुम उसके मन को अपनी दिशा में क्या मोडोगे, कहीं तुम्हारा ही मन उसकी दिशा में न घूम जाये...(कुछ रुककर)...एक सच्ची बात यह है कि जैसे-जैसे लोग इस संसार में हैं, वैसे-वैसे लोगों के इस संसार में होने का आभास इस मन को स्वयम्‌ ही होता रहता है...और यदि तुम अच्छे हो, तो अन्य भी अच्छे लोगों के आभास से तुम्हें उत्साह मिलेगा...तुम्हारे मन को बल मिलेगा...तुम्हारे उनसे मिले विना ही..."

पांचों ने ध्यान से राघवेन्द्र की और भी बातें सुनीं...अन्ततः सरण ने पूछा -"सर, तो अब मैं अपनी दिनचर्या कैसे क्या निर्धारित करुं...?"

"सभी आवश्यक दैनिक कार्यों को करते हुए ध्यान साधना अवश्य करो...और मन को अच्छाई को समर्पित करते हुए धनोपार्जन का

कार्य करो....अच्छाई के मार्ग पर बने रहते हुए जितना भी धन मिल जाये वह तुम्हारे लिये बहुत ही अच्छा फल देनेवाला होगा..."

इसके पश्चात्‌ पांचों ने उनको धन्यवाद दिया और चले गये...

 

सरण कुछ दिनों तक राघवेन्द्र के बताये अनुसार दिनचर्या चलाता है और फोन से उनसे परामर्श लेता रहता है....एक दिन जीवन सरण से मिलता  है और राजनीति में उसकी सहायता करने को कहता है, इस आश्वासन के संग कि यदि उसकी पार्टी सत्ता में आयी तो वह इस राज्य को उसके सपनों का समाज प्रदान करवा देगा...सरण का मन स्वीकार कर लेता है जीवन के अनुरोध को, पर धनोपार्जन वह कैसे करे...?

जीवन -"अभी चुनाव के दिन निकट आते चले जा रहे हैं...तुम विधायक बन जाओ, तब यह समस्या भी तुम्हारे संग (साथ) नहीं रह जायेगी..."

 

सरण निर्धारित दिनचर्या का यथासम्भव अनुसरण करते हुए जीवन की विकास पार्टी के प्रचार-प्रसार में भी लग जाता है...उसने विचारा -’यद्‍यपि राजनीति कभी भी मेरा लक्ष्य नहीं रहा है, तथापि अभी तो इसी दिशा में बहता चला जा रहा हूं...देखुं, आगे क्या होता है...!’ सरण अध्ययन के लिये अपने स्थायी आवास से बहुत दूर इस नगर में किराये के एक रूम के फ्लैट के आवास में रहता चला आ रहा है...वह स्वयम् ही भोजन बनाता है...अभी वह रसोई में था कि कौलबेल बजी...जाकर उसने देखा तो गीति थी...गीति अब उसका भोजन बनाना देख रही है -"मैंने अपने आवास में बहुत आवश्यकता पडने पर ही भोजन बनाया है...इस कारण भोजन बनाने का अनुभव तुम्हारे संग मुझसे अधिक है..."

सरण के संग-संग वह भी उसका बनाया भोजन कुछ मात्रा में खाती है...-"अपनी आजीविका (रोजगार) के लिये तुमने क्या सोचा है...क्योंकि राजनीति से मिली रोटी न केवल मलिन (गन्दी) ही हो सकती अपितु हानिकारक भी हो सकती है..."

"हां...ऐसी आशंका तो मुझे भी है....राजनीति के पथ पर चलना मानो उचित जीवन जीने के मार्ग से भटक जाना है...पर वर्तमान परिस्थितियों ने मुझे इसी पथ पर ला खडा किया है...तब भी, मुझे क्या करना है, कि...."

"कि तुम पूर्णतया सावधान रहो..."

"हां...मुझे इस पथ पर प्रत्येक पग बहुत सावधानी से रखना है..."

"आज अभी क्या करने वाले हो...?"

"कुछ विशेष नहीं...अभी तक में मैंने स्नान, ध्यान, भोजन सब कर लिया है...अब कुछ घण्टे फ्री हैं मेरे व्यक्तिगत कार्यों के लिये...."

"तो चलो संग मेरे...एक स्थान ले चलती हूं..."

दोनों बस पकड एक श्टौप पर उतरते हैं...गीति उसे एक निकट स्थित मन्दिर ले जाती है...देवी मां का मन्दिर...मन्दिर की विशेषता यह है कि मन्दिर जहां आकर्षक और प्रसिद्‍ध है वहीं उसके संग लगा सार्वजनिक उद्‍यान विशाल, कई सुविधाओं से युक्त और आकर्षक है...प्रथम दोनों देवी मां को प्रणाम करते हैं, पश्चात्‌ उद्‍यान में जा आराम से एक स्थान पर बैठते हैं...

गीति -"मेरे स्वप्न का क्या होगा...?"

"कैसा स्वप्न...?"

"तुम्हारे संग जीने का... अर्थात्‌, विवाह का..."

"विवाह तो स्थिर जीवन में होता है...जबकि मेरा जीवन अभी अस्थिर है...कुछ भटका हुआ सा भी है..."

"तब भी...मैं कामना करती हूं...तुम्हारा सब अच्छा-अच्छा हो जाये..." वह सरण के कन्धे पर सर टिकाये, कल्पना में, सरण के प्रति प्रेम भरा गीत गा रही है...-तुमसे ही...तुमसे ही मेरा जीना है...तुम पर ही मुझे मर जाना है...तुम्हीं मेरे संसार...तुमसे ही मुझे सब पाना है..."

 

जीवन सरण से मिलता है और कहता है -"तुम जाकर स्यन्दन से मिलो, और उसे राजनीति में वापस लाने का सफल प्रयास करो...अर्थात्‌ उसे ले ही आओ...वह मेरी पार्टी से विधायक है..."

कोई चार सौ किलोमीटर दूर है स्यन्दन की कृषि भूमि...गीति के अतिरिक्त अन्य चारों वहां पहुंचते हैं...स्यन्दन को देख वे आश्चर्य करते हैं कि वे तो उससे पहले मिल चुके हैं...वे जब स्यन्दन से राजनीति छोड कृषि करने लग जाने का कारण पूछते हैं तो स्यन्दन केवल इतना ही बताया कि - "राजनीति के वायुमण्डल में जीना मुझे रुचा नहीं...जबकि कृषि के इस वायुमण्डल में जीना मुझे बहुत रुचता (पसन्द आता) है..."

अमर -"आपने पिछले बार मिलने पर बताया था कि किसी नेता ने आपसे विश्वासघात किया था...कौन है वह...?"

स्यन्दन इसे टाल जाता है वह कौन है...अर्थात्‌ छिपाये रखता है...स्यन्दन उन्हें अपना कृषि और फलोद्‍यान का क्षेत्र दिखलाता है....कि कृषि कार्य वहां कितने आकर्षक रूप में चल रहा है...विविध प्रकार के फलों के पौधे और वृक्ष वहां बढ रहे हैं...सब्जियां तो अभी ही वहां पर्याप्त उग रही हैं....क्रेता लोग यहां आकर सब्जियां क्रय कर ले भी जा रहे हैं...समक्ष (सामने) कुछ श्रमिक (मजदूर) शस्यों (फसलों), फलों, और सब्जियों के पौधों को पानी दे रहे हैं...इस प्रकार वहां का दृश्य बहुत मनोहारी(mind becomes engrossed  in what) और रमणीय(enjoyable) था...चारों को बहुत प्रसन्नता हुई उस वातावरण में....

सरण -"यूं तो यहां का वातावरण इतनी प्रसन्नता देता है कि नगर का सारा वातावरण कुछ दुःख जैसा जान पडता है इसकी तुलना में...तब भी, स्यन्दन जी, मैं आपसे यह कहना चाहुंगा कि यहां के संग-संग नगर का भी काम देखते सम्भालते रहें....क्या यह बुरा होगा यदि ऐसा हो तो...?"

"हां...बुरा होने की आशंका है...क्योंकि यह जो मन है वह एक बार में केवल एक ही स्थान पर केन्द्रित हो पाता है...आपने तो सुना होगा- एक को मनाओ तो दूजा रूठ जाता है..."

"पर कितने ही लोग एक साथ कई कार्यों का उत्तरदायित्व उठाये रखते हैं, और सफल भी होते हैं...क्या कहेंगे उनके सम्बन्ध में आप...?"

"मन तो एक समय में केवल एक ही स्थान पर केन्द्रित हो पाता है...अन्य स्थानों या उत्तरदायित्वों पर उनके अधीन काम करने वाले मैनेजर, औफिसर आदि उन-उन स्थानों पर अपने मन को लगाये रखते हैं...स्वामी (मालिक) तो कभी-कभी देख आया करते हैं..."

"तो आप भी यहां अपना कोई मैनेजर या कर्मचारी रख दें जो आपका यहां का काम भलीभांति सम्पन्न करवा दिया करेगा...और आप अपना मन नगर में लगायें..."

"हां...यदि कोई इतना विश्वसनीय कर्मचारी मुझे मिला तो...और वह यदि मुझे यहां मिलनेवाली प्रसन्नता भी वहां मेरे समीप भेज दिया करे..."

"यह हो सकता है कि यहां के वातावरण से आपकी कुछ दूरी हो जाये...तब भी यह आपके मन पर निर्भर करता है...जिसे आप बहुत प्रेम करें वह २४ घण्टे आपके मन में छाया रहता है...वैसे, जीवन सर ने बताया है कि आप पार्टी के लिये बहुत लाभदायक रहे हैं...और अभी पार्टी को आपकी बहुत आवश्यकता भी है..."

"आइये...हमलोग कुछ फलाहार लें..." श्रमिक उन सब के लिये काटकर कुछ फल लाता है...वे खाते हैं, प्रशंसा करते हैं...

सरण -"मैं स्वयम्‌ भी ऐसे वातावरण में रहना पसन्द करता हूं...किसी भी अच्छे व्यक्ति को ऐसे वातावरण में रहना रुचेगा...पर यदि किसी अन्य स्थान पर कुछ समय के लिये जाना पडे, तो वहां जाना भी रुचेगा...केवल चुनाव तक भी यदि आप पार्टी का साथ दें, तत्पश्चात्‌ यहीं रहें...सर ने कहा है कि जितना भी लाभ पार्टी को आपके कारण होगा, उसी अनुपात में उतना ही लाभ आपको ऐट्लीष्ट लाखों रुपये मिलेंगे....इससे आप यहां और भी समृद्‍ध रूप में रह सकते हैं...जैसा आप निर्णय लें..."

इस प्रकार बहुत तर्क और अनुरोध करने पर स्यन्दन नगर आने को तैयार हो गया- "अभी चार-पांच दिनों पश्चात्‌ मैं स्वयम्‌ ही जीवन जी से बात करूंगा...तबतक यहां की व्यवस्था कौन सम्भाले, यह निर्णय मुझे लेना है..."

तब चारों वहां से चल पडते हैं और जीवन को इस बात की सूचना फोन कर देते हैं...सुनते ही जीवन अति प्रसन्न हो तुरत बस पकड स्यन्दन से मिलने पहुंच जाता है...स्यन्दन -"मुझे चिन्ता मात्र इस बात की है कि मेरे इस कृषि क्षेत्र को अपना जैसा कौन सम्भालेगा, यहां की व्यवस्था भलीभांति करता रहेगा मेरी अनुपस्थिति (ऐब्सेन्स) में...तबतक...?"

जीवन -"अरे, यह तो बहुत ही साधारण चिन्ता है जिसका समाधान मैं अभी कर देता हूं...मेरे दो विश्वसनीय कर्मचारी हैं जो यहां की  सारी व्यवस्था भलीभांति सम्भालेंगे...बुलाउं...?"

स्यन्दन के स्वीकार करने पर जीवन उन्हें फोन कर देता है...रात जीवन वहीं बीताता है...प्रातःकाल होते-होते वे कर्मचारी भी वहां अपनी आवश्यक वस्तुओं के संग पहुंच जाते हैं...जीवन को भी स्यन्दन की यह कृषि भूमि रुचती है...वह वहां का आनन्द-भ्रमण करता है और फल आदि का स्वाद लेता है..स्यन्दन उन दोनों को वहां की सारी व्यवस्था समझाता है, उनके खाने-रहने की व्यवस्था बताता है...उन्हें बताता है कि समय-समय पर यहां आकर वह मिलता देखता रहेगा...जीवन तब विना विलम्ब किये स्यन्दन को अपने संग लेते जाता है...स्यन्दन पार्टी कार्यालय में रहता है, और अब अधिकतर समय सरण की संगति में बीताता है क्योंकि उसे सरण की जीवनशैली और विचार बहुत प्रिय (पसन्द) हैं...इस प्रकार सरण आदि के पांच का समूह अब छः का हो चला था...

स्यन्दन -"यदि एक बार लोगों को समझाने से वे न समझें तो हमें दूसरी बार, और तीसरी बार भी प्रयास करने चाहिये...यदि दूसरे तीसरे बार प्रयास करने का मन नहीं बन रहा हो, तो भी कोई बात नहीं...प्रयास हमें तब भी करना है...क्या सोचकर...! इस बार यह जानते हुए भी कि हो सकता है इससे हमें समाज-सुधार में सहायता न मिले, पर इन कार्यों से हमें जनता का ध्यान अपनी पार्टी की ओर आकर्षित करने में, वोट-प्रतिशत बढाने में सफलता निश्चित रूप से पानी है..."

सरण -"यह तो बहुत अच्छी समझ की बात रही...एक पन्थ दो काज...दोनों ही लाभ होंगे..."

 

इस बार के कैम्प में विशेष ध्यान पानी के महत्त्व पर था...किस प्रकार पानी व्यर्थ होता है, यह न होने पाये...पेय जल के स्रोत....भूजल का स्तर निरन्तर नीचे और नीचे गिरता चला जा रहा है...कुछ वर्षों पश्चात्‌ बोरिंग से भी पेय जल मिलना सम्भव न हो पायेगा...तब मानव कैसे जीयेगा और जीवन अस्तित्व में कैसे रह पायेगा...? इत्यादि...

एक परिवार के सदस्यों के समक्ष जब ये बातें कही गयीं तो वे घबडा गये और बोले कि अब वे पानी एक चुल्लु भर भी व्यर्थ नहीं जाने देंगे...सरण का हैण्डबैग उसी आवास में छूट गया था...कुछ समय पश्चात्‌ जब वह उसे लेने आया तो पाया वहां वे बहुत पानी व्यर्थ में भूमि पर बहा रहे थे...हैण्डबैग जहां रखा था वहां से उठा उसे दे दिया गया...पर जब उसने पानी के दुरुपयोग पर आपत्ति की, तो वहां उपस्थित किसी ने कहा कि यह उनका पानी है और वे चाहे जैसे उसका उपयोग करें...और किसी भी ने उसकी बात मानने में रुचि नहीं दिखायी...एक छोकडे ने कहा -"आपलोगों का काम है हमलोगों को बताना, पर हम मानते हैं या नहीं यह हमपर निर्भर है...ये देखो, हमलोग गुटखा भी खाते हैं, और कितना भी बोलो, हमलोग सुन लेंगे पर छोडेंगे नहीं...ये देखो...पैकिट पर चित्र भी बना है कि गुटखा खाते रहने से जबडा गल जायेगा -मुंह सारा बिगड जायेगा...हो सकता है मुंह काम करना बन्द कर दे...पर हमारा भी मन पूरा बना है कि हम गुटखा खाते ही रहेंगे चाहे इसका जो परिणाम हो..."

सरण ऐसा सुन आश्चर्यचकित रह गया...उसने तुरत मोबाइल से राघवेन्द्र सर को फोन किया और यह घटना बतायी...उनने कहा -"धर्म या अध्यात्म के पथ का अनुसरण कर, या ईश्वर में सच्चे विश्वास से ही जीवन जीने को महत्त्व मिलता है...धर्म/अध्यात्म के अभाव में जीवन जीने का महत्त्व डूबने लगता है...जैसा कि उस युवक के समक्ष रुपया कमाने के अतिरिक्त कुछ अच्छाई, सदाचार, या सच्चे धर्म में विश्वास इत्यादि का आदर्श नहीं था...अतः जीवन का मार्ग प्रकाश को छोड अन्धकार की ओर मुडने और उसमें खो जाने को आतुर है...इसी कारण उसने ऐसा कहा...रुपये से हमें कभी भी ऐसी प्रेरणा नहीं मिलती कि हमें अच्छा करना चाहिये और बुरा नहीं करना चाहिये...ऐसी प्रेरणा हमें ’सच में किसी ईश्वरीय शक्ति’ में विश्वास करने से मिलती है...केवल रुपयों को ही जीवन का लक्ष्य मानने वाला मनुष्य जिस किसी मार्ग पर निकल जा सकता है, और किसी भी दिन किसी भी समय अपने ही जीवन को हानि पहुंचा दे सकता है...धर्म में मनुष्य का विश्वास यदि सच्चा हो तो वह मनुष्य को संयम, विकास, उत्साह, चरित्रवत्ता, प्रसन्नता आदि अच्छाइयों में बान्धे रखता है...धर्म/अध्यात्म का बन्धन छूट जाने पर मनुष्य बिखरने लगता है...कभी भी वह नाश को प्राप्त हो जा सकता है..."

"और जो लोग अपने धर्म के सच्चे अनुयायी होने का दावा करते हुए हिंसा - हत्या और आतंक फैलाते हैं, वे...?"

"वे धर्म नहीं, अधर्म का पालन कर रहे होते हैं, पर उन्हें भ्रम होता है कि वे ऐसा कर स्वर्ग जायेंगे...उन्हें नरक की अग्नियों में कठोर दण्ड ही मिल सकता है..."

 

सरण के मन पर इस घटना का और राघवेन्द्र सर के स्पष्टीकरण का विशेष प्रभाव पडा...उसने सोचा, धर्म के पथ का अनुसरण तो वह भी नहीं कर रहा है...अर्थात्‌ वास्तविक विकास के पथ पर वह भी नहीं चल रहा है...उसने अभियान के अन्य सदस्यों को कहा -"अभी मैंने उनलोगों का जो बिगडा रूप देखा उसके पश्चात्‌ मेरा मूड बहुत बिगडा हुआ है...तुमलोग अभियान में लगे रहो...मैं अपने कक्ष में जा रहा हूं...कुछ समय शान्ति से बीताउंगा...”

वह कक्ष में जाकर राघवेन्द्र सर के बताये अनुसार पद्‍म आसन में बैठ मुक्तात्मस्वरूप और ब्रह्‌मात्मस्वरूप के ध्यान का प्रयास करता है...वह उनकी बतायी ध्यान विधि का पुनः अध्ययन करता है और वैसे ही ध्यान एकाग्र करने का प्रयास करता है...मन को सांसारिक सुखों से पूर्णतया हटा लेने का प्रयास करते हुए स्वयम्‌ को प्रकाश के गोले के रूप में कल्पना करने का प्रयास करते हुए ध्यान करने का प्रयास करता है...मन से सभी सांसारिक सुखों की कामना छोड देने का जब उसने मन बनाया तो उसके मन को बहुत आराम और आनन्द-सा अनुभव हुआ...वह कुछ मिनटों पर्यन्त (तक) ऐसा ध्यान कर ऊंघने लगता है और लेट सो जाता है....एक घण्टे पश्चात्‌ उसकी नीन्द खुली तो वह पुनः ध्यान की धारणा में संलग्न होने का प्रयास करने लगता है...कुछ मिनटों पश्चात्‌ कौलबेल बजती है...उठकर जा देखता है तो पाता है कि गीति आयी थी...

"तुम्हारे विना कैम्प में मेरा मन नहीं लग रहा था...यद्‍यपि अन्य सभी अभी भी उत्साह से लगे हैं..."

सरण ने विचारा -’सम्भवतः वोट बढाने का ही उनका इण्टेन्शन है...’ और बोला -"गीति, तुम भी राघवेन्द्र सर के बताये अनुसार ध्यान लगाने का प्रयास करो और देखो कैसी अच्छी अनुभूति होती है...."

दोनों ध्यान की अवस्था में बैठे हैं...संकल्प कर रहे हैं सांसारिक सुखों से अपना सम्बन्ध पूर्णतया तोड केवल मुक्ति की कामना करने का...कुछ मिनटों पर्यन्त प्रयास करते हुए वे पाते हैं कि जितना ही अधिक वे सांसारिक सुखों से अपना सम्बन्ध तोड लेने या मन हटा लेने भी का प्रयास करते हैं उतना ही उनका मन सांसारिक सुखों के प्रति खिंचने लगता है...सरण और गीति एक-दूसरे के प्रति भी आकर्षण अनुभव करते हैं...ऐसे में जब दोनों ने यौन आनन्द से अपना मन पूर्णतया हटा लेने की धारणा की तो उनकी काम वासनायें और भी भडक उठीं, और कुछ ही क्षणों की हिचकिचाहट के पश्चात्‌ वे दोनों सम्भोगरत हो गये...परस्पर यौन सम्बन्ध बना दोनों ही को बहुत आनन्द आया...पर ध्यानसाधना का ऐसा परिणाम क्यों मिला...? सरण ने तुरत राघवेन्द्र सर को फोन किया और सारी बात बतायी...

राघवेन्द्र -"मेरा यह स्पष्ट कथन है कि मुक्तात्मस्वरूप और ब्रह्‌मात्मस्वरूप के ध्यान में पुरुषों के लिये स्त्री, और स्त्रियों के लिये पुरुष गड्ढे जैसे हैं...अतः दोनों को ध्यान अलग-अलग ही लगाना चाहिये...अब मेरा परामर्श यही है कि तुमदोनों विना विलम्ब किये एक-दूसरे से विवाह कर लो...तत्पश्चात्‌ संग बैठ ध्यान लगाया करो...तुम्हें अपनी कामवासना पर विजय प्राप्त करने में सफलता मिल सकती है..."

 

गीति ने अपने परिवार को पूरी बात बतायी और विना विलम्ब किये सरण संग विवाह की तीव्र इच्छा जतायी...दोनों ही के अति इच्छुक मन को देखते हुए गीति के परिवार वालों ने एक मन्दिर परिसर में सादे ढंग से दोनों का विवाह सम्पन्न करवा दिया...उन लोगों को सरण बहुत पसन्द था पर उसका धनोपार्जन न करता हुआ होना ही सबके मन में खटक रहा था...गीति ने जब सभी लोगों की यह चिन्ता सरण को बतायी तो, सरण - "तुम्हें मैं वचन दे रहा हूं...जितना शीघ्र सम्भव हो सकेगा, मैं इस समस्या का समाधान कर दूंगा...बहुत दिन नहीं लगेंगे..."

गीति चाहे तो सरण के संग रहे अथवा अपने पिता के आवास में उसके अपने कक्ष में रहे यह उसपर निर्भर था...यह अनुमति थी उसे दोनों ही ओर से...विवाह के समय एक गीत का आरम्भ हुआ जो विवाह पश्चात्‌ गीति के सरण के फ्लैट में रहते हुए भी चल रहा है जिसमें गीति सरण के धनोपार्जन करते हुए पहले से कहीं अधिक अच्छे फ्लैट में पर्याप्त सुखद स्थिति में रहते हुए होने की कल्पना कर रही है...गीति यह गीत सरण संग बहुत ही सुखपूर्वक जीते होने की कल्पना करती गा रही है...

 

सरण ने धनोपार्जन के सम्बन्ध में अपनी चिन्ता जीवन को बतायी...

जीवन -"अब चुनाव में कितने मास बीतने और रह गये हैं...? तुम्हारा विधायक बनना निश्चित है...तबतक पार्टी की जनता पर पकड और भी बली बनाने में लगे रहो...और हां...धन की जो आवश्यकता है....वह स्यन्दन जैसा ही पेमेण्ट तुमलोगों को भी करुंगा....केवल तुमलोग काम करके दिखाओ...क्या किया और कितने व्यक्तियों को अपनी पार्टी में लाया...किसी भी एक प्रभावशाली व्यक्ति, जिसके पीछे कम से कम सौ और व्यक्ति भी अपनी पार्टी में आ जायें, को अपनी पार्टी में लानेपर एक लाख रुपये मिलने निश्चित हैं....हां...पेमेण्ट लाखों में मिलेंगे... तुमलोग रुपयों की चिन्ता न करो...."

सरण खडा चिन्तित हो रहा था कि न जाने कब ये रुपये मिलेंगे...? जीवन ने उसके मन को पढ लिया और बोला - "ऐसा है...परसों तुम पांचों मुझसे पार्टी कार्यालय में मिलो...अभी तक कितने व्यक्तियों को अपनी पार्टी में ला चुके उनके विवरणों के संग...तुम सभी को तुरत पेमेण्ट मिलेगा..."

 

सरण ने अब निश्चित रूप से समाज के सुधर ही जाने की आशा न करते हुए केवल सावधान करने अपनी पार्टी की पहुंच अधिक से अधिक बढाने-फैलाने में अपना मन लगाया...गीति अब पहले से बहुत कम ही समय अभियान में देने लगी, और वह भी तभी तक जबतक सरण संग उसके वहां है...

विकास पार्टी के बढते-फैलते प्रभाव को देख अन्य राजनीतिक पार्टियां घबडायीं...क्योंकि अन्य पार्टियां केवल जनता के लिये लाभदायक घोषणायें करके, या दो समुदायों को लडवाकर पुनः शान्ति स्थापित करने और भयमुक्त समाज देने का चुनावी वचन देने, या क्षेत्रवाद आदि ऐसी ही कई चतुरायियों से वोट पाने का प्रयास करती रहती थीं...जबकि जीवन की विकास पार्टी समाजसुधार के नाम पर अच्छा नाम कमा रही और जनता में अधिक से अधिक दूर तक की पहुंच-पकड बनाती चली जा रही है...

जीवन -"मैं अगले मास अन्त तक में यहां राजधानी में अपनी पार्टी का राज्यस्तरीय सम्मेलन या रैली आयोजित करने जा रहा हूं...इसके लिये तुमलोगों  को अन्य नगरों में भी अभियान कैम्प आयोजित करने होंगे...और हां, रुपये...स्यन्दन के संग मेरा अलग ही रुपयों का लेना-देना है, पर तुम पांचों के लिये मैं दो लाख रुपये दे रहा हूं...अभी तक जितने भी व्यक्ति तुमलोगों के कारण पार्टी में आये हैं इस नाम पर...और आगे के अभियान कार्यों में जितने भी रुपये व्यय होंगे, अगले दिन ही तुमलोगों को उन रुपयों से कहीं अधिक का पेमेण्ट मिल जाया करेगा...हो सकता है, यह पेमेण्ट का कार्य स्यन्दन किया करे...राज्य के सभी नगरों और कुछ उपनगरों में भी अभियान आयोजित करने होंगे...मैंने इन सभी स्थानों पर अपनी पार्टी की पकड बना रखी है...पर अब यह पकड इतनी बली बनानी है कि यह जीत दिला दे...सभी स्थानों पर श्टेज आदि की व्यवस्था मैं करवा रहा हूं...मेरे भाषणों का आलेख सरण और स्यन्दन लिखेंगे...कुछ अन्य भी नेता हैं अपनी पार्टी के जो भाषण देंगे..."

 

इसके पश्चात्‌ बडी ही व्यस्त दिनचर्या हो गयी छहों की...सरण ने दो लाख रुपयों के समान पांच भाग चालीस-चालीस सहस्र (हजार) रुपये किये सरण, गीति, अमर, ईशान, और फणीश के नाम पर और बांट दिये...यह उनलोगों का प्रथम बार पार्टी से हुआ आर्थिक लाभ था...तब भी, अब गीति के लिये आराम के ही दिन थे, क्योंकि वह यहां राजधानी में होनेवाले कार्यक्रमों में ही भाग लेगी...बाहर के नगरों में अन्य पांचों जायेंगे...

समय से सभी प्रस्थान कर जाते हैं सूची पर लिखे प्रथम नगर को...प्रथम दिन पांचों का अभियान -कैम्प -जनजागरण चलता है...इसमें पार्टी के कुछ अन्य भी सभ्य-से सदस्य उत्साहपूर्वक लगे रहते हैं...नगर बडा होने के कारण यहां दो दिन अभियान रखा गया है, और तीसरे दिन रैली या भाषण...तीसरे दिन भाषण में श्रोताओं की अच्छी संख्या जुटी नगर से और ग्रामों से...जीवन ने पार्टी सदस्यों को सुदूर ग्रामों से भी लोगों को रैली में लाने को भेजा था...सरण, स्यन्दन, तथा कुछ अन्य पार्टी नेताओं ने भी रैली की भीड को सम्बोधित किया...जीवन ने जनता को यह विश्वास दिलाया कि यदि उनकी पार्टी का शासन आया तो रामराज्य आ जायेगा...इतना सुखी, सम्पन्न और सुमार्गगामी होगा राज्य...

कोई डेढ मास के राज्यव्यापी अभियान से जीवन की विकास पार्टी पूरे राज्य के नागरिकों  के विशेष चर्चा का विषय बन गयी थी...लोगों की समझ में विकास पार्टी के सबसे बडी पार्टी के रूप में उभर आने की सम्भावना दिखने लगी थी...शासक पार्टी और मुख्य विरोधी दल दोनों ही ने विकास पार्टी को अपने पक्ष में लाने के प्रयास आरम्भ किये...उन्होंने जीवन से मीटिंग की तथा एक गठबन्धन बना चुनाव लडने की बात कही...मुख्यमन्त्री स्वयम्‌ आया जीवन के पार्टी कार्यालय...इस समय सरण आदि पांचों भी उपस्थित थे...जीवन के संग मुख्यमन्त्री की केवल औपचारिक ही बातचीत हो पायी...जीवन ने उससे सरण और स्यन्दन की बहुत प्रशंसा की कि इन दोनों के कारण ही आज पार्टी का महत्त्व इतना अधिक बढ गया है...मुख्यमन्त्री की पारखी दृष्टि से सरण और स्यन्दन की गुणवत्ता छिपी न रह सकी... वहां से जाने के पश्चात्‌ मुख्यमन्त्री ने सरण और स्यन्दन को अपने सहायक द्‍वारा उसकी पार्टी में बडे पदाधिकारियों के रूप में नियुक्ति का प्रस्ताव भिजवाया...पर दोनों ने इसे विना विचार किये अस्वीकार कर दिया...तब मुख्यमन्त्री ने इन दोनों के सम्बन्ध में सारी जानकारियां प्राप्त कीं...इस समय तक में विकास पार्टी का राज्यस्तरीय सम्मेलन या रैली सम्पन्न हो चुकी थी...इसमें कोई दो लाख व्यक्ति पूरे राज्य से आये थे...

अब चुनाव होने में कुछ ही दिन शेष रह गये थे...सरण और स्यन्दन भी विकास पार्टी की ओर से विधायक पद के लिये प्रत्याशी थे...एक दिन सरण आदि छहों राजधानी की एक एक बडी कौलोनी में अभियान और पार्टी प्रचार के उद्‍देश्य से गये...वहां के अधिकांश नागरिक शासक दल को वोट देते चले आ रहे थे...उस पार्टी के लोगों ने सरण आदि के संग अभद्रता से बातें करनी आरम्भ कर दीं...’क्यों आये यहां...? यदि वोट मांगना है तो वोट मांगो...ये समाजसुधार का नाटक क्यों कर रहे हो...? यह हमारा गढ है...पहले कभी नही आये यहां क्या...?" बढते विरोध को देखते हुए वे लौट गये वहां से, पर समाचारपत्रों, टीवी आदि को देने के लिये वीडियो-रिकौर्डिंग भी कर रहे थे...यह घटना विशेषकर टीवी पर देखी गयी...पर इससे विकास पार्टी का नाम और भी फैला, तथा जनता की सहानुभूति इस पार्टी के प्रति बढने लगी...अब सभी लोगों को तथा एग्जिट पौल से भी यही विश्वास होने लगा कि विकास पार्टी ही अगली सरकार बनायेगी...इसका कारण यह समझा गया कि विकास पार्टी जहां समाज में जनजागृति और समाजसुधार के कार्यक्रमों द्‍वारा वोट पाने का प्रयास कर रही है, वहीं अन्य पार्टियां जातिवाद, सम्प्रदायवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, झगडा-हिंसा, बलप्रयोग आदि को आधार बना वोट पाने का प्रयास कर रही हैं...चूंकि विकास पार्टी के पास बहुत शक्तिशाली पदाधिकारी और सदस्य कार्यकर्ता नहीं थे, अतः शासक दल ने पहले तो जीवन को साझे में चुनाव लडने का प्रस्ताव दिया, पर जब जीवन ने अपने बल पर चुनाव लडने की बात कही तो शासक दल ने निर्भयता से कहा -"आपकी पार्टीके लोगों का बल हमारी पार्टी के लोगों से बहुत ही कम है...तो दुर्बल होते हुए भी आप क्या बली से जीत जायेंगे...?"

जीवन चुप रहा...

पुनः -"आपका एक भी वोटर क्या वोट डाल पायेगा...?" इसी प्रकार शासक दल के लोग विकास पार्टी के कार्यालय में डराने-धंमकाने की बातें कह चले गये...

जीवन अपनी पार्टी के सभी मुख्य सदस्यों के संग मीटिंग कर रहा है....-"हमारी पार्टी की पहुंच बढती जा रही है जनता के मन में....पर हमारी व्यक्तिगत शक्ति मुख्य पार्टियों की तुलना में बहुत ही कम है...(कुछ रुककर)...पर यह भी है...कि शासन अपने हाथ में आनेपर सारी दुर्बलता चली जायेगी...हा हा हा...हमलोग भय छोड दें...और चलो जुट जाओ काम में...(सबको अब भी चिन्तित देख)...क्या बात है...? उत्साह नहीं जुट रहा तुमलोगों का...?...अरे केवल इतना करो कि अपनी ओर से हिंसा आरम्भ न होने दो...हमारे सम्पर्क में कई ऐसे सदस्य हैं जो पुलिस आदि में उच्च पदों पर हैं...पर...यही है कि मैं उनकी सहायता तभी लेना चाहता हूं जब कोई अन्य उपाय न रह जाये... ... अच्छा, एक उपाय है...मूड फ्रेश करने का...चलो तुम सब उठो...एक मेरी कार, और एक चुनावी कार्यों के लिये ली गयी कार, इन दोनों कारों में हम दसों चलते हैं एक होटेल..."

जैसा जीवन के द्‍वारा कहा गया उसे सभी ने गम्भीरता से लिया, और दोनों कार ले पहुंच गये एक बडा-सा आकर्षक होटल...अन्दर की कुर्सी, टेबल, आदि सारी व्यवस्था श्टैण्डर्ड क्वालिटी की थी...सभी ने स्थान ग्रहण किये...

जीवन-"यहां सामान्य भोजन, मांसाहार, आइसक्रीम आदि जो भी खाना चाहो, खाओ, खुलकर...पैसे की चिन्ता न करो...दो-चार-पांच हजार रुपये लगेंगे, और क्या...ये मेरे द्‍वारा दी गयी पार्टी है..."

देखते ही देखते मरे जैसे दिखते मुखडों पर धीरे-धीरे प्रकाश आने लगा...सभी ने मीनु देखना आरम्भ किया...उनके मंगाये आइटम्स आये...वे गप्प मारते खाने लगे...खाना समाप्त होते - होते सभी अप्रसन्नता भूल चुके थे...अब सभी ने आइसक्रीम खायी...

जीवन ने एक कर्मचारी की ओर संकेत कर कहा - "इन सभी का, और मेरा भी, जितने का बिल बनता हो सब मेरे खाते में डाल दो..."

कर्मचारी -"सर, यह तो आपका ही होटल है...तो आपका खाता कैसे होगा...?"

जीवन -"हूं...तब भी...यह विवरण तो होना ही चाहिये कि मेरे माध्यम से कब कितने का क्या-क्या खाया गया..."

"जी सर, अभी नोट करता हूं..."

सभी आश्चर्य से -"सर...ये आपकऐ होटल है...?"

जीवन मुस्कुराया -"हां...किसी को बताया नहीं....क्योंकि, उसी बात का भय था जो तुमसब अभी देख रहे हो...तो मेरा यह व्यवसाय कैसे चलता...? पर अब मुझे वह भय नहीं है...चलो..."

 

सरण गीति से बात कर रहा है अपने आवास में - "यह राजनीति...मेरी रुचि का विषय नहीं है....सभी अच्छे-बुरे हथकण्डे अपनाकर जिस-किसी प्रकार से चुनाव जीतने का प्रयास किया जाता है...तत्पश्चात्‌ जितने कितने भी अनुचित उपायों से रुपयों पर रुपये अपने हाथ करते रहने का प्रयास करते रहा जाता है...इसके लिये...जो भी हिंसा या मर्डर तक भी करना-करवाना पडे -सभी औप्शन्स खुले हैं राजनीति के खिलाडियों के लिये...ओह्‌...!...मैं कहां जा रहा था, और कहां चला जा रहा हूं....?"

गीति कुछ न बोल सकी, पर उसके कन्धे पर अपना हाथ रख सर टिकाया और धीमे से बोली -"जो भी करो, निर्णय तुम्हें ही लेना है...मैं सदा ही तुम्हारे संग चलने को तैयार हूं..."

गीति एक समर्पण का प्रेमगीत गा रही है...’तेरी बांहों में प्रियतम...’

 

विकास पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिये दिन अब सुख-शान्ति के न रह आशंकाओं और सावधानी के हो चले थे....अन्य पार्टियों की कुदृष्टि कब कैसे उनपर पडती है इस बात को लेकर वे सभी सदा आशंकित बने रहते थे...

आज चुनाव में केवल चार दिन शेष रह गये हैं....सभी पार्टियों का चुनाव-प्रचार पूरी गति से चल रहा है...

जीवन -"आज गीति, तुम भी चुनाव प्रचार में चलो...तुम्हें भाषण देना है...पूछो क्यों...मैं बताता हूं...तुम्हें एक महिला सम्मेलन को सम्बोधित करना है....यहां पूरे राज्य से अच्छी पहुच-पकड वाली स्त्रियां एकत्र हुइ हैं...यदि उनका मन जीत लिया तो पूरे राज्य में अपनी पार्टी की पहुंच और भी बली होगी...वहां तुम्हें पार्टी की अन्य स्त्री सदस्यों का समर्थन मिलेगा...सरण और स्यन्दन, तुमदोनों गीति के भाषंण का आलेख तैयार करो..."

सरण और स्यन्दन ने सुशीघ्र गीति के भाषण की सामग्री लिख डाली...सायम्‌ सात बजे भाषण देना है...इसके लिये पांच बजे सरण, गीति, स्यन्दन, और जीवन   तथा पांच अन्य स्त्री सदस्य उस सम्मेलन स्थल की ओर चल देते हैं...अभी सात बजे गीति आदि का भाषण आरम्भ हो उससे पूर्व ही जीवन को फोन आया कि विरोधी पार्टी के गुण्डों ने पार्टी कार्यालय पर आक्रमण किया और तोडफोड मचायी, गालियां बकीं, जिसमें अन्दर उपस्थित दो सदस्यों को चोट भी आयी है...कार्यालय की बुरी स्थिति हो गयी है...कहीं-कहीं आग भी लग गयी है...

जीवन-"आग भी लगी है तो बुझाओ...देख क्या रहे हो...?"

"सर, अभी भी भय है आक्रमण का...अन्दर दोनों कार्यकर्ता चोट खा भी भय से छिपे हैं जबकि मैं किसी प्रकार जान बचा भागा वहां से..."

जीवन- ”हमलोग क्या अभी कार्यालय चलें...?"

स्यन्दन -"आपका यहां होना अभी बहुत आवश्यक है...पार्टी अध्यक्ष न हो तो भाषण का उतना अच्छा प्रभाव नहीं पडेगा उनपर जितना होना चाहिये..."

जीवन -"तब तुम्हीं लोग फटाफट वहां पहुंचो...मैं पुलिस को, और प्रेस को भी सूचित कर दे रहा हूं...साथ में एक डौक्टर भी ले पहुंचो..."

सरण -"स्यन्दन, मैं भी तुम्हारे संग चल रहा हूं...सर, आप रुकें यहीं हमदोनों के लौट आने तक..."

चलते समय सरण ने अमर, ईशान, फणीश को फोन कर कार्यालय बुलाया...वहां पहुंच वे पांचों यथासम्भव कार्यालय की व्यवस्था ठीक करने का प्रयास करते हैं...डौक्टर ने दोनों चोट पाये कार्यकर्ताओं को मल्हम-पट्‍टी की...सरण ने जीवन को फोन किया...

जीवन -"अभी, भाषण आरम्भ होने में विलम्ब हो गया...और साढे आठ बजे गीति ने बहुत ही आकर्षक रूप में सम्मेलन को सम्बोधित किया और पार्टी का कार्य और महत्त्व श्रोताओं को समझाया...अब मैं भाषण दे रहा हूं...तुम्हारा कौल देख मध्य में ही भाषण रोक तुमसे बात कर रहा हूं..."

यह सुन सरण ने तुरत कौल डिश्कनेक्ट किया...सम्मेलन स्थल से कार्यालय की दूरी कार से प्रायः दो घण्टे की थी...अभी दस ही मिनट बीते थे कि जीवन ने सरण को फोन किया-"हमलोगों का काम यहां पूरा हो चुका है...तुमदोनों अभी यहां आओगे...? क्या करना है...?"

सरण ने स्यन्दन से पूछा तो स्यन्दन बोला-"अभी वहां पहुंचने में ग्यारह-बारह तो बज ही जायेंगे...अच्छा तो यह होगा कि सर सबको अपने साथ लेते आयें..."

जीवन-"हां...ये सभी मेरे कार में आ जायेंगी...मैं सबको साथ लेते आता हूं....आ रहा हूं...नहीं...साथ लेते चलता हूं....मार्ग में इन्हें इनके आवास छोडता कार्यालय पहुंचता हूं.... तुम भी सरण अच्छा रहेगा कि अपने आवास जाओ...गीति तुम्हें वहीं मिलेगी..."

 

सरण ने स्वीकृति में सर हिलाया और वह अपने आवास चला गया....सरण चिन्तित था गीति को लेकर...वह एक ग्लास पानी पीया और विस्तर पर लेट आराम करने लगा...देखते ही देखते उसकी आंखें लग गयीं...उसकी आंखें खुलीं...उसने सामने देखा...तत्पश्चात्‌ उसकी दृष्टि पूरे कक्ष में फैली...गीति कहीं भी उसकी दृष्टि में नहीं आयी...वाल क्लौक में देखा तो रात के एक बज रहे थे... सरण का हृदय चिल्लाया - "गीति...तुम कहां हो...?"

उसने गीति के मोबाइल पर कौल किया...पर यह तो स्विच्ड औफ बता रहा था...यही स्थिति जीवन के भी मोबाइल की भी थी...तीन-चार बार प्रयत्न करने पर भी कनेक्ट नहीं हुआ तो उसने स्यन्दन को कौल किया और यह बात बतायी...

स्यन्दन -"तुम घबडाओ मत...मैं अभी पहुंच रहा हूं तुम्हारे पास..." स्यन्दन भी गीति और जीवन के मोबाइल को कनेक्ट करने का प्रयास किया पर वह असफल रहा...उसने किसी प्रकार सरण को शान्त करने का प्रयास किया...-"धैर्य धारण करो...कहीं कोई दुर्घटना न घटी हो, केवल इतनी कामना करो...चलो चलते हैं सर के आवास...उसने पार्टी की कार में सरण को संग ले जीवन के आवास की ओर कार का गति बढायी...जीवन के आवास जाने पर जानकारी मिली कि सर तो अभी तक आये ही नहीं...तो कहां गये सर....? इसकी किसी को भी जानकारी नहीं...तब दोनों सम्मेलन स्थल की ओर चलते हैं...सरण को स्मरण आता है सरण और जीवन के संग के अन्य स्त्री सदस्यों का...पर उसके पास उनके फोन नम्बर्स तो हैं नहीं कि वह उनसे गीति के सम्बन्ध में पूछ सके...कार्यालय से ज्ञात हो सकता है....पर वहां आग में कई रजिष्टर आदि प्रपत्र जला डाले गये हैं...रात के चार बजे सम्मेलन स्थल पहुंचता है...हौल बन्द है...गार्ड बताता है कि रात दस बजे तक में ही सभी चले गये थे वहां से...

’अब क्या करुं...?’ सरण का मन रोने-रोने को हो रहा था...स्यन्दन ने उसे धैर्य देने लका प्रयास किया...प्रातः छः बजे तक में वे दोनों पार्टी कार्यालय लौट आते हैं...वहां दोनों कार्यकर्ता सो रहे थे...पूछने पर उन्होंने सभी सदस्यों के नाम-पते वाला रजिष्टर खोजने का प्रयास किया...कठिनाई से एक स्थान पर वह रजिष्टर अधजली स्थिति में मिला...उसमें ढूंढने पर बडी कठिनाइ से साथ गयी एक स्त्री सदस्य के फोन नं और पता मिले...फोन करने पर उसका भी मोबाइल स्विच्ड औफ मिला...ओह्...तो...अच्छा, पता भी है... तब सरण और स्यन्दन उस पते की दिशा में कार से चल देते हैं...वहां पहुंचने पर उस स्त्री ने बताया कि सर हमसभी को साथ ले रात साढे नौ बजे लौट चले थे...सबसे पहले उनने रीमा को उसके आवास के निकट पर मेन रोड पर छोडा...रीमा ने पहले ही परिवार वालों को फोन कर दिया था, अतः उसे लेने कोई वहां पहले से ही खडा था...वैसे ही मैंने भी फोन कर दिया था तो मेरे पति स्वयम्‌ ही मुझे लेने यहां से कुछ दूरी पर पहुंचे...मेरे पश्चात्‌ गीति आदि थीं...क्या वे अभी तक नहीं पहुंचीं....?"

सरण को सारा संसार घूमता जान पडा...पर स्यन्दन ने तुरत सरण को सम्भालते हुए उस स्त्री से पूछा -"क्या आपके पश्चात्‌ शेष स्त्रियों में किसी का फोन नम्बर, पता कुछ आपके पास है...?

उसने फोन डायरी चेक कर बताया कि उसके पास भी केवल सर और गीति जी के ही फोन नम्बर्स हैं...

"ओह्‌ नो...ये दोनों नम्बर्स तो अभी भी स्विच्ड औफ बता रहे हैं..." स्यन्दन ने पुनः डायल कर देखा..."ये लो...अब तो सूरज निकल रहा है...."

सरण - "पर मेरी आंखों का सूरज तो अब डूबता जान पड रहा है..."

स्यन्दन ने देखा सरण अब अस्वस्थ होता चला जा रहा है, उसका शरीर गर्म होता चला जा रहा है...उसकी आंखें बन्द रहना पसन्द कर रही हैं...वह उसे पार्टी कार्यालय ले आता है...सरण एक गद्‍दे पर लेटा है...दोनों कार्यकर्ता उसकी सेवा को तत्पर हैं...स्यन्दन एक डौक्टर को कौल करता है, डौक्टर उसका चेकप कर उसे बेडरेष्ट का परामर्श देता है....

स्यन्दन -"सरण, तुम यहां आराम करो...मैं सर के आवास उनकी जानकारी लेने जाता हूं..."

स्यन्दन वहां जाता है, पर जीवन अभी भी वहां नहीं पहुंचा है, न ही उसकी कोई सूचना है...ऐसी जानकारी उसे मिली...ऐसे में स्यन्दन लौट कार्यालय आता है और सरण को सोया पा दोनों कार्यकर्ताओं से सरण की पर्याप्त सुरक्षा और देखभाल की बात कह किसी परिचित के आवास जाने और दो-तीन घण्टे पश्चात्‌ पुनः लौट आने की बात कह चला जाता है...

प्रायः ग्यारह बजे स्यन्दन लौट कार्यालय आता है...सरण अभी भी सो रहा है...स्यन्दन आये हुए आज के समाचारपत्रों पर दृष्टि डालने लगता है...कल के सम्मेलन का समाचार जीवन और गीति के भाषणों के संग छपा था...जीवन का चित्र भी छपा था...स्यन्दन पढ रहा है...संग ही चिन्तन भी करने लगता है रुक-रुककर...सहसा उसे बाहर किसी कार के तीव्र गति से रुकने की ध्वनि सुनायी पडी...लगा जैसे धक्का लगते-लगते बचा हो...उसने वौल क्लौक की ओर देखा...पौने बारह बज रहे थे...स्यन्दन ने धीरे से समाचार पत्र एक ओर रखा, और बाहर जाकर देखा...तो जीवन की कार खडी थी...स्यन्दन गम्भीरता से कार की ओर बढा, और कार के अन्दर झांककर देखा तो ड्राइविंग सीट पर कोई नहीं था पर पिछली सीट पर जीवन लेटा था...तुरत उसने दोनों कार्यकर्ताओं को स्वर दिया (पुकारा)...कार के पिछले द्‍वार को खोला गया...जीवन के शरीर को खींचकर बाहर निकाला गया...जीवन के शरीर पर चोट के, जले के, और कुछ ऐसे ही चिह्‌न थे जैसे जीवन को पीटा भी गया था...तुरत जीवन के शरीर को कार्यालय के अन्दर ले जा गद्‍दे पर लिटाया गया...पुलिस और प्रेस को फोन कर सूचना दी गयी, तथा डौक्टर को भी बुलाया गया...तुरत यह बात पूरे राज्य में फैलने लगी...पुलिस के आने के पश्चात्‌ ऐम्बुलेन्स बुला जीवन को शीघ्र ही वहां से हौस्पीटल भेजा गया...सरण उसके सर के समीप ही घण्टों खडा रहा...जैसे ही जीवन को चेत (होश) आया, सर्वप्रथम सरण ने उससे यह पूछा कि गीति कहां है...?

जीवन - "जब मैं सभी स्त्री सदस्यों को उनके आवास छोड चुका था, केवल गीति ही शेष थी, तभी अन्य पार्टियों के गुण्डों ने मेरी कार घेर ली...उसके पश्चात्‌...आः आः....उसके पश्चात्‌ उनलोगों ने मुझे मारना आरम्भ किया...और धमकियां भी देने लगे...तब मैं अचेत (बेहोश) हो गया...उसके पश्चात्‌ मुझे यहां तुम्हारे समक्ष (सामने) ही चेत आया है...गीति कहां गयी यह मेरे लिये बहुत ही दुःख की बात है...मन करता है मैं आत्महत्या कर लूं क्योंकि मैं गीति को बचा नहीं पाया...आः आः (सुबकने लगा)...यह मेरा उत्तरदायित्व था कि उसे मैं सुरक्षित वापस पहुंचाउं...अतः मैं दोषी हूं....आः (कुछ आंसु भी जैसे छलके)...

सरण यह सुन सन्न रह गया...उसे इतना गहरा दुःख कभी नहीं मिला था...वह फूट-फूटकर रोने लगा...कोई आठ-दस मिनट वह रोता रहा, और समय किसी भी ने कुछ भी बोलने का साहस नहीं किया...सहसा सरण कुछ संयत हुआ, और अति विषण्ण (डिप्रेश्ड) हृदय और जलती आंखों से बोला -"जो भी हुआ हो...जैसी भी स्थिति में गीति हो...मैं उसे अपनाने को तैयार हूं...केवल वह मुझे मिल जाये..." वह ऐसे बोला जैसे वह गिडगिडा रहा हो गीति को पाने को...सभी उपस्थित व्यक्तियों को सरण से हृदय से सहानुभूति हुई...

 

मीडिया में विकास पार्टी के कार्यालय और अध्यक्ष पर हुए आक्रमण का समाचार अनवरत (लगातार) छाया रहा...अपराधी कौन है यह ज्ञात नहीं हो पाया है अब तक...केवल शासक दल पर अंगुलियां उठ रही हैं क्योंकि उसी ने जीवन को धमकाया था... पर इन घटनाओं से जनता की विकास पार्टी के संग सहानुभूति बढी...बच्चे भी विकास पार्टी का नाम लेते पाये गये...केवल तीन ही दिन शेष थे मतदान में, और विकास पार्टी के प्रचार का काम जैसे ठप्प हो चला था...तब भी इसके प्रत्याशी अपने-अपने बल पर वोट बटोरने के प्रयासों में लगे थे...पर इस पार्टी के दो प्रत्याशी ऐसे थे जो चुनाव प्रचार से दूर जैसे किसी अन्य ही संसार में जी रहे थे...एक थे सरण, और दूसरा जीवन...मतदान पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार समय से हुआ, और परिणाम भी सप्ताह भर में आ गया... स्यन्दन तो जीत ही गया था, सरण और जीवन भी जीत गये थे...विकास पार्टी को सबसे अधिक सीटों पर विजय मिला था, तब भी बहुमत से अभी बहुत दूर थे...क्योंकि कुल सीटों के ३४ प्रतिशत ही सीटें ही मिल पायी थीं, और अभी न्यूनतम (कम से कम)  १६-१७ प्रतिशत सीटों का समर्थन और चाहिये था शासन गठन (सरकार बनाने) के लिये...जीवन तो इसी जोड-तोड में लगा स्वयम्‌ को मुख्यमन्त्री की गद्‍दी पर बैठा होने की कल्पना कर रहा था, जबकि सरण की मानसिक स्थिति अब भी अवसाद को प्राप्त थी...

सरण की ऐसी दुःखद स्थिति में यद्‍यपि अमर, ईशान, फणीश, और स्यन्दन चारों उसका साथ दे रहे थे तथापि स्यन्दन उसका विशेष ध्यान रखता था...सरण गीति के संग बीताये गये क्षणों और दिनों का स्मरण करता हुआ विरह गीत गा रहा है और केवल उसी से मिलने को तरस रहा है...अन्तिम बार वह कब देखा था गीति को...उससे तब उसकी क्या बातें हुई थी...अब उसकी गीति से कोई बात क्यों नहीं हो पा रही है...? वह ऐसे ही सोचता दुःख पा रहा है....

स्यन्दन उसे उठाता है...कुछ पीने को देता है -"पी लो...यह पेय बहुत पौष्टिक है...विशेषकर तुम्हारे लिये मैंने इसे तैयार किया है...यदि मैं तुम्हारे खाने-पीने की चिन्ता न करूं तो तुम तो भूखे ही प्राण त्याग दोगे ऐसा लगता है...जहां तक मेरा मस्तिष्क तुम्हारी स्थिति का अध्ययन कर रहा है, यदि तुम्हें एक अच्छे होटल में कुछ स्वादिष्ट भोजन खिलाया जाये तो तुम्हें मानसिक प्रसन्नता मिल सकती है...और होटल कौन-सा...? सर के होटल से अच्छतर होटल और कौन है...चलो, वहीं चलते हैं...."

स्यन्दन सरण को बलपूर्वक जीवन के होटल ले चलता है पार्टी कार में....वहां दोनों एक टेबल किनारे बैठे हैं..."देखो, मैंने सर से यहां आने के सम्बन्ध में कोई बात नहीं की है कि हम आपके होटल खाने जा रहे हैं...क्योंकि जिस भय से उनने इतने लम्बे समय तक यह रहस्य बनाये रखा कि इतने अच्छे होटल के वे स्वामी (मालिक) हैं, मैं नहीं चाहता था कि उस भय को अब मैं उनके समक्ष लाकर खडा कर दूं..."

सरण चुप स्यन्दन के निर्णय अनुसार काम कर रहा है....

स्यन्दन -"क्या खाया जाये...?"

सरण की कुछ भी विशेष रुचि नहीं खाने में ...-"जैसा तुम चाहो..."

स्यन्दन -"हूं...मैं जो चाहुं...ठीक है...पर तुम्हें खाना होगा...भले ही वह मांस हो...यदि स्वीकार हो तो बोलो हां..."

सरण -(कुछ सोचकर)..."ठीक है..."

स्यन्दन - "हूं...वैरी गुड...देखो...मैंने बहुत सोच समझकर कुछ निर्णय लिया है इस सम्बन्ध में...और वह यह, कि केवल फल और जूस और हल्के भोजन खाते रहने से तुम्हारे मन की भावुकता इतनी बढी हुई है कि यह तुम्हारे लिये अभी हानिकारक बनी हुई है...और इसका उपचार यह है कि अभी तुम कुछ भारी खाओ...जिससे कि तुम्हारे अनियन्त्रित भावुकता पर नियन्त्रण लाने में...क्या जाने सफलता मिले...अतः तुम, नहीं, हम दोनों मांसाहार करते हैं...और इस सम्बन्ध में तुमसे पूछने की आवश्यकता तो है नहीं..."

सरण कुछ भी प्रतिक्रिया किये विना उसकी बात सुनते रहता है...

स्यन्दन -"हूं...तो, ठीक है...वेटर... ...मांसाहार में क्या आइटम्स हैं....?"

"सर...कई आइटम्स हैं...ये मीनु में देखें..."

"ये छोटे टुकडों वाली मांस-भुजिया ले आओ...दो प्लेट..." वेटर ला उनके समक्ष रखता है...

स्यन्दन सरण को खाना आरम्भ करने का संकेत करता है....सरण -"यह क्या...? केवल मांस...? इसके सग चावल या रोटी कुछ और भी तो होना चाहिये...?"

स्यन्दन -"हां...अवश्य होना चाहिये...मैं देख रहा हूं कि तुम्हारी खाने में रुचि जाग गयी है...पर मैं चाहता हूं कि तुम्हारी यह जागती रुचि पूरी जाग जाये...अतः अभी केवल मांस खाओ...चावल और रोटी तो खाते ही रहोगे...."

दोनों खा रहे हैं और स्वाद का अनुभव कर रहे हैं...

सरण -"यह फुल प्लेट मांस....क्या अधिक नहीं है...?"

स्यन्दन -"कोई बात नहीं...अभी खा लो...कहां हम प्रत्येक दिन आ रहे खाने टुकडी भुजिया...."

खाते-खाते सरण के मुंह में कुछ कडा आ जाता है...-"अरे यह क्या...? मांस में ईंट-पत्थर भी हैं...?" मुंह से निकालता है...और ध्यान से देखता है तो पाता है कि यह एक अंगूठी है...आश्चर्य...!...इतना ही नहीं...यह अंगूठी भी एक मानव-अंगुली को धारण कर रखी है...ओः नो...वह कुछ भीत (डरा हुआ) हो वह अंगूठी स्यन्दन को दिखलाता है...स्यन्दन भी स्तब्ध रह जाता है यह देख...-"इसका अर्थ यह हुआ कि यहां मानव-मांस भी परोसे जाते हैं....!"

"हां...पर...केवल यहीं क्यों...सभी ष्टैण्डर्ड के होटलों में यह बात होती होगी...यहां यह बात केवल लीक हो गयी...बाइ मिश्टेक... ...वैसे मैंने अभी तक यह सुना था कि मांस के नाम पर सूअर और गाय के मांस भी खिला दिये जाते रहे हैं होटलों में..."

"मैं इसे जरा धो कर देखता हूं...क्या और कैसी है यह अंगूठी...!" स्यन्दन उस अंगूठी को ले जा वाश बेसिन में धोता है...तो पाता है कि यह एक सोने की चमकती अंगूठी है...ओः...उसे ला सरण को देता है...सरण ध्यान से अंगूठी देख रहा है कि वह अंगूठी  उसे कुछ जानी सी लगती है...सोचता है इस अंगूठी को पहले वह कहां देखा होगा....निरीक्षण करता जब उसने अंगूठी के नीचे वाले भाग पर ध्यान से देखा तो पाया वहां कुछ लिखा है....क्या लिखा है....यह लिखा है....गीति...मैंने ऐसी ही उसका नाम खुदी अंगूठी गीति को भेंट की थी... "स्यन्दन, क्या यह वही अंगूठी है...?"

स्यन्दन -"रत्न उस अंगूठी में क्या जडा था...?"

सरण -"माणिक्य..."

स्यन्दन -"तो ऐसा है...पहले हम चल इस अंगूठी के रत्न की जानकारी लेते हैं किसी आभूषण या रत्नों के शौप में जाकर..."

पेमेण्ट कर स्यन्दन कार को आगे बढा एक आभूषण के शौप के आगे रोकता है...वहां रत्न भी हैं...रत्न जडनेवाले ने अंगूठी देख बताया कि इसमें जडा रत्न माणिक्य है...यह सुन सरण के ओष्ठ खुले रह गये, आंखें फैल गयीं, और उसे लगा जैसे उसे शौक लगा हो....वह वहीं गिरने लगा, पर स्यन्दन ने उसे पकडा, और ले चल कार में बिठाया, और कार्यालय ला उसे गद्‍दे पर आराम से लिटा दिया...संग ही कार्यकर्ताओं को सरण के विशेष देखभाल की बात कह बाहर निकला, और कार से सीधे वापस जीवन के होटल पहुंचा...वहां काउण्टर पर पहुंच स्यन्दन बोला- "आपलोग मुझे नहीं जानते होंगे, पर मैं बता दूं, मैं हूं स्यन्दन...जीवन सर के पार्टी से विधायक..."

"जी सर...हम आपकी क्या सेवा करें....?"

"मुझे एक जानकारी चाहिये...आपके यहां बनाये जानेवाले फूड-आइटम्स के सम्बन्ध में..."

"किस आइटम के सम्बन्ध में सर...?"

"छोटे टुकडों वाली मांस-भुजिया...किसने यह आज के लिये तैयार किया है...?"

"हमारे कुक्स हैं सर...वे तैयार करते हैं डिफरेण्ट फूड आइटम्स..."

"पर...मुर्गा या बकरा आदि के कच्चे मांस के टुकडे क्या यहां तैयार किये गये या बाहर से मंगवाये गये -पीस किये हुए...?"

"सर...इसकी जानकारी वो...राजु के पास है... ...ओ...जरा राजु को यहां भेजो..."

राजु आता है...उससे वही प्रश्न दुहरा दिया जाता है...

राजु -"मेरे पास दोनों ही औप्शन्स रहते हैं....पर आज ये मांस टुकडे -पीसेज मैंने यहीं तैयार किये...वो कुछ मुर्गे थे..."

स्यन्दन - "यदि राजु मेरे साथ चले तो...मुझे कुछ काम है इससे..." राजु चुपचाप स्यन्दन के पीछे चलता उसके संग कार में बैठता है...स्यन्दन उसे ले पार्टी कार्यालय पहुंचता है...वहां अमर, ईशान, फणीश सरण के संग बातें कर रहे हैं...और सरण उन्हें वही बातें बता रहा है...

स्यन्दन -"ये देखो...कौन है यह...वही जिसने आज सर के होटल में मांस भुजिया के पीसेज तैयार किये थे...इसके अनुसार वे टुकडे मुर्गों के थे..."

अमर -"पर हमने आज तक न तो देखा न ही सुना कि मुर्गे अंगूठियां पहनते हैं...यह अंगूठी कैसे उसमें से निकली...?"

राजु -"अंगूठी का क्या है...कहीं किसी भी की गिर जा सकती है..."

स्यन्दन - "ऐसा हो सकता है...पर यह नहीं हो सकता कि अंगूठी के साथ-साथ अंगुली भी गिर जाये..."

"क्या...क्या अर्थ इसका...?"

ईशान -"सीधेसे सारी बात बता दो, कि आज के मांस का बौडी तुम्हें कहां से मिला जिसके तुमने केवल पीसेज किये हैं...?"

राजु चुप खडा है....

फणीश -"हमलोगों के पास सच उगलवाने के कई उपाय हैं...बहुत पीडा होगी उसमें...यदि चाहिये तो यूं चुप खडे रहो..."

राजु को भय हो रहा है पर अब भी सच कुछ नहीं बता रहा...

ईशान -"इसे मेरे आवास ले चलो...वहां अभी केवल मैं हूं...इससे सच उगलवाने में बडी सुविधा मिलेगी..."

सभी ईशान का प्रस्ताव स्वीकार करते हैं और राजु को कार में डाल ईशान के आवास पहुचते हैं...वहां एक हौल में ले जा उसे छत से रस्सी से दोनों हाथ बान्ध लटका देते हैं...कुछ पूछताछ आरम्भ करें इसके पूर्व ही स्यन्दन को जीवन का फोन आता है कि इसी समय वह सरण और स्यन्दन से मिलना चाहता है...तब सरण और स्यन्दन चल देते हैं जीवन से मिलने, अमर, ईशान, और फणीश को यह निर्देश दे कि उनके लौट आने पर राजु से पूछताछ की जायेगी...

दोनों जीवन से जा मिलते हैं...जीवन अब स्वस्थ है और अन्य पार्टियों से उसकी बातचीत बडे उत्साह से चल रही है...-"आओ....केवल तुम्हीं दोनों हो...तुम्हारा पूरा ग्रूप कहां है...?"

सरण -"अभी आपका स्वास्थ्य कैसा है...?"

"मैं फर्ष्ट क्लास फिट हूं...शरीर के लिये...मुख्यमन्त्री पद के लिये भी...(सरण के मन को पढते हुए)...हां हां...गीति...मुझे बहुत दुःख है...मुख्यमन्त्री बनते ही मैं आकाश-पाताल सब ढूंढवा लुंगा, कहीं से भी यदि गीति निकल पाये..."

स्यन्दन -"सर...कोई विशेष बात है...?"

"विशेष तो होगा ही...वह यह है कि आज शाम, अभी से कोई दो घण्टे पश्चात्‌ दो पार्टियों से बात होनेवाली है....बात फाइनल है...केवल फौर्मैलिटी करने जाना है...उनमें से एक के पार्टी मुख्यालय में...ये पता नोट कर लो...और तुम सभी, अर्थात्‌ तुम पांचों वहां अभी से तीन घण्टे पश्चात् पहुंचो...अच्छा रहेगा...तुमलोग मेरे अपने आदमी हो- मेरे बौडीगार्ड..."

 

सरण और स्यन्दन स्वीकृति में सर हिला वहां से चल देते हैं और ईशान के आवास पहुंचते हैं...वहां पहुंच वे पाते हैं कि उन तीनों ने अभी तक राजु से कोई पूछताछ नहीं की है, और वे सरण और स्यन्दन की ही प्रतीक्षा कर रहे थे...

स्यन्दन राजु से -"देखो...हम तुम्हारे साथ सबकुछ कर सकते हैं...टौर्चर करने से लेकर तुम्हें मौत तक दे दे सकते हैं...तुम स्वयम्‌ निर्णय कर लो कि तुम क्या चाहते हो... ...तुम वह सब हमें बताओगे जो हम तुमसे जानना चाहते हैं...अब तुम यह निर्णय करो कि तुम पीडा पाकर सच बताओगे या विना पीडा पाये ही... "

राजु भयभीत चुप लटका है...

सरण ने क्रोध से आंखें लाल कीं -"गीति की हत्या तुमने की...टुकडे उसके तुमने कब किये...?"

राजु -"यह सब बताने को मैं तैयार हूं...पर आप सभी इस बात की गारण्टी दें कि बताने के पश्चात्‌ सुरक्षित मुझे जाने देंगे..."

सरण -"तुम्हें हम छोड दे सकते हैं...क्योंकि हमलोगों ने अभी तक तुम्हें मार डालने का निर्णय नहीं लिया है...पर यह निर्भर करता है इस बात पर कि तुम क्या उत्तर देते हो और कितना सच उत्तर देते हो..."

"हां, मैं तैयार हूं...सारा सच बताने को..."

"तो गीति से सम्बन्धित जितनी भी बातें तुम जानते हो वह सब हमें पूरी-पूरी बताओ..."

तब राजु ने बताया, जैसा उसने स्वयम्‌ देखा-सुना और जैसा जीवन ने उसे बताया था वह पूरी घटना इस प्रकार है-

उस रात जब जीवन गीति के संग लौट रहे थे और गीति को छोडनेवाले थे कि सहसा शत्रु दलों के कुछ आक्रामक व्यक्तियों ने जीवन की कार चारों ओर से घेर ली...जीवन कार रोक सावधानी से चुप बैठा रहा...उनलोगों में से एक ने तब लैप्टौप हाथ में लिया, और जीवन के समीप

जा वह बोला-"बहुत पोर्नोग्रैफी का विरोध करती है तुम्हारी पार्टी...तुमलोग सत्ता में आओगे तो पोर्नोग्रैफी पर प्रतिबन्ध लगवा दोगे...पर तब हम कहां जायेंगे...? हम तो ऐसे ही कार्यों में प्रतिदिन डुबकी लगाते हैं...और तुम्हारी पार्टी कुछ भी बुरा इस राज्य में होने नहीं देगी...पर ऐसा तब होगा, जब तुम अच्छे बने रहोगे...और ये...है सरण की पत्नी...बहुत अच्छा भाषण दे लेती है...तुमदोनों आज पोर्नोग्रैफी का भव्य दर्शन करोगे...उसके पश्चात्‌ भी यदि तुम्हें लगे कि तुमलोग इस राज्य में रामराज्य लाना चाहते हो, तो अवश्य लाना..." ऐसा कह वे लैपटौप से पौर्न वीडियोज उन दोनों को दिखाने लगे और दोनों को परस्पर सम्भोग करने पर विवश करने लगे...जीवन का मन तैयार हो गया, पर गीति नहीं मानी किसी भी धमकी के आगे...तो वे दोनों को ले जीवन के ही आवास गये...वहां एक कक्ष में दोनों को कुछ समय तक पौर्न वीडियोज दिखला द्‍वार बाहर से लौक कर वे वहां से चले गये...अन्दर गीति सब पौर्न देख भी सावधान रही और सरण के पास लौटने की बात बोली...पर जीवन बोला -"उनलोगों ने मुझे धमकी दी है कि यदि मैंने तुम्हारे संग सेक्सुअल रिलेशन नहीं बनाया तो वे मुझे मार डालेंगे..."

गीति -"कहकर वे चले गये...वे कुछ भी कह जा सकते हैं...उनकी बातों को मानना या न मानना तुम्हारे ऊपर निर्भर है..."

जीवन -"हां, यह मेरे ऊपर निर्भर है...पर मेरा मन अभी तुम्हारा भला नहीं चाह रहा है...वैसे भी, सरण की मैं उसके बचपन से ही सहायता करता चला आ रहा हूं...मेरा मानना है कि जिसकी सहायता की जाये उसके साथ कुछ ऐसा वैसा भी करने का अधिकार  भी मिल जाता है...इसलिये..."

गीति के प्रबल विरोध करने पर भी जीवन ने उसका रेप किया...गीति ने इसपर जीवन को केवल यही कहा कि इसका परिणाम उसे मौत के रूप में मिलेगा...जीवन यह सुन चिन्तित हुआ, बोला -"देखो, तुम सरण के पास चली जाओ, कहना तुम किसी प्रकार दुश्मनों की पकड से बचकर निकल भागी...यदि तुम हां कहो तो मैं तुम्हें तुम्हारे आवास के समीप छोड देता हूं..."

पर गीति अतिक्रुद्‍ध इस संकल्प पर दृढ रही कि वह जबतक जीवन की मौत न देख ले तबतक उसे शान्ति नहीं मिलेगी...ऐसे में जीवन उसे वहीं बन्धक बना रखा...तत्पश्चात्‌ राजु की सहायता से जीवन अपनी बुरी स्थिति बना पौने बारह बजे अपनी ही कार में स्वयम्‌ को पार्टी कार्यालय के समक्ष ला खडा किया...राजु ड्राइविंग सीट से सुशीघ्र भाग निकला...कुछ दिन और बीतने पर भी जब गीति अपने संकल्प से डिगी नहीं तो जीवन ने राजु को बुलाया और कहा - "यह मेरी मौत जान पडती है...यह जैसा मेरे साथ करना चाहती है वैसा इसके साथ कर दो...इसे मार इसके मांस के टुकडे होटल में परोस दो, तथा हड्डियां कहीं नदी-नाले में बहा दो...राजु ने वैसा ही किया...पर उसकी अंगूठी ने यह अपराध उजागर कर दिया...

 

सरण आदि ने राजु के इस अपराध स्वीकारोक्ति की वीडियो-रिकौर्डिंग कर ली थी...पर पांचों ने यह विचार किया कि हो सकता है जीवन को कोर्ट से कोई दण्ड न मिल पाये, क्योंकि कोई ठोस प्रमाण उसके विरुद्‍ध नहीं बन रहा है...

"ऐसे में हमलोग गीति की अन्तिम इच्छा पूर्ण करेंगे..." सरण गर्जा...

"हां...मृत्युदण्ड...मृत्युदण्ड..." अन्य सभी भी गुर्राये...

पांचों ने निर्णय लिया -’जीवन मुख्यमन्त्री पद की शपथ ले पाये, उससे पूर्व उसे मृत्युदण्ड मिल जाना चाहिये...तबतक यह राजु यहां ऐसे ही लटका रहेगा...’ अमर., ईशान, फणीश के माध्यम से दो रिवाल्वरों की व्यवस्था हो गयी...

 

पांचों पार्टी कार्यालय पहुंचे...वहां जीवन से बात करने पर जानकारी मिली कि उसे अन्य पार्टियों से समर्थन ले बहुमत मिल गया है...कल राज्यपाल जीवन को औपचारिक रूप से मुख्यमन्त्री का पद सम्भालने और शासन गठन का निमन्त्रण देंगे...जीवन एक ऐसे ही समर्थक पार्टी के कार्यालय वाली बिल्डिंग में सभी सहयोगी दलों के संग मीटिंग कर शासन की रूपरेखा निर्मित कर रहा है...सरण आदि को उस स्थान का पता पूर्व से ही मिला हुआ था...वे कार से उसी दिशा में आगे बढे...

इधर राजु ने एक पैर दीवार पर टिका अपनी बन्धी भी अंगुलियों से शर्ट के पौकेट में रखे मोबाइल के जीवन के नम्बर वाले स्पीड डायल नम्बर को दबाने में सफल हो जाता है...उसका मोबाइल जीवन के मोबाइल से कनेक्ट हो जाता है...वह तुरत सरण आदि के जीवन को मार डालने के संकल्प को बता देता है....जीवन यह सुन पहले क्रुद्‍ध होता है - "ये कल के छोकडे मुझे मारेंगे...? मेरे बिल्ले मुझे ही म्याउं...!!!" तत्पश्चात्‌ घबडाता है -’मैंने किसी की सहायता ली थी इसलिये यह बात खुल गयी...एकाकी (अकेले) किया होता तो क्या जाने यह बात नहीं खुलती...! अतः उसे अभी जो भी करना है वह एकाकी ही करेगा...’ वह अभी सोच ही रहा था कि स्यन्दन का फोन आया कि पांचों वहां उससे मिलने आ रहे हैं...

जीवन -"तुमलोग कैसे जाने कि मैं यहां हूं...?"

"सर आप ही ने तो कुछ समय पूर्व वहां का पता दिया, और कहा वहां पहुंचने को..."

"ठीक है...."

 

अभी गठबन्धन पार्टी के व्यक्तियों से बातें करते समय दो अपराधी जैसे व्यक्तियों ने रिवाल्वर, गोलियां, गोला-बारुद, बम्ब आदि जीवन को बेचने प्रस्ताव दिया था कि समय पर सुरक्षा की जा सके...अभी एक-एक सैम्पल पीस उस वार्ता कक्ष में रखे थे...क्योंकि जीवन ने हां या न कुछ भी निर्णय अभी नहीं दिया था...जीवन बडी शीघ्रता से उस कक्ष में गया और एक वस्त्र खण्ड में उस बम्ब को रख लिया जिसके प्रयोग की विधि दिखाते समय उसे बता दी गयी थी..और यह कहा गया था कि जिस भी स्थान पर यह बम्ब गिरेगा उसके दस मीटर सभी ओर कोई भी प्राणी जीवित नहीं बचेगा...द्वितीय तल की बाहरी गैलरी में आ उसने जब नीचे देखा तो सरण आदि कार से बाहर निकल रहे थे...दोनों ओर से दृष्टियां मिलीं...जीवन उन्हें अपने नीचे आ रहे होने का संकेत करता सीढियों से नीचे उतरने लगता है...सरण और स्यन्दन जीवन को मारने को कार से बाहर तैयार हैं जबकि अमर, ईशान, फणीश कार के अन्दर कार ष्टार्ट रख तुरत कार भगा लेने को तैयार बैठे हैं...वहां चारों ओर अन्धेरा है...इलेक्ट्रिसिटी अभी ही कटी थी...इक्के दुक्के व्यक्ति सडक पर चलते दिख रहे थे... जीवन जैसे ही बिल्डिंग से रोड की ओर बढता है, कार किनारे खडे सरण और स्यन्दन विचार करते हैं कि जब जीवन को मार ही डालना  है तो अब उससे कुछ भी बात क्या करना, ठीक इसी समय जीवन के मन में भी यही विचार उभरा कि जब इन्हें मार ही डालना है तो इनसे अब बातें क्या करना...कार के संग वे पांचों वहां हैं...केवल बम्ब उनपर फेंक देना है, सभी मारे जायेंगे...ऐसा विचार कर जीवन ने उन पांचों पर बम्ब उछाल फेंक दिया...और उसी समय स्यन्दन और सरण ने जीवन पर गोलियों की बौछार कर दी...

जहां एक ओर जीवन के शरीर में गोलियां ही गोलियां भर गयीं और वह भूमि पर गिर पडा, वहीं वे पांचों कार समेत उड गये...छहों के शव सडक पर बिखरे पडे थे...अगले दिन समाचारपत्रों में छपा कि जीवन और उसकी पार्टी के पांच सदस्यों को किसी दुश्मन ने एक साथ मार डाला...

राघवेन्द्र कश्यप की भी दृष्टि इस समाचार पर पडती है...वह तो सरण को अच्छे से जानता था...उसने कहा- "आत्मा अपने परम प्रकाश स्वरूप से भटक इस अन्धकार स्वरूप संसार में आ जाता है और वैसे शरीर का संग पा जाता है जिससे उसका कभी भी वियोग हो जा सकता है, तब भी मनुष्य ऐसे जीता है जैसे यहीं इस अस्तित्व में सदा ही बना रहेगा...और इस कारण किसी भी बुरे कर्म को करने पर उतर जाता है, पर इसके परिणाम में उसे और भी अधिक हानि पहुंच जाती है....

 

                           समाप्त

ये जीवन क्या है

लेखक - राघवेन्द्र कश्यप

सच्चाई के अंशों को समाये हुए काल्पनिक घटनाओं पर आधारित यह कथा-प्लौट फिल्म बनाने के उद्‍देश्य से लिखा गया है....

 

सरण जब भी स्वयम्‌ के सम्बन्ध में विचार करता था तो उसे लगता था उसका जन्म किसी विशेष कार्य को करने के लिये हुआ है...उसे औरों जैसा नहीं जीना है...पर...कैसा जीना है...? मां से पूछा तो -"बेटे, मुझे तो लगता है तुम्हें किसी बहुत बडे पद पर रहना है, और बहुत ही अच्छे-अच्छे काम करना है...."

"जैसे...?"

"जैसे...डौक्टर...या...आइ ए एस औफिसर...!"

पापा - "मुझे तो लगता है तुम कहीं फिलौसफर बन जा सकते हो..."

"परन्तु....फिलौसफर क्या विशेष काम करता है जीवन में..."

"वह जीवन तलाशता रहता है कहां है जीवन....पूरा जीवन बीत जाता है उसका इसमें...यदि तुम्हें ऐसा नहीं करना है तो मन लगाकर पढो, और परीक्षा सबसे अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करो....यह एक बडी विशेष बात होगी..."

स्वसा - "मुझे भी वही लगता है जो पापा को लगता है....यदि तुम ऐसा कर सको तो तुम मम्मी का सपना पूरा कर सकते हो...."

इस प्रकार सरण को कहीं भी उत्तर नहीं मिल पाया...क्योंकि उसका मन किसी भी उत्तर को सुन शान्त नहीं हो पाया...वह विद्‍यालय में शिक्षकों के अध्यापन को ध्यान से ग्रहण करता है....एक दिन उसके विद्यालय में एक लघु वृत्तचित्र या फिल्म दिखायी जाती है - एक सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में कैसे एक मनुष्य ने वहां की समस्याओं को सुलझाया और वहां व्यवस्थित जीवन बसाया....देख उसके मन में कई प्रश्न उठे...उसने एक शिक्षक से पूछा- "सर, इस ग्राम में लोग एक-एक भी ग्लास पेयजल के लिये क्यों लड रहे हैं...?"

"वहां का कुंआ सूख गया है....हाथ पाइप से अशुद्‍ध जल निकलता है...लोग अन्य ग्रामों से या नगर से पेयजल लाते हैं....इस कारण..."

"पर हमलोग तो एक क्या कई ग्लास भी पानी एक-दूसरे पर या इधर-उधर फेंक देते हैं...?"

"पछताओगे...जब तुम एक ग्लास क्या एक घूंट भी पानी के लिये तरसोगे...."

"और सर...वहां अन्धेरा ही अन्धेरा है...इलेक्ट्रिसिटी नहीं है क्या...हमलोग तो दिन में भी लाइट जलाये रखते हैं...या यूं ही पंखा चलता रहता है...?"

"देखो, तुमने यह मुझसे पूछा....सम्भवतः मुझसे अधिक अच्छा उत्तर तुम्हें यहां कोई और न दे पाये...जो लोग पानी और इलेक्ट्रिसिटी का ऐसा दुरुपयोग करते हैं वे ही लोग वैसे ग्रामों में जन्म लेते हैं, और तरसते हैं...एक ग्लास भी पानी मिल जाये, या एक घण्टे के लिये भी इलेक्ट्रिसिटी बनी रहे...नहीं तो अधिकतर इलेक्ट्रिसिटी कटी रहती है..."

 

सरण आये दिन ऐसे-ऐसे प्रश्नों के उत्तर अन्वेषता (तलाशता, खोजता) रहता था....एक बार एक भाषण प्रतियोगिता आयोजित हुई विद्‍यालय में...विषय था -"मेरे सपनों का भारत"...सरण ने मां-पिता आदि कितने ही व्यक्तियों से इस सम्बन्ध में बातकर एक बडा-सा प्रेरक लेख लिख डाला....उसने इतने उत्साह और अन्तःप्रेरणा के संग भाषण दिया कि सभी उपस्थित श्रोताओं के मन को यह छू गया....उसे प्रथम पुरस्कार मिला...इसके पश्चात्‌ तो छात्र आदि उससे पूछने लगे कि वह अपने सपनों का भारत बनाने के लिये क्या कर रहा है...सरण कोई उत्तर नहीं दे पाया...कुछ समय पश्चात्‌ ऐसे ही एक दिन भाषण प्रतियोगिता के अवसर पर जब वह ओजस्वी भाषण दे रहा था तो उसपर किसी की दृष्टि कुछ विशेष पडी...उसने उसके मंच से उतरने पर उससे भेंट की - "बहुत अच्छा...! मेरा नाम जीवन है...मेरा पुत्र इसी विद्‍यालय में पढता है...फिफ्थ श्टैण्डर्ड में पढता है...तुम्हारा जूनियर है...तुम उसे भी मार्गदर्शन दो...तुम्हारी संगति से क्या जाने उसकी भी बुद्धि प्रखर हो जाये..."

जीवन सरण को निज पुत्र से मिलवाता है जो यद्‍यपि सरण से बहुत जूनियर है पर सरण उसके प्रति स्नेह का भाव रखता है और उसे अच्छी-अच्छी बातों की जानकारी दिया करता है...जीवन एक राज्यस्तरीय राजनीतिक दल का संस्थापक और अध्यक्ष है...चूंकि यह जीवन की नयी पार्टी है अतः वह उसके प्रसार (फैलाव) के लिये विभिन्न लोगों से मिलने आदि के प्रयासों में लगा रहता है...सरण एक विशेष छात्र जान पडा, अतः वह उसे भी अपने पार्टी में लाने का विचार कर रहा है...जीवन जब भी सरण से मिलता है, सरण उससे सामाजिक, राजनीतिक, आदि विविध प्रकार के प्रश्नों का उत्तर जानने का प्रयास करता है, और जीवन उसके निर्दोष और सच्चे चरित्र से प्रभावित हो उसकी जिज्ञासा की यथासम्भव शान्ति करता रहता है...जीवन अभी तक उसे अपनी पार्टी में सम्मिलित होने का प्रस्ताव नहीं दे पाया, क्योंकि इस सम्बन्ध में सरण का स्पष्ट कथन है कि "वह समाज का वास्तविक उत्थान चाहता है, और राजनीतिक छल-प्रपंच से दूर ही रहना चाहता है...पर जीवन उसकी पीठ थपथपाता है और कहता है कि उसे ऐसे ही नवयुवकों की अपनी पार्टी में आवश्यकता है...जीवन सरण की अनिच्छा व्यक्त करने पर भी उसके पीछे ऐसे पडा रहता है जैसे गुड के पीछे चींटें पडे रहते हैं, और एक दिन उसे इसमें सफलता मिल भी जाती है जब सरण दसवीं उत्तीर्ण कर कौलेज में प्रवेश करता है तब उस कौलेज में अपनी पार्टी की छात्रशाखा का आरम्भ कर उसका नेतृत्व सरण के हाथों में सौंप देता है...सरण का स्वभाव प्रायः पूर्णतया अलग है अन्य सभी छात्रों से...वह एक गम्भीर, चिन्तनशील, अध्ययनशील, और औनेष्ट तथा चरित्रवान्‌ युवक है...नेतृत्व सम्भालते ही वह एक ओर जहां अधिक से अधिक छात्रों को सदस्य बनाने में जुटा है वहीं उसके मस्तिष्क के मुख्य भाग में जल-जागृति की आग जल रही है....पेय जल की भूतकाल में स्थिति, पेय जल की इस पृथिवी पर वर्तमान में स्थिति, तथा पेय जल की इस संसार में आनेवाले समय में क्या स्थिति होगी - इस ज्वलन्त विषय पर वह अभियान आरम्भ करता है...धीरे-धीरे छात्र उसके इस अभियान में जुडते जा रहे हैं....वह पेय जल के सम्बन्ध में विभिन्न तथ्य एकत्र करता और लोगों के समक्ष प्रस्तुत करता है...संग ही आनेवाले दिनों में पेय जल के अभाव की भयावह स्थिति उत्पन्न हो जाने के संकट की ओर जनसामान्य का मन आकृष्ट करने का सफल प्रयास कर रहा है...जीवन का इसमें सभी आवश्यक सहयोग मिल रहा है जिससे उसका उत्साह सदा बना रहता है...संग ही उसकी दृष्टि निज अध्ययन पर भी  है....जल से सम्बन्धित जो तथ्य उसने प्रस्तुत किये वे सब ने सराहे...

 

देखते ही देखते उसके दो वर्ष आराम-आराम से बीत गये और वह अब ग्रैजुएशन कर रहा है...ग्रैजुएशन में उसने एक पग आगे बढा अब गुटखा, मदिरा, आदि नशीले पदार्थों के विरुद्‍ध आन्दोलन को भी अपने अभियान में सम्मिलित कर लेता है...उसके पैम्फलेट्स अब बहुत प्रसिद्‍ध और महत्त्वपूर्ण हो चले हैं....ग्रैजुएशन के तीन वर्ष पूर्ण होने तक में उसे जो दो बातें बडी महत्त्वपूर्ण रूप में प्राप्त हुईं, वे थीं- एक तो यह कि उसके पैमफ्लेट्स के विचार आदि वह इण्टरणेट पर वह अपनी ब्लौग वेब्साइट में प्रस्तुत करने लगा....और द्वितीय यह कि उसके जीवन में उसके बहुत ही निकट एक छात्रा गीति का प्रवेश हुआ....वह यह जानना चाहती है कि उसके इन सभी कार्यों का क्या उद्‍देश्य है....?

"मैं पार्टी की छात्र शाखा का सफलतापूर्वक नेतृत्व करता चला आ रहा हूं, पर मेरी रुचि राजनीति न कर जनजागृति और जनकल्याण करने में है...."

गीति उसके विचारों और व्यक्तित्व से प्रभावित हो उसके अभियान में कभी-कभी साथ दिया करती है....पेय जल, विद्‍युत्‌, मादक पदार्थ, और अब पोर्नोग्रैफी - ये चार विषय प्रमुखता से छाये थे सरण के अभियान के...इन सभी समाज सुधार के कर्मों के कारण सरण की छात्र-पार्टी विश्वविद्‍यालय के छात्रों के मध्य सबसे अधिक सदस्य संख्या वाली पार्टी बनने की ओर बढ रही थी....देखते ही देखते अमर, ईशान, और फणीश ये तीन छात्र सरण के अभियान के प्रमुख नेताओं के रूप में उभरकर आये, अर्थात्‌ सरण के सबसे निकट के सहयोगी बन गये...इस प्रकार सरण, गीति, अमर, ईशान, और फणीश इन पांचों का एक समूह इस छात्र पार्टी का नेतृत्व कर रहा था...सरण के वेब्साइट पर उसके अभियान का विस्तृत विवरण उपलब्ध है.....पेय जल, विद्‍युत्‌, मादक पदार्थ, और पोर्नोग्रैफी इन चार विषयों के विरुद्‍ध अभियान का विस्तृत विवरण बहुत ही आकर्षक है...

 

एक दिन गीति - "तुम्हारे जीवन का लक्ष्य क्या है....? अर्थात्‌ क्या बनने का स्वप्न है तुम्हारा...?"

सरण -"स्वप्न....स्वप्न तो मैंने अभी तक देखा नहीं है....पर मैं वो करते जा रहा हूं...जिसमें मेरी सबसे अधिक रुचि है..."

"तब भी, केयरियर वैसा चुनना चाहिये जिससे घर-गृहस्थी बडे आराम से चले....तुम्हारे इन कामों से तुम रुपये कैसे कमाओगे...?"

"अच्छे काम का सदा अच्छा ही परिणाम होता है....और मैं जो कर रहा हूं, और आगे जो करना चाहता हूं उससे सारे संसार को लाभ होगा...और जब सारे संसार को लाभ होगा तो मुझे भी लाभ हो जायेगा...मैं कहां इस संसार से बाहर हूं...?"

"पर अन्य सभी कुछ और काम करते, धन अर्जित करते तुम्हारा यह सम्भावित लाभ पायेंगे...तुम और क्या काम करते यह सम्भावित लाभ पाओगे...?"

"और क्या...? जब समय आयेगा तब वह भी हो जायेगा..."

"अरे नहीं...सोचो...मैं या कोई और बुद्धिमान्‌ व्यक्ति तुम्हारा क्यों अनुसरण करेगा जब तुम्हारे अपने केयरियर का कोई निश्चय नहीं होगा...?जिसका भविष्य अच्छा दिख रहा हो उसे सभी फौलो कर सकते हैं...अब, तुम्हारा कुछ होगा भी या नहीं....?"

सरण गम्भीरता से सोचता रहा...क्या उसे चुनाव लडना है....! है भी वह एक राजनीतिक पार्टी का नेता..." सरण और गीति की मित्रता दिन-प्रतिदिन बढती गयी....

 

सरण एक दिन समाचारपत्र पढ रहा है तो उसे एक आध्यात्मिक योगी व्यक्ति के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है कि ’राघवेन्द्र कश्यप एक अच्छे आध्यात्मिक योगी हैं जिनने सत्संग के अन्तर्गत प्रवचन में बताया कि मनुष्य यह शरीर न हो भावरूप आत्मा है....स्वयम्‌ को शरीर न अनुभूत करते हुए मूल आत्मा को स्वरूप से अनुभूत करने लग जाना ही मानवजीवन का सबसे अच्छा लक्ष्य है...सरण ने राघवेन्द्र कश्यप से मिलने का विचार किया और वहां पहुंचा....

"मैं हूं राजनीति आदि सांसारिक प्रपंचों से दूर रहने वाला व्यक्‍ति...ऐसे में मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूं...?"

"हां, मैं राजनीति में हूं, पर सांसारिक प्रपंचों में संसार का भला करने के उद्‍देश्य से ही लगा हूं, औरों की भांति पौकेट गर्म करने के उद्‍देश्य से नहीं...हां...और मैं यह जानना चाहता हूं कि मैं स्वयम्‌ को जो शरीर के रूप में जानता हूं, क्या वह असत्य है...? तो वास्तव में मैं क्या हूं....?"

"अच्छा, देखो सरण....सोचो तुम यह जन्म पाने से पूर्व कहां थे....? और न जाने कब तुम्हारे प्राण निकल जायें तब तुम कहां होगे...?"

"मैंने तो इन दोनों ही बातों पर कभी भी विचार नहीं किया है....(मन दौडाकर सोचने का प्रयास करता है...हारकर दुःखी मन से कहता है...) सर, बहुत अज्ञानता की अनुभूति हो रही है....केवल इतना ही नहीं, कुछ भय की भी अनुभूति हो रही है....कि आज, कल, परसों किसी दिन मेरी मृत्यु हो जाये...जिस किसी भी कारण से...तो मैं कहां होउंगा...?क्या होउंगा...किस अवस्था में होउंगा...? होउंगा भी या नहीं...?

"पूर्णतया ऐसे ही...चिन्तन करना चाहिये...जिस शरीर को तुम इतने यत्न से पाल-पोसकर बढा रहे हो वह किसी भी क्षण तुमको गुडबाय कर दे सकता है...शरीर जला दिया जायेगा...तब तुम कहां होगे....? यदि कहीं नहीं होगे तो इस होने का क्या अर्थ है....? और, यदि कहीं होगे तो उसे बनाने संवारने का प्रयत्न करो...."

"किस प्रकार से मैं इस जीवन के पश्चात्‌ भी अपना अस्तित्व बनाये रख सकता हूं...?और किस प्रकार से उसे संवार भी सकता हूं.../"

"आधी बात तो तुम्हारी...तुम्हारे बोलते ही पूरी हो गयी..."

"वो क्या...?"

"इस जीवन के पश्चात्‌ भी तुम अपना अस्तित्व बनाये रखने में समर्थ होगे..."

"सच में....? मैंने सुना है कि कभी-कभी कोई कही बात सच हो जाती है, क्योंकि वह किसी विशेष सौभाग्यशाली मुहूर्त पर बोल दी गयी होती है..."

"देखो, केवल तुम्हारा ही नहीं, सभी प्राणियों का अस्तित्व मरने के पश्चात्‌ भी बना रहता है...क्योंकि प्राणी वास्तव में एक आत्मा है...और आत्मा कभी भी मरता नहीं है...अतः शरीर छोडने के पश्चात्‌ भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है..."

"ओ....तो अपने आत्मा को अच्छी अवस्था में बनाये रखने, संवारने के क्या उपाय हैं,,,,?"
"देखो...इस संसार के सभी कर्म आत्मा को हानि पहुंचाते हैं....कर्म चाहे अच्छे हों या बुरे, सभी में आत्मा का इस संसार से सम्बन्ध बनता है जिससे आत्मा को प्रत्येक क्षण हानि पहुंचती रहती है...आत्मा, जो कि तुम स्वयम्‌ हो, निरन्तर न्यून (कम) होते चले जाते हो..."

"तब जो खेलकूद, मारामारी आदि रूप में तीव्र गति से सांसारिक सम्बन्ध बनाते रहते हैं अपने आत्मा का, उनके..."

"उनके आत्माओं  को अन्य लोगों की तुलना में कहीं अधिक तीव्र गति से हानि पहुंचती रहती है..."

"हानि पहुंचती है....तो किसी का आत्मा न्यून (कम) हो गया या बढ गया तो उससे क्या अन्तर आता है...?"
"भगवानों के चित्र तो तुमने देखे होंगे...उनके शरीर के अन्दर स्थित आत्मा का अनुभव होता है जैसे कि आत्मा प्रकाश भरा हो...लगता है प्रकाश जैसे शरीर से बाहर निकल रहा हो....आत्मा का जितना अधिक  प्रकाश, उतना ही अधिक बली और भाग्यशाली भी होता है...जबकि न्यून प्रकाश वाला आत्मा न्यून बली होता है....उसकी ज्ञानशक्ति और भाग्यवत्ता की क्षमतायें भी न्यून ही होती हैं...बली आत्मा अन्यों पर अपनी पकड बनाता है, जबकि दुर्बल आत्मा अन्यों की पकड में आ जाता है..."

 

 

सरण ने ज्योंहि कौलेज में पग रखा, किसी ने उसके कन्धे पर हाथ रखा....

"हूं...अरे...गीति....! कैसे....मेरे पीछे....?"

"तुम नायक हो, हम तो तुम्हारे पीछे ही चलेंगे..."

"मैं चाहता हूं, ऐसे ही सभी छात्र मेरे पीछे चलें, और जो आज छात्रसंघ के चार पदों में केवल एक पद पर हमारी पार्टी का सदस्य है, कल चारों ही पदों पर हमारी पार्टी के सदस्य हों..."

"वाह! बहुत दिनों पश्चात्‌ तुमने स्वप्न देखा...और उस स्वप्न में भी केवल राजनीति की बात...! कभी कुछ और भी सोच लिया करो...."

"कुछ और भी सोचा, राघवेन्द्र सर से मिलकर..."

"क्या...?"

"यही कि हम सभी वर्तमान की समस्यायों में ही फंसे रह जाते हैं और आगे किसी भी क्षण आ जानेवाली समस्यायों के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं सोचते...!"

"किधर संकेत है तुम्हारा....?विवाह पश्चात्‌ जीवन के सम्बन्ध में सोच रहे क्या...?"

"विवाह - शरीर का सम्बन्ध किसी अन्य शरीर से जुडता है.....मृत्यु - शरीर का सम्बन्ध टूटता है....आत्मा से...सोचो...अभी तुम्हारी म्रुत्यु हो जाये तो तुम कहां किस स्थिति में होगी...?"

"अं...हं...सोचने में तो यह भय देनेवाला है...पर क्या कर सकते हम इस सम्बन्ध में...?"

"एक काम कर सकती हो...कि इस यूनिवर्सिटी कैम्पस में कहीं भी पानी व्यर्थ गिरता न हो यह सुनिश्चित करो..."

 

दोनों अमर, ईशान, फणीश तथा कुछ अन्य भी छात्रों के संग सूचना यात्रा निकाल पैम्फ्लेट बांटते हैं और लोगों को सावधान करते हैं पानी के दुरुपयोग के सम्बन्ध में...शनैःशनैः सफलता की ओर बढते पग...दोनों अच्छे अंकों से उत्तीर्ण कर एम ए में प्रवेश करते हैं...अमर, ईशान, और फणीश भी संग ही एम ए में प्रवेश पाते हैं...जीवन आरम्भ से ही इन सभी की यथासम्भव सहायता करता हुआ इन सभी का मार्गदर्शक है....अभी सरण आदि के ग्रैजुएशन में रहते समय ही विधानसभा चुनाव में जीवन की पार्टी भी चुनाव लडी और उसे दो विधायक पद मिले...एक वह स्वयम्‌, और द्वितीय पर जीता था स्यन्दन...सरण आदि ने भी इस चुनाव में सहायता की थी पर कुछ ही...अब सरण का विचार है वह विविध प्रकार के समाज सुधार के कार्यों को बहुत विस्तार से आरम्भ करे....वह भारतीय समाज को विवेकी और उन्नतिशील देखना चाहता है...

जीवन -"यह विवेकी क्या होता है...?"

सरण -"विवेकी वह होता है जो जानता है कि किस बात में उसका भला है और किस बात में उसका बुरा...वह अच्छे और बुरे में अन्तर कर पाने में समर्थ होता है...ऐसा अन्तर कर वह सच या अच्छे का ही संग करता है..."

सरण के समाज कल्याणकारी कार्यों से जीवन की पार्टी का भी नाम फैल रहा है....सरण दो व्यक्तियों को गुरु मान बडे आदर उन्हें ’गीति’ कह सम्बोधित करता है - जीवन और राघवेन्द्र कश्यप को...दोनों ही से उसकी बातें होती रहती हैं....वह दोनों ही से सामाजिक, राजनीतिक, अथवा आध्यात्मिक आदि प्रेरणायें लेता रहता है...छात्रसंघ का चुनाव निकट है...सरण स्वयम्‌ अध्यक्ष पद के प्रत्याशी के रूप में खडा है....उसके मित्र और पार्टी के लोग उसकी जीत के प्रयासों में लगे हैं...सरण भाषण देता है...कि उसके अध्यक्ष बनने पर कितनी सुविधायें और व्यवस्थायें विश्वविद्‌यालय में हो जायेंगीं...वह किन रूपों में विश्वविद्‍यालय और छात्रों के लिये हितकर और लाभदायक होगा...छात्र ताली बजा रहे हैं...तभी जीवन पहुंचता है...सरण मंच पर उसके पांव छू उससे आशीर्वाद लेता है....जीवन सरण एवम्‌ अन्य तीनों प्रत्याशियों को जीताने का आह्‌वान करता है अपने भाषण में...समय पर चुनाव होता है...चार में से केवल एक पद पर जीवन की पार्टी को जीत मिलती है, और वह जीत है सरण की अध्यक्ष पद पर....जीवन बहुत प्रसन्न है...उसे सरण से अब बहुत आशायें बनती दिख रही हैं...अभी तक जीवन सरण के अभियान आदि कार्यक्रमों से अपनी पार्टीके लिये जनता की सहानुभूति बटोरने तक ही लाभदायक सरण को समझ रहा था, पर अब उसकी जीत से जीवन उससे सीधे राजनीतिक लाभ लेने की आशा करने लग गया था...जीवन- "सरण...मेरा वर्षों तुम्हारा साथ देने का फल मिलना अब आरम्भ हो गया जान पडने लगा है...क्योंकि तुमसे विधानसभा का चुनाव भी जीत लेने की आशा दिखने लगी है...."

"सर, मैं कहां राजनीति में...? मेरा काम तो है समाज की उन्नति...रही बात छात्रसंघ चुनाव जीतने की,,,,तो अध्यक्ष पद पर आकर तो अधिक समर्थ रूप में उतना अच्छा मैं वह सब कर सकता हूं जितना अच्छा मैं समाज का चाहता हूं...."

"बेटे...वही तो मैं तुमसे कह रहा हूं...विधायक बन जाने पर तुम कितना अधिक समर्थ बन जाओगे समाज कल्याण करने के लिये यह तुमने नहीं सोचा, इसलिये तुम ऐसा बोले...."

"पर विधानसभा चुनाव लडना, सरकार बनाने के लिये जोडतोड में लगना, छल-प्रपंच की राजनीति का आरम्भ हो जाता है...यह मुझे नहीं रुचता....पर छात्रसंघ चुनाव की राजनीति तक तो काम चल सकता  है...."

"हूं...अभी और अधिक समय लगेगा, तुम्हें परिपक्व होने में...."

 

अध्यक्ष बनते ही सरण ने विश्वविद्‍यालय परिसर में कहीं भी पानी, विद्युत्‌ आदि के दुरुपयोग या व्यर्थ नाश पर, पान-गुटका आदि खाने पर तुरत रोक लगवायी...संग ही जहां - जहां जिस-जिस बात की आवश्यकता थी उसकी समुचित व्यवस्था करवायी....सरण की इतनी जनकल्याणकारी मनःप्रवृत्तियों को देखते हुए पूरे विश्वविद्‍यालय में उसकी प्रशंसा होने लगी जो धीरे-धीरे फैलते हुए विश्वविद्‍यालय से बाहर भी निकली और वह पूरे नगर में प्रसिद्‍ध हो गया...अब सरण आदि सभी एम ए पार कर रिसर्च ष्टूडेण्ट हो गये हैं...सरण और गीति की बढती निकटता अब प्रेम में परिणत हो चुकी है...वे दोनों एक उद्यान में बैठे आराम-आराम से बातें कर रहे हैं...उनकी बातें धीरे-धीरे गाने में परिणत हो गयी हैं...अब वे गाना गाते हुए एक दूसरे से बात कर रहे हैं...

 

सरण अभियान द्‍वारा जीवन के समर्थन से नगर में विकास के जितने कार्यों में सफलतायें पाता चला जा रहा था वे थे -१. नगर में पानी कहीं भी व्यर्थ बहता नहीं दिखता...२. पेय जल की नगर में कहीं समस्या नहीं थी...३. विद्‍युत्‌ की चोरी कई स्थानों पर पकडी गयी, और यह काम अभी भी चल रहा था....४. नगर में विद्‍युत्‌ की कहीं भी कोई विचारणीय समस्या नहीं थी....५.गुटखा, तम्बाकु, मदिरा आदि के विरुद्‍ध अभियान अभी भी चल रहा था...सभी प्रकार के हानिकारक पदार्थों के सेवन के विरुद्‍ध जनजागरण का अभियान सामान्य गति से चल रहा था...जीवन को सरण के इन जनकल्याणकारी कार्यों से राजनीतिक लाभ मिलने में कुछ बाधा अनुभूत हो रही थी, क्योंकि सरण ऐसे कार्यों के माध्यम से अपनी पार्टी के लिये वोट बढाने का प्रयास न कर केवल समाज सुधार एवम्‌ समाज विकास का ही प्रयास कर रहा था...उसका स्वप्न एक ऐसे ही समाज के निर्माण का था....एक गाना चल रहा है जिसमें सरण के मन में स्थित स्वप्न-समाज का वर्णन हो रहा है....सरण के ऐसे ही कार्य इसमें दिखाये जा रहे हैं...गाने के अन्त के संग ही सरण गीति के संग हाथ मिलाये प्रेमपूर्ण स्थिति में....

गीति -"मैंने एक निर्णय ले लिया है...."

सरण -"अच्छा ही निर्णय लिया होगा...जरा मैं भी तो सुनुं...."

"वह यह कि मैं विवाह करुंगी...बहुत शीघ्र ही..." गीति सरण की छाती से लगी है, इसलिये पूछने की आवश्यकता नहीं है कि किससे विवाह करना है..."

"जबतक कोई स्थायी रूप से धनोपार्जन का साधन न मिल जाये तबतक विवाह की बात मैं सोच भी....केवल सोच ही सकता हूं, कर नहीं कर सकता...तबतक तुम्हें प्रतीक्षा करनी पडेगी...."

तभी उसके अन्य तीनों मित्र अमर, ईशान, और फणीश वहां आ पहुंचे....

सरण -"मित्रों...क्या सूचना लाये हो....?"

अमर -"यूं तो हम तुम्हारे भेजे हुए दूत नहीं हैं....पर....पर यह कि हम हैं स्वयम्‍प्रेरित सूचनावाहक....हमारा इण्टेन्शन तुम्हारे शुभ कर्मों में तुम्हारी सहायता करना है...अन्यथा हमारा क्या है...जैसे लोग संग मिलेंगे, हम उधर ही बह निकलेंगे...."

सरण -"तुम्हारा यह कहना कि जो होगा देखा जायेगा बहुत बुरा है...क्योंकि जब परिणाम भुगतने का समय आता है तो झेलना बहुत दुःखभरा लगता है...परन्तु यही बात यदि अच्छे कर्मों के सम्बन्ध में हो तो बात वैसी ही नहीं है..."

ईशान -"भइया, मुझे तुम केवल यह बताओ कि करना क्या है...उसमें हम तुम्हारा साथ देने को तैयार हैं....थ्योरी और दर्शन सुनने की इच्छा नहीं होती...क्योंकि हम भी अन्य लोगों जैसे ही हैं...अन्तर केवल इतना है कि हमें तुम्हारा संग मिला है...."

"गुटखा, तम्बाकु, मदिरा, आदि मादक पदार्थों के सेवन से क्या-क्या हानियां हैं, और क्या-क्या लाभ हैं, ये जनता को बताये जायें..."

"लाभ है...सरकार को...जब सरकारें ही चाहती हैं कि ये वस्तुयें बेची जायें, इस बहाने से कि इससे राजकोष को इतने अरब रुपये प्रतिवर्ष का लाभ होता है...तो अब कैसे क्या किया जा सकता है...?"

"यह विचारणीय बात है, क्योंकि वेश्यावृत्ति या स्त्री-पुरुष सम्भोग सम्बन्ध को वैधानिक रूप से मान्यता दे दी जाये कि प्रत्येक जोडे को केवल टैक्स का कूपन लेना होगा, तो सरकार इसे भी चला सकती है इसी बहाने से कि इससे राजकोष को इतने अरब रुपये प्रतिवर्ष का लाभ होता है..."

"पर गुटखा, तम्बाकु, मदिरा आदि मादक पदार्थों के माध्यम से रुपये कमाना तो रौंग वर्क करके या हानिकारक काम करके रुपये कमाना है...यदि सरकार को ऐसे रौंग या हानिकारक माध्यमों से रुपये कमाने का अधिकार है तो जनता को क्यों नहीं...? जनता भी केवल यह देखे कि कैसे अधिक से अधिक रुपये अपने बैंक अकाउण्ट में बढते जाते हैं, इससे किसी को हानि पहुंचती हो तो भी...?"

"राजकोष में रुपयों का बढना बडी प्रसन्नता की बात समझी जाती है...पर इस लिये कि इससे जनता के लिये अधिक से अधिक कल्याणकारी कार्यों को किया जा सकेगा...पर गुटखा, तम्बाकु, मदिरा आदि तो जनता के स्वास्थ्य और मस्तिष्क दोनों को नष्ट करते हैं...तो जनता के स्वास्थ्य और मस्तिष्क दोनों को नष्ट करके सरकार प्राप्त उन रुपयों से अब जनता का क्या कल्याण करेगी...? यह क्या बच्चों का खेल चल रहा है कि पहले मैं तुम्हें अस्वस्थ कर दूंगा और उसके पश्चात्‌ तुम्हारा उपचार करुंगा, और कहुंगा कि यह मेरे जीवन की बडी उपलब्धि की बात है कि मैंने इतने लोगों को स्वस्थ कर दिया...?"

"यह बात हमें बली रूप में सबके समक्ष रखनी होगी...."

"कैसे रखेंगे....?"

"जनता को समझना होगा...यदि जनता समझ गयी तो सरकारें जनता की इच्छा के विरुद्‍ध बहुत दिनों पर्यन्त टिकी नहीं रह सकती...."

"पर आज का समाज तो अपना ही दुश्मन हो चला है...गुटखा के पाउचों पर विकृत हो चले जबडों के चित्र रहते हैं कि गुटखा खाने का यही परिणाम होना है -आज या कल पर निश्चय ही...तब भी लोग हंसते हुए खाते हैं कि होता है तो हो जाने दो...!"

"पर हमारे अभियान ने अभी तक इस सम्बन्ध में प्रयास नहीं किये हैं...हमें पर्याप्त प्रयास करने हैं और प्रतिक्रियाओं से निष्कर्ष निकालना है..."

पांचों इस सम्बन्ध में तथ्य एकत्र कर एक पैम्फलेट निर्मित करवा रहे हैं...इसका विषय वस्तु इण्टर्नेट पर पहले ही प्रकाशित किया जा चुका है...

"और भी कई विचारणीय विषय हैं जिनमें मानव लाभ पाने के स्थान पर कहीं अधिक हानि ही पा जाता है...स्त्रियां फेलैशियो करतीं या स्वीकार करती हैं जिससे सुख तो उन्हें कल्पना में ही मिलता है पर हानि उन्हें ऐसी पहुंचती है कि उनका रूपरंग बदरंग होता चला जाता है...साहस दिखाना या बोल्डली बातें कर पाना उनके वश से बाहर होता चला जाता है...रोगग्रस्त होने की आशंका तो बनी ही रहती है...पर फेलैशियो में रुचि प्रायः पोर्नोग्रैफी देख ही उत्पन्न होती है...क्योंकि पोर्नोग्रैफी का पर्याप्त दर्शन करने से मानव मन नियन्त्रण खो घोर पतन की ओर चल पडता है..."

सामने से जीवन चला आ रहा है...-"अरे वाह...क्या लेक्चर चल रहा है....? कुछ हम भी तो जानें, सीखें समझें..."

"सर, हमलोग एक-दूसरे की जानकारी बढा रहे हैं...अभी पोर्नोग्रैफी के सम्बन्ध में जो जानकारी मेरे संग है वह मैं इन्ह भी दे रहा हूं..."

"पोर्नोग्रैफी....? ये क्या होता है...?"

’सर, स्त्री और पुरुषों के नग्न चित्र और सम्भोग के दृश्य पोर्नोग्रैफी के अन्तर्गत होते हैं..."

"छीः छीः छीः....कहां किसके पास है यह...मैं अभी इन्हें पकडवाता हूं..."

"आप देखनेवालों को पकडवायेंगे...आप दिखानेवालों को पकडवायेंगे...पर उनका क्या करेंगे जो देखने - दिखाने की सुविधा प्रदान करते करवाते हैं...?"

"कौन हैं ये लोग...?’

"सरकार....इण्टरनेट-वेबसाइट्स पर लोग ऐसे चित्र और वीडियोज प्रदर्शित करते हैं...हम आप जनता के लोग उन वेबसाइट्स को खोल उन चित्र और वीडियोज को देखते हैं..."

"हूं...स्थिति गम्भीर है...."

"जब सरकार ही कह रही है कि रुपये दो और पोर्नोग्रैफी देखो, तब अब समाज को डूबने से कौन बचायेगा....?"

"मेरा भी यौवन बीता है....मेरी लडकियों की बातों को केवल सुन लेने भर के ही योग्य समझा था...और मेरी सीमा वहीं तक रही...और आज भी...सच मानो...मैंने अपनी धर्मपत्नी जी को...कभी भी नग्न नहीं देखा..." जीवन गर्व से सर तानता है....

फणीश -"सर...आप महान्‌ हैं....नहीं तो आजकल के अधिकतर नेता...आप तो जानते ही होंगे सर, कि कैसे हैं...!

जीवन उत्साहित हुआ...."हूं....मेरे मन में एक बात उभर रही है...केवल ऐसे ही...सच पूछो तो, केवल ऐसे ही प्रतिबन्धित कर दी जा सकती है पोर्नोग्रैफी...."

"वो कैसे सर....?"

"वो ऐसे...कि...यहां मेरी सरकार बन जाये...मैं केवल यहां ही नहीं, पूरे देश में पोर्नोग्रैफी पर प्रतिबन्ध लगवा देने का वचन देता हूं..."

पांचों विचार करते गम्भीर मुद्रा में थे....

"देखो, और कोई उपाय नहीं है...वर्तमान सरकार के लोग तो स्वयम्‌ ही पोर्नोग्रैफी का मनोरंजन करते हैं...तब अन्यों को कैसे मना कर सकते हैं...! (कुछ रुककर) अभी होनेवाले उपचुनाव में एक सीट पर मैंने अपनी पार्टी से किसी को उतारा है...मैं चाहता हूं तुम सब इसमें पार्टी को जिताने का सफल प्रयास करो..."

"सर...मेरा मन राजनीति से...चुनाव आदि से दूर् रहने पर दृढ है...विश्वविद्‍यालय में मैं पार्टी का नेतृत्व कर रहा हूं, पर तभी तक जबतक इससे मेरे समाजोन्नति के स्वप्न को सहायता मिल रही है..."

"कोई बात नहीं...मेरा तुम्हें समर्थन है, विना किसी अनुबन्ध के...और यदि तुम्हें मेरी सहायता की आवश्यकता हो, तुरत बोलो...मैं पूरी पार्टी सहित तुम्हारी सहायता करने के लिये तैयार हूं..."

जीवन चला जाता है पर अपने पीछे एक ज्वलन्त प्रश्न छोड जाता है कि जब नाविक ही नाव डूबाये तो उसे कौन बचाये...! जब सरकार स्वयम्‌ ही गुटखा, मदिरा आदि बिकवाती है. पोर्नोग्रैफी दिखलवाती है, तो समाज को अब डूबने से, देश को पतन से अब कौन बचाये...?

अमर -"पर....यह तो बडी निराशा वाली बात उभर कर सामने आयी है...अब हमलोग ये उन्नति का काम क्यों करें, जब सरकार समाज को गिराने में, दुर्बल करने में लगी है....?...हमारे प्रयास, हमारी शक्ति व्यर्थ जायेगी...!"

सरण -"आशा कैसे यूं पूर्णतया छोड बैठे...? क्या अभी सर ने कहा नहीं कि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वे हमारी कामनायें पूर्ण करेंगे...?"

"पर, किसी भी नेता की बातों का क्या विश्वास...? चुनाव से पूर्व सभी ऐसे ही बडे-बडे वचन दिया करते हैं, पर चुनाव जीतकर वे सम्भवतः सामान्य जनता से मिलें भी नहीं...!"

 

एक व्यक्ति स्यन्दन खेत में खडा भगवान्‌ से प्रार्थना कर रहा है -"आप मेघ (बादल) फाडकर जल बरसा दें...पर्याप्त बरसा दें... मैं समझूंगा कि आपने छप्पड फाडकर धन बरसा दिया है..."

कुर्ता-पायजामा पहना एक नेता चलता हुआ उसके निकट आता है...."स्यन्दन...तुमने यह अपनी क्या स्थिति बना ली है...? कहां नगर में तुम्हारा इतना महत्त्वपूर्ण जीवन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है और कहां तुम यहां सुनसान में वर्षा की प्रतीक्षा कर रहे हो...?"

"नेता...तुम नहीं समझोगे क्या होती हैं मानवीय भावनायें...नहीं...नहीं....मानवीय भावनाओं, अच्छाइयों, और ज्ञान की बातों की कुछ पंक्तियां तुमने रट ली हैं....और उनका प्रयोग तुम स्वार्थसिद्धि में करते हो...पर, मैं अब तुम्हारी चाल में नहीं आनेवाला....चले जाओ यहां से तुम...मैं ऐसे इन्हीं परिस्थि्तियों में अच्छा हूं...सन्तुष्ट हूं..."

नेता का मुख नहीं दिख रहा है, संग ही उसकी स्वर ध्वनि भी अस्पष्ट है...-"मैंने सदा तुम्हारा भला ही चाहा...यह मेरी राजनीतिक विवशता थी कि कुछ समय के लिये मैंने तुम्हारे भले की चिन्ता करनी कुछ समय के लिये छोड दी थी..."

"केवल छोड ही नहीं दी गयी थी, मेरे विरुद्‍ध परिस्थितियां बनायी भी गयी थीं...जिससे कि तुम अपनी स्वार्थ सिद्धि कर सको..."

स्यन्दन के मस्तिष्क में बीते समय का चित्र उभरने लगा...कृषि एवम्‌ बीज मेला लगा था...स्यन्दन ने भी अपने कृषि ष्टोर से सीड्स आदि कृषि से सम्बद्‍ध वस्तुओं का ष्टाल लगाया था...स्यन्दन के कई प्रकार के बीजों, हायब्रिड बीजों, कुछ नये कृषि अनुसन्धान, विविध कृषि सम्बद्‍ध समस्याओं के समाधान आदि विविध उपलब्धियों के आकर्षणों के कारण उसे मेला का प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ....स्यन्दन प्रसन्न था...पर अब उसके समक्ष कई व्यक्ति पंक्ति में खडे थे अपनी कृषि सम्बद्‍ध समस्याओं  के समाधान के लिये...अपनी जिज्ञासा शान्ति के लिये....स्यन्दन ने विद्‍वत्तापूर्ण ढंग से सभी समस्याओं के समाधान बताये...इससे स्यन्दन की प्रशंसा और प्रसिद्धि निरन्तर बढती ही जा रही थी...यह अन्तिम दिन था...सायंकाल स्यन्दन अपने आवास लौट रहा था तब कुछ व्यक्तियों ने उसे घेर लिया...वे उससे अभद्र भाषा में बात करने लगे...तभी वहां से एक नेता की कार गुजर रही थी....कार आगे बढी....रुकी...पीछे की ओर लौटी....नेता (सर निकालकर)- "ये यहां क्या हो रहा है...?" उसके संग उसका राइफल-धारी बौडीगार्ड भी बाहर निकला...यह देख वे सभी व्यक्ति तुरत वहां से भाग निकले...स्यन्दन अपने सम्बन्ध में बताता है और नेता को धन्यवाद देता है...

नेता - "वाह...हम भी आपसे विविध जानकारियां और ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं...यदि आप पधारें तो..."

अगले दिन स्यन्दन नेता से मिलने उसके आवास पहुंचता है...नेता यह जान आश्चर्य करता है कि स्यन्दन बहुत पढा-लिखा होने पर भी सीड्स आदि का व्यवसाय करता है...-"मेरी आंखें आपमें वह कुछ पा रही है जो कल मेरे लिये बहुत लाभ का उपहार ला सकता है..."

स्यन्दन - "अच्छा...वह कैसे....?"

"कल सायंकाल मैं भी उस कृषि मेला में गया था...वहां मुझे एक व्यक्ति की प्रशंसायें सुनने को मिलीं कि उसने न केवल प्रथम पुरस्कार ही पाया है अपितु विद्‍वान्‌ भी इतना है कि उसने कई कृषि-सम्बद्‍ध समस्याओं के प्रशंसनीय समाधान बताये...आप छाये हुए थे पूरे मेला में...तो अभी, आपको करना केवल इतना ही है कि आप मेरी पार्टी के सदस्य बन जायें...हमारे निर्देश आपको मिलते जायेंगे...आप वैसे-वैसे ही करते जायें....तो हमदोनों को निःसन्देह वह-वह मिल जायेगा जो हमदोनों चाहते हैं...."

"अच्छा...!" स्यन्दन के मन को सुखद आश्चर्य हुआ कि वह कुछ चाहता है, और वह अब उसे मिल जा भी सकता है...!

"हां...यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है...(कुछ रुककर) अरे, नहीं समझे...? आपने दुकानदारी की है...किसलिये....? रुपये कमाने के लिये...और मैंने राजनीति का मार्ग पकडा....किसलिये...? गद्‍दी पाने के लिये..." नेता मुस्कुराया...

स्यन्दन भी मुस्कुराया...पर नेता के मन में क्या है वह समझ नहीं पाया...

नेता- "मुझे लगता है, आपको कुछ ट्रेनिंग देने की आवश्यकता पडेगी....कल हमारा एक असिष्टेण्ट आपकी शौप जा आपको कुछ जानकारियां देगा जिसके पश्चात्‌ आपका कार्य आरम्भ होगा...अभी आप अपने शौप जायें...."

 

स्यन्दन अपने शौप में पूर्ववत्‌ बैठा है...नेता का असिष्टेण्ट वहां पहुंचता है...- "यह फार्म आप भर दें...संग ही एक रुपया दे दें सदस्यता के..."

स्यन्दन वैसा ही करता है....

"अब आप ह्मारी पार्टी के सदस्य हो गये...सर्वप्रथम आपको करना यह है कि अधिक से अधिक व्यक्तियों को पार्टी-सदस्य बनाना है...प्रत्येक एक सौ एक सदस्य बनाये जानेपर आपको पुरस्कार मिलेगा...हां...आपके शौप में आनेवाले ग्राहकों की संख्या बहुत है...इसीलिये तो सर ने आपको इतना महत्त्व दिया है...."

स्यन्दन वैसा ही करता है....इस प्रकार नेता की पार्टी के सदस्यों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढती जा रही है...नेता ने स्यन्दन को पार्टी का जनपद-अध्यक्ष बना दिया...कुछ समय पश्चात्‌ विधानसभा चुनाव के दिन आ गये...नेता ने स्यन्दन को भी टिकट दिया...पर पार्टी को जीत केवल दो सीटों पर मिली...एक पर तो नेता स्वयम्‌ जीता...और दूसरी पर जीता स्यन्दन...गठबन्धन सरकार बनी जिसमें नेता ने भी अपनी पार्टी का समर्थन दिया...संग ही, स्यन्दन की विद्‍वत्ता और योग्यता की बहुत प्रशंसा करते हुए बहुत अनुरोध कर जिस-किसी भी प्रकार से स्यन्दन को कृषि क्षेत्र में एक अच्छे अधिकारी स्तर का पद दिलवा दिया...पद ऐसा था जहां से बहुत धन पाये जा सकते थे अनुचित माध्यमों से...नेता जीवन ने कई काम करवाये स्यन्दन के माध्यम से जिनसे आर्थिक लाभ तो केवल जीवन को ही हुए, स्यन्दन ने केवल पेपर्स साइन किये और करवाये....स्यन्दन को तब भी जीवन के इस आर्थिक भ्रष्टाचार की जानकारी नहीं थी...जब जीवन ने स्यन्दन के माध्यम से पाये जा धन की राशि एक करोड पार कर गयी पायी तो एक दिन उसने पांच सौ रुपयों की दो गड्डियां स्यन्दन को थमाते हुए कहा -"ये लो एक लाख रुपयों की छोटी सी धनराशि का पुरस्कार, जो तुम्हें अभी तक इतनी कुशलता से पार्टी सेवा करने के कारण तुम्हें दिया जा रहा है..."

स्यन्दन ने प्रसन्नता से वह पुरस्कार ले लिया और उससे दूर एक ग्रामीण क्षेत्र में दो एकड कृषि योग्य भूमि का क्रय कर लिया...यह स्यन्दन की प्रबल इच्छा थी कि वह एक बडे भूक्षेत्र का स्वामी हो जहां वह फलोद्यान, कृषि, आदि का आरम्भ करे...परन्तु यदि दो-तीन लाख रुपये और उसे यदि मिलें तो वह अपने सपने साकार कर सकता है...

जब उसकी यह कामना जीवन की जानकारी में आयी तो वह तुरत बोल पडा -"दो-तीन लाख रुपये क्या हैं...बीस-तीस लाख रुपये भी तुम्हारी झोली में आ गिर जायेंगे..."

"वो कैसे...?"

जीवन ने स्यन्दन को आर्थिक भ्रष्टाचार के उपाय बताने चाहे, पर उसके दृढ औनेश्ट मन और हदय को देखते हुए वह बोल नहीं पाया...और बात घुमाते हुए बोला - "और कैसे...वही....पार्टी सदस्य बनाकर....अधिक से अधिक पार्टी सदस्य बनाओ और अधिक से अधिक रुपये पाओ...पुरस्कार...(कुछ रुककर)...पर इस बार पहले जैसे एक फौर्म पर एक-एक सदस्य बनाने के स्थान पर एक फौर्म पर कम से कम सौ सदस्य बनाओ...."

’सौ...!’ स्यन्दन की आंखें आश्चर्य से फैलीं...

"हां...एक-एक वैसे व्यक्ति को पकडो जिसके आने से कम से कम सौ और व्यक्ति उसके पीछे-पीछे आ जा सकें...ऐसा प्रभावशाली व्यक्ति हो वह...तुम इस मुख्य व्यक्ति को ही सदस्य बनाओ...हमारे और सदस्य कार्यकर्ता हैं जो उससे सम्बन्धित अन्य व्यक्तयों को पार्टी सदस्य बनायेंगे...और तुम्हारा पुरस्कार...यदि कम से कम सौ और सदस्य उसके कारण मिल गये तो तुम्हें मिलेंगे कुल एक लाख रुपयों का पुरस्कार प्रत्येक ऐसे व्यक्ति को सदस्य बनाने पर...."

स्यन्दन को रुपयों की आवश्यकता थी और काम उसे मिल चुका था...उसने उत्साहपूर्वक ऐसे प्रभावशाली व्यक्तियों से सम्पर्क बढाना आरम्भ किया...पर, ऐसे व्यक्तियों ने उसकी पार्टी में रुचि लेने का प्रयास तभी किया जब उसे स्यन्दन से कोई लाभ प्राप्त होता दिखे...ऐसे में अपनी पदशक्ति का उपयोग करके, लाभ पहुंचाकर भी, ऐसे किसी व्यक्ति को अपनी पार्टी में लाना उसके मन ने स्वीकार किया... जीवन की स्यन्दन के सभी कर्मों पर दृष्टि थी...उसने देखा, स्यन्दन ने दो ऐसे ही प्रभावशाली व्यक्तियों को अपनी पार्टी में लाने के लिये उनके किसी कार्य में अपनी पदशक्ति का दुरुपयोग किया, जिससे स्यन्दन के ऊपर प्रश्नचिह्‌न लग सकते थे...तो उसका मन अब स्यन्दन के भले की चिन्ता नहीं कर रहा था...क्योंकि अभी तक जो भी पेपर्स अनुचित रूप से जीवन ने स्यन्दन के साइन करवा लिये थे वहां उसने स्यन्दन के भले की चिन्ता करते हुए बहुत सावधानी रखी थी कि स्यन्दन पर कोई आरोप न लगने न पाये...और इस कारण से जीवन ने वैसे पेपर्स अभी तक स्यन्दन से साइन नहीं करवाये थे जिनसे स्यन्दन की स्थिति डांवाडोल हो सकती थी...पर जब स्यन्दन ने स्वयम्‌ ही ऐसे पेपर्स साइन कर  दिये हैं जिनसे उसकी स्थिति डांवाडोल हो सकती है तो जीवन भी अब पीछे क्यों रहे...उसने वैसे पेपर्स भी स्यन्दन से साइन करवाने आरम्भ कर दिये...और जब ऐसे कई पेपर्स पास हुए तो बात तो फंसनी ही थी...बात फंसी जीवन के ही पास कराये पेपर्स के कारण...उन सन्दर्भों में जब स्यन्दन से पूछा गया तो स्यन्दन ने किसी भी प्रकार की गडबडी करने की बात अस्वीकार कर दी...प्रश्न यह उठा कि कई विषयों पर उसने बहुत अधिक पेमेण्ट अनुमोदित किया था...कहीं-कहीं तो कई गुणा अधिक पेमेण्ट्स थे... इतने अधिक पेपर्स उसके आर्थिक भ्रष्टाचार को सूचित कर रहे थे कि उसे सस्पेण्ड कर दिया गया...आरोप अधिकतर उन्हीं पेपर्स से आये थे जो जीवन के द्‍वारा पास करवाये गये थे...

स्यन्दन -"मैं आप पर आंख मून्दकर विश्वास करते हुए आपके सभी पेपर्स साइन करते गया, उन पेपर्स के सम्बन्ध में जानने की कोई चेष्टा नहीं की, और आपने मेरे संग विश्वासघात किया...!"

"देखो, जो काम सभी किया करते हैं वह पाप या अपराध नहीं माना जाता...तुम अकेले ऐसे अधिकारी नहीं रहे जो ऐसा किये...पूरे भारत में ही ऐसा चलता आ रहा है...मैं तुम्हारा सस्पेंशन वापस करवा दूंगा...और तुमपर कोई आरोप सिद्‌ध भी नहीं हो पायेगा...ऐसे-ऐसे कारणों से किये गये सस्पेंशन में कोई बल नहीं होता...(कुछ रुककर)...हां...और एक शुभ और लाभप्रद सूचना तुम्हारे लिये...मन मीठा करो...तुमने जिन दो प्रभावशाली व्यक्तियों को अपनी पार्टी में सम्मिलित करवाया, उनके सम्पर्क से अभी तक प्रत्येक से सौ से भी अधिक सदस्य बन चुके हैं...इसका पारिश्रमिक मैं तुम्हें देने के लिये तैयार हूं... कार्यकर्ताओं ने बताया है कि हजारों सदस्य भी इनके सम्बन्ध से बन जा सकते हैं...इस कारण मैं इन दोनों के कारण तुम्हें दो नहीं तीन लाख दे रहा हूं...वैसे...हजार तक भी पहुंच जाने की आशा देखते हुए तुम्हें मैं दस लाख भी देने को तैयार हूं...यदि तुम हां कहो तो अभी भिजवा दूं....?"

"हां...पर...तीन लाख रुपये...जो देने का मन आपने सर्वप्रथम बनाया..."

"केवल तीन लाख....! जब दस लाख रुपये तुम्हारी झोली में गिरने को तैयार हैं, तब केवल तीन लाख...ऐसा क्यों...?"

"पर, तीन लाख का औप्शन भी तो आप ने ही दिया है...कि इतनी धनराशि मुझे मेरे कार्यों के लिये दी जा सकती है...इससे अधिक देना आपका मन स्वीकार नहीं किया... अपने मन से आप तीन ही लाख देने के लिये तैयार थे, पर अन्य कारणों से प्रभावित हो आपका मन दस लाख भी देने को तैयार हो गया..."

"ठीक है...मैं अभी तीन लाख रुपये भिजवा देता हूं..." ऐसा कह जीवन चला जाता है...

स्यन्दन ने भूखण्ड का क्रय तो कर रखा था ही, यह तीन लाख की धनराशि ले वह चला जाता है उसे सजाने-संवारने....सर्वप्रथम उसने वहां बोरिंग करवा हैण्डपम्प लगवाया जिससे पानी की व्‍यवस्था हो गयी...आधी भूमि पर कृषि करवायी तथा आधे में फल और सब्जी के पौधे लगवाये...अब वह वर्षा के लिये भगवान्‌ से प्रार्थना कर रहा था कि जीवन आ पहुंचा...बहुत अनुरोध करने पर भी जब स्यन्दन लौटना अस्वीकार करता है तो जीवन कहता है -"मेरा एक शिष्य है सरण...बहुत अच्छा छात्र है....मैं उसे भेजता हूं कि वह तुम्हें समझाये... पर तुम उसे जो गडबडियां अभी तक हो चुकी हैं उनके सम्बन्ध में कुछ न बताना...." जीवन वहां से लौट सीधा सरण से मिलता है, क्योंकि उसे अब केवल सरण से ही राजनीति में सबसे अधिक सहायता मिलने की आशा है...जीवन को स्यन्दन और सरण दोनों ही सिद्‍धान्तवादी और अच्छे व्यक्तियों का सहयोग मिला है...सरण ने जीवन से सहानुभूति दिखायी कि स्यन्दन के यूं साथ छोड चले जाने से अब विधानसभा में विकास पार्टी की केवल एक ही सीट है...

जीवन-"यदि तुम्हें स्यन्दन का संग तुम्हें मिल जाये तो तुम्हारे अभियान में और भी गति आ जा सकती है...स्यन्दन भी तुम्हारी भांति बहुत ही औनेश्ट और अच्छा व्यक्ति है. .." सरण इस समय गुटखा आदि मन और शरीर विनाशकारी पदार्थों के विरुद्‍ध जनजागरण के  अभियान में लगा है...वे पांचों एक स्थान पर कैम्प लगाकर पैम्फलेट बांट रहे हैं और लोगों को जानकारी दे रहे हैं...विभिन्न तथ्य भी दिये गये हैं...

 

गीति -"क्या लगता है कि हमारे इन प्रयासों से समाज कभी सुमार्गगामी हो जायेगा...?"

सरण - "इसकी स्पष्ट जानकारी तभी हो पायेगी जब हम इस बात का निरीक्षण करें कि हमारे अभी तक के प्रयासों का क्या कुछ अच्छा फल किसी भी परिवार या व्यक्ति के संग घटा है...!"

गीति -"पिछले मास हमने जल-अपव्यय और गुटखा,मदिरापान के विरुद्‍ध रविनगर में कैम्प लगाया था...कई व्यक्तियों के पते नोट हैं...हम वहां चलकर जानकारी ले सकते हैं कि क्या कुछ अच्छा घटा तत्पश्चात्‌...ऐसा निश्चय कर वे पांचों रविनगर का मार्ग पकडते हैं...पैदल चल वे पन्द्रह मिनट में वहां पहुंचे....एक आवास में पहुंच जब वे पूछताछ करते हैं तो ज्ञात होता है कि उनलोगों ने सरण आदि की कही बातें और सावधानियां उन्होंने बडे ध्यान से सुनीं और माना कि क्या करना चाहिये और क्या नहीं...पर अगले दिन से सभी व्यक्ति पिछले दिन की सभी बातें भूल पूर्ववत्‌ मनमाना जीने लगे...अर्थात्‌ वही गुटखा और जल-अपव्यय आदि...और तो और, कई व्यक्तियों को बहुत प्रयास करने पर यह स्मरण हुआ कि सरण आदि ऐसा कुछ उनसे बता-सुना गये थे....यह सुन सरण आदि को बहुत निराशा अनुभूत हुई...जब वे द्वितीय आवास में गये तो सुनने को मिला -"हमलोगों ने आपकी बातें सुनीं और मानीं, पर समय आने पर वही किया जिसका हमें अभ्यास बना है...अर्थात्‌ हमलोग पूर्ववत्‌ ही जीते चले आ रहे हैं..."

सरण आदि की निराशा और अधिक बढी...

"यदि हमलोग अपने लक्ष्य के प्रति और अधिक उत्साह पाना चाहें तो कौन है इस संसार में हमें और उत्साह देनेवाला...?"

अन्य और लोगों से मिलने जाने के स्थान पर सरण आदि ने अब फोन से इस सम्बन्ध में जानकारी लेने का विचार किया...तो कई व्यक्तियों ने यह बताया कि उन्होंने उनकी जानकारियों और सावधानियों से बहुत लाभ उठाया और अब वे उनके परामर्श अनुसार ही जीवन जी रहे हैं...

 सरण-"मुझे सन्देह है कि जैसा ये फोन पर बता रहे हैं वैसी ही इनकी वास्तविकता है... ... अतः किसी एक के आवास पहुंच अब विस्तार से पूछताछ की जाये...."

पांचों फोन किये गये व्यक्तियों में एक के आवास पहुंचते हैं... और जब सच कुरेदा जाता है तो वही वास्तविकता ज्ञात होती है कि उनलोगों ने भी ऐसी बातों को केवल मनोरंजन या टाइम पास की दृष्टि से ही सुना-जाना था...अर्थात्‌ सरण आदि के प्रयासों का कोई प्रभाव उनपर नहीं हुआ...

 

पांचों ने एक उद्‍यान में मण्डली जमायी और विचार-विमर्श आरम्भ किया...

सरण -"भारतीय समाज का मनुष्य सिद्‍धान्तों की बडी-बडी बातें मात्र कर सकता है, पर करते समय वही करता है जो समाज के अधिकतर व्यक्ति करते हैं...आत्मसुधार सामान्य व्यक्तियों के लिये असम्भव तो नहीं, पर बहुत ही कठिन अवश्य है..."

गीति - "मुझे लगता है समाज सुधार के प्रयासों को अतिरिक्त समय का कार्य रखा जाये, तथा हमें अपने व्यक्तिग जीवन के विकास पर अधिक समय देना चाहिये..."

सरण -"व्यक्तिगत जीवन का विकास....! आः,,,,ऐसा लगता है मानों अभी तक मैं स्वप्न देख रहा था, और अब मैं वास्तविकता के धरातल पर पांव रखा पा रहा हूं स्वयम्‌ को...मैं अब क्या करुं...! कहां जाउं...?"

फणीश -"मित्र, साहस न खोओ...मैं तुम्हारे मन की स्थिति को समझने का प्रयास कर रहा हूं...मैं तुम्हें यह परामर्श दूंगा कि अपने स्वप्न और वास्तविकता के मध्य तालमेल बैठाना आवश्यक है...और करो यद्‍यपि मुख्य रुप से निज जीवन के विकास का कार्य, तथापि समय निकालकर कभी कभी परोपकार का भी कार्य करते रहो... ... मेरे साधारण मस्तिष्क में इतनी अच्छी बात उपज गयी... विश्वास करो यह तुम्हारी संगति का ही परिणाम है...इस परामर्श को स्वीकार करो..."

"धन्यवाद तुम्हारे इस परामर्श का...पर अभी मैं क्या करुं, हो सके तो यह भी बता दो..."

"वह तो तुम्हें बताया जा चुका है...तुम स्वयम्‌ मनन-चिन्तन करो और निष्कर्ष पर पहुंचो..."

सरण विचारमग्न है और अन्य सभी इधर-उधर देख रहे और गप्प मार रहे हैं...तभी स्यन्दन वहां से गुजर रहा होता है...- "ये आपलोग किस बात का प्रचार कर रहे हैं...? और ये पैम्फलेट कैसे हैं...? आपलोगों का जीवन....?"

फणीश - "श्रीमान्‌, ये हैं नशा-विरोधी और जल-संरक्षक सूचनायें..." एक पैम्फलेट वह स्यन्दन की ओर बढाता है...

पढकर स्यन्दन प्रसन्न होता है....-"यद्‍यपि मुझे कोई नशा नहीं है, न ही मैं जल आदि का अपव्यय करता हूं...तथापि मुझे आपलोगों का यह अभियान बहुत रुच रहा है...यद्‍यपि मैं यहां बीज आदि के क्रय के लिये आया हूं तथापि यदि मैं आपलोगों के समूह में सम्मिलित हो पाया तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी..."

अमर -"जब आग बुझ रही हो तो आप क्या गर्मी पा पायेंगे...हमलोगों ने जनजागरण का बहुत प्रयास किया...लोग हमारी बातें सुन लेते हैं, मान भी लेते हैं, पर वैसा सुधार अपने जीवन में नहीं लाते...जीते वैसे ही रहते हैं जैसा वे जीते चले आ रहे हैं...इस कारण हमारा सुधारवादी मन बुझता आग होता चला जा रहा है...हमलोगों से अब आप क्या गर्मी पा पायेंगे...?"

स्यन्दन -"पर, मैं तो स्वयम्‌ ही ऐसी आग हूं...मेरी संगति से यह बुझती आग पुनः भडक उठ सकती है..."

’अच्छा...’ सबने आश्चर्य व्यक्त किया...तब स्यन्दन ने संक्षेप में अपनी आपबीती सुनायी, जीवन का नाम लिये विना, कि किस प्रकार एक अधिकारी पद पर काम करते वह निर्दोष ही फंस गया था, पर अब वह अपने कृषि क्षेत्र, फलोद्‍यान में सुखपूर्वक जी रहा है...सभी ने स्यन्दन के कृषि और फलोद्‍यान क्षेत्र के भ्रमण के प्रति अपना आकर्षण दिखलाया...स्यन्दन तब इन सबके फोन नं नोटकर ले जाता है कि वह उनसे पुनः मिलेगा...

स्यन्दन तो चला गया पर सरण के मन को ऐसी आशा और विश्वास दे गया कि स्यन्दन जैसे अच्छे कई लोग इस संसार में हो सकते हैं...सरण अब उत्साह जगाते हुए साहस और विश्वास का गीत गा रहा है...अन्य सभी इसमें उसको संग दे रहे हैं...’मन में जो हो आश...तो पूरी हो सकती...नहीं कौन आश...यूं ही नहीं...है हमें चलते जाना...न जाने कब हो जाये जीवन का अन्त...है हमें उससे पूर्व, बहुत कुछ कर पाना..’

तत्पश्चात्‌ और भी उत्साह पाने को वे पांचों राघवेन्द्र कश्यप के समीप पहुचते हैं...

राघवेन्द्र -"यह जीवन एक यात्रा ही है...आत्मा की यात्रा है...इसमें कितने ही मिलते और बिछड जाते है....मनुष्य एकाकी (अकेला) ही इस जीवन में आया है, और एकाकी ही इस जीवन से चला जायेगा...अतः मनुष्य को अपना लक्ष्य स्वयम्‌ ही निर्धारित करना चाहिये...मनुष्य जो भी कर्म करता है उसका फल वह स्वयम्‌ ही पाता है...उसके कर्मों का फल कोई और नहीं बांट पाता है...अतः मनुष्य बहुत सोच-समझकर अपनी इच्छानुसार अच्छा ही कर्म करे...किसी के दबाब में आकर कोई कर्म न करे..."

"पर इतने लोगों के संग रहते कैसे मनुष्य अन्य सभी की बातें अनसुनी कर केवल अपनी इच्छानुसार सभी कर्म करते चला जा सकता है...?"

"मनुष्य यदि चाहे तो क्या नहीं हो सकता है...! अच्छे कार्यों में बाधायें आती हैं...पर आरम्भ में ही आती हैं....यदि विचार दृढ हों तो बाधायें धीरे-धीरे हटती चली जाती हैं...समर्थन बढता चला जाता है...पर इसके लिये यह आवश्यक है कि प्रयास सतत होते जायें..."

"क्या यह सम्भव है कि समाज सुधर जाये...? और हमलोग जितना अच्छा चाहते हैं, मनुष्य समुदाय उसी अनुसार जीवन व्यतीत करने लग जाये...?"

"कितने ही महापुरुषों ने अपना पूरा जीवन लगा दिया समाज सुधारने में...शताब्दियों से महापुरुष समाज सुधारने का प्रयास कर-कर चले गये, पर समाज देखो आज कहां पहुच गया है...? समाज की अपनी ही गति है...बुरा से और भी बुरा होता चला जा रहा है...आदर्श की बातें केवल मन में ही रह जाती हैं..."

सरण के मन को जैसे धक्का लगा...उसे यहां उत्साह पाने की आशा थी...-"तो सर, मैं अब कैसे जीउं....? क्या हो मेरी दिनचर्या प्रतिदिन की...?"

राघवेन्द्र -"किसी धार्मिक विद्‍वान्‌ मनुष्य ने कहा था -’अपना सुधार संसार की सबसे बडी सेवा है...तुम सुधरोगे तो सारा संसार सुधरेगा...और भी - तुम्हें किसी को सुधारने की आवश्यकता भी नहीं होगी...तुम जितने सुधरे होगे उतनी अच्छी प्रेरणा अन्य मनुष्यों का मन स्वयम्‌ ही प्राप्त करने लगेगा, तुम्हारे बोले विना ही’..."

गीति -"विना बोले भी कोई मेरी बात मान ले सकता है...ऐसा कैसे सर...?"

"मान लो मेरे अन्दर ऐसी अच्छाई मेरे अन्दर समायी है कि मैं सबका भला करुं, किसी भी का बुरा न करुं, और मन को ईश्वर प्राप्ति में लगा मोक्ष पा लूं...तो जो भी व्यक्ति मेरे निकट मेरे प्रति अच्छी भावना लेकर आयेगा, उसके मन में मेरे अन्दर की बातें स्वयम्‌ ही उभरने लगेंगी...और उसका मन होने लगेगा कि वह भी सबका अच्छा ही करे, किसी भी का बुरा न करे, और सत्य ज्ञान की प्राप्ति का प्रयास करे..."

"हां...तो क्या हम किसी को सुधारने का प्रयास न करें...?"

"करें...परन्तु केवल स्वयम्‌ को ही सुधारने का प्रयास करें...किसी अन्य को नहीं...हां...पर यदि कोई जिज्ञासा से कुछ जानना चाहे तो उसे बता दिया जाना चाहिये...परन्तु स्वयम्‌ ही किसी को बताने का प्रयास करना समय व्यर्थ करना है...क्योंकि उस व्यक्ति का मन किसी अन्य ही दिशा में घूम रहा है...तुम उसके मन को अपनी दिशा में क्या मोडोगे, कहीं तुम्हारा ही मन उसकी दिशा में न घूम जाये...(कुछ रुककर)...एक सच्ची बात यह है कि जैसे-जैसे लोग इस संसार में हैं, वैसे-वैसे लोगों के इस संसार में होने का आभास इस मन को स्वयम्‌ ही होता रहता है...और यदि तुम अच्छे हो, तो अन्य भी अच्छे लोगों के आभास से तुम्हें उत्साह मिलेगा...तुम्हारे मन को बल मिलेगा...तुम्हारे उनसे मिले विना ही..."

पांचों ने ध्यान से राघवेन्द्र की और भी बातें सुनीं...अन्ततः सरण ने पूछा -"सर, तो अब मैं अपनी दिनचर्या कैसे क्या निर्धारित करुं...?"

"सभी आवश्यक दैनिक कार्यों को करते हुए ध्यान साधना अवश्य करो...और मन को अच्छाई को समर्पित करते हुए धनोपार्जन का

कार्य करो....अच्छाई के मार्ग पर बने रहते हुए जितना भी धन मिल जाये वह तुम्हारे लिये बहुत ही अच्छा फल देनेवाला होगा..."

इसके पश्चात्‌ पांचों ने उनको धन्यवाद दिया और चले गये...

 

सरण कुछ दिनों तक राघवेन्द्र के बताये अनुसार दिनचर्या चलाता है और फोन से उनसे परामर्श लेता रहता है....एक दिन जीवन सरण से मिलता  है और राजनीति में उसकी सहायता करने को कहता है, इस आश्वासन के संग कि यदि उसकी पार्टी सत्ता में आयी तो वह इस राज्य को उसके सपनों का समाज प्रदान करवा देगा...सरण का मन स्वीकार कर लेता है जीवन के अनुरोध को, पर धनोपार्जन वह कैसे करे...?

जीवन -"अभी चुनाव के दिन निकट आते चले जा रहे हैं...तुम विधायक बन जाओ, तब यह समस्या भी तुम्हारे संग (साथ) नहीं रह जायेगी..."

 

सरण निर्धारित दिनचर्या का यथासम्भव अनुसरण करते हुए जीवन की विकास पार्टी के प्रचार-प्रसार में भी लग जाता है...उसने विचारा -’यद्‍यपि राजनीति कभी भी मेरा लक्ष्य नहीं रहा है, तथापि अभी तो इसी दिशा में बहता चला जा रहा हूं...देखुं, आगे क्या होता है...!’ सरण अध्ययन के लिये अपने स्थायी आवास से बहुत दूर इस नगर में किराये के एक रूम के फ्लैट के आवास में रहता चला आ रहा है...वह स्वयम् ही भोजन बनाता है...अभी वह रसोई में था कि कौलबेल बजी...जाकर उसने देखा तो गीति थी...गीति अब उसका भोजन बनाना देख रही है -"मैंने अपने आवास में बहुत आवश्यकता पडने पर ही भोजन बनाया है...इस कारण भोजन बनाने का अनुभव तुम्हारे संग मुझसे अधिक है..."

सरण के संग-संग वह भी उसका बनाया भोजन कुछ मात्रा में खाती है...-"अपनी आजीविका (रोजगार) के लिये तुमने क्या सोचा है...क्योंकि राजनीति से मिली रोटी न केवल मलिन (गन्दी) ही हो सकती अपितु हानिकारक भी हो सकती है..."

"हां...ऐसी आशंका तो मुझे भी है....राजनीति के पथ पर चलना मानो उचित जीवन जीने के मार्ग से भटक जाना है...पर वर्तमान परिस्थितियों ने मुझे इसी पथ पर ला खडा किया है...तब भी, मुझे क्या करना है, कि...."

"कि तुम पूर्णतया सावधान रहो..."

"हां...मुझे इस पथ पर प्रत्येक पग बहुत सावधानी से रखना है..."

"आज अभी क्या करने वाले हो...?"

"कुछ विशेष नहीं...अभी तक में मैंने स्नान, ध्यान, भोजन सब कर लिया है...अब कुछ घण्टे फ्री हैं मेरे व्यक्तिगत कार्यों के लिये...."

"तो चलो संग मेरे...एक स्थान ले चलती हूं..."

दोनों बस पकड एक श्टौप पर उतरते हैं...गीति उसे एक निकट स्थित मन्दिर ले जाती है...देवी मां का मन्दिर...मन्दिर की विशेषता यह है कि मन्दिर जहां आकर्षक और प्रसिद्‍ध है वहीं उसके संग लगा सार्वजनिक उद्‍यान विशाल, कई सुविधाओं से युक्त और आकर्षक है...प्रथम दोनों देवी मां को प्रणाम करते हैं, पश्चात्‌ उद्‍यान में जा आराम से एक स्थान पर बैठते हैं...

गीति -"मेरे स्वप्न का क्या होगा...?"

"कैसा स्वप्न...?"

"तुम्हारे संग जीने का... अर्थात्‌, विवाह का..."

"विवाह तो स्थिर जीवन में होता है...जबकि मेरा जीवन अभी अस्थिर है...कुछ भटका हुआ सा भी है..."

"तब भी...मैं कामना करती हूं...तुम्हारा सब अच्छा-अच्छा हो जाये..." वह सरण के कन्धे पर सर टिकाये, कल्पना में, सरण के प्रति प्रेम भरा गीत गा रही है...-तुमसे ही...तुमसे ही मेरा जीना है...तुम पर ही मुझे मर जाना है...तुम्हीं मेरे संसार...तुमसे ही मुझे सब पाना है..."

 

जीवन सरण से मिलता है और कहता है -"तुम जाकर स्यन्दन से मिलो, और उसे राजनीति में वापस लाने का सफल प्रयास करो...अर्थात्‌ उसे ले ही आओ...वह मेरी पार्टी से विधायक है..."

कोई चार सौ किलोमीटर दूर है स्यन्दन की कृषि भूमि...गीति के अतिरिक्त अन्य चारों वहां पहुंचते हैं...स्यन्दन को देख वे आश्चर्य करते हैं कि वे तो उससे पहले मिल चुके हैं...वे जब स्यन्दन से राजनीति छोड कृषि करने लग जाने का कारण पूछते हैं तो स्यन्दन केवल इतना ही बताया कि - "राजनीति के वायुमण्डल में जीना मुझे रुचा नहीं...जबकि कृषि के इस वायुमण्डल में जीना मुझे बहुत रुचता (पसन्द आता) है..."

अमर -"आपने पिछले बार मिलने पर बताया था कि किसी नेता ने आपसे विश्वासघात किया था...कौन है वह...?"

स्यन्दन इसे टाल जाता है वह कौन है...अर्थात्‌ छिपाये रखता है...स्यन्दन उन्हें अपना कृषि और फलोद्‍यान का क्षेत्र दिखलाता है....कि कृषि कार्य वहां कितने आकर्षक रूप में चल रहा है...विविध प्रकार के फलों के पौधे और वृक्ष वहां बढ रहे हैं...सब्जियां तो अभी ही वहां पर्याप्त उग रही हैं....क्रेता लोग यहां आकर सब्जियां क्रय कर ले भी जा रहे हैं...समक्ष (सामने) कुछ श्रमिक (मजदूर) शस्यों (फसलों), फलों, और सब्जियों के पौधों को पानी दे रहे हैं...इस प्रकार वहां का दृश्य बहुत मनोहारी(mind becomes engrossed  in what) और रमणीय(enjoyable) था...चारों को बहुत प्रसन्नता हुई उस वातावरण में....

सरण -"यूं तो यहां का वातावरण इतनी प्रसन्नता देता है कि नगर का सारा वातावरण कुछ दुःख जैसा जान पडता है इसकी तुलना में...तब भी, स्यन्दन जी, मैं आपसे यह कहना चाहुंगा कि यहां के संग-संग नगर का भी काम देखते सम्भालते रहें....क्या यह बुरा होगा यदि ऐसा हो तो...?"

"हां...बुरा होने की आशंका है...क्योंकि यह जो मन है वह एक बार में केवल एक ही स्थान पर केन्द्रित हो पाता है...आपने तो सुना होगा- एक को मनाओ तो दूजा रूठ जाता है..."

"पर कितने ही लोग एक साथ कई कार्यों का उत्तरदायित्व उठाये रखते हैं, और सफल भी होते हैं...क्या कहेंगे उनके सम्बन्ध में आप...?"

"मन तो एक समय में केवल एक ही स्थान पर केन्द्रित हो पाता है...अन्य स्थानों या उत्तरदायित्वों पर उनके अधीन काम करने वाले मैनेजर, औफिसर आदि उन-उन स्थानों पर अपने मन को लगाये रखते हैं...स्वामी (मालिक) तो कभी-कभी देख आया करते हैं..."

"तो आप भी यहां अपना कोई मैनेजर या कर्मचारी रख दें जो आपका यहां का काम भलीभांति सम्पन्न करवा दिया करेगा...और आप अपना मन नगर में लगायें..."

"हां...यदि कोई इतना विश्वसनीय कर्मचारी मुझे मिला तो...और वह यदि मुझे यहां मिलनेवाली प्रसन्नता भी वहां मेरे समीप भेज दिया करे..."

"यह हो सकता है कि यहां के वातावरण से आपकी कुछ दूरी हो जाये...तब भी यह आपके मन पर निर्भर करता है...जिसे आप बहुत प्रेम करें वह २४ घण्टे आपके मन में छाया रहता है...वैसे, जीवन सर ने बताया है कि आप पार्टी के लिये बहुत लाभदायक रहे हैं...और अभी पार्टी को आपकी बहुत आवश्यकता भी है..."

"आइये...हमलोग कुछ फलाहार लें..." श्रमिक उन सब के लिये काटकर कुछ फल लाता है...वे खाते हैं, प्रशंसा करते हैं...

सरण -"मैं स्वयम्‌ भी ऐसे वातावरण में रहना पसन्द करता हूं...किसी भी अच्छे व्यक्ति को ऐसे वातावरण में रहना रुचेगा...पर यदि किसी अन्य स्थान पर कुछ समय के लिये जाना पडे, तो वहां जाना भी रुचेगा...केवल चुनाव तक भी यदि आप पार्टी का साथ दें, तत्पश्चात्‌ यहीं रहें...सर ने कहा है कि जितना भी लाभ पार्टी को आपके कारण होगा, उसी अनुपात में उतना ही लाभ आपको ऐट्लीष्ट लाखों रुपये मिलेंगे....इससे आप यहां और भी समृद्‍ध रूप में रह सकते हैं...जैसा आप निर्णय लें..."

इस प्रकार बहुत तर्क और अनुरोध करने पर स्यन्दन नगर आने को तैयार हो गया- "अभी चार-पांच दिनों पश्चात्‌ मैं स्वयम्‌ ही जीवन जी से बात करूंगा...तबतक यहां की व्यवस्था कौन सम्भाले, यह निर्णय मुझे लेना है..."

तब चारों वहां से चल पडते हैं और जीवन को इस बात की सूचना फोन कर देते हैं...सुनते ही जीवन अति प्रसन्न हो तुरत बस पकड स्यन्दन से मिलने पहुंच जाता है...स्यन्दन -"मुझे चिन्ता मात्र इस बात की है कि मेरे इस कृषि क्षेत्र को अपना जैसा कौन सम्भालेगा, यहां की व्यवस्था भलीभांति करता रहेगा मेरी अनुपस्थिति (ऐब्सेन्स) में...तबतक...?"

जीवन -"अरे, यह तो बहुत ही साधारण चिन्ता है जिसका समाधान मैं अभी कर देता हूं...मेरे दो विश्वसनीय कर्मचारी हैं जो यहां की  सारी व्यवस्था भलीभांति सम्भालेंगे...बुलाउं...?"

स्यन्दन के स्वीकार करने पर जीवन उन्हें फोन कर देता है...रात जीवन वहीं बीताता है...प्रातःकाल होते-होते वे कर्मचारी भी वहां अपनी आवश्यक वस्तुओं के संग पहुंच जाते हैं...जीवन को भी स्यन्दन की यह कृषि भूमि रुचती है...वह वहां का आनन्द-भ्रमण करता है और फल आदि का स्वाद लेता है..स्यन्दन उन दोनों को वहां की सारी व्यवस्था समझाता है, उनके खाने-रहने की व्यवस्था बताता है...उन्हें बताता है कि समय-समय पर यहां आकर वह मिलता देखता रहेगा...जीवन तब विना विलम्ब किये स्यन्दन को अपने संग लेते जाता है...स्यन्दन पार्टी कार्यालय में रहता है, और अब अधिकतर समय सरण की संगति में बीताता है क्योंकि उसे सरण की जीवनशैली और विचार बहुत प्रिय (पसन्द) हैं...इस प्रकार सरण आदि के पांच का समूह अब छः का हो चला था...

स्यन्दन -"यदि एक बार लोगों को समझाने से वे न समझें तो हमें दूसरी बार, और तीसरी बार भी प्रयास करने चाहिये...यदि दूसरे तीसरे बार प्रयास करने का मन नहीं बन रहा हो, तो भी कोई बात नहीं...प्रयास हमें तब भी करना है...क्या सोचकर...! इस बार यह जानते हुए भी कि हो सकता है इससे हमें समाज-सुधार में सहायता न मिले, पर इन कार्यों से हमें जनता का ध्यान अपनी पार्टी की ओर आकर्षित करने में, वोट-प्रतिशत बढाने में सफलता निश्चित रूप से पानी है..."

सरण -"यह तो बहुत अच्छी समझ की बात रही...एक पन्थ दो काज...दोनों ही लाभ होंगे..."

 

इस बार के कैम्प में विशेष ध्यान पानी के महत्त्व पर था...किस प्रकार पानी व्यर्थ होता है, यह न होने पाये...पेय जल के स्रोत....भूजल का स्तर निरन्तर नीचे और नीचे गिरता चला जा रहा है...कुछ वर्षों पश्चात्‌ बोरिंग से भी पेय जल मिलना सम्भव न हो पायेगा...तब मानव कैसे जीयेगा और जीवन अस्तित्व में कैसे रह पायेगा...? इत्यादि...

एक परिवार के सदस्यों के समक्ष जब ये बातें कही गयीं तो वे घबडा गये और बोले कि अब वे पानी एक चुल्लु भर भी व्यर्थ नहीं जाने देंगे...सरण का हैण्डबैग उसी आवास में छूट गया था...कुछ समय पश्चात्‌ जब वह उसे लेने आया तो पाया वहां वे बहुत पानी व्यर्थ में भूमि पर बहा रहे थे...हैण्डबैग जहां रखा था वहां से उठा उसे दे दिया गया...पर जब उसने पानी के दुरुपयोग पर आपत्ति की, तो वहां उपस्थित किसी ने कहा कि यह उनका पानी है और वे चाहे जैसे उसका उपयोग करें...और किसी भी ने उसकी बात मानने में रुचि नहीं दिखायी...एक छोकडे ने कहा -"आपलोगों का काम है हमलोगों को बताना, पर हम मानते हैं या नहीं यह हमपर निर्भर है...ये देखो, हमलोग गुटखा भी खाते हैं, और कितना भी बोलो, हमलोग सुन लेंगे पर छोडेंगे नहीं...ये देखो...पैकिट पर चित्र भी बना है कि गुटखा खाते रहने से जबडा गल जायेगा -मुंह सारा बिगड जायेगा...हो सकता है मुंह काम करना बन्द कर दे...पर हमारा भी मन पूरा बना है कि हम गुटखा खाते ही रहेंगे चाहे इसका जो परिणाम हो..."

सरण ऐसा सुन आश्चर्यचकित रह गया...उसने तुरत मोबाइल से राघवेन्द्र सर को फोन किया और यह घटना बतायी...उनने कहा -"धर्म या अध्यात्म के पथ का अनुसरण कर, या ईश्वर में सच्चे विश्वास से ही जीवन जीने को महत्त्व मिलता है...धर्म/अध्यात्म के अभाव में जीवन जीने का महत्त्व डूबने लगता है...जैसा कि उस युवक के समक्ष रुपया कमाने के अतिरिक्त कुछ अच्छाई, सदाचार, या सच्चे धर्म में विश्वास इत्यादि का आदर्श नहीं था...अतः जीवन का मार्ग प्रकाश को छोड अन्धकार की ओर मुडने और उसमें खो जाने को आतुर है...इसी कारण उसने ऐसा कहा...रुपये से हमें कभी भी ऐसी प्रेरणा नहीं मिलती कि हमें अच्छा करना चाहिये और बुरा नहीं करना चाहिये...ऐसी प्रेरणा हमें ’सच में किसी ईश्वरीय शक्ति’ में विश्वास करने से मिलती है...केवल रुपयों को ही जीवन का लक्ष्य मानने वाला मनुष्य जिस किसी मार्ग पर निकल जा सकता है, और किसी भी दिन किसी भी समय अपने ही जीवन को हानि पहुंचा दे सकता है...धर्म में मनुष्य का विश्वास यदि सच्चा हो तो वह मनुष्य को संयम, विकास, उत्साह, चरित्रवत्ता, प्रसन्नता आदि अच्छाइयों में बान्धे रखता है...धर्म/अध्यात्म का बन्धन छूट जाने पर मनुष्य बिखरने लगता है...कभी भी वह नाश को प्राप्त हो जा सकता है..."

"और जो लोग अपने धर्म के सच्चे अनुयायी होने का दावा करते हुए हिंसा - हत्या और आतंक फैलाते हैं, वे...?"

"वे धर्म नहीं, अधर्म का पालन कर रहे होते हैं, पर उन्हें भ्रम होता है कि वे ऐसा कर स्वर्ग जायेंगे...उन्हें नरक की अग्नियों में कठोर दण्ड ही मिल सकता है..."

 

सरण के मन पर इस घटना का और राघवेन्द्र सर के स्पष्टीकरण का विशेष प्रभाव पडा...उसने सोचा, धर्म के पथ का अनुसरण तो वह भी नहीं कर रहा है...अर्थात्‌ वास्तविक विकास के पथ पर वह भी नहीं चल रहा है...उसने अभियान के अन्य सदस्यों को कहा -"अभी मैंने उनलोगों का जो बिगडा रूप देखा उसके पश्चात्‌ मेरा मूड बहुत बिगडा हुआ है...तुमलोग अभियान में लगे रहो...मैं अपने कक्ष में जा रहा हूं...कुछ समय शान्ति से बीताउंगा...”

वह कक्ष में जाकर राघवेन्द्र सर के बताये अनुसार पद्‍म आसन में बैठ मुक्तात्मस्वरूप और ब्रह्‌मात्मस्वरूप के ध्यान का प्रयास करता है...वह उनकी बतायी ध्यान विधि का पुनः अध्ययन करता है और वैसे ही ध्यान एकाग्र करने का प्रयास करता है...मन को सांसारिक सुखों से पूर्णतया हटा लेने का प्रयास करते हुए स्वयम्‌ को प्रकाश के गोले के रूप में कल्पना करने का प्रयास करते हुए ध्यान करने का प्रयास करता है...मन से सभी सांसारिक सुखों की कामना छोड देने का जब उसने मन बनाया तो उसके मन को बहुत आराम और आनन्द-सा अनुभव हुआ...वह कुछ मिनटों पर्यन्त (तक) ऐसा ध्यान कर ऊंघने लगता है और लेट सो जाता है....एक घण्टे पश्चात्‌ उसकी नीन्द खुली तो वह पुनः ध्यान की धारणा में संलग्न होने का प्रयास करने लगता है...कुछ मिनटों पश्चात्‌ कौलबेल बजती है...उठकर जा देखता है तो पाता है कि गीति आयी थी...

"तुम्हारे विना कैम्प में मेरा मन नहीं लग रहा था...यद्‍यपि अन्य सभी अभी भी उत्साह से लगे हैं..."

सरण ने विचारा -’सम्भवतः वोट बढाने का ही उनका इण्टेन्शन है...’ और बोला -"गीति, तुम भी राघवेन्द्र सर के बताये अनुसार ध्यान लगाने का प्रयास करो और देखो कैसी अच्छी अनुभूति होती है...."

दोनों ध्यान की अवस्था में बैठे हैं...संकल्प कर रहे हैं सांसारिक सुखों से अपना सम्बन्ध पूर्णतया तोड केवल मुक्ति की कामना करने का...कुछ मिनटों पर्यन्त प्रयास करते हुए वे पाते हैं कि जितना ही अधिक वे सांसारिक सुखों से अपना सम्बन्ध तोड लेने या मन हटा लेने भी का प्रयास करते हैं उतना ही उनका मन सांसारिक सुखों के प्रति खिंचने लगता है...सरण और गीति एक-दूसरे के प्रति भी आकर्षण अनुभव करते हैं...ऐसे में जब दोनों ने यौन आनन्द से अपना मन पूर्णतया हटा लेने की धारणा की तो उनकी काम वासनायें और भी भडक उठीं, और कुछ ही क्षणों की हिचकिचाहट के पश्चात्‌ वे दोनों सम्भोगरत हो गये...परस्पर यौन सम्बन्ध बना दोनों ही को बहुत आनन्द आया...पर ध्यानसाधना का ऐसा परिणाम क्यों मिला...? सरण ने तुरत राघवेन्द्र सर को फोन किया और सारी बात बतायी...

राघवेन्द्र -"मेरा यह स्पष्ट कथन है कि मुक्तात्मस्वरूप और ब्रह्‌मात्मस्वरूप के ध्यान में पुरुषों के लिये स्त्री, और स्त्रियों के लिये पुरुष गड्ढे जैसे हैं...अतः दोनों को ध्यान अलग-अलग ही लगाना चाहिये...अब मेरा परामर्श यही है कि तुमदोनों विना विलम्ब किये एक-दूसरे से विवाह कर लो...तत्पश्चात्‌ संग बैठ ध्यान लगाया करो...तुम्हें अपनी कामवासना पर विजय प्राप्त करने में सफलता मिल सकती है..."

 

गीति ने अपने परिवार को पूरी बात बतायी और विना विलम्ब किये सरण संग विवाह की तीव्र इच्छा जतायी...दोनों ही के अति इच्छुक मन को देखते हुए गीति के परिवार वालों ने एक मन्दिर परिसर में सादे ढंग से दोनों का विवाह सम्पन्न करवा दिया...उन लोगों को सरण बहुत पसन्द था पर उसका धनोपार्जन न करता हुआ होना ही सबके मन में खटक रहा था...गीति ने जब सभी लोगों की यह चिन्ता सरण को बतायी तो, सरण - "तुम्हें मैं वचन दे रहा हूं...जितना शीघ्र सम्भव हो सकेगा, मैं इस समस्या का समाधान कर दूंगा...बहुत दिन नहीं लगेंगे..."

गीति चाहे तो सरण के संग रहे अथवा अपने पिता के आवास में उसके अपने कक्ष में रहे यह उसपर निर्भर था...यह अनुमति थी उसे दोनों ही ओर से...विवाह के समय एक गीत का आरम्भ हुआ जो विवाह पश्चात्‌ गीति के सरण के फ्लैट में रहते हुए भी चल रहा है जिसमें गीति सरण के धनोपार्जन करते हुए पहले से कहीं अधिक अच्छे फ्लैट में पर्याप्त सुखद स्थिति में रहते हुए होने की कल्पना कर रही है...गीति यह गीत सरण संग बहुत ही सुखपूर्वक जीते होने की कल्पना करती गा रही है...

 

सरण ने धनोपार्जन के सम्बन्ध में अपनी चिन्ता जीवन को बतायी...

जीवन -"अब चुनाव में कितने मास बीतने और रह गये हैं...? तुम्हारा विधायक बनना निश्चित है...तबतक पार्टी की जनता पर पकड और भी बली बनाने में लगे रहो...और हां...धन की जो आवश्यकता है....वह स्यन्दन जैसा ही पेमेण्ट तुमलोगों को भी करुंगा....केवल तुमलोग काम करके दिखाओ...क्या किया और कितने व्यक्तियों को अपनी पार्टी में लाया...किसी भी एक प्रभावशाली व्यक्ति, जिसके पीछे कम से कम सौ और व्यक्ति भी अपनी पार्टी में आ जायें, को अपनी पार्टी में लानेपर एक लाख रुपये मिलने निश्चित हैं....हां...पेमेण्ट लाखों में मिलेंगे... तुमलोग रुपयों की चिन्ता न करो...."

सरण खडा चिन्तित हो रहा था कि न जाने कब ये रुपये मिलेंगे...? जीवन ने उसके मन को पढ लिया और बोला - "ऐसा है...परसों तुम पांचों मुझसे पार्टी कार्यालय में मिलो...अभी तक कितने व्यक्तियों को अपनी पार्टी में ला चुके उनके विवरणों के संग...तुम सभी को तुरत पेमेण्ट मिलेगा..."

 

सरण ने अब निश्चित रूप से समाज के सुधर ही जाने की आशा न करते हुए केवल सावधान करने अपनी पार्टी की पहुंच अधिक से अधिक बढाने-फैलाने में अपना मन लगाया...गीति अब पहले से बहुत कम ही समय अभियान में देने लगी, और वह भी तभी तक जबतक सरण संग उसके वहां है...

विकास पार्टी के बढते-फैलते प्रभाव को देख अन्य राजनीतिक पार्टियां घबडायीं...क्योंकि अन्य पार्टियां केवल जनता के लिये लाभदायक घोषणायें करके, या दो समुदायों को लडवाकर पुनः शान्ति स्थापित करने और भयमुक्त समाज देने का चुनावी वचन देने, या क्षेत्रवाद आदि ऐसी ही कई चतुरायियों से वोट पाने का प्रयास करती रहती थीं...जबकि जीवन की विकास पार्टी समाजसुधार के नाम पर अच्छा नाम कमा रही और जनता में अधिक से अधिक दूर तक की पहुंच-पकड बनाती चली जा रही है...

जीवन -"मैं अगले मास अन्त तक में यहां राजधानी में अपनी पार्टी का राज्यस्तरीय सम्मेलन या रैली आयोजित करने जा रहा हूं...इसके लिये तुमलोगों  को अन्य नगरों में भी अभियान कैम्प आयोजित करने होंगे...और हां, रुपये...स्यन्दन के संग मेरा अलग ही रुपयों का लेना-देना है, पर तुम पांचों के लिये मैं दो लाख रुपये दे रहा हूं...अभी तक जितने भी व्यक्ति तुमलोगों के कारण पार्टी में आये हैं इस नाम पर...और आगे के अभियान कार्यों में जितने भी रुपये व्यय होंगे, अगले दिन ही तुमलोगों को उन रुपयों से कहीं अधिक का पेमेण्ट मिल जाया करेगा...हो सकता है, यह पेमेण्ट का कार्य स्यन्दन किया करे...राज्य के सभी नगरों और कुछ उपनगरों में भी अभियान आयोजित करने होंगे...मैंने इन सभी स्थानों पर अपनी पार्टी की पकड बना रखी है...पर अब यह पकड इतनी बली बनानी है कि यह जीत दिला दे...सभी स्थानों पर श्टेज आदि की व्यवस्था मैं करवा रहा हूं...मेरे भाषणों का आलेख सरण और स्यन्दन लिखेंगे...कुछ अन्य भी नेता हैं अपनी पार्टी के जो भाषण देंगे..."

 

इसके पश्चात्‌ बडी ही व्यस्त दिनचर्या हो गयी छहों की...सरण ने दो लाख रुपयों के समान पांच भाग चालीस-चालीस सहस्र (हजार) रुपये किये सरण, गीति, अमर, ईशान, और फणीश के नाम पर और बांट दिये...यह उनलोगों का प्रथम बार पार्टी से हुआ आर्थिक लाभ था...तब भी, अब गीति के लिये आराम के ही दिन थे, क्योंकि वह यहां राजधानी में होनेवाले कार्यक्रमों में ही भाग लेगी...बाहर के नगरों में अन्य पांचों जायेंगे...

समय से सभी प्रस्थान कर जाते हैं सूची पर लिखे प्रथम नगर को...प्रथम दिन पांचों का अभियान -कैम्प -जनजागरण चलता है...इसमें पार्टी के कुछ अन्य भी सभ्य-से सदस्य उत्साहपूर्वक लगे रहते हैं...नगर बडा होने के कारण यहां दो दिन अभियान रखा गया है, और तीसरे दिन रैली या भाषण...तीसरे दिन भाषण में श्रोताओं की अच्छी संख्या जुटी नगर से और ग्रामों से...जीवन ने पार्टी सदस्यों को सुदूर ग्रामों से भी लोगों को रैली में लाने को भेजा था...सरण, स्यन्दन, तथा कुछ अन्य पार्टी नेताओं ने भी रैली की भीड को सम्बोधित किया...जीवन ने जनता को यह विश्वास दिलाया कि यदि उनकी पार्टी का शासन आया तो रामराज्य आ जायेगा...इतना सुखी, सम्पन्न और सुमार्गगामी होगा राज्य...

कोई डेढ मास के राज्यव्यापी अभियान से जीवन की विकास पार्टी पूरे राज्य के नागरिकों  के विशेष चर्चा का विषय बन गयी थी...लोगों की समझ में विकास पार्टी के सबसे बडी पार्टी के रूप में उभर आने की सम्भावना दिखने लगी थी...शासक पार्टी और मुख्य विरोधी दल दोनों ही ने विकास पार्टी को अपने पक्ष में लाने के प्रयास आरम्भ किये...उन्होंने जीवन से मीटिंग की तथा एक गठबन्धन बना चुनाव लडने की बात कही...मुख्यमन्त्री स्वयम्‌ आया जीवन के पार्टी कार्यालय...इस समय सरण आदि पांचों भी उपस्थित थे...जीवन के संग मुख्यमन्त्री की केवल औपचारिक ही बातचीत हो पायी...जीवन ने उससे सरण और स्यन्दन की बहुत प्रशंसा की कि इन दोनों के कारण ही आज पार्टी का महत्त्व इतना अधिक बढ गया है...मुख्यमन्त्री की पारखी दृष्टि से सरण और स्यन्दन की गुणवत्ता छिपी न रह सकी... वहां से जाने के पश्चात्‌ मुख्यमन्त्री ने सरण और स्यन्दन को अपने सहायक द्‍वारा उसकी पार्टी में बडे पदाधिकारियों के रूप में नियुक्ति का प्रस्ताव भिजवाया...पर दोनों ने इसे विना विचार किये अस्वीकार कर दिया...तब मुख्यमन्त्री ने इन दोनों के सम्बन्ध में सारी जानकारियां प्राप्त कीं...इस समय तक में विकास पार्टी का राज्यस्तरीय सम्मेलन या रैली सम्पन्न हो चुकी थी...इसमें कोई दो लाख व्यक्ति पूरे राज्य से आये थे...

अब चुनाव होने में कुछ ही दिन शेष रह गये थे...सरण और स्यन्दन भी विकास पार्टी की ओर से विधायक पद के लिये प्रत्याशी थे...एक दिन सरण आदि छहों राजधानी की एक एक बडी कौलोनी में अभियान और पार्टी प्रचार के उद्‍देश्य से गये...वहां के अधिकांश नागरिक शासक दल को वोट देते चले आ रहे थे...उस पार्टी के लोगों ने सरण आदि के संग अभद्रता से बातें करनी आरम्भ कर दीं...’क्यों आये यहां...? यदि वोट मांगना है तो वोट मांगो...ये समाजसुधार का नाटक क्यों कर रहे हो...? यह हमारा गढ है...पहले कभी नही आये यहां क्या...?" बढते विरोध को देखते हुए वे लौट गये वहां से, पर समाचारपत्रों, टीवी आदि को देने के लिये वीडियो-रिकौर्डिंग भी कर रहे थे...यह घटना विशेषकर टीवी पर देखी गयी...पर इससे विकास पार्टी का नाम और भी फैला, तथा जनता की सहानुभूति इस पार्टी के प्रति बढने लगी...अब सभी लोगों को तथा एग्जिट पौल से भी यही विश्वास होने लगा कि विकास पार्टी ही अगली सरकार बनायेगी...इसका कारण यह समझा गया कि विकास पार्टी जहां समाज में जनजागृति और समाजसुधार के कार्यक्रमों द्‍वारा वोट पाने का प्रयास कर रही है, वहीं अन्य पार्टियां जातिवाद, सम्प्रदायवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, झगडा-हिंसा, बलप्रयोग आदि को आधार बना वोट पाने का प्रयास कर रही हैं...चूंकि विकास पार्टी के पास बहुत शक्तिशाली पदाधिकारी और सदस्य कार्यकर्ता नहीं थे, अतः शासक दल ने पहले तो जीवन को साझे में चुनाव लडने का प्रस्ताव दिया, पर जब जीवन ने अपने बल पर चुनाव लडने की बात कही तो शासक दल ने निर्भयता से कहा -"आपकी पार्टीके लोगों का बल हमारी पार्टी के लोगों से बहुत ही कम है...तो दुर्बल होते हुए भी आप क्या बली से जीत जायेंगे...?"

जीवन चुप रहा...

पुनः -"आपका एक भी वोटर क्या वोट डाल पायेगा...?" इसी प्रकार शासक दल के लोग विकास पार्टी के कार्यालय में डराने-धंमकाने की बातें कह चले गये...

जीवन अपनी पार्टी के सभी मुख्य सदस्यों के संग मीटिंग कर रहा है....-"हमारी पार्टी की पहुंच बढती जा रही है जनता के मन में....पर हमारी व्यक्तिगत शक्ति मुख्य पार्टियों की तुलना में बहुत ही कम है...(कुछ रुककर)...पर यह भी है...कि शासन अपने हाथ में आनेपर सारी दुर्बलता चली जायेगी...हा हा हा...हमलोग भय छोड दें...और चलो जुट जाओ काम में...(सबको अब भी चिन्तित देख)...क्या बात है...? उत्साह नहीं जुट रहा तुमलोगों का...?...अरे केवल इतना करो कि अपनी ओर से हिंसा आरम्भ न होने दो...हमारे सम्पर्क में कई ऐसे सदस्य हैं जो पुलिस आदि में उच्च पदों पर हैं...पर...यही है कि मैं उनकी सहायता तभी लेना चाहता हूं जब कोई अन्य उपाय न रह जाये... ... अच्छा, एक उपाय है...मूड फ्रेश करने का...चलो तुम सब उठो...एक मेरी कार, और एक चुनावी कार्यों के लिये ली गयी कार, इन दोनों कारों में हम दसों चलते हैं एक होटेल..."

जैसा जीवन के द्‍वारा कहा गया उसे सभी ने गम्भीरता से लिया, और दोनों कार ले पहुंच गये एक बडा-सा आकर्षक होटल...अन्दर की कुर्सी, टेबल, आदि सारी व्यवस्था श्टैण्डर्ड क्वालिटी की थी...सभी ने स्थान ग्रहण किये...

जीवन-"यहां सामान्य भोजन, मांसाहार, आइसक्रीम आदि जो भी खाना चाहो, खाओ, खुलकर...पैसे की चिन्ता न करो...दो-चार-पांच हजार रुपये लगेंगे, और क्या...ये मेरे द्‍वारा दी गयी पार्टी है..."

देखते ही देखते मरे जैसे दिखते मुखडों पर धीरे-धीरे प्रकाश आने लगा...सभी ने मीनु देखना आरम्भ किया...उनके मंगाये आइटम्स आये...वे गप्प मारते खाने लगे...खाना समाप्त होते - होते सभी अप्रसन्नता भूल चुके थे...अब सभी ने आइसक्रीम खायी...

जीवन ने एक कर्मचारी की ओर संकेत कर कहा - "इन सभी का, और मेरा भी, जितने का बिल बनता हो सब मेरे खाते में डाल दो..."

कर्मचारी -"सर, यह तो आपका ही होटल है...तो आपका खाता कैसे होगा...?"

जीवन -"हूं...तब भी...यह विवरण तो होना ही चाहिये कि मेरे माध्यम से कब कितने का क्या-क्या खाया गया..."

"जी सर, अभी नोट करता हूं..."

सभी आश्चर्य से -"सर...ये आपकऐ होटल है...?"

जीवन मुस्कुराया -"हां...किसी को बताया नहीं....क्योंकि, उसी बात का भय था जो तुमसब अभी देख रहे हो...तो मेरा यह व्यवसाय कैसे चलता...? पर अब मुझे वह भय नहीं है...चलो..."

 

सरण गीति से बात कर रहा है अपने आवास में - "यह राजनीति...मेरी रुचि का विषय नहीं है....सभी अच्छे-बुरे हथकण्डे अपनाकर जिस-किसी प्रकार से चुनाव जीतने का प्रयास किया जाता है...तत्पश्चात्‌ जितने कितने भी अनुचित उपायों से रुपयों पर रुपये अपने हाथ करते रहने का प्रयास करते रहा जाता है...इसके लिये...जो भी हिंसा या मर्डर तक भी करना-करवाना पडे -सभी औप्शन्स खुले हैं राजनीति के खिलाडियों के लिये...ओह्‌...!...मैं कहां जा रहा था, और कहां चला जा रहा हूं....?"

गीति कुछ न बोल सकी, पर उसके कन्धे पर अपना हाथ रख सर टिकाया और धीमे से बोली -"जो भी करो, निर्णय तुम्हें ही लेना है...मैं सदा ही तुम्हारे संग चलने को तैयार हूं..."

गीति एक समर्पण का प्रेमगीत गा रही है...’तेरी बांहों में प्रियतम...’

 

विकास पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिये दिन अब सुख-शान्ति के न रह आशंकाओं और सावधानी के हो चले थे....अन्य पार्टियों की कुदृष्टि कब कैसे उनपर पडती है इस बात को लेकर वे सभी सदा आशंकित बने रहते थे...

आज चुनाव में केवल चार दिन शेष रह गये हैं....सभी पार्टियों का चुनाव-प्रचार पूरी गति से चल रहा है...

जीवन -"आज गीति, तुम भी चुनाव प्रचार में चलो...तुम्हें भाषण देना है...पूछो क्यों...मैं बताता हूं...तुम्हें एक महिला सम्मेलन को सम्बोधित करना है....यहां पूरे राज्य से अच्छी पहुच-पकड वाली स्त्रियां एकत्र हुइ हैं...यदि उनका मन जीत लिया तो पूरे राज्य में अपनी पार्टी की पहुंच और भी बली होगी...वहां तुम्हें पार्टी की अन्य स्त्री सदस्यों का समर्थन मिलेगा...सरण और स्यन्दन, तुमदोनों गीति के भाषंण का आलेख तैयार करो..."

सरण और स्यन्दन ने सुशीघ्र गीति के भाषण की सामग्री लिख डाली...सायम्‌ सात बजे भाषण देना है...इसके लिये पांच बजे सरण, गीति, स्यन्दन, और जीवन   तथा पांच अन्य स्त्री सदस्य उस सम्मेलन स्थल की ओर चल देते हैं...अभी सात बजे गीति आदि का भाषण आरम्भ हो उससे पूर्व ही जीवन को फोन आया कि विरोधी पार्टी के गुण्डों ने पार्टी कार्यालय पर आक्रमण किया और तोडफोड मचायी, गालियां बकीं, जिसमें अन्दर उपस्थित दो सदस्यों को चोट भी आयी है...कार्यालय की बुरी स्थिति हो गयी है...कहीं-कहीं आग भी लग गयी है...

जीवन-"आग भी लगी है तो बुझाओ...देख क्या रहे हो...?"

"सर, अभी भी भय है आक्रमण का...अन्दर दोनों कार्यकर्ता चोट खा भी भय से छिपे हैं जबकि मैं किसी प्रकार जान बचा भागा वहां से..."

जीवन- ”हमलोग क्या अभी कार्यालय चलें...?"

स्यन्दन -"आपका यहां होना अभी बहुत आवश्यक है...पार्टी अध्यक्ष न हो तो भाषण का उतना अच्छा प्रभाव नहीं पडेगा उनपर जितना होना चाहिये..."

जीवन -"तब तुम्हीं लोग फटाफट वहां पहुंचो...मैं पुलिस को, और प्रेस को भी सूचित कर दे रहा हूं...साथ में एक डौक्टर भी ले पहुंचो..."

सरण -"स्यन्दन, मैं भी तुम्हारे संग चल रहा हूं...सर, आप रुकें यहीं हमदोनों के लौट आने तक..."

चलते समय सरण ने अमर, ईशान, फणीश को फोन कर कार्यालय बुलाया...वहां पहुंच वे पांचों यथासम्भव कार्यालय की व्यवस्था ठीक करने का प्रयास करते हैं...डौक्टर ने दोनों चोट पाये कार्यकर्ताओं को मल्हम-पट्‍टी की...सरण ने जीवन को फोन किया...

जीवन -"अभी, भाषण आरम्भ होने में विलम्ब हो गया...और साढे आठ बजे गीति ने बहुत ही आकर्षक रूप में सम्मेलन को सम्बोधित किया और पार्टी का कार्य और महत्त्व श्रोताओं को समझाया...अब मैं भाषण दे रहा हूं...तुम्हारा कौल देख मध्य में ही भाषण रोक तुमसे बात कर रहा हूं..."

यह सुन सरण ने तुरत कौल डिश्कनेक्ट किया...सम्मेलन स्थल से कार्यालय की दूरी कार से प्रायः दो घण्टे की थी...अभी दस ही मिनट बीते थे कि जीवन ने सरण को फोन किया-"हमलोगों का काम यहां पूरा हो चुका है...तुमदोनों अभी यहां आओगे...? क्या करना है...?"

सरण ने स्यन्दन से पूछा तो स्यन्दन बोला-"अभी वहां पहुंचने में ग्यारह-बारह तो बज ही जायेंगे...अच्छा तो यह होगा कि सर सबको अपने साथ लेते आयें..."

जीवन-"हां...ये सभी मेरे कार में आ जायेंगी...मैं सबको साथ लेते आता हूं....आ रहा हूं...नहीं...साथ लेते चलता हूं....मार्ग में इन्हें इनके आवास छोडता कार्यालय पहुंचता हूं.... तुम भी सरण अच्छा रहेगा कि अपने आवास जाओ...गीति तुम्हें वहीं मिलेगी..."

 

सरण ने स्वीकृति में सर हिलाया और वह अपने आवास चला गया....सरण चिन्तित था गीति को लेकर...वह एक ग्लास पानी पीया और विस्तर पर लेट आराम करने लगा...देखते ही देखते उसकी आंखें लग गयीं...उसकी आंखें खुलीं...उसने सामने देखा...तत्पश्चात्‌ उसकी दृष्टि पूरे कक्ष में फैली...गीति कहीं भी उसकी दृष्टि में नहीं आयी...वाल क्लौक में देखा तो रात के एक बज रहे थे... सरण का हृदय चिल्लाया - "गीति...तुम कहां हो...?"

उसने गीति के मोबाइल पर कौल किया...पर यह तो स्विच्ड औफ बता रहा था...यही स्थिति जीवन के भी मोबाइल की भी थी...तीन-चार बार प्रयत्न करने पर भी कनेक्ट नहीं हुआ तो उसने स्यन्दन को कौल किया और यह बात बतायी...

स्यन्दन -"तुम घबडाओ मत...मैं अभी पहुंच रहा हूं तुम्हारे पास..." स्यन्दन भी गीति और जीवन के मोबाइल को कनेक्ट करने का प्रयास किया पर वह असफल रहा...उसने किसी प्रकार सरण को शान्त करने का प्रयास किया...-"धैर्य धारण करो...कहीं कोई दुर्घटना न घटी हो, केवल इतनी कामना करो...चलो चलते हैं सर के आवास...उसने पार्टी की कार में सरण को संग ले जीवन के आवास की ओर कार का गति बढायी...जीवन के आवास जाने पर जानकारी मिली कि सर तो अभी तक आये ही नहीं...तो कहां गये सर....? इसकी किसी को भी जानकारी नहीं...तब दोनों सम्मेलन स्थल की ओर चलते हैं...सरण को स्मरण आता है सरण और जीवन के संग के अन्य स्त्री सदस्यों का...पर उसके पास उनके फोन नम्बर्स तो हैं नहीं कि वह उनसे गीति के सम्बन्ध में पूछ सके...कार्यालय से ज्ञात हो सकता है....पर वहां आग में कई रजिष्टर आदि प्रपत्र जला डाले गये हैं...रात के चार बजे सम्मेलन स्थल पहुंचता है...हौल बन्द है...गार्ड बताता है कि रात दस बजे तक में ही सभी चले गये थे वहां से...

’अब क्या करुं...?’ सरण का मन रोने-रोने को हो रहा था...स्यन्दन ने उसे धैर्य देने लका प्रयास किया...प्रातः छः बजे तक में वे दोनों पार्टी कार्यालय लौट आते हैं...वहां दोनों कार्यकर्ता सो रहे थे...पूछने पर उन्होंने सभी सदस्यों के नाम-पते वाला रजिष्टर खोजने का प्रयास किया...कठिनाई से एक स्थान पर वह रजिष्टर अधजली स्थिति में मिला...उसमें ढूंढने पर बडी कठिनाइ से साथ गयी एक स्त्री सदस्य के फोन नं और पता मिले...फोन करने पर उसका भी मोबाइल स्विच्ड औफ मिला...ओह्...तो...अच्छा, पता भी है... तब सरण और स्यन्दन उस पते की दिशा में कार से चल देते हैं...वहां पहुंचने पर उस स्त्री ने बताया कि सर हमसभी को साथ ले रात साढे नौ बजे लौट चले थे...सबसे पहले उनने रीमा को उसके आवास के निकट पर मेन रोड पर छोडा...रीमा ने पहले ही परिवार वालों को फोन कर दिया था, अतः उसे लेने कोई वहां पहले से ही खडा था...वैसे ही मैंने भी फोन कर दिया था तो मेरे पति स्वयम्‌ ही मुझे लेने यहां से कुछ दूरी पर पहुंचे...मेरे पश्चात्‌ गीति आदि थीं...क्या वे अभी तक नहीं पहुंचीं....?"

सरण को सारा संसार घूमता जान पडा...पर स्यन्दन ने तुरत सरण को सम्भालते हुए उस स्त्री से पूछा -"क्या आपके पश्चात्‌ शेष स्त्रियों में किसी का फोन नम्बर, पता कुछ आपके पास है...?

उसने फोन डायरी चेक कर बताया कि उसके पास भी केवल सर और गीति जी के ही फोन नम्बर्स हैं...

"ओह्‌ नो...ये दोनों नम्बर्स तो अभी भी स्विच्ड औफ बता रहे हैं..." स्यन्दन ने पुनः डायल कर देखा..."ये लो...अब तो सूरज निकल रहा है...."

सरण - "पर मेरी आंखों का सूरज तो अब डूबता जान पड रहा है..."

स्यन्दन ने देखा सरण अब अस्वस्थ होता चला जा रहा है, उसका शरीर गर्म होता चला जा रहा है...उसकी आंखें बन्द रहना पसन्द कर रही हैं...वह उसे पार्टी कार्यालय ले आता है...सरण एक गद्‍दे पर लेटा है...दोनों कार्यकर्ता उसकी सेवा को तत्पर हैं...स्यन्दन एक डौक्टर को कौल करता है, डौक्टर उसका चेकप कर उसे बेडरेष्ट का परामर्श देता है....

स्यन्दन -"सरण, तुम यहां आराम करो...मैं सर के आवास उनकी जानकारी लेने जाता हूं..."

स्यन्दन वहां जाता है, पर जीवन अभी भी वहां नहीं पहुंचा है, न ही उसकी कोई सूचना है...ऐसी जानकारी उसे मिली...ऐसे में स्यन्दन लौट कार्यालय आता है और सरण को सोया पा दोनों कार्यकर्ताओं से सरण की पर्याप्त सुरक्षा और देखभाल की बात कह किसी परिचित के आवास जाने और दो-तीन घण्टे पश्चात्‌ पुनः लौट आने की बात कह चला जाता है...

प्रायः ग्यारह बजे स्यन्दन लौट कार्यालय आता है...सरण अभी भी सो रहा है...स्यन्दन आये हुए आज के समाचारपत्रों पर दृष्टि डालने लगता है...कल के सम्मेलन का समाचार जीवन और गीति के भाषणों के संग छपा था...जीवन का चित्र भी छपा था...स्यन्दन पढ रहा है...संग ही चिन्तन भी करने लगता है रुक-रुककर...सहसा उसे बाहर किसी कार के तीव्र गति से रुकने की ध्वनि सुनायी पडी...लगा जैसे धक्का लगते-लगते बचा हो...उसने वौल क्लौक की ओर देखा...पौने बारह बज रहे थे...स्यन्दन ने धीरे से समाचार पत्र एक ओर रखा, और बाहर जाकर देखा...तो जीवन की कार खडी थी...स्यन्दन गम्भीरता से कार की ओर बढा, और कार के अन्दर झांककर देखा तो ड्राइविंग सीट पर कोई नहीं था पर पिछली सीट पर जीवन लेटा था...तुरत उसने दोनों कार्यकर्ताओं को स्वर दिया (पुकारा)...कार के पिछले द्‍वार को खोला गया...जीवन के शरीर को खींचकर बाहर निकाला गया...जीवन के शरीर पर चोट के, जले के, और कुछ ऐसे ही चिह्‌न थे जैसे जीवन को पीटा भी गया था...तुरत जीवन के शरीर को कार्यालय के अन्दर ले जा गद्‍दे पर लिटाया गया...पुलिस और प्रेस को फोन कर सूचना दी गयी, तथा डौक्टर को भी बुलाया गया...तुरत यह बात पूरे राज्य में फैलने लगी...पुलिस के आने के पश्चात्‌ ऐम्बुलेन्स बुला जीवन को शीघ्र ही वहां से हौस्पीटल भेजा गया...सरण उसके सर के समीप ही घण्टों खडा रहा...जैसे ही जीवन को चेत (होश) आया, सर्वप्रथम सरण ने उससे यह पूछा कि गीति कहां है...?

जीवन - "जब मैं सभी स्त्री सदस्यों को उनके आवास छोड चुका था, केवल गीति ही शेष थी, तभी अन्य पार्टियों के गुण्डों ने मेरी कार घेर ली...उसके पश्चात्‌...आः आः....उसके पश्चात्‌ उनलोगों ने मुझे मारना आरम्भ किया...और धमकियां भी देने लगे...तब मैं अचेत (बेहोश) हो गया...उसके पश्चात्‌ मुझे यहां तुम्हारे समक्ष (सामने) ही चेत आया है...गीति कहां गयी यह मेरे लिये बहुत ही दुःख की बात है...मन करता है मैं आत्महत्या कर लूं क्योंकि मैं गीति को बचा नहीं पाया...आः आः (सुबकने लगा)...यह मेरा उत्तरदायित्व था कि उसे मैं सुरक्षित वापस पहुंचाउं...अतः मैं दोषी हूं....आः (कुछ आंसु भी जैसे छलके)...

सरण यह सुन सन्न रह गया...उसे इतना गहरा दुःख कभी नहीं मिला था...वह फूट-फूटकर रोने लगा...कोई आठ-दस मिनट वह रोता रहा, और समय किसी भी ने कुछ भी बोलने का साहस नहीं किया...सहसा सरण कुछ संयत हुआ, और अति विषण्ण (डिप्रेश्ड) हृदय और जलती आंखों से बोला -"जो भी हुआ हो...जैसी भी स्थिति में गीति हो...मैं उसे अपनाने को तैयार हूं...केवल वह मुझे मिल जाये..." वह ऐसे बोला जैसे वह गिडगिडा रहा हो गीति को पाने को...सभी उपस्थित व्यक्तियों को सरण से हृदय से सहानुभूति हुई...

 

मीडिया में विकास पार्टी के कार्यालय और अध्यक्ष पर हुए आक्रमण का समाचार अनवरत (लगातार) छाया रहा...अपराधी कौन है यह ज्ञात नहीं हो पाया है अब तक...केवल शासक दल पर अंगुलियां उठ रही हैं क्योंकि उसी ने जीवन को धमकाया था... पर इन घटनाओं से जनता की विकास पार्टी के संग सहानुभूति बढी...बच्चे भी विकास पार्टी का नाम लेते पाये गये...केवल तीन ही दिन शेष थे मतदान में, और विकास पार्टी के प्रचार का काम जैसे ठप्प हो चला था...तब भी इसके प्रत्याशी अपने-अपने बल पर वोट बटोरने के प्रयासों में लगे थे...पर इस पार्टी के दो प्रत्याशी ऐसे थे जो चुनाव प्रचार से दूर जैसे किसी अन्य ही संसार में जी रहे थे...एक थे सरण, और दूसरा जीवन...मतदान पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार समय से हुआ, और परिणाम भी सप्ताह भर में आ गया... स्यन्दन तो जीत ही गया था, सरण और जीवन भी जीत गये थे...विकास पार्टी को सबसे अधिक सीटों पर विजय मिला था, तब भी बहुमत से अभी बहुत दूर थे...क्योंकि कुल सीटों के ३४ प्रतिशत ही सीटें ही मिल पायी थीं, और अभी न्यूनतम (कम से कम)  १६-१७ प्रतिशत सीटों का समर्थन और चाहिये था शासन गठन (सरकार बनाने) के लिये...जीवन तो इसी जोड-तोड में लगा स्वयम्‌ को मुख्यमन्त्री की गद्‍दी पर बैठा होने की कल्पना कर रहा था, जबकि सरण की मानसिक स्थिति अब भी अवसाद को प्राप्त थी...

सरण की ऐसी दुःखद स्थिति में यद्‍यपि अमर, ईशान, फणीश, और स्यन्दन चारों उसका साथ दे रहे थे तथापि स्यन्दन उसका विशेष ध्यान रखता था...सरण गीति के संग बीताये गये क्षणों और दिनों का स्मरण करता हुआ विरह गीत गा रहा है और केवल उसी से मिलने को तरस रहा है...अन्तिम बार वह कब देखा था गीति को...उससे तब उसकी क्या बातें हुई थी...अब उसकी गीति से कोई बात क्यों नहीं हो पा रही है...? वह ऐसे ही सोचता दुःख पा रहा है....

स्यन्दन उसे उठाता है...कुछ पीने को देता है -"पी लो...यह पेय बहुत पौष्टिक है...विशेषकर तुम्हारे लिये मैंने इसे तैयार किया है...यदि मैं तुम्हारे खाने-पीने की चिन्ता न करूं तो तुम तो भूखे ही प्राण त्याग दोगे ऐसा लगता है...जहां तक मेरा मस्तिष्क तुम्हारी स्थिति का अध्ययन कर रहा है, यदि तुम्हें एक अच्छे होटल में कुछ स्वादिष्ट भोजन खिलाया जाये तो तुम्हें मानसिक प्रसन्नता मिल सकती है...और होटल कौन-सा...? सर के होटल से अच्छतर होटल और कौन है...चलो, वहीं चलते हैं...."

स्यन्दन सरण को बलपूर्वक जीवन के होटल ले चलता है पार्टी कार में....वहां दोनों एक टेबल किनारे बैठे हैं..."देखो, मैंने सर से यहां आने के सम्बन्ध में कोई बात नहीं की है कि हम आपके होटल खाने जा रहे हैं...क्योंकि जिस भय से उनने इतने लम्बे समय तक यह रहस्य बनाये रखा कि इतने अच्छे होटल के वे स्वामी (मालिक) हैं, मैं नहीं चाहता था कि उस भय को अब मैं उनके समक्ष लाकर खडा कर दूं..."

सरण चुप स्यन्दन के निर्णय अनुसार काम कर रहा है....

स्यन्दन -"क्या खाया जाये...?"

सरण की कुछ भी विशेष रुचि नहीं खाने में ...-"जैसा तुम चाहो..."

स्यन्दन -"हूं...मैं जो चाहुं...ठीक है...पर तुम्हें खाना होगा...भले ही वह मांस हो...यदि स्वीकार हो तो बोलो हां..."

सरण -(कुछ सोचकर)..."ठीक है..."

स्यन्दन - "हूं...वैरी गुड...देखो...मैंने बहुत सोच समझकर कुछ निर्णय लिया है इस सम्बन्ध में...और वह यह, कि केवल फल और जूस और हल्के भोजन खाते रहने से तुम्हारे मन की भावुकता इतनी बढी हुई है कि यह तुम्हारे लिये अभी हानिकारक बनी हुई है...और इसका उपचार यह है कि अभी तुम कुछ भारी खाओ...जिससे कि तुम्हारे अनियन्त्रित भावुकता पर नियन्त्रण लाने में...क्या जाने सफलता मिले...अतः तुम, नहीं, हम दोनों मांसाहार करते हैं...और इस सम्बन्ध में तुमसे पूछने की आवश्यकता तो है नहीं..."

सरण कुछ भी प्रतिक्रिया किये विना उसकी बात सुनते रहता है...

स्यन्दन -"हूं...तो, ठीक है...वेटर... ...मांसाहार में क्या आइटम्स हैं....?"

"सर...कई आइटम्स हैं...ये मीनु में देखें..."

"ये छोटे टुकडों वाली मांस-भुजिया ले आओ...दो प्लेट..." वेटर ला उनके समक्ष रखता है...

स्यन्दन सरण को खाना आरम्भ करने का संकेत करता है....सरण -"यह क्या...? केवल मांस...? इसके सग चावल या रोटी कुछ और भी तो होना चाहिये...?"

स्यन्दन -"हां...अवश्य होना चाहिये...मैं देख रहा हूं कि तुम्हारी खाने में रुचि जाग गयी है...पर मैं चाहता हूं कि तुम्हारी यह जागती रुचि पूरी जाग जाये...अतः अभी केवल मांस खाओ...चावल और रोटी तो खाते ही रहोगे...."

दोनों खा रहे हैं और स्वाद का अनुभव कर रहे हैं...

सरण -"यह फुल प्लेट मांस....क्या अधिक नहीं है...?"

स्यन्दन -"कोई बात नहीं...अभी खा लो...कहां हम प्रत्येक दिन आ रहे खाने टुकडी भुजिया...."

खाते-खाते सरण के मुंह में कुछ कडा आ जाता है...-"अरे यह क्या...? मांस में ईंट-पत्थर भी हैं...?" मुंह से निकालता है...और ध्यान से देखता है तो पाता है कि यह एक अंगूठी है...आश्चर्य...!...इतना ही नहीं...यह अंगूठी भी एक मानव-अंगुली को धारण कर रखी है...ओः नो...वह कुछ भीत (डरा हुआ) हो वह अंगूठी स्यन्दन को दिखलाता है...स्यन्दन भी स्तब्ध रह जाता है यह देख...-"इसका अर्थ यह हुआ कि यहां मानव-मांस भी परोसे जाते हैं....!"

"हां...पर...केवल यहीं क्यों...सभी ष्टैण्डर्ड के होटलों में यह बात होती होगी...यहां यह बात केवल लीक हो गयी...बाइ मिश्टेक... ...वैसे मैंने अभी तक यह सुना था कि मांस के नाम पर सूअर और गाय के मांस भी खिला दिये जाते रहे हैं होटलों में..."

"मैं इसे जरा धो कर देखता हूं...क्या और कैसी है यह अंगूठी...!" स्यन्दन उस अंगूठी को ले जा वाश बेसिन में धोता है...तो पाता है कि यह एक सोने की चमकती अंगूठी है...ओः...उसे ला सरण को देता है...सरण ध्यान से अंगूठी देख रहा है कि वह अंगूठी  उसे कुछ जानी सी लगती है...सोचता है इस अंगूठी को पहले वह कहां देखा होगा....निरीक्षण करता जब उसने अंगूठी के नीचे वाले भाग पर ध्यान से देखा तो पाया वहां कुछ लिखा है....क्या लिखा है....यह लिखा है....गीति...मैंने ऐसी ही उसका नाम खुदी अंगूठी गीति को भेंट की थी... "स्यन्दन, क्या यह वही अंगूठी है...?"

स्यन्दन -"रत्न उस अंगूठी में क्या जडा था...?"

सरण -"माणिक्य..."

स्यन्दन -"तो ऐसा है...पहले हम चल इस अंगूठी के रत्न की जानकारी लेते हैं किसी आभूषण या रत्नों के शौप में जाकर..."

पेमेण्ट कर स्यन्दन कार को आगे बढा एक आभूषण के शौप के आगे रोकता है...वहां रत्न भी हैं...रत्न जडनेवाले ने अंगूठी देख बताया कि इसमें जडा रत्न माणिक्य है...यह सुन सरण के ओष्ठ खुले रह गये, आंखें फैल गयीं, और उसे लगा जैसे उसे शौक लगा हो....वह वहीं गिरने लगा, पर स्यन्दन ने उसे पकडा, और ले चल कार में बिठाया, और कार्यालय ला उसे गद्‍दे पर आराम से लिटा दिया...संग ही कार्यकर्ताओं को सरण के विशेष देखभाल की बात कह बाहर निकला, और कार से सीधे वापस जीवन के होटल पहुंचा...वहां काउण्टर पर पहुंच स्यन्दन बोला- "आपलोग मुझे नहीं जानते होंगे, पर मैं बता दूं, मैं हूं स्यन्दन...जीवन सर के पार्टी से विधायक..."

"जी सर...हम आपकी क्या सेवा करें....?"

"मुझे एक जानकारी चाहिये...आपके यहां बनाये जानेवाले फूड-आइटम्स के सम्बन्ध में..."

"किस आइटम के सम्बन्ध में सर...?"

"छोटे टुकडों वाली मांस-भुजिया...किसने यह आज के लिये तैयार किया है...?"

"हमारे कुक्स हैं सर...वे तैयार करते हैं डिफरेण्ट फूड आइटम्स..."

"पर...मुर्गा या बकरा आदि के कच्चे मांस के टुकडे क्या यहां तैयार किये गये या बाहर से मंगवाये गये -पीस किये हुए...?"

"सर...इसकी जानकारी वो...राजु के पास है... ...ओ...जरा राजु को यहां भेजो..."

राजु आता है...उससे वही प्रश्न दुहरा दिया जाता है...

राजु -"मेरे पास दोनों ही औप्शन्स रहते हैं....पर आज ये मांस टुकडे -पीसेज मैंने यहीं तैयार किये...वो कुछ मुर्गे थे..."

स्यन्दन - "यदि राजु मेरे साथ चले तो...मुझे कुछ काम है इससे..." राजु चुपचाप स्यन्दन के पीछे चलता उसके संग कार में बैठता है...स्यन्दन उसे ले पार्टी कार्यालय पहुंचता है...वहां अमर, ईशान, फणीश सरण के संग बातें कर रहे हैं...और सरण उन्हें वही बातें बता रहा है...

स्यन्दन -"ये देखो...कौन है यह...वही जिसने आज सर के होटल में मांस भुजिया के पीसेज तैयार किये थे...इसके अनुसार वे टुकडे मुर्गों के थे..."

अमर -"पर हमने आज तक न तो देखा न ही सुना कि मुर्गे अंगूठियां पहनते हैं...यह अंगूठी कैसे उसमें से निकली...?"

राजु -"अंगूठी का क्या है...कहीं किसी भी की गिर जा सकती है..."

स्यन्दन - "ऐसा हो सकता है...पर यह नहीं हो सकता कि अंगूठी के साथ-साथ अंगुली भी गिर जाये..."

"क्या...क्या अर्थ इसका...?"

ईशान -"सीधेसे सारी बात बता दो, कि आज के मांस का बौडी तुम्हें कहां से मिला जिसके तुमने केवल पीसेज किये हैं...?"

राजु चुप खडा है....

फणीश -"हमलोगों के पास सच उगलवाने के कई उपाय हैं...बहुत पीडा होगी उसमें...यदि चाहिये तो यूं चुप खडे रहो..."

राजु को भय हो रहा है पर अब भी सच कुछ नहीं बता रहा...

ईशान -"इसे मेरे आवास ले चलो...वहां अभी केवल मैं हूं...इससे सच उगलवाने में बडी सुविधा मिलेगी..."

सभी ईशान का प्रस्ताव स्वीकार करते हैं और राजु को कार में डाल ईशान के आवास पहुचते हैं...वहां एक हौल में ले जा उसे छत से रस्सी से दोनों हाथ बान्ध लटका देते हैं...कुछ पूछताछ आरम्भ करें इसके पूर्व ही स्यन्दन को जीवन का फोन आता है कि इसी समय वह सरण और स्यन्दन से मिलना चाहता है...तब सरण और स्यन्दन चल देते हैं जीवन से मिलने, अमर, ईशान, और फणीश को यह निर्देश दे कि उनके लौट आने पर राजु से पूछताछ की जायेगी...

दोनों जीवन से जा मिलते हैं...जीवन अब स्वस्थ है और अन्य पार्टियों से उसकी बातचीत बडे उत्साह से चल रही है...-"आओ....केवल तुम्हीं दोनों हो...तुम्हारा पूरा ग्रूप कहां है...?"

सरण -"अभी आपका स्वास्थ्य कैसा है...?"

"मैं फर्ष्ट क्लास फिट हूं...शरीर के लिये...मुख्यमन्त्री पद के लिये भी...(सरण के मन को पढते हुए)...हां हां...गीति...मुझे बहुत दुःख है...मुख्यमन्त्री बनते ही मैं आकाश-पाताल सब ढूंढवा लुंगा, कहीं से भी यदि गीति निकल पाये..."

स्यन्दन -"सर...कोई विशेष बात है...?"

"विशेष तो होगा ही...वह यह है कि आज शाम, अभी से कोई दो घण्टे पश्चात्‌ दो पार्टियों से बात होनेवाली है....बात फाइनल है...केवल फौर्मैलिटी करने जाना है...उनमें से एक के पार्टी मुख्यालय में...ये पता नोट कर लो...और तुम सभी, अर्थात्‌ तुम पांचों वहां अभी से तीन घण्टे पश्चात् पहुंचो...अच्छा रहेगा...तुमलोग मेरे अपने आदमी हो- मेरे बौडीगार्ड..."

 

सरण और स्यन्दन स्वीकृति में सर हिला वहां से चल देते हैं और ईशान के आवास पहुंचते हैं...वहां पहुंच वे पाते हैं कि उन तीनों ने अभी तक राजु से कोई पूछताछ नहीं की है, और वे सरण और स्यन्दन की ही प्रतीक्षा कर रहे थे...

स्यन्दन राजु से -"देखो...हम तुम्हारे साथ सबकुछ कर सकते हैं...टौर्चर करने से लेकर तुम्हें मौत तक दे दे सकते हैं...तुम स्वयम्‌ निर्णय कर लो कि तुम क्या चाहते हो... ...तुम वह सब हमें बताओगे जो हम तुमसे जानना चाहते हैं...अब तुम यह निर्णय करो कि तुम पीडा पाकर सच बताओगे या विना पीडा पाये ही... "

राजु भयभीत चुप लटका है...

सरण ने क्रोध से आंखें लाल कीं -"गीति की हत्या तुमने की...टुकडे उसके तुमने कब किये...?"

राजु -"यह सब बताने को मैं तैयार हूं...पर आप सभी इस बात की गारण्टी दें कि बताने के पश्चात्‌ सुरक्षित मुझे जाने देंगे..."

सरण -"तुम्हें हम छोड दे सकते हैं...क्योंकि हमलोगों ने अभी तक तुम्हें मार डालने का निर्णय नहीं लिया है...पर यह निर्भर करता है इस बात पर कि तुम क्या उत्तर देते हो और कितना सच उत्तर देते हो..."

"हां, मैं तैयार हूं...सारा सच बताने को..."

"तो गीति से सम्बन्धित जितनी भी बातें तुम जानते हो वह सब हमें पूरी-पूरी बताओ..."

तब राजु ने बताया, जैसा उसने स्वयम्‌ देखा-सुना और जैसा जीवन ने उसे बताया था वह पूरी घटना इस प्रकार है-

उस रात जब जीवन गीति के संग लौट रहे थे और गीति को छोडनेवाले थे कि सहसा शत्रु दलों के कुछ आक्रामक व्यक्तियों ने जीवन की कार चारों ओर से घेर ली...जीवन कार रोक सावधानी से चुप बैठा रहा...उनलोगों में से एक ने तब लैप्टौप हाथ में लिया, और जीवन के समीप

जा वह बोला-"बहुत पोर्नोग्रैफी का विरोध करती है तुम्हारी पार्टी...तुमलोग सत्ता में आओगे तो पोर्नोग्रैफी पर प्रतिबन्ध लगवा दोगे...पर तब हम कहां जायेंगे...? हम तो ऐसे ही कार्यों में प्रतिदिन डुबकी लगाते हैं...और तुम्हारी पार्टी कुछ भी बुरा इस राज्य में होने नहीं देगी...पर ऐसा तब होगा, जब तुम अच्छे बने रहोगे...और ये...है सरण की पत्नी...बहुत अच्छा भाषण दे लेती है...तुमदोनों आज पोर्नोग्रैफी का भव्य दर्शन करोगे...उसके पश्चात्‌ भी यदि तुम्हें लगे कि तुमलोग इस राज्य में रामराज्य लाना चाहते हो, तो अवश्य लाना..." ऐसा कह वे लैपटौप से पौर्न वीडियोज उन दोनों को दिखाने लगे और दोनों को परस्पर सम्भोग करने पर विवश करने लगे...जीवन का मन तैयार हो गया, पर गीति नहीं मानी किसी भी धमकी के आगे...तो वे दोनों को ले जीवन के ही आवास गये...वहां एक कक्ष में दोनों को कुछ समय तक पौर्न वीडियोज दिखला द्‍वार बाहर से लौक कर वे वहां से चले गये...अन्दर गीति सब पौर्न देख भी सावधान रही और सरण के पास लौटने की बात बोली...पर जीवन बोला -"उनलोगों ने मुझे धमकी दी है कि यदि मैंने तुम्हारे संग सेक्सुअल रिलेशन नहीं बनाया तो वे मुझे मार डालेंगे..."

गीति -"कहकर वे चले गये...वे कुछ भी कह जा सकते हैं...उनकी बातों को मानना या न मानना तुम्हारे ऊपर निर्भर है..."

जीवन -"हां, यह मेरे ऊपर निर्भर है...पर मेरा मन अभी तुम्हारा भला नहीं चाह रहा है...वैसे भी, सरण की मैं उसके बचपन से ही सहायता करता चला आ रहा हूं...मेरा मानना है कि जिसकी सहायता की जाये उसके साथ कुछ ऐसा वैसा भी करने का अधिकार  भी मिल जाता है...इसलिये..."

गीति के प्रबल विरोध करने पर भी जीवन ने उसका रेप किया...गीति ने इसपर जीवन को केवल यही कहा कि इसका परिणाम उसे मौत के रूप में मिलेगा...जीवन यह सुन चिन्तित हुआ, बोला -"देखो, तुम सरण के पास चली जाओ, कहना तुम किसी प्रकार दुश्मनों की पकड से बचकर निकल भागी...यदि तुम हां कहो तो मैं तुम्हें तुम्हारे आवास के समीप छोड देता हूं..."

पर गीति अतिक्रुद्‍ध इस संकल्प पर दृढ रही कि वह जबतक जीवन की मौत न देख ले तबतक उसे शान्ति नहीं मिलेगी...ऐसे में जीवन उसे वहीं बन्धक बना रखा...तत्पश्चात्‌ राजु की सहायता से जीवन अपनी बुरी स्थिति बना पौने बारह बजे अपनी ही कार में स्वयम्‌ को पार्टी कार्यालय के समक्ष ला खडा किया...राजु ड्राइविंग सीट से सुशीघ्र भाग निकला...कुछ दिन और बीतने पर भी जब गीति अपने संकल्प से डिगी नहीं तो जीवन ने राजु को बुलाया और कहा - "यह मेरी मौत जान पडती है...यह जैसा मेरे साथ करना चाहती है वैसा इसके साथ कर दो...इसे मार इसके मांस के टुकडे होटल में परोस दो, तथा हड्डियां कहीं नदी-नाले में बहा दो...राजु ने वैसा ही किया...पर उसकी अंगूठी ने यह अपराध उजागर कर दिया...

 

सरण आदि ने राजु के इस अपराध स्वीकारोक्ति की वीडियो-रिकौर्डिंग कर ली थी...पर पांचों ने यह विचार किया कि हो सकता है जीवन को कोर्ट से कोई दण्ड न मिल पाये, क्योंकि कोई ठोस प्रमाण उसके विरुद्‍ध नहीं बन रहा है...

"ऐसे में हमलोग गीति की अन्तिम इच्छा पूर्ण करेंगे..." सरण गर्जा...

"हां...मृत्युदण्ड...मृत्युदण्ड..." अन्य सभी भी गुर्राये...

पांचों ने निर्णय लिया -’जीवन मुख्यमन्त्री पद की शपथ ले पाये, उससे पूर्व उसे मृत्युदण्ड मिल जाना चाहिये...तबतक यह राजु यहां ऐसे ही लटका रहेगा...’ अमर., ईशान, फणीश के माध्यम से दो रिवाल्वरों की व्यवस्था हो गयी...

 

पांचों पार्टी कार्यालय पहुंचे...वहां जीवन से बात करने पर जानकारी मिली कि उसे अन्य पार्टियों से समर्थन ले बहुमत मिल गया है...कल राज्यपाल जीवन को औपचारिक रूप से मुख्यमन्त्री का पद सम्भालने और शासन गठन का निमन्त्रण देंगे...जीवन एक ऐसे ही समर्थक पार्टी के कार्यालय वाली बिल्डिंग में सभी सहयोगी दलों के संग मीटिंग कर शासन की रूपरेखा निर्मित कर रहा है...सरण आदि को उस स्थान का पता पूर्व से ही मिला हुआ था...वे कार से उसी दिशा में आगे बढे...

इधर राजु ने एक पैर दीवार पर टिका अपनी बन्धी भी अंगुलियों से शर्ट के पौकेट में रखे मोबाइल के जीवन के नम्बर वाले स्पीड डायल नम्बर को दबाने में सफल हो जाता है...उसका मोबाइल जीवन के मोबाइल से कनेक्ट हो जाता है...वह तुरत सरण आदि के जीवन को मार डालने के संकल्प को बता देता है....जीवन यह सुन पहले क्रुद्‍ध होता है - "ये कल के छोकडे मुझे मारेंगे...? मेरे बिल्ले मुझे ही म्याउं...!!!" तत्पश्चात्‌ घबडाता है -’मैंने किसी की सहायता ली थी इसलिये यह बात खुल गयी...एकाकी (अकेले) किया होता तो क्या जाने यह बात नहीं खुलती...! अतः उसे अभी जो भी करना है वह एकाकी ही करेगा...’ वह अभी सोच ही रहा था कि स्यन्दन का फोन आया कि पांचों वहां उससे मिलने आ रहे हैं...

जीवन -"तुमलोग कैसे जाने कि मैं यहां हूं...?"

"सर आप ही ने तो कुछ समय पूर्व वहां का पता दिया, और कहा वहां पहुंचने को..."

"ठीक है...."

 

अभी गठबन्धन पार्टी के व्यक्तियों से बातें करते समय दो अपराधी जैसे व्यक्तियों ने रिवाल्वर, गोलियां, गोला-बारुद, बम्ब आदि जीवन को बेचने प्रस्ताव दिया था कि समय पर सुरक्षा की जा सके...अभी एक-एक सैम्पल पीस उस वार्ता कक्ष में रखे थे...क्योंकि जीवन ने हां या न कुछ भी निर्णय अभी नहीं दिया था...जीवन बडी शीघ्रता से उस कक्ष में गया और एक वस्त्र खण्ड में उस बम्ब को रख लिया जिसके प्रयोग की विधि दिखाते समय उसे बता दी गयी थी..और यह कहा गया था कि जिस भी स्थान पर यह बम्ब गिरेगा उसके दस मीटर सभी ओर कोई भी प्राणी जीवित नहीं बचेगा...द्वितीय तल की बाहरी गैलरी में आ उसने जब नीचे देखा तो सरण आदि कार से बाहर निकल रहे थे...दोनों ओर से दृष्टियां मिलीं...जीवन उन्हें अपने नीचे आ रहे होने का संकेत करता सीढियों से नीचे उतरने लगता है...सरण और स्यन्दन जीवन को मारने को कार से बाहर तैयार हैं जबकि अमर, ईशान, फणीश कार के अन्दर कार ष्टार्ट रख तुरत कार भगा लेने को तैयार बैठे हैं...वहां चारों ओर अन्धेरा है...इलेक्ट्रिसिटी अभी ही कटी थी...इक्के दुक्के व्यक्ति सडक पर चलते दिख रहे थे... जीवन जैसे ही बिल्डिंग से रोड की ओर बढता है, कार किनारे खडे सरण और स्यन्दन विचार करते हैं कि जब जीवन को मार ही डालना  है तो अब उससे कुछ भी बात क्या करना, ठीक इसी समय जीवन के मन में भी यही विचार उभरा कि जब इन्हें मार ही डालना है तो इनसे अब बातें क्या करना...कार के संग वे पांचों वहां हैं...केवल बम्ब उनपर फेंक देना है, सभी मारे जायेंगे...ऐसा विचार कर जीवन ने उन पांचों पर बम्ब उछाल फेंक दिया...और उसी समय स्यन्दन और सरण ने जीवन पर गोलियों की बौछार कर दी...

जहां एक ओर जीवन के शरीर में गोलियां ही गोलियां भर गयीं और वह भूमि पर गिर पडा, वहीं वे पांचों कार समेत उड गये...छहों के शव सडक पर बिखरे पडे थे...अगले दिन समाचारपत्रों में छपा कि जीवन और उसकी पार्टी के पांच सदस्यों को किसी दुश्मन ने एक साथ मार डाला...

राघवेन्द्र कश्यप की भी दृष्टि इस समाचार पर पडती है...वह तो सरण को अच्छे से जानता था...उसने कहा- "आत्मा अपने परम प्रकाश स्वरूप से भटक इस अन्धकार स्वरूप संसार में आ जाता है और वैसे शरीर का संग पा जाता है जिससे उसका कभी भी वियोग हो जा सकता है, तब भी मनुष्य ऐसे जीता है जैसे यहीं इस अस्तित्व में सदा ही बना रहेगा...और इस कारण किसी भी बुरे कर्म को करने पर उतर जाता है, पर इसके परिणाम में उसे और भी अधिक हानि पहुंच जाती है....

 

                           समाप्त

ये जीवन क्या है

लेखक - राघवेन्द्र कश्यप

सच्चाई के अंशों को समाये हुए काल्पनिक घटनाओं पर आधारित यह कथा-प्लौट फिल्म बनाने के उद्‍देश्य से लिखा गया है....

 

सरण जब भी स्वयम्‌ के सम्बन्ध में विचार करता था तो उसे लगता था उसका जन्म किसी विशेष कार्य को करने के लिये हुआ है...उसे औरों जैसा नहीं जीना है...पर...कैसा जीना है...? मां से पूछा तो -"बेटे, मुझे तो लगता है तुम्हें किसी बहुत बडे पद पर रहना है, और बहुत ही अच्छे-अच्छे काम करना है...."

"जैसे...?"

"जैसे...डौक्टर...या...आइ ए एस औफिसर...!"

पापा - "मुझे तो लगता है तुम कहीं फिलौसफर बन जा सकते हो..."

"परन्तु....फिलौसफर क्या विशेष काम करता है जीवन में..."

"वह जीवन तलाशता रहता है कहां है जीवन....पूरा जीवन बीत जाता है उसका इसमें...यदि तुम्हें ऐसा नहीं करना है तो मन लगाकर पढो, और परीक्षा सबसे अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करो....यह एक बडी विशेष बात होगी..."

स्वसा - "मुझे भी वही लगता है जो पापा को लगता है....यदि तुम ऐसा कर सको तो तुम मम्मी का सपना पूरा कर सकते हो...."

इस प्रकार सरण को कहीं भी उत्तर नहीं मिल पाया...क्योंकि उसका मन किसी भी उत्तर को सुन शान्त नहीं हो पाया...वह विद्‍यालय में शिक्षकों के अध्यापन को ध्यान से ग्रहण करता है....एक दिन उसके विद्यालय में एक लघु वृत्तचित्र या फिल्म दिखायी जाती है - एक सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में कैसे एक मनुष्य ने वहां की समस्याओं को सुलझाया और वहां व्यवस्थित जीवन बसाया....देख उसके मन में कई प्रश्न उठे...उसने एक शिक्षक से पूछा- "सर, इस ग्राम में लोग एक-एक भी ग्लास पेयजल के लिये क्यों लड रहे हैं...?"

"वहां का कुंआ सूख गया है....हाथ पाइप से अशुद्‍ध जल निकलता है...लोग अन्य ग्रामों से या नगर से पेयजल लाते हैं....इस कारण..."

"पर हमलोग तो एक क्या कई ग्लास भी पानी एक-दूसरे पर या इधर-उधर फेंक देते हैं...?"

"पछताओगे...जब तुम एक ग्लास क्या एक घूंट भी पानी के लिये तरसोगे...."

"और सर...वहां अन्धेरा ही अन्धेरा है...इलेक्ट्रिसिटी नहीं है क्या...हमलोग तो दिन में भी लाइट जलाये रखते हैं...या यूं ही पंखा चलता रहता है...?"

"देखो, तुमने यह मुझसे पूछा....सम्भवतः मुझसे अधिक अच्छा उत्तर तुम्हें यहां कोई और न दे पाये...जो लोग पानी और इलेक्ट्रिसिटी का ऐसा दुरुपयोग करते हैं वे ही लोग वैसे ग्रामों में जन्म लेते हैं, और तरसते हैं...एक ग्लास भी पानी मिल जाये, या एक घण्टे के लिये भी इलेक्ट्रिसिटी बनी रहे...नहीं तो अधिकतर इलेक्ट्रिसिटी कटी रहती है..."

 

सरण आये दिन ऐसे-ऐसे प्रश्नों के उत्तर अन्वेषता (तलाशता, खोजता) रहता था....एक बार एक भाषण प्रतियोगिता आयोजित हुई विद्‍यालय में...विषय था -"मेरे सपनों का भारत"...सरण ने मां-पिता आदि कितने ही व्यक्तियों से इस सम्बन्ध में बातकर एक बडा-सा प्रेरक लेख लिख डाला....उसने इतने उत्साह और अन्तःप्रेरणा के संग भाषण दिया कि सभी उपस्थित श्रोताओं के मन को यह छू गया....उसे प्रथम पुरस्कार मिला...इसके पश्चात्‌ तो छात्र आदि उससे पूछने लगे कि वह अपने सपनों का भारत बनाने के लिये क्या कर रहा है...सरण कोई उत्तर नहीं दे पाया...कुछ समय पश्चात्‌ ऐसे ही एक दिन भाषण प्रतियोगिता के अवसर पर जब वह ओजस्वी भाषण दे रहा था तो उसपर किसी की दृष्टि कुछ विशेष पडी...उसने उसके मंच से उतरने पर उससे भेंट की - "बहुत अच्छा...! मेरा नाम जीवन है...मेरा पुत्र इसी विद्‍यालय में पढता है...फिफ्थ श्टैण्डर्ड में पढता है...तुम्हारा जूनियर है...तुम उसे भी मार्गदर्शन दो...तुम्हारी संगति से क्या जाने उसकी भी बुद्धि प्रखर हो जाये..."

जीवन सरण को निज पुत्र से मिलवाता है जो यद्‍यपि सरण से बहुत जूनियर है पर सरण उसके प्रति स्नेह का भाव रखता है और उसे अच्छी-अच्छी बातों की जानकारी दिया करता है...जीवन एक राज्यस्तरीय राजनीतिक दल का संस्थापक और अध्यक्ष है...चूंकि यह जीवन की नयी पार्टी है अतः वह उसके प्रसार (फैलाव) के लिये विभिन्न लोगों से मिलने आदि के प्रयासों में लगा रहता है...सरण एक विशेष छात्र जान पडा, अतः वह उसे भी अपने पार्टी में लाने का विचार कर रहा है...जीवन जब भी सरण से मिलता है, सरण उससे सामाजिक, राजनीतिक, आदि विविध प्रकार के प्रश्नों का उत्तर जानने का प्रयास करता है, और जीवन उसके निर्दोष और सच्चे चरित्र से प्रभावित हो उसकी जिज्ञासा की यथासम्भव शान्ति करता रहता है...जीवन अभी तक उसे अपनी पार्टी में सम्मिलित होने का प्रस्ताव नहीं दे पाया, क्योंकि इस सम्बन्ध में सरण का स्पष्ट कथन है कि "वह समाज का वास्तविक उत्थान चाहता है, और राजनीतिक छल-प्रपंच से दूर ही रहना चाहता है...पर जीवन उसकी पीठ थपथपाता है और कहता है कि उसे ऐसे ही नवयुवकों की अपनी पार्टी में आवश्यकता है...जीवन सरण की अनिच्छा व्यक्त करने पर भी उसके पीछे ऐसे पडा रहता है जैसे गुड के पीछे चींटें पडे रहते हैं, और एक दिन उसे इसमें सफलता मिल भी जाती है जब सरण दसवीं उत्तीर्ण कर कौलेज में प्रवेश करता है तब उस कौलेज में अपनी पार्टी की छात्रशाखा का आरम्भ कर उसका नेतृत्व सरण के हाथों में सौंप देता है...सरण का स्वभाव प्रायः पूर्णतया अलग है अन्य सभी छात्रों से...वह एक गम्भीर, चिन्तनशील, अध्ययनशील, और औनेष्ट तथा चरित्रवान्‌ युवक है...नेतृत्व सम्भालते ही वह एक ओर जहां अधिक से अधिक छात्रों को सदस्य बनाने में जुटा है वहीं उसके मस्तिष्क के मुख्य भाग में जल-जागृति की आग जल रही है....पेय जल की भूतकाल में स्थिति, पेय जल की इस पृथिवी पर वर्तमान में स्थिति, तथा पेय जल की इस संसार में आनेवाले समय में क्या स्थिति होगी - इस ज्वलन्त विषय पर वह अभियान आरम्भ करता है...धीरे-धीरे छात्र उसके इस अभियान में जुडते जा रहे हैं....वह पेय जल के सम्बन्ध में विभिन्न तथ्य एकत्र करता और लोगों के समक्ष प्रस्तुत करता है...संग ही आनेवाले दिनों में पेय जल के अभाव की भयावह स्थिति उत्पन्न हो जाने के संकट की ओर जनसामान्य का मन आकृष्ट करने का सफल प्रयास कर रहा है...जीवन का इसमें सभी आवश्यक सहयोग मिल रहा है जिससे उसका उत्साह सदा बना रहता है...संग ही उसकी दृष्टि निज अध्ययन पर भी  है....जल से सम्बन्धित जो तथ्य उसने प्रस्तुत किये वे सब ने सराहे...

 

देखते ही देखते उसके दो वर्ष आराम-आराम से बीत गये और वह अब ग्रैजुएशन कर रहा है...ग्रैजुएशन में उसने एक पग आगे बढा अब गुटखा, मदिरा, आदि नशीले पदार्थों के विरुद्‍ध आन्दोलन को भी अपने अभियान में सम्मिलित कर लेता है...उसके पैम्फलेट्स अब बहुत प्रसिद्‍ध और महत्त्वपूर्ण हो चले हैं....ग्रैजुएशन के तीन वर्ष पूर्ण होने तक में उसे जो दो बातें बडी महत्त्वपूर्ण रूप में प्राप्त हुईं, वे थीं- एक तो यह कि उसके पैमफ्लेट्स के विचार आदि वह इण्टरणेट पर वह अपनी ब्लौग वेब्साइट में प्रस्तुत करने लगा....और द्वितीय यह कि उसके जीवन में उसके बहुत ही निकट एक छात्रा गीति का प्रवेश हुआ....वह यह जानना चाहती है कि उसके इन सभी कार्यों का क्या उद्‍देश्य है....?

"मैं पार्टी की छात्र शाखा का सफलतापूर्वक नेतृत्व करता चला आ रहा हूं, पर मेरी रुचि राजनीति न कर जनजागृति और जनकल्याण करने में है...."

गीति उसके विचारों और व्यक्तित्व से प्रभावित हो उसके अभियान में कभी-कभी साथ दिया करती है....पेय जल, विद्‍युत्‌, मादक पदार्थ, और अब पोर्नोग्रैफी - ये चार विषय प्रमुखता से छाये थे सरण के अभियान के...इन सभी समाज सुधार के कर्मों के कारण सरण की छात्र-पार्टी विश्वविद्‍यालय के छात्रों के मध्य सबसे अधिक सदस्य संख्या वाली पार्टी बनने की ओर बढ रही थी....देखते ही देखते अमर, ईशान, और फणीश ये तीन छात्र सरण के अभियान के प्रमुख नेताओं के रूप में उभरकर आये, अर्थात्‌ सरण के सबसे निकट के सहयोगी बन गये...इस प्रकार सरण, गीति, अमर, ईशान, और फणीश इन पांचों का एक समूह इस छात्र पार्टी का नेतृत्व कर रहा था...सरण के वेब्साइट पर उसके अभियान का विस्तृत विवरण उपलब्ध है.....पेय जल, विद्‍युत्‌, मादक पदार्थ, और पोर्नोग्रैफी इन चार विषयों के विरुद्‍ध अभियान का विस्तृत विवरण बहुत ही आकर्षक है...

 

एक दिन गीति - "तुम्हारे जीवन का लक्ष्य क्या है....? अर्थात्‌ क्या बनने का स्वप्न है तुम्हारा...?"

सरण -"स्वप्न....स्वप्न तो मैंने अभी तक देखा नहीं है....पर मैं वो करते जा रहा हूं...जिसमें मेरी सबसे अधिक रुचि है..."

"तब भी, केयरियर वैसा चुनना चाहिये जिससे घर-गृहस्थी बडे आराम से चले....तुम्हारे इन कामों से तुम रुपये कैसे कमाओगे...?"

"अच्छे काम का सदा अच्छा ही परिणाम होता है....और मैं जो कर रहा हूं, और आगे जो करना चाहता हूं उससे सारे संसार को लाभ होगा...और जब सारे संसार को लाभ होगा तो मुझे भी लाभ हो जायेगा...मैं कहां इस संसार से बाहर हूं...?"

"पर अन्य सभी कुछ और काम करते, धन अर्जित करते तुम्हारा यह सम्भावित लाभ पायेंगे...तुम और क्या काम करते यह सम्भावित लाभ पाओगे...?"

"और क्या...? जब समय आयेगा तब वह भी हो जायेगा..."

"अरे नहीं...सोचो...मैं या कोई और बुद्धिमान्‌ व्यक्ति तुम्हारा क्यों अनुसरण करेगा जब तुम्हारे अपने केयरियर का कोई निश्चय नहीं होगा...?जिसका भविष्य अच्छा दिख रहा हो उसे सभी फौलो कर सकते हैं...अब, तुम्हारा कुछ होगा भी या नहीं....?"

सरण गम्भीरता से सोचता रहा...क्या उसे चुनाव लडना है....! है भी वह एक राजनीतिक पार्टी का नेता..." सरण और गीति की मित्रता दिन-प्रतिदिन बढती गयी....

 

सरण एक दिन समाचारपत्र पढ रहा है तो उसे एक आध्यात्मिक योगी व्यक्ति के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है कि ’राघवेन्द्र कश्यप एक अच्छे आध्यात्मिक योगी हैं जिनने सत्संग के अन्तर्गत प्रवचन में बताया कि मनुष्य यह शरीर न हो भावरूप आत्मा है....स्वयम्‌ को शरीर न अनुभूत करते हुए मूल आत्मा को स्वरूप से अनुभूत करने लग जाना ही मानवजीवन का सबसे अच्छा लक्ष्य है...सरण ने राघवेन्द्र कश्यप से मिलने का विचार किया और वहां पहुंचा....

"मैं हूं राजनीति आदि सांसारिक प्रपंचों से दूर रहने वाला व्यक्‍ति...ऐसे में मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूं...?"

"हां, मैं राजनीति में हूं, पर सांसारिक प्रपंचों में संसार का भला करने के उद्‍देश्य से ही लगा हूं, औरों की भांति पौकेट गर्म करने के उद्‍देश्य से नहीं...हां...और मैं यह जानना चाहता हूं कि मैं स्वयम्‌ को जो शरीर के रूप में जानता हूं, क्या वह असत्य है...? तो वास्तव में मैं क्या हूं....?"

"अच्छा, देखो सरण....सोचो तुम यह जन्म पाने से पूर्व कहां थे....? और न जाने कब तुम्हारे प्राण निकल जायें तब तुम कहां होगे...?"

"मैंने तो इन दोनों ही बातों पर कभी भी विचार नहीं किया है....(मन दौडाकर सोचने का प्रयास करता है...हारकर दुःखी मन से कहता है...) सर, बहुत अज्ञानता की अनुभूति हो रही है....केवल इतना ही नहीं, कुछ भय की भी अनुभूति हो रही है....कि आज, कल, परसों किसी दिन मेरी मृत्यु हो जाये...जिस किसी भी कारण से...तो मैं कहां होउंगा...?क्या होउंगा...किस अवस्था में होउंगा...? होउंगा भी या नहीं...?

"पूर्णतया ऐसे ही...चिन्तन करना चाहिये...जिस शरीर को तुम इतने यत्न से पाल-पोसकर बढा रहे हो वह किसी भी क्षण तुमको गुडबाय कर दे सकता है...शरीर जला दिया जायेगा...तब तुम कहां होगे....? यदि कहीं नहीं होगे तो इस होने का क्या अर्थ है....? और, यदि कहीं होगे तो उसे बनाने संवारने का प्रयत्न करो...."

"किस प्रकार से मैं इस जीवन के पश्चात्‌ भी अपना अस्तित्व बनाये रख सकता हूं...?और किस प्रकार से उसे संवार भी सकता हूं.../"

"आधी बात तो तुम्हारी...तुम्हारे बोलते ही पूरी हो गयी..."

"वो क्या...?"

"इस जीवन के पश्चात्‌ भी तुम अपना अस्तित्व बनाये रखने में समर्थ होगे..."

"सच में....? मैंने सुना है कि कभी-कभी कोई कही बात सच हो जाती है, क्योंकि वह किसी विशेष सौभाग्यशाली मुहूर्त पर बोल दी गयी होती है..."

"देखो, केवल तुम्हारा ही नहीं, सभी प्राणियों का अस्तित्व मरने के पश्चात्‌ भी बना रहता है...क्योंकि प्राणी वास्तव में एक आत्मा है...और आत्मा कभी भी मरता नहीं है...अतः शरीर छोडने के पश्चात्‌ भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है..."

"ओ....तो अपने आत्मा को अच्छी अवस्था में बनाये रखने, संवारने के क्या उपाय हैं,,,,?"
"देखो...इस संसार के सभी कर्म आत्मा को हानि पहुंचाते हैं....कर्म चाहे अच्छे हों या बुरे, सभी में आत्मा का इस संसार से सम्बन्ध बनता है जिससे आत्मा को प्रत्येक क्षण हानि पहुंचती रहती है...आत्मा, जो कि तुम स्वयम्‌ हो, निरन्तर न्यून (कम) होते चले जाते हो..."

"तब जो खेलकूद, मारामारी आदि रूप में तीव्र गति से सांसारिक सम्बन्ध बनाते रहते हैं अपने आत्मा का, उनके..."

"उनके आत्माओं  को अन्य लोगों की तुलना में कहीं अधिक तीव्र गति से हानि पहुंचती रहती है..."

"हानि पहुंचती है....तो किसी का आत्मा न्यून (कम) हो गया या बढ गया तो उससे क्या अन्तर आता है...?"
"भगवानों के चित्र तो तुमने देखे होंगे...उनके शरीर के अन्दर स्थित आत्मा का अनुभव होता है जैसे कि आत्मा प्रकाश भरा हो...लगता है प्रकाश जैसे शरीर से बाहर निकल रहा हो....आत्मा का जितना अधिक  प्रकाश, उतना ही अधिक बली और भाग्यशाली भी होता है...जबकि न्यून प्रकाश वाला आत्मा न्यून बली होता है....उसकी ज्ञानशक्ति और भाग्यवत्ता की क्षमतायें भी न्यून ही होती हैं...बली आत्मा अन्यों पर अपनी पकड बनाता है, जबकि दुर्बल आत्मा अन्यों की पकड में आ जाता है..."

 

 

सरण ने ज्योंहि कौलेज में पग रखा, किसी ने उसके कन्धे पर हाथ रखा....

"हूं...अरे...गीति....! कैसे....मेरे पीछे....?"

"तुम नायक हो, हम तो तुम्हारे पीछे ही चलेंगे..."

"मैं चाहता हूं, ऐसे ही सभी छात्र मेरे पीछे चलें, और जो आज छात्रसंघ के चार पदों में केवल एक पद पर हमारी पार्टी का सदस्य है, कल चारों ही पदों पर हमारी पार्टी के सदस्य हों..."

"वाह! बहुत दिनों पश्चात्‌ तुमने स्वप्न देखा...और उस स्वप्न में भी केवल राजनीति की बात...! कभी कुछ और भी सोच लिया करो...."

"कुछ और भी सोचा, राघवेन्द्र सर से मिलकर..."

"क्या...?"

"यही कि हम सभी वर्तमान की समस्यायों में ही फंसे रह जाते हैं और आगे किसी भी क्षण आ जानेवाली समस्यायों के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं सोचते...!"

"किधर संकेत है तुम्हारा....?विवाह पश्चात्‌ जीवन के सम्बन्ध में सोच रहे क्या...?"

"विवाह - शरीर का सम्बन्ध किसी अन्य शरीर से जुडता है.....मृत्यु - शरीर का सम्बन्ध टूटता है....आत्मा से...सोचो...अभी तुम्हारी म्रुत्यु हो जाये तो तुम कहां किस स्थिति में होगी...?"

"अं...हं...सोचने में तो यह भय देनेवाला है...पर क्या कर सकते हम इस सम्बन्ध में...?"

"एक काम कर सकती हो...कि इस यूनिवर्सिटी कैम्पस में कहीं भी पानी व्यर्थ गिरता न हो यह सुनिश्चित करो..."

 

दोनों अमर, ईशान, फणीश तथा कुछ अन्य भी छात्रों के संग सूचना यात्रा निकाल पैम्फ्लेट बांटते हैं और लोगों को सावधान करते हैं पानी के दुरुपयोग के सम्बन्ध में...शनैःशनैः सफलता की ओर बढते पग...दोनों अच्छे अंकों से उत्तीर्ण कर एम ए में प्रवेश करते हैं...अमर, ईशान, और फणीश भी संग ही एम ए में प्रवेश पाते हैं...जीवन आरम्भ से ही इन सभी की यथासम्भव सहायता करता हुआ इन सभी का मार्गदर्शक है....अभी सरण आदि के ग्रैजुएशन में रहते समय ही विधानसभा चुनाव में जीवन की पार्टी भी चुनाव लडी और उसे दो विधायक पद मिले...एक वह स्वयम्‌, और द्वितीय पर जीता था स्यन्दन...सरण आदि ने भी इस चुनाव में सहायता की थी पर कुछ ही...अब सरण का विचार है वह विविध प्रकार के समाज सुधार के कार्यों को बहुत विस्तार से आरम्भ करे....वह भारतीय समाज को विवेकी और उन्नतिशील देखना चाहता है...

जीवन -"यह विवेकी क्या होता है...?"

सरण -"विवेकी वह होता है जो जानता है कि किस बात में उसका भला है और किस बात में उसका बुरा...वह अच्छे और बुरे में अन्तर कर पाने में समर्थ होता है...ऐसा अन्तर कर वह सच या अच्छे का ही संग करता है..."

सरण के समाज कल्याणकारी कार्यों से जीवन की पार्टी का भी नाम फैल रहा है....सरण दो व्यक्तियों को गुरु मान बडे आदर उन्हें ’गीति’ कह सम्बोधित करता है - जीवन और राघवेन्द्र कश्यप को...दोनों ही से उसकी बातें होती रहती हैं....वह दोनों ही से सामाजिक, राजनीतिक, अथवा आध्यात्मिक आदि प्रेरणायें लेता रहता है...छात्रसंघ का चुनाव निकट है...सरण स्वयम्‌ अध्यक्ष पद के प्रत्याशी के रूप में खडा है....उसके मित्र और पार्टी के लोग उसकी जीत के प्रयासों में लगे हैं...सरण भाषण देता है...कि उसके अध्यक्ष बनने पर कितनी सुविधायें और व्यवस्थायें विश्वविद्‌यालय में हो जायेंगीं...वह किन रूपों में विश्वविद्‍यालय और छात्रों के लिये हितकर और लाभदायक होगा...छात्र ताली बजा रहे हैं...तभी जीवन पहुंचता है...सरण मंच पर उसके पांव छू उससे आशीर्वाद लेता है....जीवन सरण एवम्‌ अन्य तीनों प्रत्याशियों को जीताने का आह्‌वान करता है अपने भाषण में...समय पर चुनाव होता है...चार में से केवल एक पद पर जीवन की पार्टी को जीत मिलती है, और वह जीत है सरण की अध्यक्ष पद पर....जीवन बहुत प्रसन्न है...उसे सरण से अब बहुत आशायें बनती दिख रही हैं...अभी तक जीवन सरण के अभियान आदि कार्यक्रमों से अपनी पार्टीके लिये जनता की सहानुभूति बटोरने तक ही लाभदायक सरण को समझ रहा था, पर अब उसकी जीत से जीवन उससे सीधे राजनीतिक लाभ लेने की आशा करने लग गया था...जीवन- "सरण...मेरा वर्षों तुम्हारा साथ देने का फल मिलना अब आरम्भ हो गया जान पडने लगा है...क्योंकि तुमसे विधानसभा का चुनाव भी जीत लेने की आशा दिखने लगी है...."

"सर, मैं कहां राजनीति में...? मेरा काम तो है समाज की उन्नति...रही बात छात्रसंघ चुनाव जीतने की,,,,तो अध्यक्ष पद पर आकर तो अधिक समर्थ रूप में उतना अच्छा मैं वह सब कर सकता हूं जितना अच्छा मैं समाज का चाहता हूं...."

"बेटे...वही तो मैं तुमसे कह रहा हूं...विधायक बन जाने पर तुम कितना अधिक समर्थ बन जाओगे समाज कल्याण करने के लिये यह तुमने नहीं सोचा, इसलिये तुम ऐसा बोले...."

"पर विधानसभा चुनाव लडना, सरकार बनाने के लिये जोडतोड में लगना, छल-प्रपंच की राजनीति का आरम्भ हो जाता है...यह मुझे नहीं रुचता....पर छात्रसंघ चुनाव की राजनीति तक तो काम चल सकता  है...."

"हूं...अभी और अधिक समय लगेगा, तुम्हें परिपक्व होने में...."

 

अध्यक्ष बनते ही सरण ने विश्वविद्‍यालय परिसर में कहीं भी पानी, विद्युत्‌ आदि के दुरुपयोग या व्यर्थ नाश पर, पान-गुटका आदि खाने पर तुरत रोक लगवायी...संग ही जहां - जहां जिस-जिस बात की आवश्यकता थी उसकी समुचित व्यवस्था करवायी....सरण की इतनी जनकल्याणकारी मनःप्रवृत्तियों को देखते हुए पूरे विश्वविद्‍यालय में उसकी प्रशंसा होने लगी जो धीरे-धीरे फैलते हुए विश्वविद्‍यालय से बाहर भी निकली और वह पूरे नगर में प्रसिद्‍ध हो गया...अब सरण आदि सभी एम ए पार कर रिसर्च ष्टूडेण्ट हो गये हैं...सरण और गीति की बढती निकटता अब प्रेम में परिणत हो चुकी है...वे दोनों एक उद्यान में बैठे आराम-आराम से बातें कर रहे हैं...उनकी बातें धीरे-धीरे गाने में परिणत हो गयी हैं...अब वे गाना गाते हुए एक दूसरे से बात कर रहे हैं...

 

सरण अभियान द्‍वारा जीवन के समर्थन से नगर में विकास के जितने कार्यों में सफलतायें पाता चला जा रहा था वे थे -१. नगर में पानी कहीं भी व्यर्थ बहता नहीं दिखता...२. पेय जल की नगर में कहीं समस्या नहीं थी...३. विद्‍युत्‌ की चोरी कई स्थानों पर पकडी गयी, और यह काम अभी भी चल रहा था....४. नगर में विद्‍युत्‌ की कहीं भी कोई विचारणीय समस्या नहीं थी....५.गुटखा, तम्बाकु, मदिरा आदि के विरुद्‍ध अभियान अभी भी चल रहा था...सभी प्रकार के हानिकारक पदार्थों के सेवन के विरुद्‍ध जनजागरण का अभियान सामान्य गति से चल रहा था...जीवन को सरण के इन जनकल्याणकारी कार्यों से राजनीतिक लाभ मिलने में कुछ बाधा अनुभूत हो रही थी, क्योंकि सरण ऐसे कार्यों के माध्यम से अपनी पार्टी के लिये वोट बढाने का प्रयास न कर केवल समाज सुधार एवम्‌ समाज विकास का ही प्रयास कर रहा था...उसका स्वप्न एक ऐसे ही समाज के निर्माण का था....एक गाना चल रहा है जिसमें सरण के मन में स्थित स्वप्न-समाज का वर्णन हो रहा है....सरण के ऐसे ही कार्य इसमें दिखाये जा रहे हैं...गाने के अन्त के संग ही सरण गीति के संग हाथ मिलाये प्रेमपूर्ण स्थिति में....

गीति -"मैंने एक निर्णय ले लिया है...."

सरण -"अच्छा ही निर्णय लिया होगा...जरा मैं भी तो सुनुं...."

"वह यह कि मैं विवाह करुंगी...बहुत शीघ्र ही..." गीति सरण की छाती से लगी है, इसलिये पूछने की आवश्यकता नहीं है कि किससे विवाह करना है..."

"जबतक कोई स्थायी रूप से धनोपार्जन का साधन न मिल जाये तबतक विवाह की बात मैं सोच भी....केवल सोच ही सकता हूं, कर नहीं कर सकता...तबतक तुम्हें प्रतीक्षा करनी पडेगी...."

तभी उसके अन्य तीनों मित्र अमर, ईशान, और फणीश वहां आ पहुंचे....

सरण -"मित्रों...क्या सूचना लाये हो....?"

अमर -"यूं तो हम तुम्हारे भेजे हुए दूत नहीं हैं....पर....पर यह कि हम हैं स्वयम्‍प्रेरित सूचनावाहक....हमारा इण्टेन्शन तुम्हारे शुभ कर्मों में तुम्हारी सहायता करना है...अन्यथा हमारा क्या है...जैसे लोग संग मिलेंगे, हम उधर ही बह निकलेंगे...."

सरण -"तुम्हारा यह कहना कि जो होगा देखा जायेगा बहुत बुरा है...क्योंकि जब परिणाम भुगतने का समय आता है तो झेलना बहुत दुःखभरा लगता है...परन्तु यही बात यदि अच्छे कर्मों के सम्बन्ध में हो तो बात वैसी ही नहीं है..."

ईशान -"भइया, मुझे तुम केवल यह बताओ कि करना क्या है...उसमें हम तुम्हारा साथ देने को तैयार हैं....थ्योरी और दर्शन सुनने की इच्छा नहीं होती...क्योंकि हम भी अन्य लोगों जैसे ही हैं...अन्तर केवल इतना है कि हमें तुम्हारा संग मिला है...."

"गुटखा, तम्बाकु, मदिरा, आदि मादक पदार्थों के सेवन से क्या-क्या हानियां हैं, और क्या-क्या लाभ हैं, ये जनता को बताये जायें..."

"लाभ है...सरकार को...जब सरकारें ही चाहती हैं कि ये वस्तुयें बेची जायें, इस बहाने से कि इससे राजकोष को इतने अरब रुपये प्रतिवर्ष का लाभ होता है...तो अब कैसे क्या किया जा सकता है...?"

"यह विचारणीय बात है, क्योंकि वेश्यावृत्ति या स्त्री-पुरुष सम्भोग सम्बन्ध को वैधानिक रूप से मान्यता दे दी जाये कि प्रत्येक जोडे को केवल टैक्स का कूपन लेना होगा, तो सरकार इसे भी चला सकती है इसी बहाने से कि इससे राजकोष को इतने अरब रुपये प्रतिवर्ष का लाभ होता है..."

"पर गुटखा, तम्बाकु, मदिरा आदि मादक पदार्थों के माध्यम से रुपये कमाना तो रौंग वर्क करके या हानिकारक काम करके रुपये कमाना है...यदि सरकार को ऐसे रौंग या हानिकारक माध्यमों से रुपये कमाने का अधिकार है तो जनता को क्यों नहीं...? जनता भी केवल यह देखे कि कैसे अधिक से अधिक रुपये अपने बैंक अकाउण्ट में बढते जाते हैं, इससे किसी को हानि पहुंचती हो तो भी...?"

"राजकोष में रुपयों का बढना बडी प्रसन्नता की बात समझी जाती है...पर इस लिये कि इससे जनता के लिये अधिक से अधिक कल्याणकारी कार्यों को किया जा सकेगा...पर गुटखा, तम्बाकु, मदिरा आदि तो जनता के स्वास्थ्य और मस्तिष्क दोनों को नष्ट करते हैं...तो जनता के स्वास्थ्य और मस्तिष्क दोनों को नष्ट करके सरकार प्राप्त उन रुपयों से अब जनता का क्या कल्याण करेगी...? यह क्या बच्चों का खेल चल रहा है कि पहले मैं तुम्हें अस्वस्थ कर दूंगा और उसके पश्चात्‌ तुम्हारा उपचार करुंगा, और कहुंगा कि यह मेरे जीवन की बडी उपलब्धि की बात है कि मैंने इतने लोगों को स्वस्थ कर दिया...?"

"यह बात हमें बली रूप में सबके समक्ष रखनी होगी...."

"कैसे रखेंगे....?"

"जनता को समझना होगा...यदि जनता समझ गयी तो सरकारें जनता की इच्छा के विरुद्‍ध बहुत दिनों पर्यन्त टिकी नहीं रह सकती...."

"पर आज का समाज तो अपना ही दुश्मन हो चला है...गुटखा के पाउचों पर विकृत हो चले जबडों के चित्र रहते हैं कि गुटखा खाने का यही परिणाम होना है -आज या कल पर निश्चय ही...तब भी लोग हंसते हुए खाते हैं कि होता है तो हो जाने दो...!"

"पर हमारे अभियान ने अभी तक इस सम्बन्ध में प्रयास नहीं किये हैं...हमें पर्याप्त प्रयास करने हैं और प्रतिक्रियाओं से निष्कर्ष निकालना है..."

पांचों इस सम्बन्ध में तथ्य एकत्र कर एक पैम्फलेट निर्मित करवा रहे हैं...इसका विषय वस्तु इण्टर्नेट पर पहले ही प्रकाशित किया जा चुका है...

"और भी कई विचारणीय विषय हैं जिनमें मानव लाभ पाने के स्थान पर कहीं अधिक हानि ही पा जाता है...स्त्रियां फेलैशियो करतीं या स्वीकार करती हैं जिससे सुख तो उन्हें कल्पना में ही मिलता है पर हानि उन्हें ऐसी पहुंचती है कि उनका रूपरंग बदरंग होता चला जाता है...साहस दिखाना या बोल्डली बातें कर पाना उनके वश से बाहर होता चला जाता है...रोगग्रस्त होने की आशंका तो बनी ही रहती है...पर फेलैशियो में रुचि प्रायः पोर्नोग्रैफी देख ही उत्पन्न होती है...क्योंकि पोर्नोग्रैफी का पर्याप्त दर्शन करने से मानव मन नियन्त्रण खो घोर पतन की ओर चल पडता है..."

सामने से जीवन चला आ रहा है...-"अरे वाह...क्या लेक्चर चल रहा है....? कुछ हम भी तो जानें, सीखें समझें..."

"सर, हमलोग एक-दूसरे की जानकारी बढा रहे हैं...अभी पोर्नोग्रैफी के सम्बन्ध में जो जानकारी मेरे संग है वह मैं इन्ह भी दे रहा हूं..."

"पोर्नोग्रैफी....? ये क्या होता है...?"

’सर, स्त्री और पुरुषों के नग्न चित्र और सम्भोग के दृश्य पोर्नोग्रैफी के अन्तर्गत होते हैं..."

"छीः छीः छीः....कहां किसके पास है यह...मैं अभी इन्हें पकडवाता हूं..."

"आप देखनेवालों को पकडवायेंगे...आप दिखानेवालों को पकडवायेंगे...पर उनका क्या करेंगे जो देखने - दिखाने की सुविधा प्रदान करते करवाते हैं...?"

"कौन हैं ये लोग...?’

"सरकार....इण्टरनेट-वेबसाइट्स पर लोग ऐसे चित्र और वीडियोज प्रदर्शित करते हैं...हम आप जनता के लोग उन वेबसाइट्स को खोल उन चित्र और वीडियोज को देखते हैं..."

"हूं...स्थिति गम्भीर है...."

"जब सरकार ही कह रही है कि रुपये दो और पोर्नोग्रैफी देखो, तब अब समाज को डूबने से कौन बचायेगा....?"

"मेरा भी यौवन बीता है....मेरी लडकियों की बातों को केवल सुन लेने भर के ही योग्य समझा था...और मेरी सीमा वहीं तक रही...और आज भी...सच मानो...मैंने अपनी धर्मपत्नी जी को...कभी भी नग्न नहीं देखा..." जीवन गर्व से सर तानता है....

फणीश -"सर...आप महान्‌ हैं....नहीं तो आजकल के अधिकतर नेता...आप तो जानते ही होंगे सर, कि कैसे हैं...!

जीवन उत्साहित हुआ...."हूं....मेरे मन में एक बात उभर रही है...केवल ऐसे ही...सच पूछो तो, केवल ऐसे ही प्रतिबन्धित कर दी जा सकती है पोर्नोग्रैफी...."

"वो कैसे सर....?"

"वो ऐसे...कि...यहां मेरी सरकार बन जाये...मैं केवल यहां ही नहीं, पूरे देश में पोर्नोग्रैफी पर प्रतिबन्ध लगवा देने का वचन देता हूं..."

पांचों विचार करते गम्भीर मुद्रा में थे....

"देखो, और कोई उपाय नहीं है...वर्तमान सरकार के लोग तो स्वयम्‌ ही पोर्नोग्रैफी का मनोरंजन करते हैं...तब अन्यों को कैसे मना कर सकते हैं...! (कुछ रुककर) अभी होनेवाले उपचुनाव में एक सीट पर मैंने अपनी पार्टी से किसी को उतारा है...मैं चाहता हूं तुम सब इसमें पार्टी को जिताने का सफल प्रयास करो..."

"सर...मेरा मन राजनीति से...चुनाव आदि से दूर् रहने पर दृढ है...विश्वविद्‍यालय में मैं पार्टी का नेतृत्व कर रहा हूं, पर तभी तक जबतक इससे मेरे समाजोन्नति के स्वप्न को सहायता मिल रही है..."

"कोई बात नहीं...मेरा तुम्हें समर्थन है, विना किसी अनुबन्ध के...और यदि तुम्हें मेरी सहायता की आवश्यकता हो, तुरत बोलो...मैं पूरी पार्टी सहित तुम्हारी सहायता करने के लिये तैयार हूं..."

जीवन चला जाता है पर अपने पीछे एक ज्वलन्त प्रश्न छोड जाता है कि जब नाविक ही नाव डूबाये तो उसे कौन बचाये...! जब सरकार स्वयम्‌ ही गुटखा, मदिरा आदि बिकवाती है. पोर्नोग्रैफी दिखलवाती है, तो समाज को अब डूबने से, देश को पतन से अब कौन बचाये...?

अमर -"पर....यह तो बडी निराशा वाली बात उभर कर सामने आयी है...अब हमलोग ये उन्नति का काम क्यों करें, जब सरकार समाज को गिराने में, दुर्बल करने में लगी है....?...हमारे प्रयास, हमारी शक्ति व्यर्थ जायेगी...!"

सरण -"आशा कैसे यूं पूर्णतया छोड बैठे...? क्या अभी सर ने कहा नहीं कि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वे हमारी कामनायें पूर्ण करेंगे...?"

"पर, किसी भी नेता की बातों का क्या विश्वास...? चुनाव से पूर्व सभी ऐसे ही बडे-बडे वचन दिया करते हैं, पर चुनाव जीतकर वे सम्भवतः सामान्य जनता से मिलें भी नहीं...!"

 

एक व्यक्ति स्यन्दन खेत में खडा भगवान्‌ से प्रार्थना कर रहा है -"आप मेघ (बादल) फाडकर जल बरसा दें...पर्याप्त बरसा दें... मैं समझूंगा कि आपने छप्पड फाडकर धन बरसा दिया है..."

कुर्ता-पायजामा पहना एक नेता चलता हुआ उसके निकट आता है...."स्यन्दन...तुमने यह अपनी क्या स्थिति बना ली है...? कहां नगर में तुम्हारा इतना महत्त्वपूर्ण जीवन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है और कहां तुम यहां सुनसान में वर्षा की प्रतीक्षा कर रहे हो...?"

"नेता...तुम नहीं समझोगे क्या होती हैं मानवीय भावनायें...नहीं...नहीं....मानवीय भावनाओं, अच्छाइयों, और ज्ञान की बातों की कुछ पंक्तियां तुमने रट ली हैं....और उनका प्रयोग तुम स्वार्थसिद्धि में करते हो...पर, मैं अब तुम्हारी चाल में नहीं आनेवाला....चले जाओ यहां से तुम...मैं ऐसे इन्हीं परिस्थि्तियों में अच्छा हूं...सन्तुष्ट हूं..."

नेता का मुख नहीं दिख रहा है, संग ही उसकी स्वर ध्वनि भी अस्पष्ट है...-"मैंने सदा तुम्हारा भला ही चाहा...यह मेरी राजनीतिक विवशता थी कि कुछ समय के लिये मैंने तुम्हारे भले की चिन्ता करनी कुछ समय के लिये छोड दी थी..."

"केवल छोड ही नहीं दी गयी थी, मेरे विरुद्‍ध परिस्थितियां बनायी भी गयी थीं...जिससे कि तुम अपनी स्वार्थ सिद्धि कर सको..."

स्यन्दन के मस्तिष्क में बीते समय का चित्र उभरने लगा...कृषि एवम्‌ बीज मेला लगा था...स्यन्दन ने भी अपने कृषि ष्टोर से सीड्स आदि कृषि से सम्बद्‍ध वस्तुओं का ष्टाल लगाया था...स्यन्दन के कई प्रकार के बीजों, हायब्रिड बीजों, कुछ नये कृषि अनुसन्धान, विविध कृषि सम्बद्‍ध समस्याओं के समाधान आदि विविध उपलब्धियों के आकर्षणों के कारण उसे मेला का प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ....स्यन्दन प्रसन्न था...पर अब उसके समक्ष कई व्यक्ति पंक्ति में खडे थे अपनी कृषि सम्बद्‍ध समस्याओं  के समाधान के लिये...अपनी जिज्ञासा शान्ति के लिये....स्यन्दन ने विद्‍वत्तापूर्ण ढंग से सभी समस्याओं के समाधान बताये...इससे स्यन्दन की प्रशंसा और प्रसिद्धि निरन्तर बढती ही जा रही थी...यह अन्तिम दिन था...सायंकाल स्यन्दन अपने आवास लौट रहा था तब कुछ व्यक्तियों ने उसे घेर लिया...वे उससे अभद्र भाषा में बात करने लगे...तभी वहां से एक नेता की कार गुजर रही थी....कार आगे बढी....रुकी...पीछे की ओर लौटी....नेता (सर निकालकर)- "ये यहां क्या हो रहा है...?" उसके संग उसका राइफल-धारी बौडीगार्ड भी बाहर निकला...यह देख वे सभी व्यक्ति तुरत वहां से भाग निकले...स्यन्दन अपने सम्बन्ध में बताता है और नेता को धन्यवाद देता है...

नेता - "वाह...हम भी आपसे विविध जानकारियां और ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं...यदि आप पधारें तो..."

अगले दिन स्यन्दन नेता से मिलने उसके आवास पहुंचता है...नेता यह जान आश्चर्य करता है कि स्यन्दन बहुत पढा-लिखा होने पर भी सीड्स आदि का व्यवसाय करता है...-"मेरी आंखें आपमें वह कुछ पा रही है जो कल मेरे लिये बहुत लाभ का उपहार ला सकता है..."

स्यन्दन - "अच्छा...वह कैसे....?"

"कल सायंकाल मैं भी उस कृषि मेला में गया था...वहां मुझे एक व्यक्ति की प्रशंसायें सुनने को मिलीं कि उसने न केवल प्रथम पुरस्कार ही पाया है अपितु विद्‍वान्‌ भी इतना है कि उसने कई कृषि-सम्बद्‍ध समस्याओं के प्रशंसनीय समाधान बताये...आप छाये हुए थे पूरे मेला में...तो अभी, आपको करना केवल इतना ही है कि आप मेरी पार्टी के सदस्य बन जायें...हमारे निर्देश आपको मिलते जायेंगे...आप वैसे-वैसे ही करते जायें....तो हमदोनों को निःसन्देह वह-वह मिल जायेगा जो हमदोनों चाहते हैं...."

"अच्छा...!" स्यन्दन के मन को सुखद आश्चर्य हुआ कि वह कुछ चाहता है, और वह अब उसे मिल जा भी सकता है...!

"हां...यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है...(कुछ रुककर) अरे, नहीं समझे...? आपने दुकानदारी की है...किसलिये....? रुपये कमाने के लिये...और मैंने राजनीति का मार्ग पकडा....किसलिये...? गद्‍दी पाने के लिये..." नेता मुस्कुराया...

स्यन्दन भी मुस्कुराया...पर नेता के मन में क्या है वह समझ नहीं पाया...

नेता- "मुझे लगता है, आपको कुछ ट्रेनिंग देने की आवश्यकता पडेगी....कल हमारा एक असिष्टेण्ट आपकी शौप जा आपको कुछ जानकारियां देगा जिसके पश्चात्‌ आपका कार्य आरम्भ होगा...अभी आप अपने शौप जायें...."

 

स्यन्दन अपने शौप में पूर्ववत्‌ बैठा है...नेता का असिष्टेण्ट वहां पहुंचता है...- "यह फार्म आप भर दें...संग ही एक रुपया दे दें सदस्यता के..."

स्यन्दन वैसा ही करता है....

"अब आप ह्मारी पार्टी के सदस्य हो गये...सर्वप्रथम आपको करना यह है कि अधिक से अधिक व्यक्तियों को पार्टी-सदस्य बनाना है...प्रत्येक एक सौ एक सदस्य बनाये जानेपर आपको पुरस्कार मिलेगा...हां...आपके शौप में आनेवाले ग्राहकों की संख्या बहुत है...इसीलिये तो सर ने आपको इतना महत्त्व दिया है...."

स्यन्दन वैसा ही करता है....इस प्रकार नेता की पार्टी के सदस्यों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढती जा रही है...नेता ने स्यन्दन को पार्टी का जनपद-अध्यक्ष बना दिया...कुछ समय पश्चात्‌ विधानसभा चुनाव के दिन आ गये...नेता ने स्यन्दन को भी टिकट दिया...पर पार्टी को जीत केवल दो सीटों पर मिली...एक पर तो नेता स्वयम्‌ जीता...और दूसरी पर जीता स्यन्दन...गठबन्धन सरकार बनी जिसमें नेता ने भी अपनी पार्टी का समर्थन दिया...संग ही, स्यन्दन की विद्‍वत्ता और योग्यता की बहुत प्रशंसा करते हुए बहुत अनुरोध कर जिस-किसी भी प्रकार से स्यन्दन को कृषि क्षेत्र में एक अच्छे अधिकारी स्तर का पद दिलवा दिया...पद ऐसा था जहां से बहुत धन पाये जा सकते थे अनुचित माध्यमों से...नेता जीवन ने कई काम करवाये स्यन्दन के माध्यम से जिनसे आर्थिक लाभ तो केवल जीवन को ही हुए, स्यन्दन ने केवल पेपर्स साइन किये और करवाये....स्यन्दन को तब भी जीवन के इस आर्थिक भ्रष्टाचार की जानकारी नहीं थी...जब जीवन ने स्यन्दन के माध्यम से पाये जा धन की राशि एक करोड पार कर गयी पायी तो एक दिन उसने पांच सौ रुपयों की दो गड्डियां स्यन्दन को थमाते हुए कहा -"ये लो एक लाख रुपयों की छोटी सी धनराशि का पुरस्कार, जो तुम्हें अभी तक इतनी कुशलता से पार्टी सेवा करने के कारण तुम्हें दिया जा रहा है..."

स्यन्दन ने प्रसन्नता से वह पुरस्कार ले लिया और उससे दूर एक ग्रामीण क्षेत्र में दो एकड कृषि योग्य भूमि का क्रय कर लिया...यह स्यन्दन की प्रबल इच्छा थी कि वह एक बडे भूक्षेत्र का स्वामी हो जहां वह फलोद्यान, कृषि, आदि का आरम्भ करे...परन्तु यदि दो-तीन लाख रुपये और उसे यदि मिलें तो वह अपने सपने साकार कर सकता है...

जब उसकी यह कामना जीवन की जानकारी में आयी तो वह तुरत बोल पडा -"दो-तीन लाख रुपये क्या हैं...बीस-तीस लाख रुपये भी तुम्हारी झोली में आ गिर जायेंगे..."

"वो कैसे...?"

जीवन ने स्यन्दन को आर्थिक भ्रष्टाचार के उपाय बताने चाहे, पर उसके दृढ औनेश्ट मन और हदय को देखते हुए वह बोल नहीं पाया...और बात घुमाते हुए बोला - "और कैसे...वही....पार्टी सदस्य बनाकर....अधिक से अधिक पार्टी सदस्य बनाओ और अधिक से अधिक रुपये पाओ...पुरस्कार...(कुछ रुककर)...पर इस बार पहले जैसे एक फौर्म पर एक-एक सदस्य बनाने के स्थान पर एक फौर्म पर कम से कम सौ सदस्य बनाओ...."

’सौ...!’ स्यन्दन की आंखें आश्चर्य से फैलीं...

"हां...एक-एक वैसे व्यक्ति को पकडो जिसके आने से कम से कम सौ और व्यक्ति उसके पीछे-पीछे आ जा सकें...ऐसा प्रभावशाली व्यक्ति हो वह...तुम इस मुख्य व्यक्ति को ही सदस्य बनाओ...हमारे और सदस्य कार्यकर्ता हैं जो उससे सम्बन्धित अन्य व्यक्तयों को पार्टी सदस्य बनायेंगे...और तुम्हारा पुरस्कार...यदि कम से कम सौ और सदस्य उसके कारण मिल गये तो तुम्हें मिलेंगे कुल एक लाख रुपयों का पुरस्कार प्रत्येक ऐसे व्यक्ति को सदस्य बनाने पर...."

स्यन्दन को रुपयों की आवश्यकता थी और काम उसे मिल चुका था...उसने उत्साहपूर्वक ऐसे प्रभावशाली व्यक्तियों से सम्पर्क बढाना आरम्भ किया...पर, ऐसे व्यक्तियों ने उसकी पार्टी में रुचि लेने का प्रयास तभी किया जब उसे स्यन्दन से कोई लाभ प्राप्त होता दिखे...ऐसे में अपनी पदशक्ति का उपयोग करके, लाभ पहुंचाकर भी, ऐसे किसी व्यक्ति को अपनी पार्टी में लाना उसके मन ने स्वीकार किया... जीवन की स्यन्दन के सभी कर्मों पर दृष्टि थी...उसने देखा, स्यन्दन ने दो ऐसे ही प्रभावशाली व्यक्तियों को अपनी पार्टी में लाने के लिये उनके किसी कार्य में अपनी पदशक्ति का दुरुपयोग किया, जिससे स्यन्दन के ऊपर प्रश्नचिह्‌न लग सकते थे...तो उसका मन अब स्यन्दन के भले की चिन्ता नहीं कर रहा था...क्योंकि अभी तक जो भी पेपर्स अनुचित रूप से जीवन ने स्यन्दन के साइन करवा लिये थे वहां उसने स्यन्दन के भले की चिन्ता करते हुए बहुत सावधानी रखी थी कि स्यन्दन पर कोई आरोप न लगने न पाये...और इस कारण से जीवन ने वैसे पेपर्स अभी तक स्यन्दन से साइन नहीं करवाये थे जिनसे स्यन्दन की स्थिति डांवाडोल हो सकती थी...पर जब स्यन्दन ने स्वयम्‌ ही ऐसे पेपर्स साइन कर  दिये हैं जिनसे उसकी स्थिति डांवाडोल हो सकती है तो जीवन भी अब पीछे क्यों रहे...उसने वैसे पेपर्स भी स्यन्दन से साइन करवाने आरम्भ कर दिये...और जब ऐसे कई पेपर्स पास हुए तो बात तो फंसनी ही थी...बात फंसी जीवन के ही पास कराये पेपर्स के कारण...उन सन्दर्भों में जब स्यन्दन से पूछा गया तो स्यन्दन ने किसी भी प्रकार की गडबडी करने की बात अस्वीकार कर दी...प्रश्न यह उठा कि कई विषयों पर उसने बहुत अधिक पेमेण्ट अनुमोदित किया था...कहीं-कहीं तो कई गुणा अधिक पेमेण्ट्स थे... इतने अधिक पेपर्स उसके आर्थिक भ्रष्टाचार को सूचित कर रहे थे कि उसे सस्पेण्ड कर दिया गया...आरोप अधिकतर उन्हीं पेपर्स से आये थे जो जीवन के द्‍वारा पास करवाये गये थे...

स्यन्दन -"मैं आप पर आंख मून्दकर विश्वास करते हुए आपके सभी पेपर्स साइन करते गया, उन पेपर्स के सम्बन्ध में जानने की कोई चेष्टा नहीं की, और आपने मेरे संग विश्वासघात किया...!"

"देखो, जो काम सभी किया करते हैं वह पाप या अपराध नहीं माना जाता...तुम अकेले ऐसे अधिकारी नहीं रहे जो ऐसा किये...पूरे भारत में ही ऐसा चलता आ रहा है...मैं तुम्हारा सस्पेंशन वापस करवा दूंगा...और तुमपर कोई आरोप सिद्‌ध भी नहीं हो पायेगा...ऐसे-ऐसे कारणों से किये गये सस्पेंशन में कोई बल नहीं होता...(कुछ रुककर)...हां...और एक शुभ और लाभप्रद सूचना तुम्हारे लिये...मन मीठा करो...तुमने जिन दो प्रभावशाली व्यक्तियों को अपनी पार्टी में सम्मिलित करवाया, उनके सम्पर्क से अभी तक प्रत्येक से सौ से भी अधिक सदस्य बन चुके हैं...इसका पारिश्रमिक मैं तुम्हें देने के लिये तैयार हूं... कार्यकर्ताओं ने बताया है कि हजारों सदस्य भी इनके सम्बन्ध से बन जा सकते हैं...इस कारण मैं इन दोनों के कारण तुम्हें दो नहीं तीन लाख दे रहा हूं...वैसे...हजार तक भी पहुंच जाने की आशा देखते हुए तुम्हें मैं दस लाख भी देने को तैयार हूं...यदि तुम हां कहो तो अभी भिजवा दूं....?"

"हां...पर...तीन लाख रुपये...जो देने का मन आपने सर्वप्रथम बनाया..."

"केवल तीन लाख....! जब दस लाख रुपये तुम्हारी झोली में गिरने को तैयार हैं, तब केवल तीन लाख...ऐसा क्यों...?"

"पर, तीन लाख का औप्शन भी तो आप ने ही दिया है...कि इतनी धनराशि मुझे मेरे कार्यों के लिये दी जा सकती है...इससे अधिक देना आपका मन स्वीकार नहीं किया... अपने मन से आप तीन ही लाख देने के लिये तैयार थे, पर अन्य कारणों से प्रभावित हो आपका मन दस लाख भी देने को तैयार हो गया..."

"ठीक है...मैं अभी तीन लाख रुपये भिजवा देता हूं..." ऐसा कह जीवन चला जाता है...

स्यन्दन ने भूखण्ड का क्रय तो कर रखा था ही, यह तीन लाख की धनराशि ले वह चला जाता है उसे सजाने-संवारने....सर्वप्रथम उसने वहां बोरिंग करवा हैण्डपम्प लगवाया जिससे पानी की व्‍यवस्था हो गयी...आधी भूमि पर कृषि करवायी तथा आधे में फल और सब्जी के पौधे लगवाये...अब वह वर्षा के लिये भगवान्‌ से प्रार्थना कर रहा था कि जीवन आ पहुंचा...बहुत अनुरोध करने पर भी जब स्यन्दन लौटना अस्वीकार करता है तो जीवन कहता है -"मेरा एक शिष्य है सरण...बहुत अच्छा छात्र है....मैं उसे भेजता हूं कि वह तुम्हें समझाये... पर तुम उसे जो गडबडियां अभी तक हो चुकी हैं उनके सम्बन्ध में कुछ न बताना...." जीवन वहां से लौट सीधा सरण से मिलता है, क्योंकि उसे अब केवल सरण से ही राजनीति में सबसे अधिक सहायता मिलने की आशा है...जीवन को स्यन्दन और सरण दोनों ही सिद्‍धान्तवादी और अच्छे व्यक्तियों का सहयोग मिला है...सरण ने जीवन से सहानुभूति दिखायी कि स्यन्दन के यूं साथ छोड चले जाने से अब विधानसभा में विकास पार्टी की केवल एक ही सीट है...

जीवन-"यदि तुम्हें स्यन्दन का संग तुम्हें मिल जाये तो तुम्हारे अभियान में और भी गति आ जा सकती है...स्यन्दन भी तुम्हारी भांति बहुत ही औनेश्ट और अच्छा व्यक्ति है. .." सरण इस समय गुटखा आदि मन और शरीर विनाशकारी पदार्थों के विरुद्‍ध जनजागरण के  अभियान में लगा है...वे पांचों एक स्थान पर कैम्प लगाकर पैम्फलेट बांट रहे हैं और लोगों को जानकारी दे रहे हैं...विभिन्न तथ्य भी दिये गये हैं...

 

गीति -"क्या लगता है कि हमारे इन प्रयासों से समाज कभी सुमार्गगामी हो जायेगा...?"

सरण - "इसकी स्पष्ट जानकारी तभी हो पायेगी जब हम इस बात का निरीक्षण करें कि हमारे अभी तक के प्रयासों का क्या कुछ अच्छा फल किसी भी परिवार या व्यक्ति के संग घटा है...!"

गीति -"पिछले मास हमने जल-अपव्यय और गुटखा,मदिरापान के विरुद्‍ध रविनगर में कैम्प लगाया था...कई व्यक्तियों के पते नोट हैं...हम वहां चलकर जानकारी ले सकते हैं कि क्या कुछ अच्छा घटा तत्पश्चात्‌...ऐसा निश्चय कर वे पांचों रविनगर का मार्ग पकडते हैं...पैदल चल वे पन्द्रह मिनट में वहां पहुंचे....एक आवास में पहुंच जब वे पूछताछ करते हैं तो ज्ञात होता है कि उनलोगों ने सरण आदि की कही बातें और सावधानियां उन्होंने बडे ध्यान से सुनीं और माना कि क्या करना चाहिये और क्या नहीं...पर अगले दिन से सभी व्यक्ति पिछले दिन की सभी बातें भूल पूर्ववत्‌ मनमाना जीने लगे...अर्थात्‌ वही गुटखा और जल-अपव्यय आदि...और तो और, कई व्यक्तियों को बहुत प्रयास करने पर यह स्मरण हुआ कि सरण आदि ऐसा कुछ उनसे बता-सुना गये थे....यह सुन सरण आदि को बहुत निराशा अनुभूत हुई...जब वे द्वितीय आवास में गये तो सुनने को मिला -"हमलोगों ने आपकी बातें सुनीं और मानीं, पर समय आने पर वही किया जिसका हमें अभ्यास बना है...अर्थात्‌ हमलोग पूर्ववत्‌ ही जीते चले आ रहे हैं..."

सरण आदि की निराशा और अधिक बढी...

"यदि हमलोग अपने लक्ष्य के प्रति और अधिक उत्साह पाना चाहें तो कौन है इस संसार में हमें और उत्साह देनेवाला...?"

अन्य और लोगों से मिलने जाने के स्थान पर सरण आदि ने अब फोन से इस सम्बन्ध में जानकारी लेने का विचार किया...तो कई व्यक्तियों ने यह बताया कि उन्होंने उनकी जानकारियों और सावधानियों से बहुत लाभ उठाया और अब वे उनके परामर्श अनुसार ही जीवन जी रहे हैं...

 सरण-"मुझे सन्देह है कि जैसा ये फोन पर बता रहे हैं वैसी ही इनकी वास्तविकता है... ... अतः किसी एक के आवास पहुंच अब विस्तार से पूछताछ की जाये...."

पांचों फोन किये गये व्यक्तियों में एक के आवास पहुंचते हैं... और जब सच कुरेदा जाता है तो वही वास्तविकता ज्ञात होती है कि उनलोगों ने भी ऐसी बातों को केवल मनोरंजन या टाइम पास की दृष्टि से ही सुना-जाना था...अर्थात्‌ सरण आदि के प्रयासों का कोई प्रभाव उनपर नहीं हुआ...

 

पांचों ने एक उद्‍यान में मण्डली जमायी और विचार-विमर्श आरम्भ किया...

सरण -"भारतीय समाज का मनुष्य सिद्‍धान्तों की बडी-बडी बातें मात्र कर सकता है, पर करते समय वही करता है जो समाज के अधिकतर व्यक्ति करते हैं...आत्मसुधार सामान्य व्यक्तियों के लिये असम्भव तो नहीं, पर बहुत ही कठिन अवश्य है..."

गीति - "मुझे लगता है समाज सुधार के प्रयासों को अतिरिक्त समय का कार्य रखा जाये, तथा हमें अपने व्यक्तिग जीवन के विकास पर अधिक समय देना चाहिये..."

सरण -"व्यक्तिगत जीवन का विकास....! आः,,,,ऐसा लगता है मानों अभी तक मैं स्वप्न देख रहा था, और अब मैं वास्तविकता के धरातल पर पांव रखा पा रहा हूं स्वयम्‌ को...मैं अब क्या करुं...! कहां जाउं...?"

फणीश -"मित्र, साहस न खोओ...मैं तुम्हारे मन की स्थिति को समझने का प्रयास कर रहा हूं...मैं तुम्हें यह परामर्श दूंगा कि अपने स्वप्न और वास्तविकता के मध्य तालमेल बैठाना आवश्यक है...और करो यद्‍यपि मुख्य रुप से निज जीवन के विकास का कार्य, तथापि समय निकालकर कभी कभी परोपकार का भी कार्य करते रहो... ... मेरे साधारण मस्तिष्क में इतनी अच्छी बात उपज गयी... विश्वास करो यह तुम्हारी संगति का ही परिणाम है...इस परामर्श को स्वीकार करो..."

"धन्यवाद तुम्हारे इस परामर्श का...पर अभी मैं क्या करुं, हो सके तो यह भी बता दो..."

"वह तो तुम्हें बताया जा चुका है...तुम स्वयम्‌ मनन-चिन्तन करो और निष्कर्ष पर पहुंचो..."

सरण विचारमग्न है और अन्य सभी इधर-उधर देख रहे और गप्प मार रहे हैं...तभी स्यन्दन वहां से गुजर रहा होता है...- "ये आपलोग किस बात का प्रचार कर रहे हैं...? और ये पैम्फलेट कैसे हैं...? आपलोगों का जीवन....?"

फणीश - "श्रीमान्‌, ये हैं नशा-विरोधी और जल-संरक्षक सूचनायें..." एक पैम्फलेट वह स्यन्दन की ओर बढाता है...

पढकर स्यन्दन प्रसन्न होता है....-"यद्‍यपि मुझे कोई नशा नहीं है, न ही मैं जल आदि का अपव्यय करता हूं...तथापि मुझे आपलोगों का यह अभियान बहुत रुच रहा है...यद्‍यपि मैं यहां बीज आदि के क्रय के लिये आया हूं तथापि यदि मैं आपलोगों के समूह में सम्मिलित हो पाया तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी..."

अमर -"जब आग बुझ रही हो तो आप क्या गर्मी पा पायेंगे...हमलोगों ने जनजागरण का बहुत प्रयास किया...लोग हमारी बातें सुन लेते हैं, मान भी लेते हैं, पर वैसा सुधार अपने जीवन में नहीं लाते...जीते वैसे ही रहते हैं जैसा वे जीते चले आ रहे हैं...इस कारण हमारा सुधारवादी मन बुझता आग होता चला जा रहा है...हमलोगों से अब आप क्या गर्मी पा पायेंगे...?"

स्यन्दन -"पर, मैं तो स्वयम्‌ ही ऐसी आग हूं...मेरी संगति से यह बुझती आग पुनः भडक उठ सकती है..."

’अच्छा...’ सबने आश्चर्य व्यक्त किया...तब स्यन्दन ने संक्षेप में अपनी आपबीती सुनायी, जीवन का नाम लिये विना, कि किस प्रकार एक अधिकारी पद पर काम करते वह निर्दोष ही फंस गया था, पर अब वह अपने कृषि क्षेत्र, फलोद्‍यान में सुखपूर्वक जी रहा है...सभी ने स्यन्दन के कृषि और फलोद्‍यान क्षेत्र के भ्रमण के प्रति अपना आकर्षण दिखलाया...स्यन्दन तब इन सबके फोन नं नोटकर ले जाता है कि वह उनसे पुनः मिलेगा...

स्यन्दन तो चला गया पर सरण के मन को ऐसी आशा और विश्वास दे गया कि स्यन्दन जैसे अच्छे कई लोग इस संसार में हो सकते हैं...सरण अब उत्साह जगाते हुए साहस और विश्वास का गीत गा रहा है...अन्य सभी इसमें उसको संग दे रहे हैं...’मन में जो हो आश...तो पूरी हो सकती...नहीं कौन आश...यूं ही नहीं...है हमें चलते जाना...न जाने कब हो जाये जीवन का अन्त...है हमें उससे पूर्व, बहुत कुछ कर पाना..’

तत्पश्चात्‌ और भी उत्साह पाने को वे पांचों राघवेन्द्र कश्यप के समीप पहुचते हैं...

राघवेन्द्र -"यह जीवन एक यात्रा ही है...आत्मा की यात्रा है...इसमें कितने ही मिलते और बिछड जाते है....मनुष्य एकाकी (अकेला) ही इस जीवन में आया है, और एकाकी ही इस जीवन से चला जायेगा...अतः मनुष्य को अपना लक्ष्य स्वयम्‌ ही निर्धारित करना चाहिये...मनुष्य जो भी कर्म करता है उसका फल वह स्वयम्‌ ही पाता है...उसके कर्मों का फल कोई और नहीं बांट पाता है...अतः मनुष्य बहुत सोच-समझकर अपनी इच्छानुसार अच्छा ही कर्म करे...किसी के दबाब में आकर कोई कर्म न करे..."

"पर इतने लोगों के संग रहते कैसे मनुष्य अन्य सभी की बातें अनसुनी कर केवल अपनी इच्छानुसार सभी कर्म करते चला जा सकता है...?"

"मनुष्य यदि चाहे तो क्या नहीं हो सकता है...! अच्छे कार्यों में बाधायें आती हैं...पर आरम्भ में ही आती हैं....यदि विचार दृढ हों तो बाधायें धीरे-धीरे हटती चली जाती हैं...समर्थन बढता चला जाता है...पर इसके लिये यह आवश्यक है कि प्रयास सतत होते जायें..."

"क्या यह सम्भव है कि समाज सुधर जाये...? और हमलोग जितना अच्छा चाहते हैं, मनुष्य समुदाय उसी अनुसार जीवन व्यतीत करने लग जाये...?"

"कितने ही महापुरुषों ने अपना पूरा जीवन लगा दिया समाज सुधारने में...शताब्दियों से महापुरुष समाज सुधारने का प्रयास कर-कर चले गये, पर समाज देखो आज कहां पहुच गया है...? समाज की अपनी ही गति है...बुरा से और भी बुरा होता चला जा रहा है...आदर्श की बातें केवल मन में ही रह जाती हैं..."

सरण के मन को जैसे धक्का लगा...उसे यहां उत्साह पाने की आशा थी...-"तो सर, मैं अब कैसे जीउं....? क्या हो मेरी दिनचर्या प्रतिदिन की...?"

राघवेन्द्र -"किसी धार्मिक विद्‍वान्‌ मनुष्य ने कहा था -’अपना सुधार संसार की सबसे बडी सेवा है...तुम सुधरोगे तो सारा संसार सुधरेगा...और भी - तुम्हें किसी को सुधारने की आवश्यकता भी नहीं होगी...तुम जितने सुधरे होगे उतनी अच्छी प्रेरणा अन्य मनुष्यों का मन स्वयम्‌ ही प्राप्त करने लगेगा, तुम्हारे बोले विना ही’..."

गीति -"विना बोले भी कोई मेरी बात मान ले सकता है...ऐसा कैसे सर...?"

"मान लो मेरे अन्दर ऐसी अच्छाई मेरे अन्दर समायी है कि मैं सबका भला करुं, किसी भी का बुरा न करुं, और मन को ईश्वर प्राप्ति में लगा मोक्ष पा लूं...तो जो भी व्यक्ति मेरे निकट मेरे प्रति अच्छी भावना लेकर आयेगा, उसके मन में मेरे अन्दर की बातें स्वयम्‌ ही उभरने लगेंगी...और उसका मन होने लगेगा कि वह भी सबका अच्छा ही करे, किसी भी का बुरा न करे, और सत्य ज्ञान की प्राप्ति का प्रयास करे..."

"हां...तो क्या हम किसी को सुधारने का प्रयास न करें...?"

"करें...परन्तु केवल स्वयम्‌ को ही सुधारने का प्रयास करें...किसी अन्य को नहीं...हां...पर यदि कोई जिज्ञासा से कुछ जानना चाहे तो उसे बता दिया जाना चाहिये...परन्तु स्वयम्‌ ही किसी को बताने का प्रयास करना समय व्यर्थ करना है...क्योंकि उस व्यक्ति का मन किसी अन्य ही दिशा में घूम रहा है...तुम उसके मन को अपनी दिशा में क्या मोडोगे, कहीं तुम्हारा ही मन उसकी दिशा में न घूम जाये...(कुछ रुककर)...एक सच्ची बात यह है कि जैसे-जैसे लोग इस संसार में हैं, वैसे-वैसे लोगों के इस संसार में होने का आभास इस मन को स्वयम्‌ ही होता रहता है...और यदि तुम अच्छे हो, तो अन्य भी अच्छे लोगों के आभास से तुम्हें उत्साह मिलेगा...तुम्हारे मन को बल मिलेगा...तुम्हारे उनसे मिले विना ही..."

पांचों ने ध्यान से राघवेन्द्र की और भी बातें सुनीं...अन्ततः सरण ने पूछा -"सर, तो अब मैं अपनी दिनचर्या कैसे क्या निर्धारित करुं...?"

"सभी आवश्यक दैनिक कार्यों को करते हुए ध्यान साधना अवश्य करो...और मन को अच्छाई को समर्पित करते हुए धनोपार्जन का

कार्य करो....अच्छाई के मार्ग पर बने रहते हुए जितना भी धन मिल जाये वह तुम्हारे लिये बहुत ही अच्छा फल देनेवाला होगा..."

इसके पश्चात्‌ पांचों ने उनको धन्यवाद दिया और चले गये...

 

सरण कुछ दिनों तक राघवेन्द्र के बताये अनुसार दिनचर्या चलाता है और फोन से उनसे परामर्श लेता रहता है....एक दिन जीवन सरण से मिलता  है और राजनीति में उसकी सहायता करने को कहता है, इस आश्वासन के संग कि यदि उसकी पार्टी सत्ता में आयी तो वह इस राज्य को उसके सपनों का समाज प्रदान करवा देगा...सरण का मन स्वीकार कर लेता है जीवन के अनुरोध को, पर धनोपार्जन वह कैसे करे...?

जीवन -"अभी चुनाव के दिन निकट आते चले जा रहे हैं...तुम विधायक बन जाओ, तब यह समस्या भी तुम्हारे संग (साथ) नहीं रह जायेगी..."

 

सरण निर्धारित दिनचर्या का यथासम्भव अनुसरण करते हुए जीवन की विकास पार्टी के प्रचार-प्रसार में भी लग जाता है...उसने विचारा -’यद्‍यपि राजनीति कभी भी मेरा लक्ष्य नहीं रहा है, तथापि अभी तो इसी दिशा में बहता चला जा रहा हूं...देखुं, आगे क्या होता है...!’ सरण अध्ययन के लिये अपने स्थायी आवास से बहुत दूर इस नगर में किराये के एक रूम के फ्लैट के आवास में रहता चला आ रहा है...वह स्वयम् ही भोजन बनाता है...अभी वह रसोई में था कि कौलबेल बजी...जाकर उसने देखा तो गीति थी...गीति अब उसका भोजन बनाना देख रही है -"मैंने अपने आवास में बहुत आवश्यकता पडने पर ही भोजन बनाया है...इस कारण भोजन बनाने का अनुभव तुम्हारे संग मुझसे अधिक है..."

सरण के संग-संग वह भी उसका बनाया भोजन कुछ मात्रा में खाती है...-"अपनी आजीविका (रोजगार) के लिये तुमने क्या सोचा है...क्योंकि राजनीति से मिली रोटी न केवल मलिन (गन्दी) ही हो सकती अपितु हानिकारक भी हो सकती है..."

"हां...ऐसी आशंका तो मुझे भी है....राजनीति के पथ पर चलना मानो उचित जीवन जीने के मार्ग से भटक जाना है...पर वर्तमान परिस्थितियों ने मुझे इसी पथ पर ला खडा किया है...तब भी, मुझे क्या करना है, कि...."

"कि तुम पूर्णतया सावधान रहो..."

"हां...मुझे इस पथ पर प्रत्येक पग बहुत सावधानी से रखना है..."

"आज अभी क्या करने वाले हो...?"

"कुछ विशेष नहीं...अभी तक में मैंने स्नान, ध्यान, भोजन सब कर लिया है...अब कुछ घण्टे फ्री हैं मेरे व्यक्तिगत कार्यों के लिये...."

"तो चलो संग मेरे...एक स्थान ले चलती हूं..."

दोनों बस पकड एक श्टौप पर उतरते हैं...गीति उसे एक निकट स्थित मन्दिर ले जाती है...देवी मां का मन्दिर...मन्दिर की विशेषता यह है कि मन्दिर जहां आकर्षक और प्रसिद्‍ध है वहीं उसके संग लगा सार्वजनिक उद्‍यान विशाल, कई सुविधाओं से युक्त और आकर्षक है...प्रथम दोनों देवी मां को प्रणाम करते हैं, पश्चात्‌ उद्‍यान में जा आराम से एक स्थान पर बैठते हैं...

गीति -"मेरे स्वप्न का क्या होगा...?"

"कैसा स्वप्न...?"

"तुम्हारे संग जीने का... अर्थात्‌, विवाह का..."

"विवाह तो स्थिर जीवन में होता है...जबकि मेरा जीवन अभी अस्थिर है...कुछ भटका हुआ सा भी है..."

"तब भी...मैं कामना करती हूं...तुम्हारा सब अच्छा-अच्छा हो जाये..." वह सरण के कन्धे पर सर टिकाये, कल्पना में, सरण के प्रति प्रेम भरा गीत गा रही है...-तुमसे ही...तुमसे ही मेरा जीना है...तुम पर ही मुझे मर जाना है...तुम्हीं मेरे संसार...तुमसे ही मुझे सब पाना है..."

 

जीवन सरण से मिलता है और कहता है -"तुम जाकर स्यन्दन से मिलो, और उसे राजनीति में वापस लाने का सफल प्रयास करो...अर्थात्‌ उसे ले ही आओ...वह मेरी पार्टी से विधायक है..."

कोई चार सौ किलोमीटर दूर है स्यन्दन की कृषि भूमि...गीति के अतिरिक्त अन्य चारों वहां पहुंचते हैं...स्यन्दन को देख वे आश्चर्य करते हैं कि वे तो उससे पहले मिल चुके हैं...वे जब स्यन्दन से राजनीति छोड कृषि करने लग जाने का कारण पूछते हैं तो स्यन्दन केवल इतना ही बताया कि - "राजनीति के वायुमण्डल में जीना मुझे रुचा नहीं...जबकि कृषि के इस वायुमण्डल में जीना मुझे बहुत रुचता (पसन्द आता) है..."

अमर -"आपने पिछले बार मिलने पर बताया था कि किसी नेता ने आपसे विश्वासघात किया था...कौन है वह...?"

स्यन्दन इसे टाल जाता है वह कौन है...अर्थात्‌ छिपाये रखता है...स्यन्दन उन्हें अपना कृषि और फलोद्‍यान का क्षेत्र दिखलाता है....कि कृषि कार्य वहां कितने आकर्षक रूप में चल रहा है...विविध प्रकार के फलों के पौधे और वृक्ष वहां बढ रहे हैं...सब्जियां तो अभी ही वहां पर्याप्त उग रही हैं....क्रेता लोग यहां आकर सब्जियां क्रय कर ले भी जा रहे हैं...समक्ष (सामने) कुछ श्रमिक (मजदूर) शस्यों (फसलों), फलों, और सब्जियों के पौधों को पानी दे रहे हैं...इस प्रकार वहां का दृश्य बहुत मनोहारी(mind becomes engrossed  in what) और रमणीय(enjoyable) था...चारों को बहुत प्रसन्नता हुई उस वातावरण में....

सरण -"यूं तो यहां का वातावरण इतनी प्रसन्नता देता है कि नगर का सारा वातावरण कुछ दुःख जैसा जान पडता है इसकी तुलना में...तब भी, स्यन्दन जी, मैं आपसे यह कहना चाहुंगा कि यहां के संग-संग नगर का भी काम देखते सम्भालते रहें....क्या यह बुरा होगा यदि ऐसा हो तो...?"

"हां...बुरा होने की आशंका है...क्योंकि यह जो मन है वह एक बार में केवल एक ही स्थान पर केन्द्रित हो पाता है...आपने तो सुना होगा- एक को मनाओ तो दूजा रूठ जाता है..."

"पर कितने ही लोग एक साथ कई कार्यों का उत्तरदायित्व उठाये रखते हैं, और सफल भी होते हैं...क्या कहेंगे उनके सम्बन्ध में आप...?"

"मन तो एक समय में केवल एक ही स्थान पर केन्द्रित हो पाता है...अन्य स्थानों या उत्तरदायित्वों पर उनके अधीन काम करने वाले मैनेजर, औफिसर आदि उन-उन स्थानों पर अपने मन को लगाये रखते हैं...स्वामी (मालिक) तो कभी-कभी देख आया करते हैं..."

"तो आप भी यहां अपना कोई मैनेजर या कर्मचारी रख दें जो आपका यहां का काम भलीभांति सम्पन्न करवा दिया करेगा...और आप अपना मन नगर में लगायें..."

"हां...यदि कोई इतना विश्वसनीय कर्मचारी मुझे मिला तो...और वह यदि मुझे यहां मिलनेवाली प्रसन्नता भी वहां मेरे समीप भेज दिया करे..."

"यह हो सकता है कि यहां के वातावरण से आपकी कुछ दूरी हो जाये...तब भी यह आपके मन पर निर्भर करता है...जिसे आप बहुत प्रेम करें वह २४ घण्टे आपके मन में छाया रहता है...वैसे, जीवन सर ने बताया है कि आप पार्टी के लिये बहुत लाभदायक रहे हैं...और अभी पार्टी को आपकी बहुत आवश्यकता भी है..."

"आइये...हमलोग कुछ फलाहार लें..." श्रमिक उन सब के लिये काटकर कुछ फल लाता है...वे खाते हैं, प्रशंसा करते हैं...

सरण -"मैं स्वयम्‌ भी ऐसे वातावरण में रहना पसन्द करता हूं...किसी भी अच्छे व्यक्ति को ऐसे वातावरण में रहना रुचेगा...पर यदि किसी अन्य स्थान पर कुछ समय के लिये जाना पडे, तो वहां जाना भी रुचेगा...केवल चुनाव तक भी यदि आप पार्टी का साथ दें, तत्पश्चात्‌ यहीं रहें...सर ने कहा है कि जितना भी लाभ पार्टी को आपके कारण होगा, उसी अनुपात में उतना ही लाभ आपको ऐट्लीष्ट लाखों रुपये मिलेंगे....इससे आप यहां और भी समृद्‍ध रूप में रह सकते हैं...जैसा आप निर्णय लें..."

इस प्रकार बहुत तर्क और अनुरोध करने पर स्यन्दन नगर आने को तैयार हो गया- "अभी चार-पांच दिनों पश्चात्‌ मैं स्वयम्‌ ही जीवन जी से बात करूंगा...तबतक यहां की व्यवस्था कौन सम्भाले, यह निर्णय मुझे लेना है..."

तब चारों वहां से चल पडते हैं और जीवन को इस बात की सूचना फोन कर देते हैं...सुनते ही जीवन अति प्रसन्न हो तुरत बस पकड स्यन्दन से मिलने पहुंच जाता है...स्यन्दन -"मुझे चिन्ता मात्र इस बात की है कि मेरे इस कृषि क्षेत्र को अपना जैसा कौन सम्भालेगा, यहां की व्यवस्था भलीभांति करता रहेगा मेरी अनुपस्थिति (ऐब्सेन्स) में...तबतक...?"

जीवन -"अरे, यह तो बहुत ही साधारण चिन्ता है जिसका समाधान मैं अभी कर देता हूं...मेरे दो विश्वसनीय कर्मचारी हैं जो यहां की  सारी व्यवस्था भलीभांति सम्भालेंगे...बुलाउं...?"

स्यन्दन के स्वीकार करने पर जीवन उन्हें फोन कर देता है...रात जीवन वहीं बीताता है...प्रातःकाल होते-होते वे कर्मचारी भी वहां अपनी आवश्यक वस्तुओं के संग पहुंच जाते हैं...जीवन को भी स्यन्दन की यह कृषि भूमि रुचती है...वह वहां का आनन्द-भ्रमण करता है और फल आदि का स्वाद लेता है..स्यन्दन उन दोनों को वहां की सारी व्यवस्था समझाता है, उनके खाने-रहने की व्यवस्था बताता है...उन्हें बताता है कि समय-समय पर यहां आकर वह मिलता देखता रहेगा...जीवन तब विना विलम्ब किये स्यन्दन को अपने संग लेते जाता है...स्यन्दन पार्टी कार्यालय में रहता है, और अब अधिकतर समय सरण की संगति में बीताता है क्योंकि उसे सरण की जीवनशैली और विचार बहुत प्रिय (पसन्द) हैं...इस प्रकार सरण आदि के पांच का समूह अब छः का हो चला था...

स्यन्दन -"यदि एक बार लोगों को समझाने से वे न समझें तो हमें दूसरी बार, और तीसरी बार भी प्रयास करने चाहिये...यदि दूसरे तीसरे बार प्रयास करने का मन नहीं बन रहा हो, तो भी कोई बात नहीं...प्रयास हमें तब भी करना है...क्या सोचकर...! इस बार यह जानते हुए भी कि हो सकता है इससे हमें समाज-सुधार में सहायता न मिले, पर इन कार्यों से हमें जनता का ध्यान अपनी पार्टी की ओर आकर्षित करने में, वोट-प्रतिशत बढाने में सफलता निश्चित रूप से पानी है..."

सरण -"यह तो बहुत अच्छी समझ की बात रही...एक पन्थ दो काज...दोनों ही लाभ होंगे..."

 

इस बार के कैम्प में विशेष ध्यान पानी के महत्त्व पर था...किस प्रकार पानी व्यर्थ होता है, यह न होने पाये...पेय जल के स्रोत....भूजल का स्तर निरन्तर नीचे और नीचे गिरता चला जा रहा है...कुछ वर्षों पश्चात्‌ बोरिंग से भी पेय जल मिलना सम्भव न हो पायेगा...तब मानव कैसे जीयेगा और जीवन अस्तित्व में कैसे रह पायेगा...? इत्यादि...

एक परिवार के सदस्यों के समक्ष जब ये बातें कही गयीं तो वे घबडा गये और बोले कि अब वे पानी एक चुल्लु भर भी व्यर्थ नहीं जाने देंगे...सरण का हैण्डबैग उसी आवास में छूट गया था...कुछ समय पश्चात्‌ जब वह उसे लेने आया तो पाया वहां वे बहुत पानी व्यर्थ में भूमि पर बहा रहे थे...हैण्डबैग जहां रखा था वहां से उठा उसे दे दिया गया...पर जब उसने पानी के दुरुपयोग पर आपत्ति की, तो वहां उपस्थित किसी ने कहा कि यह उनका पानी है और वे चाहे जैसे उसका उपयोग करें...और किसी भी ने उसकी बात मानने में रुचि नहीं दिखायी...एक छोकडे ने कहा -"आपलोगों का काम है हमलोगों को बताना, पर हम मानते हैं या नहीं यह हमपर निर्भर है...ये देखो, हमलोग गुटखा भी खाते हैं, और कितना भी बोलो, हमलोग सुन लेंगे पर छोडेंगे नहीं...ये देखो...पैकिट पर चित्र भी बना है कि गुटखा खाते रहने से जबडा गल जायेगा -मुंह सारा बिगड जायेगा...हो सकता है मुंह काम करना बन्द कर दे...पर हमारा भी मन पूरा बना है कि हम गुटखा खाते ही रहेंगे चाहे इसका जो परिणाम हो..."

सरण ऐसा सुन आश्चर्यचकित रह गया...उसने तुरत मोबाइल से राघवेन्द्र सर को फोन किया और यह घटना बतायी...उनने कहा -"धर्म या अध्यात्म के पथ का अनुसरण कर, या ईश्वर में सच्चे विश्वास से ही जीवन जीने को महत्त्व मिलता है...धर्म/अध्यात्म के अभाव में जीवन जीने का महत्त्व डूबने लगता है...जैसा कि उस युवक के समक्ष रुपया कमाने के अतिरिक्त कुछ अच्छाई, सदाचार, या सच्चे धर्म में विश्वास इत्यादि का आदर्श नहीं था...अतः जीवन का मार्ग प्रकाश को छोड अन्धकार की ओर मुडने और उसमें खो जाने को आतुर है...इसी कारण उसने ऐसा कहा...रुपये से हमें कभी भी ऐसी प्रेरणा नहीं मिलती कि हमें अच्छा करना चाहिये और बुरा नहीं करना चाहिये...ऐसी प्रेरणा हमें ’सच में किसी ईश्वरीय शक्ति’ में विश्वास करने से मिलती है...केवल रुपयों को ही जीवन का लक्ष्य मानने वाला मनुष्य जिस किसी मार्ग पर निकल जा सकता है, और किसी भी दिन किसी भी समय अपने ही जीवन को हानि पहुंचा दे सकता है...धर्म में मनुष्य का विश्वास यदि सच्चा हो तो वह मनुष्य को संयम, विकास, उत्साह, चरित्रवत्ता, प्रसन्नता आदि अच्छाइयों में बान्धे रखता है...धर्म/अध्यात्म का बन्धन छूट जाने पर मनुष्य बिखरने लगता है...कभी भी वह नाश को प्राप्त हो जा सकता है..."

"और जो लोग अपने धर्म के सच्चे अनुयायी होने का दावा करते हुए हिंसा - हत्या और आतंक फैलाते हैं, वे...?"

"वे धर्म नहीं, अधर्म का पालन कर रहे होते हैं, पर उन्हें भ्रम होता है कि वे ऐसा कर स्वर्ग जायेंगे...उन्हें नरक की अग्नियों में कठोर दण्ड ही मिल सकता है..."

 

सरण के मन पर इस घटना का और राघवेन्द्र सर के स्पष्टीकरण का विशेष प्रभाव पडा...उसने सोचा, धर्म के पथ का अनुसरण तो वह भी नहीं कर रहा है...अर्थात्‌ वास्तविक विकास के पथ पर वह भी नहीं चल रहा है...उसने अभियान के अन्य सदस्यों को कहा -"अभी मैंने उनलोगों का जो बिगडा रूप देखा उसके पश्चात्‌ मेरा मूड बहुत बिगडा हुआ है...तुमलोग अभियान में लगे रहो...मैं अपने कक्ष में जा रहा हूं...कुछ समय शान्ति से बीताउंगा...”

वह कक्ष में जाकर राघवेन्द्र सर के बताये अनुसार पद्‍म आसन में बैठ मुक्तात्मस्वरूप और ब्रह्‌मात्मस्वरूप के ध्यान का प्रयास करता है...वह उनकी बतायी ध्यान विधि का पुनः अध्ययन करता है और वैसे ही ध्यान एकाग्र करने का प्रयास करता है...मन को सांसारिक सुखों से पूर्णतया हटा लेने का प्रयास करते हुए स्वयम्‌ को प्रकाश के गोले के रूप में कल्पना करने का प्रयास करते हुए ध्यान करने का प्रयास करता है...मन से सभी सांसारिक सुखों की कामना छोड देने का जब उसने मन बनाया तो उसके मन को बहुत आराम और आनन्द-सा अनुभव हुआ...वह कुछ मिनटों पर्यन्त (तक) ऐसा ध्यान कर ऊंघने लगता है और लेट सो जाता है....एक घण्टे पश्चात्‌ उसकी नीन्द खुली तो वह पुनः ध्यान की धारणा में संलग्न होने का प्रयास करने लगता है...कुछ मिनटों पश्चात्‌ कौलबेल बजती है...उठकर जा देखता है तो पाता है कि गीति आयी थी...

"तुम्हारे विना कैम्प में मेरा मन नहीं लग रहा था...यद्‍यपि अन्य सभी अभी भी उत्साह से लगे हैं..."

सरण ने विचारा -’सम्भवतः वोट बढाने का ही उनका इण्टेन्शन है...’ और बोला -"गीति, तुम भी राघवेन्द्र सर के बताये अनुसार ध्यान लगाने का प्रयास करो और देखो कैसी अच्छी अनुभूति होती है...."

दोनों ध्यान की अवस्था में बैठे हैं...संकल्प कर रहे हैं सांसारिक सुखों से अपना सम्बन्ध पूर्णतया तोड केवल मुक्ति की कामना करने का...कुछ मिनटों पर्यन्त प्रयास करते हुए वे पाते हैं कि जितना ही अधिक वे सांसारिक सुखों से अपना सम्बन्ध तोड लेने या मन हटा लेने भी का प्रयास करते हैं उतना ही उनका मन सांसारिक सुखों के प्रति खिंचने लगता है...सरण और गीति एक-दूसरे के प्रति भी आकर्षण अनुभव करते हैं...ऐसे में जब दोनों ने यौन आनन्द से अपना मन पूर्णतया हटा लेने की धारणा की तो उनकी काम वासनायें और भी भडक उठीं, और कुछ ही क्षणों की हिचकिचाहट के पश्चात्‌ वे दोनों सम्भोगरत हो गये...परस्पर यौन सम्बन्ध बना दोनों ही को बहुत आनन्द आया...पर ध्यानसाधना का ऐसा परिणाम क्यों मिला...? सरण ने तुरत राघवेन्द्र सर को फोन किया और सारी बात बतायी...

राघवेन्द्र -"मेरा यह स्पष्ट कथन है कि मुक्तात्मस्वरूप और ब्रह्‌मात्मस्वरूप के ध्यान में पुरुषों के लिये स्त्री, और स्त्रियों के लिये पुरुष गड्ढे जैसे हैं...अतः दोनों को ध्यान अलग-अलग ही लगाना चाहिये...अब मेरा परामर्श यही है कि तुमदोनों विना विलम्ब किये एक-दूसरे से विवाह कर लो...तत्पश्चात्‌ संग बैठ ध्यान लगाया करो...तुम्हें अपनी कामवासना पर विजय प्राप्त करने में सफलता मिल सकती है..."

 

गीति ने अपने परिवार को पूरी बात बतायी और विना विलम्ब किये सरण संग विवाह की तीव्र इच्छा जतायी...दोनों ही के अति इच्छुक मन को देखते हुए गीति के परिवार वालों ने एक मन्दिर परिसर में सादे ढंग से दोनों का विवाह सम्पन्न करवा दिया...उन लोगों को सरण बहुत पसन्द था पर उसका धनोपार्जन न करता हुआ होना ही सबके मन में खटक रहा था...गीति ने जब सभी लोगों की यह चिन्ता सरण को बतायी तो, सरण - "तुम्हें मैं वचन दे रहा हूं...जितना शीघ्र सम्भव हो सकेगा, मैं इस समस्या का समाधान कर दूंगा...बहुत दिन नहीं लगेंगे..."

गीति चाहे तो सरण के संग रहे अथवा अपने पिता के आवास में उसके अपने कक्ष में रहे यह उसपर निर्भर था...यह अनुमति थी उसे दोनों ही ओर से...विवाह के समय एक गीत का आरम्भ हुआ जो विवाह पश्चात्‌ गीति के सरण के फ्लैट में रहते हुए भी चल रहा है जिसमें गीति सरण के धनोपार्जन करते हुए पहले से कहीं अधिक अच्छे फ्लैट में पर्याप्त सुखद स्थिति में रहते हुए होने की कल्पना कर रही है...गीति यह गीत सरण संग बहुत ही सुखपूर्वक जीते होने की कल्पना करती गा रही है...

 

सरण ने धनोपार्जन के सम्बन्ध में अपनी चिन्ता जीवन को बतायी...

जीवन -"अब चुनाव में कितने मास बीतने और रह गये हैं...? तुम्हारा विधायक बनना निश्चित है...तबतक पार्टी की जनता पर पकड और भी बली बनाने में लगे रहो...और हां...धन की जो आवश्यकता है....वह स्यन्दन जैसा ही पेमेण्ट तुमलोगों को भी करुंगा....केवल तुमलोग काम करके दिखाओ...क्या किया और कितने व्यक्तियों को अपनी पार्टी में लाया...किसी भी एक प्रभावशाली व्यक्ति, जिसके पीछे कम से कम सौ और व्यक्ति भी अपनी पार्टी में आ जायें, को अपनी पार्टी में लानेपर एक लाख रुपये मिलने निश्चित हैं....हां...पेमेण्ट लाखों में मिलेंगे... तुमलोग रुपयों की चिन्ता न करो...."

सरण खडा चिन्तित हो रहा था कि न जाने कब ये रुपये मिलेंगे...? जीवन ने उसके मन को पढ लिया और बोला - "ऐसा है...परसों तुम पांचों मुझसे पार्टी कार्यालय में मिलो...अभी तक कितने व्यक्तियों को अपनी पार्टी में ला चुके उनके विवरणों के संग...तुम सभी को तुरत पेमेण्ट मिलेगा..."

 

सरण ने अब निश्चित रूप से समाज के सुधर ही जाने की आशा न करते हुए केवल सावधान करने अपनी पार्टी की पहुंच अधिक से अधिक बढाने-फैलाने में अपना मन लगाया...गीति अब पहले से बहुत कम ही समय अभियान में देने लगी, और वह भी तभी तक जबतक सरण संग उसके वहां है...

विकास पार्टी के बढते-फैलते प्रभाव को देख अन्य राजनीतिक पार्टियां घबडायीं...क्योंकि अन्य पार्टियां केवल जनता के लिये लाभदायक घोषणायें करके, या दो समुदायों को लडवाकर पुनः शान्ति स्थापित करने और भयमुक्त समाज देने का चुनावी वचन देने, या क्षेत्रवाद आदि ऐसी ही कई चतुरायियों से वोट पाने का प्रयास करती रहती थीं...जबकि जीवन की विकास पार्टी समाजसुधार के नाम पर अच्छा नाम कमा रही और जनता में अधिक से अधिक दूर तक की पहुंच-पकड बनाती चली जा रही है...

जीवन -"मैं अगले मास अन्त तक में यहां राजधानी में अपनी पार्टी का राज्यस्तरीय सम्मेलन या रैली आयोजित करने जा रहा हूं...इसके लिये तुमलोगों  को अन्य नगरों में भी अभियान कैम्प आयोजित करने होंगे...और हां, रुपये...स्यन्दन के संग मेरा अलग ही रुपयों का लेना-देना है, पर तुम पांचों के लिये मैं दो लाख रुपये दे रहा हूं...अभी तक जितने भी व्यक्ति तुमलोगों के कारण पार्टी में आये हैं इस नाम पर...और आगे के अभियान कार्यों में जितने भी रुपये व्यय होंगे, अगले दिन ही तुमलोगों को उन रुपयों से कहीं अधिक का पेमेण्ट मिल जाया करेगा...हो सकता है, यह पेमेण्ट का कार्य स्यन्दन किया करे...राज्य के सभी नगरों और कुछ उपनगरों में भी अभियान आयोजित करने होंगे...मैंने इन सभी स्थानों पर अपनी पार्टी की पकड बना रखी है...पर अब यह पकड इतनी बली बनानी है कि यह जीत दिला दे...सभी स्थानों पर श्टेज आदि की व्यवस्था मैं करवा रहा हूं...मेरे भाषणों का आलेख सरण और स्यन्दन लिखेंगे...कुछ अन्य भी नेता हैं अपनी पार्टी के जो भाषण देंगे..."

 

इसके पश्चात्‌ बडी ही व्यस्त दिनचर्या हो गयी छहों की...सरण ने दो लाख रुपयों के समान पांच भाग चालीस-चालीस सहस्र (हजार) रुपये किये सरण, गीति, अमर, ईशान, और फणीश के नाम पर और बांट दिये...यह उनलोगों का प्रथम बार पार्टी से हुआ आर्थिक लाभ था...तब भी, अब गीति के लिये आराम के ही दिन थे, क्योंकि वह यहां राजधानी में होनेवाले कार्यक्रमों में ही भाग लेगी...बाहर के नगरों में अन्य पांचों जायेंगे...

समय से सभी प्रस्थान कर जाते हैं सूची पर लिखे प्रथम नगर को...प्रथम दिन पांचों का अभियान -कैम्प -जनजागरण चलता है...इसमें पार्टी के कुछ अन्य भी सभ्य-से सदस्य उत्साहपूर्वक लगे रहते हैं...नगर बडा होने के कारण यहां दो दिन अभियान रखा गया है, और तीसरे दिन रैली या भाषण...तीसरे दिन भाषण में श्रोताओं की अच्छी संख्या जुटी नगर से और ग्रामों से...जीवन ने पार्टी सदस्यों को सुदूर ग्रामों से भी लोगों को रैली में लाने को भेजा था...सरण, स्यन्दन, तथा कुछ अन्य पार्टी नेताओं ने भी रैली की भीड को सम्बोधित किया...जीवन ने जनता को यह विश्वास दिलाया कि यदि उनकी पार्टी का शासन आया तो रामराज्य आ जायेगा...इतना सुखी, सम्पन्न और सुमार्गगामी होगा राज्य...

कोई डेढ मास के राज्यव्यापी अभियान से जीवन की विकास पार्टी पूरे राज्य के नागरिकों  के विशेष चर्चा का विषय बन गयी थी...लोगों की समझ में विकास पार्टी के सबसे बडी पार्टी के रूप में उभर आने की सम्भावना दिखने लगी थी...शासक पार्टी और मुख्य विरोधी दल दोनों ही ने विकास पार्टी को अपने पक्ष में लाने के प्रयास आरम्भ किये...उन्होंने जीवन से मीटिंग की तथा एक गठबन्धन बना चुनाव लडने की बात कही...मुख्यमन्त्री स्वयम्‌ आया जीवन के पार्टी कार्यालय...इस समय सरण आदि पांचों भी उपस्थित थे...जीवन के संग मुख्यमन्त्री की केवल औपचारिक ही बातचीत हो पायी...जीवन ने उससे सरण और स्यन्दन की बहुत प्रशंसा की कि इन दोनों के कारण ही आज पार्टी का महत्त्व इतना अधिक बढ गया है...मुख्यमन्त्री की पारखी दृष्टि से सरण और स्यन्दन की गुणवत्ता छिपी न रह सकी... वहां से जाने के पश्चात्‌ मुख्यमन्त्री ने सरण और स्यन्दन को अपने सहायक द्‍वारा उसकी पार्टी में बडे पदाधिकारियों के रूप में नियुक्ति का प्रस्ताव भिजवाया...पर दोनों ने इसे विना विचार किये अस्वीकार कर दिया...तब मुख्यमन्त्री ने इन दोनों के सम्बन्ध में सारी जानकारियां प्राप्त कीं...इस समय तक में विकास पार्टी का राज्यस्तरीय सम्मेलन या रैली सम्पन्न हो चुकी थी...इसमें कोई दो लाख व्यक्ति पूरे राज्य से आये थे...

अब चुनाव होने में कुछ ही दिन शेष रह गये थे...सरण और स्यन्दन भी विकास पार्टी की ओर से विधायक पद के लिये प्रत्याशी थे...एक दिन सरण आदि छहों राजधानी की एक एक बडी कौलोनी में अभियान और पार्टी प्रचार के उद्‍देश्य से गये...वहां के अधिकांश नागरिक शासक दल को वोट देते चले आ रहे थे...उस पार्टी के लोगों ने सरण आदि के संग अभद्रता से बातें करनी आरम्भ कर दीं...’क्यों आये यहां...? यदि वोट मांगना है तो वोट मांगो...ये समाजसुधार का नाटक क्यों कर रहे हो...? यह हमारा गढ है...पहले कभी नही आये यहां क्या...?" बढते विरोध को देखते हुए वे लौट गये वहां से, पर समाचारपत्रों, टीवी आदि को देने के लिये वीडियो-रिकौर्डिंग भी कर रहे थे...यह घटना विशेषकर टीवी पर देखी गयी...पर इससे विकास पार्टी का नाम और भी फैला, तथा जनता की सहानुभूति इस पार्टी के प्रति बढने लगी...अब सभी लोगों को तथा एग्जिट पौल से भी यही विश्वास होने लगा कि विकास पार्टी ही अगली सरकार बनायेगी...इसका कारण यह समझा गया कि विकास पार्टी जहां समाज में जनजागृति और समाजसुधार के कार्यक्रमों द्‍वारा वोट पाने का प्रयास कर रही है, वहीं अन्य पार्टियां जातिवाद, सम्प्रदायवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, झगडा-हिंसा, बलप्रयोग आदि को आधार बना वोट पाने का प्रयास कर रही हैं...चूंकि विकास पार्टी के पास बहुत शक्तिशाली पदाधिकारी और सदस्य कार्यकर्ता नहीं थे, अतः शासक दल ने पहले तो जीवन को साझे में चुनाव लडने का प्रस्ताव दिया, पर जब जीवन ने अपने बल पर चुनाव लडने की बात कही तो शासक दल ने निर्भयता से कहा -"आपकी पार्टीके लोगों का बल हमारी पार्टी के लोगों से बहुत ही कम है...तो दुर्बल होते हुए भी आप क्या बली से जीत जायेंगे...?"

जीवन चुप रहा...

पुनः -"आपका एक भी वोटर क्या वोट डाल पायेगा...?" इसी प्रकार शासक दल के लोग विकास पार्टी के कार्यालय में डराने-धंमकाने की बातें कह चले गये...

जीवन अपनी पार्टी के सभी मुख्य सदस्यों के संग मीटिंग कर रहा है....-"हमारी पार्टी की पहुंच बढती जा रही है जनता के मन में....पर हमारी व्यक्तिगत शक्ति मुख्य पार्टियों की तुलना में बहुत ही कम है...(कुछ रुककर)...पर यह भी है...कि शासन अपने हाथ में आनेपर सारी दुर्बलता चली जायेगी...हा हा हा...हमलोग भय छोड दें...और चलो जुट जाओ काम में...(सबको अब भी चिन्तित देख)...क्या बात है...? उत्साह नहीं जुट रहा तुमलोगों का...?...अरे केवल इतना करो कि अपनी ओर से हिंसा आरम्भ न होने दो...हमारे सम्पर्क में कई ऐसे सदस्य हैं जो पुलिस आदि में उच्च पदों पर हैं...पर...यही है कि मैं उनकी सहायता तभी लेना चाहता हूं जब कोई अन्य उपाय न रह जाये... ... अच्छा, एक उपाय है...मूड फ्रेश करने का...चलो तुम सब उठो...एक मेरी कार, और एक चुनावी कार्यों के लिये ली गयी कार, इन दोनों कारों में हम दसों चलते हैं एक होटेल..."

जैसा जीवन के द्‍वारा कहा गया उसे सभी ने गम्भीरता से लिया, और दोनों कार ले पहुंच गये एक बडा-सा आकर्षक होटल...अन्दर की कुर्सी, टेबल, आदि सारी व्यवस्था श्टैण्डर्ड क्वालिटी की थी...सभी ने स्थान ग्रहण किये...

जीवन-"यहां सामान्य भोजन, मांसाहार, आइसक्रीम आदि जो भी खाना चाहो, खाओ, खुलकर...पैसे की चिन्ता न करो...दो-चार-पांच हजार रुपये लगेंगे, और क्या...ये मेरे द्‍वारा दी गयी पार्टी है..."

देखते ही देखते मरे जैसे दिखते मुखडों पर धीरे-धीरे प्रकाश आने लगा...सभी ने मीनु देखना आरम्भ किया...उनके मंगाये आइटम्स आये...वे गप्प मारते खाने लगे...खाना समाप्त होते - होते सभी अप्रसन्नता भूल चुके थे...अब सभी ने आइसक्रीम खायी...

जीवन ने एक कर्मचारी की ओर संकेत कर कहा - "इन सभी का, और मेरा भी, जितने का बिल बनता हो सब मेरे खाते में डाल दो..."

कर्मचारी -"सर, यह तो आपका ही होटल है...तो आपका खाता कैसे होगा...?"

जीवन -"हूं...तब भी...यह विवरण तो होना ही चाहिये कि मेरे माध्यम से कब कितने का क्या-क्या खाया गया..."

"जी सर, अभी नोट करता हूं..."

सभी आश्चर्य से -"सर...ये आपकऐ होटल है...?"

जीवन मुस्कुराया -"हां...किसी को बताया नहीं....क्योंकि, उसी बात का भय था जो तुमसब अभी देख रहे हो...तो मेरा यह व्यवसाय कैसे चलता...? पर अब मुझे वह भय नहीं है...चलो..."

 

सरण गीति से बात कर रहा है अपने आवास में - "यह राजनीति...मेरी रुचि का विषय नहीं है....सभी अच्छे-बुरे हथकण्डे अपनाकर जिस-किसी प्रकार से चुनाव जीतने का प्रयास किया जाता है...तत्पश्चात्‌ जितने कितने भी अनुचित उपायों से रुपयों पर रुपये अपने हाथ करते रहने का प्रयास करते रहा जाता है...इसके लिये...जो भी हिंसा या मर्डर तक भी करना-करवाना पडे -सभी औप्शन्स खुले हैं राजनीति के खिलाडियों के लिये...ओह्‌...!...मैं कहां जा रहा था, और कहां चला जा रहा हूं....?"

गीति कुछ न बोल सकी, पर उसके कन्धे पर अपना हाथ रख सर टिकाया और धीमे से बोली -"जो भी करो, निर्णय तुम्हें ही लेना है...मैं सदा ही तुम्हारे संग चलने को तैयार हूं..."

गीति एक समर्पण का प्रेमगीत गा रही है...’तेरी बांहों में प्रियतम...’

 

विकास पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिये दिन अब सुख-शान्ति के न रह आशंकाओं और सावधानी के हो चले थे....अन्य पार्टियों की कुदृष्टि कब कैसे उनपर पडती है इस बात को लेकर वे सभी सदा आशंकित बने रहते थे...

आज चुनाव में केवल चार दिन शेष रह गये हैं....सभी पार्टियों का चुनाव-प्रचार पूरी गति से चल रहा है...

जीवन -"आज गीति, तुम भी चुनाव प्रचार में चलो...तुम्हें भाषण देना है...पूछो क्यों...मैं बताता हूं...तुम्हें एक महिला सम्मेलन को सम्बोधित करना है....यहां पूरे राज्य से अच्छी पहुच-पकड वाली स्त्रियां एकत्र हुइ हैं...यदि उनका मन जीत लिया तो पूरे राज्य में अपनी पार्टी की पहुंच और भी बली होगी...वहां तुम्हें पार्टी की अन्य स्त्री सदस्यों का समर्थन मिलेगा...सरण और स्यन्दन, तुमदोनों गीति के भाषंण का आलेख तैयार करो..."

सरण और स्यन्दन ने सुशीघ्र गीति के भाषण की सामग्री लिख डाली...सायम्‌ सात बजे भाषण देना है...इसके लिये पांच बजे सरण, गीति, स्यन्दन, और जीवन   तथा पांच अन्य स्त्री सदस्य उस सम्मेलन स्थल की ओर चल देते हैं...अभी सात बजे गीति आदि का भाषण आरम्भ हो उससे पूर्व ही जीवन को फोन आया कि विरोधी पार्टी के गुण्डों ने पार्टी कार्यालय पर आक्रमण किया और तोडफोड मचायी, गालियां बकीं, जिसमें अन्दर उपस्थित दो सदस्यों को चोट भी आयी है...कार्यालय की बुरी स्थिति हो गयी है...कहीं-कहीं आग भी लग गयी है...

जीवन-"आग भी लगी है तो बुझाओ...देख क्या रहे हो...?"

"सर, अभी भी भय है आक्रमण का...अन्दर दोनों कार्यकर्ता चोट खा भी भय से छिपे हैं जबकि मैं किसी प्रकार जान बचा भागा वहां से..."

जीवन- ”हमलोग क्या अभी कार्यालय चलें...?"

स्यन्दन -"आपका यहां होना अभी बहुत आवश्यक है...पार्टी अध्यक्ष न हो तो भाषण का उतना अच्छा प्रभाव नहीं पडेगा उनपर जितना होना चाहिये..."

जीवन -"तब तुम्हीं लोग फटाफट वहां पहुंचो...मैं पुलिस को, और प्रेस को भी सूचित कर दे रहा हूं...साथ में एक डौक्टर भी ले पहुंचो..."

सरण -"स्यन्दन, मैं भी तुम्हारे संग चल रहा हूं...सर, आप रुकें यहीं हमदोनों के लौट आने तक..."

चलते समय सरण ने अमर, ईशान, फणीश को फोन कर कार्यालय बुलाया...वहां पहुंच वे पांचों यथासम्भव कार्यालय की व्यवस्था ठीक करने का प्रयास करते हैं...डौक्टर ने दोनों चोट पाये कार्यकर्ताओं को मल्हम-पट्‍टी की...सरण ने जीवन को फोन किया...

जीवन -"अभी, भाषण आरम्भ होने में विलम्ब हो गया...और साढे आठ बजे गीति ने बहुत ही आकर्षक रूप में सम्मेलन को सम्बोधित किया और पार्टी का कार्य और महत्त्व श्रोताओं को समझाया...अब मैं भाषण दे रहा हूं...तुम्हारा कौल देख मध्य में ही भाषण रोक तुमसे बात कर रहा हूं..."

यह सुन सरण ने तुरत कौल डिश्कनेक्ट किया...सम्मेलन स्थल से कार्यालय की दूरी कार से प्रायः दो घण्टे की थी...अभी दस ही मिनट बीते थे कि जीवन ने सरण को फोन किया-"हमलोगों का काम यहां पूरा हो चुका है...तुमदोनों अभी यहां आओगे...? क्या करना है...?"

सरण ने स्यन्दन से पूछा तो स्यन्दन बोला-"अभी वहां पहुंचने में ग्यारह-बारह तो बज ही जायेंगे...अच्छा तो यह होगा कि सर सबको अपने साथ लेते आयें..."

जीवन-"हां...ये सभी मेरे कार में आ जायेंगी...मैं सबको साथ लेते आता हूं....आ रहा हूं...नहीं...साथ लेते चलता हूं....मार्ग में इन्हें इनके आवास छोडता कार्यालय पहुंचता हूं.... तुम भी सरण अच्छा रहेगा कि अपने आवास जाओ...गीति तुम्हें वहीं मिलेगी..."

 

सरण ने स्वीकृति में सर हिलाया और वह अपने आवास चला गया....सरण चिन्तित था गीति को लेकर...वह एक ग्लास पानी पीया और विस्तर पर लेट आराम करने लगा...देखते ही देखते उसकी आंखें लग गयीं...उसकी आंखें खुलीं...उसने सामने देखा...तत्पश्चात्‌ उसकी दृष्टि पूरे कक्ष में फैली...गीति कहीं भी उसकी दृष्टि में नहीं आयी...वाल क्लौक में देखा तो रात के एक बज रहे थे... सरण का हृदय चिल्लाया - "गीति...तुम कहां हो...?"

उसने गीति के मोबाइल पर कौल किया...पर यह तो स्विच्ड औफ बता रहा था...यही स्थिति जीवन के भी मोबाइल की भी थी...तीन-चार बार प्रयत्न करने पर भी कनेक्ट नहीं हुआ तो उसने स्यन्दन को कौल किया और यह बात बतायी...

स्यन्दन -"तुम घबडाओ मत...मैं अभी पहुंच रहा हूं तुम्हारे पास..." स्यन्दन भी गीति और जीवन के मोबाइल को कनेक्ट करने का प्रयास किया पर वह असफल रहा...उसने किसी प्रकार सरण को शान्त करने का प्रयास किया...-"धैर्य धारण करो...कहीं कोई दुर्घटना न घटी हो, केवल इतनी कामना करो...चलो चलते हैं सर के आवास...उसने पार्टी की कार में सरण को संग ले जीवन के आवास की ओर कार का गति बढायी...जीवन के आवास जाने पर जानकारी मिली कि सर तो अभी तक आये ही नहीं...तो कहां गये सर....? इसकी किसी को भी जानकारी नहीं...तब दोनों सम्मेलन स्थल की ओर चलते हैं...सरण को स्मरण आता है सरण और जीवन के संग के अन्य स्त्री सदस्यों का...पर उसके पास उनके फोन नम्बर्स तो हैं नहीं कि वह उनसे गीति के सम्बन्ध में पूछ सके...कार्यालय से ज्ञात हो सकता है....पर वहां आग में कई रजिष्टर आदि प्रपत्र जला डाले गये हैं...रात के चार बजे सम्मेलन स्थल पहुंचता है...हौल बन्द है...गार्ड बताता है कि रात दस बजे तक में ही सभी चले गये थे वहां से...

’अब क्या करुं...?’ सरण का मन रोने-रोने को हो रहा था...स्यन्दन ने उसे धैर्य देने लका प्रयास किया...प्रातः छः बजे तक में वे दोनों पार्टी कार्यालय लौट आते हैं...वहां दोनों कार्यकर्ता सो रहे थे...पूछने पर उन्होंने सभी सदस्यों के नाम-पते वाला रजिष्टर खोजने का प्रयास किया...कठिनाई से एक स्थान पर वह रजिष्टर अधजली स्थिति में मिला...उसमें ढूंढने पर बडी कठिनाइ से साथ गयी एक स्त्री सदस्य के फोन नं और पता मिले...फोन करने पर उसका भी मोबाइल स्विच्ड औफ मिला...ओह्...तो...अच्छा, पता भी है... तब सरण और स्यन्दन उस पते की दिशा में कार से चल देते हैं...वहां पहुंचने पर उस स्त्री ने बताया कि सर हमसभी को साथ ले रात साढे नौ बजे लौट चले थे...सबसे पहले उनने रीमा को उसके आवास के निकट पर मेन रोड पर छोडा...रीमा ने पहले ही परिवार वालों को फोन कर दिया था, अतः उसे लेने कोई वहां पहले से ही खडा था...वैसे ही मैंने भी फोन कर दिया था तो मेरे पति स्वयम्‌ ही मुझे लेने यहां से कुछ दूरी पर पहुंचे...मेरे पश्चात्‌ गीति आदि थीं...क्या वे अभी तक नहीं पहुंचीं....?"

सरण को सारा संसार घूमता जान पडा...पर स्यन्दन ने तुरत सरण को सम्भालते हुए उस स्त्री से पूछा -"क्या आपके पश्चात्‌ शेष स्त्रियों में किसी का फोन नम्बर, पता कुछ आपके पास है...?

उसने फोन डायरी चेक कर बताया कि उसके पास भी केवल सर और गीति जी के ही फोन नम्बर्स हैं...

"ओह्‌ नो...ये दोनों नम्बर्स तो अभी भी स्विच्ड औफ बता रहे हैं..." स्यन्दन ने पुनः डायल कर देखा..."ये लो...अब तो सूरज निकल रहा है...."

सरण - "पर मेरी आंखों का सूरज तो अब डूबता जान पड रहा है..."

स्यन्दन ने देखा सरण अब अस्वस्थ होता चला जा रहा है, उसका शरीर गर्म होता चला जा रहा है...उसकी आंखें बन्द रहना पसन्द कर रही हैं...वह उसे पार्टी कार्यालय ले आता है...सरण एक गद्‍दे पर लेटा है...दोनों कार्यकर्ता उसकी सेवा को तत्पर हैं...स्यन्दन एक डौक्टर को कौल करता है, डौक्टर उसका चेकप कर उसे बेडरेष्ट का परामर्श देता है....

स्यन्दन -"सरण, तुम यहां आराम करो...मैं सर के आवास उनकी जानकारी लेने जाता हूं..."

स्यन्दन वहां जाता है, पर जीवन अभी भी वहां नहीं पहुंचा है, न ही उसकी कोई सूचना है...ऐसी जानकारी उसे मिली...ऐसे में स्यन्दन लौट कार्यालय आता है और सरण को सोया पा दोनों कार्यकर्ताओं से सरण की पर्याप्त सुरक्षा और देखभाल की बात कह किसी परिचित के आवास जाने और दो-तीन घण्टे पश्चात्‌ पुनः लौट आने की बात कह चला जाता है...

प्रायः ग्यारह बजे स्यन्दन लौट कार्यालय आता है...सरण अभी भी सो रहा है...स्यन्दन आये हुए आज के समाचारपत्रों पर दृष्टि डालने लगता है...कल के सम्मेलन का समाचार जीवन और गीति के भाषणों के संग छपा था...जीवन का चित्र भी छपा था...स्यन्दन पढ रहा है...संग ही चिन्तन भी करने लगता है रुक-रुककर...सहसा उसे बाहर किसी कार के तीव्र गति से रुकने की ध्वनि सुनायी पडी...लगा जैसे धक्का लगते-लगते बचा हो...उसने वौल क्लौक की ओर देखा...पौने बारह बज रहे थे...स्यन्दन ने धीरे से समाचार पत्र एक ओर रखा, और बाहर जाकर देखा...तो जीवन की कार खडी थी...स्यन्दन गम्भीरता से कार की ओर बढा, और कार के अन्दर झांककर देखा तो ड्राइविंग सीट पर कोई नहीं था पर पिछली सीट पर जीवन लेटा था...तुरत उसने दोनों कार्यकर्ताओं को स्वर दिया (पुकारा)...कार के पिछले द्‍वार को खोला गया...जीवन के शरीर को खींचकर बाहर निकाला गया...जीवन के शरीर पर चोट के, जले के, और कुछ ऐसे ही चिह्‌न थे जैसे जीवन को पीटा भी गया था...तुरत जीवन के शरीर को कार्यालय के अन्दर ले जा गद्‍दे पर लिटाया गया...पुलिस और प्रेस को फोन कर सूचना दी गयी, तथा डौक्टर को भी बुलाया गया...तुरत यह बात पूरे राज्य में फैलने लगी...पुलिस के आने के पश्चात्‌ ऐम्बुलेन्स बुला जीवन को शीघ्र ही वहां से हौस्पीटल भेजा गया...सरण उसके सर के समीप ही घण्टों खडा रहा...जैसे ही जीवन को चेत (होश) आया, सर्वप्रथम सरण ने उससे यह पूछा कि गीति कहां है...?

जीवन - "जब मैं सभी स्त्री सदस्यों को उनके आवास छोड चुका था, केवल गीति ही शेष थी, तभी अन्य पार्टियों के गुण्डों ने मेरी कार घेर ली...उसके पश्चात्‌...आः आः....उसके पश्चात्‌ उनलोगों ने मुझे मारना आरम्भ किया...और धमकियां भी देने लगे...तब मैं अचेत (बेहोश) हो गया...उसके पश्चात्‌ मुझे यहां तुम्हारे समक्ष (सामने) ही चेत आया है...गीति कहां गयी यह मेरे लिये बहुत ही दुःख की बात है...मन करता है मैं आत्महत्या कर लूं क्योंकि मैं गीति को बचा नहीं पाया...आः आः (सुबकने लगा)...यह मेरा उत्तरदायित्व था कि उसे मैं सुरक्षित वापस पहुंचाउं...अतः मैं दोषी हूं....आः (कुछ आंसु भी जैसे छलके)...

सरण यह सुन सन्न रह गया...उसे इतना गहरा दुःख कभी नहीं मिला था...वह फूट-फूटकर रोने लगा...कोई आठ-दस मिनट वह रोता रहा, और समय किसी भी ने कुछ भी बोलने का साहस नहीं किया...सहसा सरण कुछ संयत हुआ, और अति विषण्ण (डिप्रेश्ड) हृदय और जलती आंखों से बोला -"जो भी हुआ हो...जैसी भी स्थिति में गीति हो...मैं उसे अपनाने को तैयार हूं...केवल वह मुझे मिल जाये..." वह ऐसे बोला जैसे वह गिडगिडा रहा हो गीति को पाने को...सभी उपस्थित व्यक्तियों को सरण से हृदय से सहानुभूति हुई...

 

मीडिया में विकास पार्टी के कार्यालय और अध्यक्ष पर हुए आक्रमण का समाचार अनवरत (लगातार) छाया रहा...अपराधी कौन है यह ज्ञात नहीं हो पाया है अब तक...केवल शासक दल पर अंगुलियां उठ रही हैं क्योंकि उसी ने जीवन को धमकाया था... पर इन घटनाओं से जनता की विकास पार्टी के संग सहानुभूति बढी...बच्चे भी विकास पार्टी का नाम लेते पाये गये...केवल तीन ही दिन शेष थे मतदान में, और विकास पार्टी के प्रचार का काम जैसे ठप्प हो चला था...तब भी इसके प्रत्याशी अपने-अपने बल पर वोट बटोरने के प्रयासों में लगे थे...पर इस पार्टी के दो प्रत्याशी ऐसे थे जो चुनाव प्रचार से दूर जैसे किसी अन्य ही संसार में जी रहे थे...एक थे सरण, और दूसरा जीवन...मतदान पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार समय से हुआ, और परिणाम भी सप्ताह भर में आ गया... स्यन्दन तो जीत ही गया था, सरण और जीवन भी जीत गये थे...विकास पार्टी को सबसे अधिक सीटों पर विजय मिला था, तब भी बहुमत से अभी बहुत दूर थे...क्योंकि कुल सीटों के ३४ प्रतिशत ही सीटें ही मिल पायी थीं, और अभी न्यूनतम (कम से कम)  १६-१७ प्रतिशत सीटों का समर्थन और चाहिये था शासन गठन (सरकार बनाने) के लिये...जीवन तो इसी जोड-तोड में लगा स्वयम्‌ को मुख्यमन्त्री की गद्‍दी पर बैठा होने की कल्पना कर रहा था, जबकि सरण की मानसिक स्थिति अब भी अवसाद को प्राप्त थी...

सरण की ऐसी दुःखद स्थिति में यद्‍यपि अमर, ईशान, फणीश, और स्यन्दन चारों उसका साथ दे रहे थे तथापि स्यन्दन उसका विशेष ध्यान रखता था...सरण गीति के संग बीताये गये क्षणों और दिनों का स्मरण करता हुआ विरह गीत गा रहा है और केवल उसी से मिलने को तरस रहा है...अन्तिम बार वह कब देखा था गीति को...उससे तब उसकी क्या बातें हुई थी...अब उसकी गीति से कोई बात क्यों नहीं हो पा रही है...? वह ऐसे ही सोचता दुःख पा रहा है....

स्यन्दन उसे उठाता है...कुछ पीने को देता है -"पी लो...यह पेय बहुत पौष्टिक है...विशेषकर तुम्हारे लिये मैंने इसे तैयार किया है...यदि मैं तुम्हारे खाने-पीने की चिन्ता न करूं तो तुम तो भूखे ही प्राण त्याग दोगे ऐसा लगता है...जहां तक मेरा मस्तिष्क तुम्हारी स्थिति का अध्ययन कर रहा है, यदि तुम्हें एक अच्छे होटल में कुछ स्वादिष्ट भोजन खिलाया जाये तो तुम्हें मानसिक प्रसन्नता मिल सकती है...और होटल कौन-सा...? सर के होटल से अच्छतर होटल और कौन है...चलो, वहीं चलते हैं...."

स्यन्दन सरण को बलपूर्वक जीवन के होटल ले चलता है पार्टी कार में....वहां दोनों एक टेबल किनारे बैठे हैं..."देखो, मैंने सर से यहां आने के सम्बन्ध में कोई बात नहीं की है कि हम आपके होटल खाने जा रहे हैं...क्योंकि जिस भय से उनने इतने लम्बे समय तक यह रहस्य बनाये रखा कि इतने अच्छे होटल के वे स्वामी (मालिक) हैं, मैं नहीं चाहता था कि उस भय को अब मैं उनके समक्ष लाकर खडा कर दूं..."

सरण चुप स्यन्दन के निर्णय अनुसार काम कर रहा है....

स्यन्दन -"क्या खाया जाये...?"

सरण की कुछ भी विशेष रुचि नहीं खाने में ...-"जैसा तुम चाहो..."

स्यन्दन -"हूं...मैं जो चाहुं...ठीक है...पर तुम्हें खाना होगा...भले ही वह मांस हो...यदि स्वीकार हो तो बोलो हां..."

सरण -(कुछ सोचकर)..."ठीक है..."

स्यन्दन - "हूं...वैरी गुड...देखो...मैंने बहुत सोच समझकर कुछ निर्णय लिया है इस सम्बन्ध में...और वह यह, कि केवल फल और जूस और हल्के भोजन खाते रहने से तुम्हारे मन की भावुकता इतनी बढी हुई है कि यह तुम्हारे लिये अभी हानिकारक बनी हुई है...और इसका उपचार यह है कि अभी तुम कुछ भारी खाओ...जिससे कि तुम्हारे अनियन्त्रित भावुकता पर नियन्त्रण लाने में...क्या जाने सफलता मिले...अतः तुम, नहीं, हम दोनों मांसाहार करते हैं...और इस सम्बन्ध में तुमसे पूछने की आवश्यकता तो है नहीं..."

सरण कुछ भी प्रतिक्रिया किये विना उसकी बात सुनते रहता है...

स्यन्दन -"हूं...तो, ठीक है...वेटर... ...मांसाहार में क्या आइटम्स हैं....?"

"सर...कई आइटम्स हैं...ये मीनु में देखें..."

"ये छोटे टुकडों वाली मांस-भुजिया ले आओ...दो प्लेट..." वेटर ला उनके समक्ष रखता है...

स्यन्दन सरण को खाना आरम्भ करने का संकेत करता है....सरण -"यह क्या...? केवल मांस...? इसके सग चावल या रोटी कुछ और भी तो होना चाहिये...?"

स्यन्दन -"हां...अवश्य होना चाहिये...मैं देख रहा हूं कि तुम्हारी खाने में रुचि जाग गयी है...पर मैं चाहता हूं कि तुम्हारी यह जागती रुचि पूरी जाग जाये...अतः अभी केवल मांस खाओ...चावल और रोटी तो खाते ही रहोगे...."

दोनों खा रहे हैं और स्वाद का अनुभव कर रहे हैं...

सरण -"यह फुल प्लेट मांस....क्या अधिक नहीं है...?"

स्यन्दन -"कोई बात नहीं...अभी खा लो...कहां हम प्रत्येक दिन आ रहे खाने टुकडी भुजिया...."

खाते-खाते सरण के मुंह में कुछ कडा आ जाता है...-"अरे यह क्या...? मांस में ईंट-पत्थर भी हैं...?" मुंह से निकालता है...और ध्यान से देखता है तो पाता है कि यह एक अंगूठी है...आश्चर्य...!...इतना ही नहीं...यह अंगूठी भी एक मानव-अंगुली को धारण कर रखी है...ओः नो...वह कुछ भीत (डरा हुआ) हो वह अंगूठी स्यन्दन को दिखलाता है...स्यन्दन भी स्तब्ध रह जाता है यह देख...-"इसका अर्थ यह हुआ कि यहां मानव-मांस भी परोसे जाते हैं....!"

"हां...पर...केवल यहीं क्यों...सभी ष्टैण्डर्ड के होटलों में यह बात होती होगी...यहां यह बात केवल लीक हो गयी...बाइ मिश्टेक... ...वैसे मैंने अभी तक यह सुना था कि मांस के नाम पर सूअर और गाय के मांस भी खिला दिये जाते रहे हैं होटलों में..."

"मैं इसे जरा धो कर देखता हूं...क्या और कैसी है यह अंगूठी...!" स्यन्दन उस अंगूठी को ले जा वाश बेसिन में धोता है...तो पाता है कि यह एक सोने की चमकती अंगूठी है...ओः...उसे ला सरण को देता है...सरण ध्यान से अंगूठी देख रहा है कि वह अंगूठी  उसे कुछ जानी सी लगती है...सोचता है इस अंगूठी को पहले वह कहां देखा होगा....निरीक्षण करता जब उसने अंगूठी के नीचे वाले भाग पर ध्यान से देखा तो पाया वहां कुछ लिखा है....क्या लिखा है....यह लिखा है....गीति...मैंने ऐसी ही उसका नाम खुदी अंगूठी गीति को भेंट की थी... "स्यन्दन, क्या यह वही अंगूठी है...?"

स्यन्दन -"रत्न उस अंगूठी में क्या जडा था...?"

सरण -"माणिक्य..."

स्यन्दन -"तो ऐसा है...पहले हम चल इस अंगूठी के रत्न की जानकारी लेते हैं किसी आभूषण या रत्नों के शौप में जाकर..."

पेमेण्ट कर स्यन्दन कार को आगे बढा एक आभूषण के शौप के आगे रोकता है...वहां रत्न भी हैं...रत्न जडनेवाले ने अंगूठी देख बताया कि इसमें जडा रत्न माणिक्य है...यह सुन सरण के ओष्ठ खुले रह गये, आंखें फैल गयीं, और उसे लगा जैसे उसे शौक लगा हो....वह वहीं गिरने लगा, पर स्यन्दन ने उसे पकडा, और ले चल कार में बिठाया, और कार्यालय ला उसे गद्‍दे पर आराम से लिटा दिया...संग ही कार्यकर्ताओं को सरण के विशेष देखभाल की बात कह बाहर निकला, और कार से सीधे वापस जीवन के होटल पहुंचा...वहां काउण्टर पर पहुंच स्यन्दन बोला- "आपलोग मुझे नहीं जानते होंगे, पर मैं बता दूं, मैं हूं स्यन्दन...जीवन सर के पार्टी से विधायक..."

"जी सर...हम आपकी क्या सेवा करें....?"

"मुझे एक जानकारी चाहिये...आपके यहां बनाये जानेवाले फूड-आइटम्स के सम्बन्ध में..."

"किस आइटम के सम्बन्ध में सर...?"

"छोटे टुकडों वाली मांस-भुजिया...किसने यह आज के लिये तैयार किया है...?"

"हमारे कुक्स हैं सर...वे तैयार करते हैं डिफरेण्ट फूड आइटम्स..."

"पर...मुर्गा या बकरा आदि के कच्चे मांस के टुकडे क्या यहां तैयार किये गये या बाहर से मंगवाये गये -पीस किये हुए...?"

"सर...इसकी जानकारी वो...राजु के पास है... ...ओ...जरा राजु को यहां भेजो..."

राजु आता है...उससे वही प्रश्न दुहरा दिया जाता है...

राजु -"मेरे पास दोनों ही औप्शन्स रहते हैं....पर आज ये मांस टुकडे -पीसेज मैंने यहीं तैयार किये...वो कुछ मुर्गे थे..."

स्यन्दन - "यदि राजु मेरे साथ चले तो...मुझे कुछ काम है इससे..." राजु चुपचाप स्यन्दन के पीछे चलता उसके संग कार में बैठता है...स्यन्दन उसे ले पार्टी कार्यालय पहुंचता है...वहां अमर, ईशान, फणीश सरण के संग बातें कर रहे हैं...और सरण उन्हें वही बातें बता रहा है...

स्यन्दन -"ये देखो...कौन है यह...वही जिसने आज सर के होटल में मांस भुजिया के पीसेज तैयार किये थे...इसके अनुसार वे टुकडे मुर्गों के थे..."

अमर -"पर हमने आज तक न तो देखा न ही सुना कि मुर्गे अंगूठियां पहनते हैं...यह अंगूठी कैसे उसमें से निकली...?"

राजु -"अंगूठी का क्या है...कहीं किसी भी की गिर जा सकती है..."

स्यन्दन - "ऐसा हो सकता है...पर यह नहीं हो सकता कि अंगूठी के साथ-साथ अंगुली भी गिर जाये..."

"क्या...क्या अर्थ इसका...?"

ईशान -"सीधेसे सारी बात बता दो, कि आज के मांस का बौडी तुम्हें कहां से मिला जिसके तुमने केवल पीसेज किये हैं...?"

राजु चुप खडा है....

फणीश -"हमलोगों के पास सच उगलवाने के कई उपाय हैं...बहुत पीडा होगी उसमें...यदि चाहिये तो यूं चुप खडे रहो..."

राजु को भय हो रहा है पर अब भी सच कुछ नहीं बता रहा...

ईशान -"इसे मेरे आवास ले चलो...वहां अभी केवल मैं हूं...इससे सच उगलवाने में बडी सुविधा मिलेगी..."

सभी ईशान का प्रस्ताव स्वीकार करते हैं और राजु को कार में डाल ईशान के आवास पहुचते हैं...वहां एक हौल में ले जा उसे छत से रस्सी से दोनों हाथ बान्ध लटका देते हैं...कुछ पूछताछ आरम्भ करें इसके पूर्व ही स्यन्दन को जीवन का फोन आता है कि इसी समय वह सरण और स्यन्दन से मिलना चाहता है...तब सरण और स्यन्दन चल देते हैं जीवन से मिलने, अमर, ईशान, और फणीश को यह निर्देश दे कि उनके लौट आने पर राजु से पूछताछ की जायेगी...

दोनों जीवन से जा मिलते हैं...जीवन अब स्वस्थ है और अन्य पार्टियों से उसकी बातचीत बडे उत्साह से चल रही है...-"आओ....केवल तुम्हीं दोनों हो...तुम्हारा पूरा ग्रूप कहां है...?"

सरण -"अभी आपका स्वास्थ्य कैसा है...?"

"मैं फर्ष्ट क्लास फिट हूं...शरीर के लिये...मुख्यमन्त्री पद के लिये भी...(सरण के मन को पढते हुए)...हां हां...गीति...मुझे बहुत दुःख है...मुख्यमन्त्री बनते ही मैं आकाश-पाताल सब ढूंढवा लुंगा, कहीं से भी यदि गीति निकल पाये..."

स्यन्दन -"सर...कोई विशेष बात है...?"

"विशेष तो होगा ही...वह यह है कि आज शाम, अभी से कोई दो घण्टे पश्चात्‌ दो पार्टियों से बात होनेवाली है....बात फाइनल है...केवल फौर्मैलिटी करने जाना है...उनमें से एक के पार्टी मुख्यालय में...ये पता नोट कर लो...और तुम सभी, अर्थात्‌ तुम पांचों वहां अभी से तीन घण्टे पश्चात् पहुंचो...अच्छा रहेगा...तुमलोग मेरे अपने आदमी हो- मेरे बौडीगार्ड..."

 

सरण और स्यन्दन स्वीकृति में सर हिला वहां से चल देते हैं और ईशान के आवास पहुंचते हैं...वहां पहुंच वे पाते हैं कि उन तीनों ने अभी तक राजु से कोई पूछताछ नहीं की है, और वे सरण और स्यन्दन की ही प्रतीक्षा कर रहे थे...

स्यन्दन राजु से -"देखो...हम तुम्हारे साथ सबकुछ कर सकते हैं...टौर्चर करने से लेकर तुम्हें मौत तक दे दे सकते हैं...तुम स्वयम्‌ निर्णय कर लो कि तुम क्या चाहते हो... ...तुम वह सब हमें बताओगे जो हम तुमसे जानना चाहते हैं...अब तुम यह निर्णय करो कि तुम पीडा पाकर सच बताओगे या विना पीडा पाये ही... "

राजु भयभीत चुप लटका है...

सरण ने क्रोध से आंखें लाल कीं -"गीति की हत्या तुमने की...टुकडे उसके तुमने कब किये...?"

राजु -"यह सब बताने को मैं तैयार हूं...पर आप सभी इस बात की गारण्टी दें कि बताने के पश्चात्‌ सुरक्षित मुझे जाने देंगे..."

सरण -"तुम्हें हम छोड दे सकते हैं...क्योंकि हमलोगों ने अभी तक तुम्हें मार डालने का निर्णय नहीं लिया है...पर यह निर्भर करता है इस बात पर कि तुम क्या उत्तर देते हो और कितना सच उत्तर देते हो..."

"हां, मैं तैयार हूं...सारा सच बताने को..."

"तो गीति से सम्बन्धित जितनी भी बातें तुम जानते हो वह सब हमें पूरी-पूरी बताओ..."

तब राजु ने बताया, जैसा उसने स्वयम्‌ देखा-सुना और जैसा जीवन ने उसे बताया था वह पूरी घटना इस प्रकार है-

उस रात जब जीवन गीति के संग लौट रहे थे और गीति को छोडनेवाले थे कि सहसा शत्रु दलों के कुछ आक्रामक व्यक्तियों ने जीवन की कार चारों ओर से घेर ली...जीवन कार रोक सावधानी से चुप बैठा रहा...उनलोगों में से एक ने तब लैप्टौप हाथ में लिया, और जीवन के समीप

जा वह बोला-"बहुत पोर्नोग्रैफी का विरोध करती है तुम्हारी पार्टी...तुमलोग सत्ता में आओगे तो पोर्नोग्रैफी पर प्रतिबन्ध लगवा दोगे...पर तब हम कहां जायेंगे...? हम तो ऐसे ही कार्यों में प्रतिदिन डुबकी लगाते हैं...और तुम्हारी पार्टी कुछ भी बुरा इस राज्य में होने नहीं देगी...पर ऐसा तब होगा, जब तुम अच्छे बने रहोगे...और ये...है सरण की पत्नी...बहुत अच्छा भाषण दे लेती है...तुमदोनों आज पोर्नोग्रैफी का भव्य दर्शन करोगे...उसके पश्चात्‌ भी यदि तुम्हें लगे कि तुमलोग इस राज्य में रामराज्य लाना चाहते हो, तो अवश्य लाना..." ऐसा कह वे लैपटौप से पौर्न वीडियोज उन दोनों को दिखाने लगे और दोनों को परस्पर सम्भोग करने पर विवश करने लगे...जीवन का मन तैयार हो गया, पर गीति नहीं मानी किसी भी धमकी के आगे...तो वे दोनों को ले जीवन के ही आवास गये...वहां एक कक्ष में दोनों को कुछ समय तक पौर्न वीडियोज दिखला द्‍वार बाहर से लौक कर वे वहां से चले गये...अन्दर गीति सब पौर्न देख भी सावधान रही और सरण के पास लौटने की बात बोली...पर जीवन बोला -"उनलोगों ने मुझे धमकी दी है कि यदि मैंने तुम्हारे संग सेक्सुअल रिलेशन नहीं बनाया तो वे मुझे मार डालेंगे..."

गीति -"कहकर वे चले गये...वे कुछ भी कह जा सकते हैं...उनकी बातों को मानना या न मानना तुम्हारे ऊपर निर्भर है..."

जीवन -"हां, यह मेरे ऊपर निर्भर है...पर मेरा मन अभी तुम्हारा भला नहीं चाह रहा है...वैसे भी, सरण की मैं उसके बचपन से ही सहायता करता चला आ रहा हूं...मेरा मानना है कि जिसकी सहायता की जाये उसके साथ कुछ ऐसा वैसा भी करने का अधिकार  भी मिल जाता है...इसलिये..."

गीति के प्रबल विरोध करने पर भी जीवन ने उसका रेप किया...गीति ने इसपर जीवन को केवल यही कहा कि इसका परिणाम उसे मौत के रूप में मिलेगा...जीवन यह सुन चिन्तित हुआ, बोला -"देखो, तुम सरण के पास चली जाओ, कहना तुम किसी प्रकार दुश्मनों की पकड से बचकर निकल भागी...यदि तुम हां कहो तो मैं तुम्हें तुम्हारे आवास के समीप छोड देता हूं..."

पर गीति अतिक्रुद्‍ध इस संकल्प पर दृढ रही कि वह जबतक जीवन की मौत न देख ले तबतक उसे शान्ति नहीं मिलेगी...ऐसे में जीवन उसे वहीं बन्धक बना रखा...तत्पश्चात्‌ राजु की सहायता से जीवन अपनी बुरी स्थिति बना पौने बारह बजे अपनी ही कार में स्वयम्‌ को पार्टी कार्यालय के समक्ष ला खडा किया...राजु ड्राइविंग सीट से सुशीघ्र भाग निकला...कुछ दिन और बीतने पर भी जब गीति अपने संकल्प से डिगी नहीं तो जीवन ने राजु को बुलाया और कहा - "यह मेरी मौत जान पडती है...यह जैसा मेरे साथ करना चाहती है वैसा इसके साथ कर दो...इसे मार इसके मांस के टुकडे होटल में परोस दो, तथा हड्डियां कहीं नदी-नाले में बहा दो...राजु ने वैसा ही किया...पर उसकी अंगूठी ने यह अपराध उजागर कर दिया...

 

सरण आदि ने राजु के इस अपराध स्वीकारोक्ति की वीडियो-रिकौर्डिंग कर ली थी...पर पांचों ने यह विचार किया कि हो सकता है जीवन को कोर्ट से कोई दण्ड न मिल पाये, क्योंकि कोई ठोस प्रमाण उसके विरुद्‍ध नहीं बन रहा है...

"ऐसे में हमलोग गीति की अन्तिम इच्छा पूर्ण करेंगे..." सरण गर्जा...

"हां...मृत्युदण्ड...मृत्युदण्ड..." अन्य सभी भी गुर्राये...

पांचों ने निर्णय लिया -’जीवन मुख्यमन्त्री पद की शपथ ले पाये, उससे पूर्व उसे मृत्युदण्ड मिल जाना चाहिये...तबतक यह राजु यहां ऐसे ही लटका रहेगा...’ अमर., ईशान, फणीश के माध्यम से दो रिवाल्वरों की व्यवस्था हो गयी...

 

पांचों पार्टी कार्यालय पहुंचे...वहां जीवन से बात करने पर जानकारी मिली कि उसे अन्य पार्टियों से समर्थन ले बहुमत मिल गया है...कल राज्यपाल जीवन को औपचारिक रूप से मुख्यमन्त्री का पद सम्भालने और शासन गठन का निमन्त्रण देंगे...जीवन एक ऐसे ही समर्थक पार्टी के कार्यालय वाली बिल्डिंग में सभी सहयोगी दलों के संग मीटिंग कर शासन की रूपरेखा निर्मित कर रहा है...सरण आदि को उस स्थान का पता पूर्व से ही मिला हुआ था...वे कार से उसी दिशा में आगे बढे...

इधर राजु ने एक पैर दीवार पर टिका अपनी बन्धी भी अंगुलियों से शर्ट के पौकेट में रखे मोबाइल के जीवन के नम्बर वाले स्पीड डायल नम्बर को दबाने में सफल हो जाता है...उसका मोबाइल जीवन के मोबाइल से कनेक्ट हो जाता है...वह तुरत सरण आदि के जीवन को मार डालने के संकल्प को बता देता है....जीवन यह सुन पहले क्रुद्‍ध होता है - "ये कल के छोकडे मुझे मारेंगे...? मेरे बिल्ले मुझे ही म्याउं...!!!" तत्पश्चात्‌ घबडाता है -’मैंने किसी की सहायता ली थी इसलिये यह बात खुल गयी...एकाकी (अकेले) किया होता तो क्या जाने यह बात नहीं खुलती...! अतः उसे अभी जो भी करना है वह एकाकी ही करेगा...’ वह अभी सोच ही रहा था कि स्यन्दन का फोन आया कि पांचों वहां उससे मिलने आ रहे हैं...

जीवन -"तुमलोग कैसे जाने कि मैं यहां हूं...?"

"सर आप ही ने तो कुछ समय पूर्व वहां का पता दिया, और कहा वहां पहुंचने को..."

"ठीक है...."

 

अभी गठबन्धन पार्टी के व्यक्तियों से बातें करते समय दो अपराधी जैसे व्यक्तियों ने रिवाल्वर, गोलियां, गोला-बारुद, बम्ब आदि जीवन को बेचने प्रस्ताव दिया था कि समय पर सुरक्षा की जा सके...अभी एक-एक सैम्पल पीस उस वार्ता कक्ष में रखे थे...क्योंकि जीवन ने हां या न कुछ भी निर्णय अभी नहीं दिया था...जीवन बडी शीघ्रता से उस कक्ष में गया और एक वस्त्र खण्ड में उस बम्ब को रख लिया जिसके प्रयोग की विधि दिखाते समय उसे बता दी गयी थी..और यह कहा गया था कि जिस भी स्थान पर यह बम्ब गिरेगा उसके दस मीटर सभी ओर कोई भी प्राणी जीवित नहीं बचेगा...द्वितीय तल की बाहरी गैलरी में आ उसने जब नीचे देखा तो सरण आदि कार से बाहर निकल रहे थे...दोनों ओर से दृष्टियां मिलीं...जीवन उन्हें अपने नीचे आ रहे होने का संकेत करता सीढियों से नीचे उतरने लगता है...सरण और स्यन्दन जीवन को मारने को कार से बाहर तैयार हैं जबकि अमर, ईशान, फणीश कार के अन्दर कार ष्टार्ट रख तुरत कार भगा लेने को तैयार बैठे हैं...वहां चारों ओर अन्धेरा है...इलेक्ट्रिसिटी अभी ही कटी थी...इक्के दुक्के व्यक्ति सडक पर चलते दिख रहे थे... जीवन जैसे ही बिल्डिंग से रोड की ओर बढता है, कार किनारे खडे सरण और स्यन्दन विचार करते हैं कि जब जीवन को मार ही डालना  है तो अब उससे कुछ भी बात क्या करना, ठीक इसी समय जीवन के मन में भी यही विचार उभरा कि जब इन्हें मार ही डालना है तो इनसे अब बातें क्या करना...कार के संग वे पांचों वहां हैं...केवल बम्ब उनपर फेंक देना है, सभी मारे जायेंगे...ऐसा विचार कर जीवन ने उन पांचों पर बम्ब उछाल फेंक दिया...और उसी समय स्यन्दन और सरण ने जीवन पर गोलियों की बौछार कर दी...

जहां एक ओर जीवन के शरीर में गोलियां ही गोलियां भर गयीं और वह भूमि पर गिर पडा, वहीं वे पांचों कार समेत उड गये...छहों के शव सडक पर बिखरे पडे थे...अगले दिन समाचारपत्रों में छपा कि जीवन और उसकी पार्टी के पांच सदस्यों को किसी दुश्मन ने एक साथ मार डाला...

राघवेन्द्र कश्यप की भी दृष्टि इस समाचार पर पडती है...वह तो सरण को अच्छे से जानता था...उसने कहा- "आत्मा अपने परम प्रकाश स्वरूप से भटक इस अन्धकार स्वरूप संसार में आ जाता है और वैसे शरीर का संग पा जाता है जिससे उसका कभी भी वियोग हो जा सकता है, तब भी मनुष्य ऐसे जीता है जैसे यहीं इस अस्तित्व में सदा ही बना रहेगा...और इस कारण किसी भी बुरे कर्म को करने पर उतर जाता है, पर इसके परिणाम में उसे और भी अधिक हानि पहुंच जाती है....

 

                                                                                  समाप्त

Rahasya- a stpry plot for making film

01/09/2012 12:00

 

 

 

 

 

 

रहस्य

लेखक का नाम - राघवेन्द्र कश्यप

सच्चाई के अंशों को समाये हुए काल्पनिक घटनाओं पर आधारित यह कथा-प्लौट फिल्म बनाने के उद्‍देश्य से लिखा गया है....

 

सुरेन्द्राचार्य एक ज्योतिषी और तान्त्रिक है...इसने अपने आवास से ही ज्योतिष और तन्त्र विद्‍या का व्यवसाय फैला रखा है....उसने कुछ तन्त्र और मन्त्र साधनायें तथा ज्योतिषीय अध्ययन के बल पर भविष्यवाणी करने में इतनी सफलता पा ली कि इसका नाम धीरे-धीरे प्रसरने (फैलने) लगा.... इसे इस व्यवसाय में अच्छी सफलता मिल रही है...इसका भाग्य ऐसा है कि इसकी भविष्यवाणियां अधिकांशतः सत्य निकलती हैं...अब उसने एक कक्ष किराये पर ले उसमें अपना ज्योतिष कार्यालय चलाना आरम्भ कर दिया है... समय बीतता गया....सन्‌ १९८५ ई. से अब १९९० हो गया, और अब १९९५....२०००...२००५...२०१०....सांसारिक विकास होता गया पर समाज गिरता गया मानवीय मूल्यों और धार्मिक-आध्यात्मिक विश्वासों और तदनुरूप कर्मों की दृष्‍टि से....लोगों का मन सांसारिक बातों में ही २४ घण्टे फंसा रहने लगा....पूर्व की भांति समाज में धर्मचर्चा और ज्ञानचर्चा अब हंसी या महत्त्वहीनता की बातें होती चली जा रही थीं... सुरेन्द्राचार्य की भविष्यवाणी की क्षमता भी न्यून होती गयी...पर उसका सांसारिक आधुनिक दिखावा और अहंकार उतना ही बढता गया...सुरेन्द्राचार्य का ज्योतिष कार्यालय अब उसके आवास में और एक साधारण कक्ष में न रह एक बिजनेस-सेण्टर की बिल्डिंग में शिफ्ट हो गया था...वहां बडे ही आधुनिक ढंग से उसका ज्योतिष और तन्त्र कार्यालय चल रहा था...उसके ज्योतिषीय ज्ञान और तान्त्रिक शक्तियों का प्रभाव बहुत न्यून(कम) हो चला था, पर उसकी प्रसिद्धि न केवल अब भी बनी हुई थी अपितु और भी बढती चली जा रही थी...उसे सहस्रों (हजारों) रुपये प्रतिदिन की आय हो रही थी... सुरेन्द्राचार्य का सपना एक करोडों रुपये की बिल्डिंग क्रय करने (खरीदने) का था...ग्रहपीडा हरने और मन्त्रानुष्ठान कराने के नाम पर उसे विशेष धनप्राप्ति हो रही थी....फल कुछ मिले या न मिले, लोग इसकी चिन्ता नहीं करते थे....एक भी फल घट गया तो उसकी प्रशंसा बहुत ही प्रसरती थी...तब भी वह कृपण(कंजूस) ऐसा था कि सौ या पचास रुपये भी न्यून लेने की बात उसे बहुत भारी बात जान पडती थी...एक व्यक्‍ति बडी आशा से उससे ज्योतिष आदि सीखने का अनुरोध कर रहा था...वह स्वयम्‌ ज्योतिष आदि की पुस्तकें पढ उससे ज्ञानवर्धन की आशा रखता था....सुरेन्द्राचार्य ने उसे कहा वह औफिस में ही असिष्टेण्ट या शिष्य जैसा रहे, और जहां ग्राहकों को डील करे वहीं समय मिलने पर मुझसे सीखता भी रहे...वह शिष्य के रूप में औफिस में नियमित रूप से आने व बैठने लगा...

 प्रदेश के एक मन्त्री की पत्नी सीता देवी को सुरेन्द्राचार्य के सम्बन्ध में कई बार प्रशंसायें सुनने को मिलीं, तो उसने सुरेन्द्राचार्य से मिलने का विचार किया...उसे कई वर्षों से सन्तान नहीं हो रहा था, और एक होने को हुआ तो मर गया...सीता देवी ने सुरेन्द्राचार्य को अपनी जन्मकुण्डली दिखायी....सुरेन्द्राचार्य ने उससे ग्रहशान्ति और मन्त्रानुष्ठान आदि के नाम पर सहस्रों रुपये लिये....और समस्या समाधान का कार्य आरम्भ किया....वह रुपये पर रुपये मांगता गया जो लाख की सीमा पार कर गये पर समस्या वहीं की वहीं बनी रही...कुछ मास बीतने जाने पर भी जब सीता देवी को बात कुछ भी बनती नहीं दिखी, तो उसका मन निराश होने लगा...निराशा संग-संग क्रोध लाने लगी....उसने पति के असिष्टेण्ट श्याम को बुलाया और उसे यह बात बतायी...श्याम-"ये ज्योतिषी आदि भी क्या सन्तान उत्पन्न करवा सकते हैं जब डौक्टर्स ने कह दिया कि सन्तान कभी नही हो सकती....?" सीता देवी - "तो अब क्या किया जाये....?" श्याम -"रुपये डूब गये और क्या..." सीता देवी- " डूब कैसे गये..? उसको लौटाने होंगे....कोई सौ पचास रुपये नहीं हैं कि छोड दिया जाये...! मैं अभी फोन करती हूं...." वह क्रुद्‍ध वहां फोन करती है....शिष्य बताता  है कि अभी एक घण्टे पश्चात्‌ ज्योतिषी जी आयेंगे...सीता देवी और श्याम सुरेन्द्राचार्य से मिलने तब सीधे उसके कार्यालय पहुंचते हैं...पांच मिनट ही अभी प्रतीक्षा की थी कि सुरेन्द्राचार्य आ पहुंचा....

"प्रणाम...." सीता देवी ने हाथ जोडे...."प्रणाम ज्योतिषी जी..." श्याम ने भी हाथ जोडे...

"प्रणाम प्रणाम....धन्य भाग्य हमारे जो मन्त्रिणी जी हमारे यहां पधारीं...."

"अरे ज्योतिषी जी...थोडा दम धरिये...अभी मैं मन्त्रिणी नहीं बनी हूं, केवल मन्त्रीपत्नी हूं...."

"हां हां हां...पर वो भी आप बन जा सकती हैं....मैंने आपकी कुण्डली देखी ही है...आपका भाग्य अच्छा है..."

"हां क्यों नहीं...जब आपके आशीर्वाद से मां बन गयी तो अब मन्त्रिणी भी बन ही जाउंगी..."

"हां.....! आइये आइये....अन्दर बैठिये...."

सीता देवी ने श्याम को संकेत किया अन्दर बैठते ही....

"देखिये ज्योतिषी जी....मैडम का कहना है कि आप इनकी सन्तान की कामना अपने तन्त्र-मन्त्र से पूरी कर नहीं पाये...और जो यह आश्वासन दिया है वह न जाने कितने वर्षों में भी पूरा हो पाये या न हो पाये...अतः लम्बे विचार-विमर्श के पश्चात्‌ यह निर्णय लिया गया कि जो लाखों रुपये आपको दिये गये हैं वो आप विना विलम्ब किये अभी लौटा दें...."

"लाखों रुपये....? मात्र एक लाख और कोई बीस सहस्र रुपये.....और सुनिये....काम बहुत किया जा चुका है, और अभी भी चल रहा है...यह धर्म का नियम है कि कर्म किये जाओ और फल की चिन्ता न करो....यदि इस जन्म में न भी फल मिला तो अगले जन्म में किये कर्म का फल अवश्य मिल जाता है...."

"बहुत अच्छा पण्डी जी...तो आप यह कहना चाहते हैं कि ये जो एक लाख बीस हजार रुपये आपको मैंने दिये वो आपको अगले जन्म में सन्तान पाने के लिये दिये हैं...?"

"वो....भला ज्योतिषी तान्त्रिक को दिये रुपये भी भला किसी को वापस मिले हैं कभी....!"

"नहीं मिले हों कभी....पर आप लौटायेंगे मुझे अभी..." वह गुर्रायी....

"शान्त शान्त देवी जी....यह धर्म का स्थान है....यहां क्रोध शोभा नहीं देता है....(शिष्य को संकेत करता है....-) देवी जी को कुछ शीतल पेय पिलाओ....मैं जरा एक विशेष कार्यवश बाहर निकल रहा हूं...." ऐसा कहता वह आगे बढा और धीरे-धीरे द्‍वार से बाहर निकल गया....

"श्याम...ये तो आराम से ऐसे चला गया जैसे इन रुपयों पर उसका वैध अधिकार बनता हो....क्या किया जाये अब...?"

"क्या किया जायेगा मैडम....इन लोगों का तो बस ऐसे ही चलता रहा है...सदा की ही बात है, आज कोई नयी बात नहीं है...."

"पर मैं नहीं छोडूगी...लेकर रहूंगी अपने रुपये...देखो यहां कितने का सारा सामान है...सब मंगवा लो...."

"अरे आप भी क्या बात सोच रही हैं मैडम...छोडिये जाने दीजिये...क्या कमी है आपके पास...मन्त्री जी यदि चाहें तो कई लाख रुपये देखते-देखते आपके हाथों में आ जायें...."

"ऐसी कौन-सी बात है...जरा पूछुं तो...." पति से बात करती है....

"ये ज्योतिषी-तान्त्रिकों की बात कुछ ऐसी है कि कुछ करते बनता नहीं... कोई और होता तो अभी तक में मैं अन्दर करवा देता...श्याम क्या कहता है...?" वह उसे मोबाइल देती है...

"सर...अभी आप मैडम को वापस बुला लें....बहुत क्रोध में हैं..."

"ऐसा है, तुम अभी आ जाओ...मैं मुख्यमन्त्री से ऐसे ठगों के विरुद्‍ध विधान (कानून) बनाने की बात करता हूं..."

सीता देवी लौट जाती है, पर आवास पहुंच भी शान्त न बैठी, और सुरेन्द्राचार्य को चेतावनी दे बैठी कि या तो रुपये लौटाओ अथवा तुमसे बलपूर्वक वसूल लिया जायेगा... उसने कुछ कर्मचारियों को भेज दिया कि चाहे जैसे हो सके उससे रुपये वसूल कर लाओ....वे कर्मचारी जा सुरेन्द्राचार्य से अभद्र भाषा में रुपये वापस मांगने लगे....पर तुरत ही  श्याम को इस बात की जानकारी हुई और उसने उन कर्मचारियों को वापस बुलवा लिया...यह जान सीता देवी क्रुद्‍ध हुई -"तुमने कैसे इन्हें वापस बुला लिया जब मैंने भेजा था...?"

"मैडम आप इसकी चिन्ता न करें...सप्ताह भर के अन्दर सर को कई लाख रुपयों का लाभ होनेवाला है...मैंने प्लान सर को समझा दिया है..."  और प्लान के अनुसार जब मन्त्री मुख्यमन्त्री से बात करता है तो मुख्यमन्त्री इस सम्बन्ध में रुचि नहीं लेता है यह कहते हुए कि समाज समर्थन नहीं करता है इन लोगों के विरुद्‍ध कार्यवाही के लिये..."

"पर हमारे जो इतने रुपये डूबे...?"
"वो मैं कम्पेन्सेट कर देता हूं....पिछले बार जब आप कुछ लोगों के काम के सम्बन्ध में जो कुछ डौक्यूमेण्ट्स लाये थे, वो लेते आइये..."

इस प्रकार मन्त्री कई लाख रुपयों का काम करवा सन्तुष्ट हो गया....

 

इन बातों से सुरेन्द्राचार्य भयभीत तो नहीं हुआ, पर अपमानित अनुभव करता हुआ श्मशान घाट की ओर चल पडा...और लौकिक सिद्धि पाने के उद्‍देश्य से एक बडे खण्डहर के एक भाग को अपने तन्त्र-मन्त्र साधना के अनुकूल बना वहां साधना आरम्भ कर दी...कर्णपिशाचिनी सिद्धि और सर्वमनःकामना सिद्धि के मन्त्रों का विधिपूर्वक जाप आरम्भ किया...कोई डेढ-दो मास पश्चात्‌ एक प्रेस-रिपोर्टर सिद्‍ध उस श्मशान से होकर गुजर रहा था...वह भूत-प्रेत, साधना-सिद्धि-चमत्कार इत्यादि पर अनुसन्धान कर रहा था अपने प्रेस-रिपोर्टिंग के कर्म के संग-संग...उसने ध्यानमग्न सुरेन्द्राचार्य को देखा और उसके समक्ष कुछ दूर अपना वीडियो-रिकार्डर औन कर रख दिया...कुछ समय रिकार्डिंग कर पुनः उसने उसके आसपास की रिकार्डिंग की और वहां से चला गया...जब प्रेस में वह इस वीडियो रिकार्डिंग को कम्प्यूटर पर देख रहा था तो उसे लगा सुरेन्द्राचार्य किसी से बातें कर रहा था मानो सुरेन्द्राचार्य के सर के आसपास कोई आत्मा या भूत हो, क्योंकि कोई स्वर नहीं सुनायी दे रहा था...ध्यान से देखने पर आत्मा जैसा कुछ अस्पष्ट श्वेत आकृति दिखने भी लगी...उसने पुनः उस दृश्य को प्ले किया....सभी ध्यान से सुरेन्द्राचार्य को और उसके सर का निरीक्षण कर रहे थे कि सुरेन्द्राचार्य के मस्तिष्क में वह प्रेस का दृश्य उभरा, और वह जान गया कि लोग उसकी वीडियो रिकार्डिंग देख रहे हैं और क्या विचार मन्थन कर रहे हैं....तुरत उसका मस्तिष्क उस कम्प्यूटर के स्क्रीन पर हल्की मुखाकृति के संग उभरा और देखते ही देखते सारा स्क्रीन काला हो गया...सिद्‍ध आदि ने तुरत कम्प्यूटर चेक किया तो पाया वह शट-डाउन हो गया था, अतः वह पुनः श्टार्ट तो हो गया पर वह वीडियो-फाइल करप्ट हो गयी थी, अर्थात्‌ देखने के अयोग्य हो गयी थी...सभी ने निराशा अनुभूत की, पर तुरत सिद्‍ध ने वीडियोरिकार्डर में औरिजनल फाइल प्ले किया तो वह भलीभांति चल रही थी...सबने आराम की सांस ली....पुनः उसकी कुछ कापियां बना एक कौपी  कम्प्यूटर पर चलायी गयी जिसके निरीक्षण करते समय एक सहकर्मी ने सहसा कहा-"मैं इसे जानता हूं, यह सुरेन्द्राचार्य है - एक प्रसिद्‍ध  ज्योतिषी और तान्त्रिक..." वहां लोगों को विश्वास हुआ कि अवश्य सुरेन्द्राचार्य के अधिकार में कुछ भूत होंगे जिनसे वह कोई भी काम करवा ले सकता है...सहकर्मियों ने अपने अलग-अलग विचार व्यक्‍त किये....

"जैसे कोई बोतल वाला जिन्न या अलादीन के चिराग वाला जिन्न....हा हा हा...."

"पर सुरेन्द्राचार्य को तो अबतक करोडपति क्या अरबपति तक बन जाना चाहिये था...."

"हो सकता है ये भूत अभी-अभी उसके वश में आये हों..."

"यह भी तो हो सकता है कि ये भूत उतने पावरफुल न हों...

यह सम्भवतः सुरेन्द्राचार्य का प्रथम मानसिक-शक्‍ति-प्रयोग था...सुरेन्द्राचार्य की मानसिक शक्‍ति अबतक बहुत विकसित और प्रबल हो चुकी थी...

 

सिद्‍ध ने तुरत सुरेन्द्राचार्य को जाननेवाले उस सहकर्मी से सुरेन्द्राचार्य के आवास का फोन नम्बर ज्ञात किया और डायल किया...फोन सुरेन्द्राचार्य की पुत्री वर्तिका ने रिसीव किया...-"आप कल आ उनका इण्टरव्यू ले सकते हैं, अपराह्‌ण दो से चार के मध्य...." सिद्‍ध अगले दिन समय से अपने बाइक से सुरेन्द्राचार्य के आवास की ओर चल पडा...जिस रोड पर सुरेन्द्राचार्य का आवास था उस ओर मुडते ही एक कार से उसकी टक्कर होते-होते रह गयी....कार रुकी, ड्राइवर ने सर बाहर निकाला....-"कहां जा रहे....?" सिद्‍ध ने उससे सुरेन्द्राचार्य के आवास के सम्बन्ध में पूछा....ड्राइवर- "हूं....सीधे जाते हुए यहां से ठीक पन्द्रहवां आवास है उनका...पर एक बात और भी बता दूं...जिस काम के लिये तुम वहां जा रहे वह काम तुम्हारा वहां बनेगा नहीं..." बडी-बडी आंखें उसने फाडी और कार आगे बढा दी...

सिद्‍ध ने बाइक आगे बढायी....ठीक पन्द्रहवां आवास सुरेन्द्राचार्य का था...उसने कौलबेल बजाया....द्वार सुरेन्द्राचार्य की पुत्री वर्तिका ने खोला...

"हां, कल मैंने जो समय बताया था वह उनके सामान्य दिनों में आवास में अपराह्‌ण समय रहने का है...पर अभी उनकी साधना चल रही है, जिस कारण वह कभी भी यहां से चले जाते हैं...वो अभी कोई दो मिनट पूर्व ही निकले हैं... वैसे, आप आइये...बैठिये...हमारे यहां आपका ’समाचारपत्र’ आता है....मैं आपके लेखों और समाचारों से बहुत प्रभावित हूं..."

"हूं....तो उनसे अब कब मिलना सम्भव हो पायेगा....?"

"अभी कुछ भी कहना सम्भव नहीं है...जबतक उनकी साधना चल रही है....और कबतक चलती रहेगी यह वह स्वयम्‌ भी निश्चित नहीं कर पाये हैं..."

वर्तिका उसे सम्मान से हौल में बैठा कौफी पिलाती है...वह उसके जर्नलिज्म के संग-संग उसके व्यक्तित्व से भी बहुत प्रभावित हुई, अतः उसने बडे उत्साह से उससे बातें करने में रुचि ली...जाते समय दोनों ने एक-दूसरे के मोबाइल नम्बर्स लिये जिससे कि सुरेन्द्राचार्य के संग इण्टरव्यू के सम्बन्ध में बात की जा सके....

कई दिन बीत गये....एक दिन सिद्‍ध ने वर्तिका को फोन किया कि यदि अब सुरेन्द्राचार्य के संग इण्टरव्यू सम्भव हो सके...

"अभी भी पापा की साधना चल रही है....और....समाप्ति की कोई जानकारी अभी भी नहीं है...."

"हूं...पर यह इतना शोर क्यों हो रहा है...कहां हैं आप अभी....?"

"अभी मैं यूनिवर्सिटी में हूं....यहां अभी यूनिवर्सिटी के स्थापना दिवस का कार्यक्रम चल रहा है..."

"अच्छा....प्रेस से रिपोर्टर्स भी वहां आये हुए होंगे...?"

"उसकी मुझे जानकारी नहीं...पर, यदि आप आना चाहें तो आ सकते हैं...."

"श्योर...कहां मिलेंगी आप मुझे...?"

"अभी मैं सेमिनार हौल में हूं, कोई एक घण्टे तक...आकर मुझे डायल कर लें..."

"मैं अभी बस आधे घण्टे में पहुंच रहा हूं...."

सिद्‍ध वहां पहुंच वर्तिका से मिलता है...सभी कार्यक्रमों की जानकारी लेता है....कुछ फोटोग्राफ्स और सूचनायें एकत्र करता है....वर्तिका उसे यूनिवर्सिटी के कुछ आकर्षक स्थानों का परिचय कराती है....दोनों कोई घण्टे-दो घण्टे इधर-उधर यूनिवर्सिटी में भ्रमण करते हैं....

"ये मैंने आपको यूनिवर्सिटी के प्रायः सभी मुख्य स्थानों  परिचय करा  दिया है...अब आप यह सब कब प्रकाशित कर रहे हैं...?"

"मैं अभी जा रहा हूं प्रेस....उसके पश्चात्‌ तैयार करूंगा एक विस्तृत रिपोर्ट....और आप....? आप अभी क्या आवास जायेंगी...”

"हां....पर अभी नहीं...कोई एक घण्टे पश्चात्‌....यूनिवर्सिटी बस आयेगी, तब..."

"तबतक...?"
"तबतक टाइम पास करना होगा...कार्यक्रम चल ही रहे हैं..."

"यदि ऐसा है तो आपको मैं अपने प्रेस से परिचय करवा सकता हूं...यदि आप चलना पसंद करें तो...बहुत आनन्द आयेगा सबकुछ देख-समझकर..."

वर्तिका सिद्‍ध के व्यक्‍तित्व से तो प्रभावित थी ही, संग ही उसका मन प्रेस की जानकारी लेने को भी आकर्षित हो रहा था, अतः वह सिद्‍ध के संग प्रेस चलना स्वीकार कर लेती है...वहां सिद्‍ध वर्तिका को प्रेस का मुद्रणालय और औफिस दोनों ही दिखलाता है, संग ही सभी महत्त्वपूर्ण जानकारियां उसे देता है...अपने सहकर्मियों से मिलाता व अपने जौब की कार्यशैली भी बताता है...वर्तिका को सिद्‍ध का व्यक्‍तित्व तो आकर्षक लगा ही था, संग ही उसकी महत्त्वपूर्ण स्थिति भी उसे बहुत मन भायी...सिद्‍ध उसे सारा प्रेस घुमाते हुए दिखला रहा है और  वर्तिका कल्पना में ही गीत गा रही है- ’साथी...मिले तो मिले....ऐसा....जीवनसाथी....जीवनसाथी....’

"अब मुझे चलना चाहिये....बहुत समय हो गया मेरे बाहर रहते..."

"पुनः कब मिलेंगी....?"

"वो मैं स्वयम्‌ फोन कर बताउंगी...और, आप मुझसे नहीं पूछेंगे, मैं ही आपको बताउंगी..."

तत्पश्चात्‌ वर्तिका सिद्‍ध को बाय-बाय कर एक टैक्सी ले अपने आवास लौट जाती है....

देखते ही देखते एक मास बीत गया, पर वर्तिका का कोई कौल नहीं मिला सिद्‍ध को...हारकर सिद्‍ध ने वर्तिका को कौल किया -"एक मास बीत चुका पर आपके कौल का कहीं कोई चिह्‌न भी नहीं...?"

"वो तो है....तब भी, मैंने आपको कहा था कि मैं ही आपको कौल करुंगी, आप नहीं..."

"हां, तो मैंने पर्सनली कहां आपको फोन किया है...एक जर्नलिष्ट के रूप में ही आपको फोन किया है कि यदि मि. सुरेन्द्राचार्य के संग इण्टरव्यू निश्चित की जा सके....?"

"वो अभी भी तन्त्रसाधना में व्यस्त हैं..." वर्तिका ने इतने साधारण स्वर में कहा कि सिद्‍ध ने और कुछ बोलना पसंद नहीं किया और फोन रख दिया...सहसा सिद्‍ध का मन वर्तिका से कुछ पूछने को हुआ और उसने वर्तिका को डायल किया, पर घण्टी बजते में उसने बात करने का विचार छोड दिया और कौल डिस्कनेक्ट कर दिया...वर्तिका उसका कौल डिस्कनेक्ट हो गया देख उसे कौल करती है...

"अन्ततः आपने मुझे कौल कर ही दिया...इतने विलम्ब से किया, पर किया तो..."

"पर मैंने तो आपका मिस्ड कौल देख आपको कौल किया है...."

"चाहे जिस भी कारण से किया हो, पर किया तो....नाउ नो लौंगर देयर एग्जिष्ट्स एनी कण्डीशन...."

"इट्स ओके...मान लिया...पर...मैंने मित्रता बढाने में इतना विलम्ब इसलिये किया क्योंकि मेरा मानना है कि जो काम स्वाभाविक गति और रूप से होता है उससे जीवन को लाभ मिलता है, विकास होता है..."

"आप कब मिल रही हैं मुझसे...?"

"यदि आप यहां आयें, तो दोनों मिल विचार करते हैं..."

"ओके...मैं अभी पहुंच रहा हूं...." सिद्‍ध बाइक से वर्तिका के आवास पहुंचता है....

"पापा अभी भी अपनी तान्त्रिक साधनाओं में वैसे ही व्यस्त हैं....सो आज भी आप उनका इण्टरव्यू तो नहीं ले सकते...पर मैं ऐवेलेवल हूं....यदि आप मेरा इण्टरव्यू लेना चाहें तो....."

"श्योर...आप ये बतायें कि आपने मुझमें जो अरुचि दिखायी उसका क्या कारण हो सकता है...?"

"ऐक्चुअलि, बात ऐसी है कि, मैं आपके न्यूज और इनवेष्टीगेशन्स बडी रुचि से पढती हूं...बहुत ही डिफरेण्ट लाइफ-ष्टाइल पाया मैंने आपका...पर, अब...अभी आपसे बातें करती हुई मैं स्वयम्‌ को हल्का अनुभव कर रही हूं....(कुछ रुककर) अच्छा, आज भी क्या कुछ ज्ञानवर्धन का प्रोग्राम बनेगा...आइ मीन, कहीं घूमने-दिखाने का...?"

"आज मैं एक अन्य, और भी बडा प्रेस दिखला-घुमा सकता हूं...."

"ऐज यू डिसाइड...."

वर्तिका सिद्‍ध के बाइक पर बैठी है....सिद्‍ध की बाइक एक मल्टीप्लेक्स के आगे से गुजरती है....

"क्यों न एक फिल्म देखी जाये....?" वर्तिका बोली... दोनों फिल्म देखते हैं....तत्पश्चात्‌..."अब आगे...वहां कितना समय लगेगा....?"

"वहां भी कोई तीन घण्टे लग जायेंगे...."

"पर इतना समय कहां बचा है आज....हां...आधा-एक घण्टा कहीं और बीताया जा सकता है..."

"कहां...?"

"जैसे किसी रेष्टोरेण्ट में, या किसी पार्क में..."

दोनों निकट ही स्थित एक रेष्टोरेण्ट में जाते हैं....दोनों वहां कुछ खा रहे हैं और कौफी पी रहे हैं....कुछ छलक जाता है वर्तिका के हाथ पर...सिद्‍ध बडे प्यार से उसके हाथ पर से कौफी हटाता हुआ सहलाता है...दोनों में निकटता बढती जाती है....कभी उद्यानों में संग घूम रहे हैं तो कभी लोकल ट्रेन में, बस में संग भ्रमण कर रहे हैं...ये कितने प्यार से हंस-हंसकर बातें कर रहे हैं...और ये लो गले भी लग गये....दोनों को प्रेम हो गया एक-दूजे के संग...प्रेमगीत गा रहे हैं...

 

सुरेन्द्राचार्य ने पर्याप्‍त तान्त्रिक साधनायें कीं...उसकी मानसिक शक्‍ति बहुत प्रबल हो चुकी थी....उसने कई आत्माओं से बातें कीं...एक आत्मा को तो उसने अपना दास बना लिया था...पर वह आत्मा सुरेन्द्राचार्य को उतना ही लाभ पहुंचा सकता था जितनी उसकी शक्‍ति थी...वह आत्मा तुरत ही किसी भी व्यक्‍ति के मन-आत्मा से सम्पर्क कर उसके भूतकाल और वर्तमान के सम्बन्ध में सारी बातें जान लेता था....पर किसी के भविष्य की बातें जान लेना उसके लिये प्रायः असम्भव ही था...पर अब सुरेन्द्राचार्य भी मानसिक रूप से इतना अधिक बली हो गया था कि वह किसी भी व्यक्‍ति के मन-आत्मा से सम्पर्क कर न केवल उसके मन की सारी बातें जान ले अपितु उसके मन को प्रभावित कर उससे कुछ भी बोलवा ले या उसका कुछ भी अच्छा-बुरा करने का मन बना उससे कुछ भी करवा ले...ऐसा अनुभव करने के पश्चात्‌ उसका मन उस मन्त्रीपत्नी सीता देवी पर गया जिससे अपमानित हो ही वह इतने अधिक लगन से वह इन तन्त्र-मन्त्र की क्रियाओं में संलग्न हुआ था...सर्वप्रथम तो वह उसे धन्यवाद देना चाहा, पर दूसरे क्षण वह उसकी धमकी आदि की घटनाओं का स्मरण करते हुए उसका मन क्रुद्‍ध हुआ...पर सावधानी से उसने सीता देवी को मन से देखा....वह किचेन में कोई डिश बना रही थी...उसके हाथ में चाकु था...चाकु उसकी अंगुली पर रगड खा गया सुरेन्द्राचार्य के मानसिक प्रभाव से...वह चिल्लायी, रक्त निकलने लगा था...यद्‍यपि सुरेन्द्राचार्य समर्थ था सीता देवी को बहुत ही संकट में डाल देने में, पर मन्त्री से भय खाते हुए उसने और अधिक कुछ नहीं किया  कि यदि मन्त्री जान गया उसके इस मानसिक प्रभाव को तो वह उसे मरवा भी दे सकता है...

अब सुरेन्द्राचार्य औफिस में पूर्ववत्‌ (like before) बैठने लगा....एक व्यक्‍ति उसके पास जन्मकुण्डली बनवाने आया...साधारण जन्मकुण्डली  साधारण फलविवरण के संग बनवाने की फीस मात्र ५०१ रुपये....उसने रुपये दिये...

"वैसे तो मैं ५००१ से न्यून में कोई जन्मकुण्डली आदि कुछ भी बनाने का इच्छुक नहीं हूं...पर उतने रुपये देनेवाले भी तो हों...विदेश चला जाउं तो यह हो सकता है...पर धनव्यय भी तो बढ जायेगा...कोई बात नहीं..." वह व्यक्‍ति समक्ष (सामने) बैठा था....सुरेन्द्राचार्य ने उसका मन टटोलना आरम्भ किया...सुरेन्द्राचार्य ने उससे कोई प्रश्न नहीं पूछा, पर जो १५-२० मिनट्‍ पर्यन्त उस व्यक्ति के मन में प्रश्न स्वयम्‌ ही उठने लगे और वह उनके उत्तर सोचते रहा....इस प्रकार वह प्रायः सभी प्रमुख बातों पर विचार करते रहा, जैसे- उस व्यक्‍ति का लक्ष्य क्या है, उसका स्वभाव कैसा है...उसका सेक्सुअल रिलेशन कैसा है...वह क्या जौब करता है....और ऐसे ही प्रश्न उसके परिवार के लोगों के सम्बन्ध में भी...इन बातों पर उसका मन घूमता रहा...जब वह बाहर निकला तो ऐसा लगा जैसे किसी ने उसका माइण्ड मसाज कर दिया हो...जब उसे वह जन्मकुण्डली मिली तो उसके फलविवरणों को पढ उसके परिवार आदि के लोग बहुत प्रसन्न हुए...सुरेन्द्राचार्य का नाम और भी प्रसरा (फैला)...यद्‍यपि सुरेन्द्राचार्य कुछ वर्ष पूर्व पर्यन्त सन्तोषजनक भविष्यवाणी करने में समर्थ था, पर तत्पश्चात्‌ सांसारिकता में अ‍त्यधिक फंस उसकी वह भविष्य जान पाने की शक्‍ति बहुत न्यून हो गयी थी...अब भी उसकी वैसी ही स्थिति थी पर अन्तर इस बात का था कि अब वह तान्त्रिक व मानसिक शक्तियों को कुछ सीमा में पा गया था...ऐसे ही उसने जब कुछ और लोगों के संग किया तो लोगों को सन्देह होने लगा कि सुरेन्द्राचार्य ऐसे उनके मन की बातें जान ले रहा है...इसके पूर्व कि उसकी कुख्याति हो वह सावधान हो गया और यह काम वह अपने दास आत्मा से करवाने लगा...दास आत्मा कब किसके मन से कैसे क्या-क्या जानकारी ले ले इसका किसीको आभास भी नहीं हो पाता था...यह आत्मा की मायाविनी शक्‍ति थी...इस प्रकार सुरेन्द्राचार्य ने बहुत धन अर्जित किया...उसका सपना था एक करोडों रुपये का आवास ले उसमें अपना भव्य निवास और व्यवसाय दोनों चलाये...इसके लिये उसे अभी भी बहुत धन अर्जित करना था...वह इतना अधिक कृपण (कंजूस) स्वभाव का व्यक्‍ति था कि किसी से सौ या पचास रुपये भी कम फीस लेना उसे अच्छा नहीं लगता था...मन्त्रसिद्धि से प्राप्त दास आत्मा का उसने इतना मनमाना उपयोग किया कि एक दिन उसे वह दास कहीं भी अनुभव में नहीं आ रहा था...वह उसे कहीं भी नहीं पा पा रहा था....तन्त्र-मन्त्रसाधना से प्राप्त दास आत्मा पर्याप्त फल दे सदा के लिये चला गया था...मन्त्रसिद्धियों से प्राप्त फल भी एक निश्चित समय पर्यन्त ही मिलता रहता है, तत्पश्चात्‌ पुण्य या फलप्राप्ति की क्षमता का अन्त हो जाता है...तब, साहस न खो सुरेन्द्राचार्य स्वयम्‌ ही मन एकाग्र कर शरीर से बाहर आत्मा के रूप में निकलता है और जिस भी व्यक्‍ति को पहुंचना चाहे वहां पहुंच जाता है और सभी अभीष्ट जानकारी प्राप्त कर लेता है....पुनः निज शरीर में प्रत्यागत हो (वापस लौट) जाता है...इस प्रकार उसका काम पूर्ववत्‌ बनने लगा...परन्तु वह स्वामी के स्वभाव का व्यक्‍ति था, जबकि यह काम सेवक का था, अतः उसे यह रुचा नहीं....एक दिन वह आत्मा के रूप में बाहर भ्रमण कर रहा था तो उसने देखा कि एक व्यक्ति भोलानाथ जौब न मिलने से दुःखी हो कह रहा था- ’हे भगवान्‌, मौत आ जाये तो सभी समस्यायों से छुटकारा मिल जाये...’ सुरेन्द्राचार्य ने उससे सहानुभूति दिखायी....वह उससे कहता है- "क्यों मरना चाहते हो..."

"यह जीवन एक समस्या बन गया है....इससे छुटकारा पाने के लिये...."

"मरकर जब तुम आत्मा के रूप में भटकोगे, समस्या तब उत्पन्न हो जायेगी..."

"प्रतिदिन की रोटी-रुपयों की आवश्यकता तो नहीं रह जायेगी..."

"तो चलो मेरे संग...मैं तुम्हारी यह समस्या दूर कर देता हूं..." सुरेन्द्राचार्य भोलानाथ को मार्ग दिखाता हुआ अपने आवास ले आता है...वह उसे प्रशिक्षित कर आत्मा के रूप में अन्यों की जानकारी लेने भेजने लगता है...भोलानाथ उस दास आत्मा जैसा ही सुरेन्द्राचार्य की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में समर्थ सिद्ध होता है...भोलानाथ उस शिष्य के संग ही औफिस में रहने लगा...अब पुनः सुरेन्द्राचार्य आराम से दोनों हाथों से रुपये बटोरने में लग गया...पर कितना भी रुपया अर्जित करे (कमाये) उसकी प्यास बुझती नहीं थी, क्योंकि उसे करोडों रुपये एकत्र (इकट्‍ठा) करने थे...वह सौ - दो सौ रुपये भी आता देख बहुत उत्साहित हो जाता था...

 

दैव पथ पर चलता जा रहा है...वह मोटे शरीर का एक हसमुख व्यक्ति है जिसका व्यक्तित्व हिन्दी फिल्मों के देवेन वर्मा से बहुत मिलता-जुलता है... एक स्थान पर एक बोर्ड पर उसकी दृष्टि पडती है -’ज्योतिषाचार्य तन्त्र मन्त्र सम्राट्‍ श्री श्री सुरेन्द्राचार्य स्वामी.... जिनकी सैंकडों ही नहीं सहस्रों भविष्यवाणियां अभी तक सच्ची निकल चुकी हैं...तन्त्र और मन्त्र के अनुष्ठान से स्वामी जी सभी की मनःकामनायें पूरी करते हैं...पता-.......’

"अरे वाह!....मुझे एक ब्रैण्ड न्यू कार चाहिये....क्या तन्त्र मन्त्र  के अनुष्ठान से मेरी यह कामना पूरी हो जायेगी...!"

वह सुरेन्द्राचार्य के औफिस का पता पूछते वहां पहुंच जाता है और उन शिष्यों से कहता है- "मुझे चाहिये बहुत ही आकर्षक आधुनिक आरामदायक कुछ...क्या मिल जा सकता है स्वामी जी के तन्त्र और मन्त्र के अनुष्ठान से...?"

"आइये आइये...अवश्य...यहां लोग रिक्त (खाली) हाथ आते हैं और झोली भर ही लौटते हैं...हमारे गुरुजी तन्त्र मन्त्र सम्राट्‍ हैं...अनगिनत लोगों ने यहां से सुख-समृद्धि पायी है...आपको श्रीमान्‌ क्या काम करवाना है...?"

"करवाना नहीं, कुछ पाना है...यदि यहां से मिल जाये तो..."

"क्या...?"

"वह मैं तन्त्र मन्त्र सम्राट्‌ ज्योतिषाचार्य जी से ही बताउंगा..."

"तो आप अपना प्रश्न इस कागज पर लिखकर दे दें...."

दैव कागज पर लिखता है -"मुझे चाहिये कुछ बहुत ही आकर्षक आधुनिक आरामदायक, पूर्णतया नवीन...." शिष्य प्रश्न को सुरेन्द्राचार्य पर्यन्त (तक) पहुंचाता है....पुनः शिष्य दैव से -"देखिये, जितना ही बडा काम होता है उतने ही अधिक रुपयों की फीस देनी पडती है हमारे गुरुजी को...तभी आपके मनोरथ पूरे होंगे..."

"रुपये...?तो रुपये देने पडेंगे...? कोई बात नहीं...पर मुझे चाहिये पूर्णतया ब्रैण्ड न्यू और आरामप्रद...कितने रुपये देने पडेंगे...?

"आप कितना देना चाहेंगे...?"

"देखो, तीस-चालीस हजार रुपये तो मैं सेकेण्ड हैण्ड के लिये देने को तैयार हूं....पर ब्रैण्ड न्यू भी मुझे इतने ही रुपयों में मिल जाये यह मेरा मनोरथ है..."

"तो आप अपना मनोरथ पूर्ण करने के लिये तीस-चालीस हजार रुपये देने को तैयार हैं..."

"हां..."

"ठीक है...आपका काम हो जायेगा...रुपये दे दें, या लेते आयें...."

दैव प्रसन्नमन से आवास जाता है और सबको बताता है कि मात्र तीस-चालीस हजार रुपयों में ही उसे एक ब्रैण्ड न्यू कार मिलने वाला है...सभी आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता व्यक्त करते हैं...दैव को वह शिष्य फोन करता है कि वह कल सायंकाल पांच बजे कुल चालीस सहस्र रुपये ले आ जाये, तब वह और गुरुजी दोनों श्मशान जायेंगे जहां गुरुजी का तन्त्र-मन्त्र-अनुष्ठान चला करता है.... दैव समय से रुपये ले वहां उपस्थित हो जाता है...सुरेन्द्राचार्य उसे अपने कार में बैठा श्मशान ले जाता है....दोनों श्मशान में उसी खण्डहर के उस भाग में बैठे हैं....सुरेन्द्राचार्य -"संकल्प लें...कामना बोलें...."

"मुझे चाहिये पूर्णतया ब्रैण्ड न्यू आकर्षक आधुनिक आरामदायक, वह मुझे यथाशीघ्र(as soon as possible), नहीं, अतिशीघ्र(very soon) मिल जाये..."

सुरेन्द्राचार्य मन्त्रजाप और हवन कर रहा है...कुछ रात हो गयी है....-"आपकी कामना  अवश्य पूर्ण होगी..."

"कब..?"

"यथाशीघ्र..."

"मुझे यहां और कितना समय रुकना पडेगा...?"

"अर्धरात्रि, अर्थात्‌ रात के १२ बजे पर्यन्त...वैसे आप चाहें तो अभी भी जा सकते हैं..."

"हां...पर यहां से आवास मैं जाउं कैसे...?"

"बाहर मेन रोड से यदि कोई औटो आदि कुछ मिल जाये....मैं भी आपको कार से आपके आवास छोड दे सकता हूं, पर उसके लिये आपको मेरे रुकने तक रुकना पडेगा..."

"नहीं, नहीं, मैं चलता हूं...प्रणाम..." दैव बाहर मैदान में निकला....श्मशान से मेन रोड पर्यन्त जानेवाली मिट्‍टी वाली कच्ची सडक पर उसने देखा कि एक मारुति वैन टेंढी अवस्था में खडी है...वह उसके किनारे से निकल आगे बढा, पर पुनः पीछे मुड देखा कि यह वैन इस अवस्था में बीच सडक पर क्यों लगी है...! वह वैन के ड्राइविंग सीट की ओर आ देखा तो पाया ड्राइवर श्टेयरिंग पर सर रखा जैसे सो रहा हो...यह यदि उसे कुछ भी दूर छोड दे, ऐसा सोच उसने उसे स्वर दिया, पर कोई उत्तर न मिला...तब दैव ने उसके कन्धे पर हाथ रखा, कोई प्रतिक्रिया नहीं, तब उसने उसके कन्धे को हिलाया, और उस व्यक्ति का शरीर सीट पर गिर पडा....दैव ने उसके सर को उठाया तो उसकी आंखें आधी खुलीं, पर वह कुछ बोल नहीं पाया...सामने उसे पानी भरा बौटल रखा दिखा...उसने उससे पानी के छींटे उसकी आंखों पर मारे...उसके मुंह में भी बोटल घुसा कुछ पानी पिलाने का प्रयास किया, तो उस व्यक्ति कमलेश ने नींद भरी आंखें खोलीं...कमलेश -"कृपया मुझे हौस्पीटल ले चलो...ये चाभी है...मुझे किसी ने विष मिला ड्रिंक पिला दिया है... दैव किसी प्रकार वैन चलाता एक हौस्पीटल पहुंचता है...वहां कमलेश को ऐड्मिट करवाता है...कमलेश का उपचार कर विष उसके शरीर से निकाल दिया जाता है और बेडरेष्ट करने को कहा जाता है...दैव भी रात वहीं बीताता है...प्रातःकाल कमलेश को उसके आवास पहुंचाता है...वहां कमलेश के पत्नी-बच्चे उसका बहुत आभार व्यक्त करते हैं...तत्पश्चात्‌ वह अपने आवास लौट आता है...

दिन में वह उत्साहपूर्वक औफिस पहुंचता है...शिष्य उसे देख मुस्कुराते हैं- "श्रीमान्‌, कैसा रहा रात का अनुभव...?"

"बहुत अच्छा रहा...ये तो बतायें, जो चाहिये वह मुझे कबतक मिल जायेगा...?"

"काम आपका हो जायेगा...जो आपको चाहिये वह आपको मिल जायेगा...मन्त्रानुष्ठान चालु है..."

"तब भी, कुछ अनुमान बतायें...कितना समय लग जायेगा...फल मिलने में...?"

"फल हो सकता है एक वर्ष में मिले...या दो वर्ष भी लग जा सकता है....सच पूछिये तो श्रीमान्‌ कुछ निश्चित समय नहीं बताया जा सकता है...यह कार्य ही धैर्य का है..."

पर दैव ने धैर्य खोते हुए पूछा -"मुझे तो तुरत चाहिये था...क्या मेरे रुपये मुझे वापस मिल जायेंगे...?"
"सारी प्रक्रिया चल रही है और रुपये वापसी की बात...! दुबारा मुंह से निकालना भी मत, नहीं तो न केवल तुम्हारी कामनासिद्धि के लिये किये जा रहे मन्त्रानुष्ठान रुक जायेंगे अपितु(moreover) तुम्हारे रुपये भी डूब जायेंगे...."

लुटा-सा दैव उस औफिस से बाहर निकला और मरे हुए मन जैसी स्थिति में सोचा अब कहां जाये और क्या करे...कुछ मिनटों पर्यन्त इधर-उधर भटकता उसे कमलेश का स्मरण आया...वह उसे देखने उसके आवास पहुंचा...वहां उसका स्वागत हुआ...कमलेश आराम से विस्तर पर लेटा आराम कर रहा था...उसे नींबु+चीनी+नमक+पानी का पेय पीने दिया गया था...वह दैव को देख बहुत प्रसन्न हुआ - "मैं आपका बडा उपकार मानता हूं जो आपने मेरे प्राण बचाये...नहीं तो यदि कुछ घण्टे और वहां यदि मैं उस स्थिति में रहता तो  निश्चय ही मेरी मृत्यु हो गयी रहती..."

कुछ मुस्कुराने का प्रयास करते दैव ने कहा-"हा हा हा...मैं कौन होता हूं आपको बचानेवाला...यह आपका भाग्य ही था जो आप बच गये...मैं तो उधर जाता भी नहीं...यह तो संयोग ही था कि मैं...."

कमलेश ने जिज्ञासापूर्वक पूछा -"हां हां...आप उधर कैसे गये थे...?

"अरे क्या बताउं...आपने इस ज्योतिषी और तान्त्रिक सुरेन्द्राचार्य का नाम तो सुना होगा...उसने मेरी कामना पूरी करने के नाम पर मुझसे चालीस हजार रुपये लिये, और अब कहता है कि मेरी कामना एक वर्ष में पूरी हो सकती है, दो वर्ष भी लग जा सकते हैं, कुछ भी निश्चित समय बताया नहीं जा सकता..."

"क्या कामना है आपकी...?"

"एक ब्रैण्ड न्यू कार..."

"हा हा हा...ऐसा कोई वस्तु क्रय करना हो तो शौप जायेंगे या मन्त्रानुष्ठान कर कामनासिद्धि करेंगे...! आजकल इंष्टौल्मेण्ट पर ब्रैण्ड न्यू कार सरलता से मिल जाया करती है...जैसे, नैनो सस्ती और अच्छी कार है...क्या जौब करते हैं आप...?"

"मेरी एक ष्टेशनरी और बुक्स की शौप है....हां...इतनी अच्छी आय तो हो जाया करती है कि मैं इंष्टाल्मेण्ट पर कार ले सकुं...पर उस समय मेरे मन में यह बात तो आयी नहीं..."

"कोई बात नहीं...मैं आपको दिलवा देता हूं..."

"पर मेरे चालीस हजार रुपये, डूब जो गये...?"

"डूब कैसे गये...?मैं बात करता हूं सुरेन्द्राचार्य से...रुपये तो उसे लौटाने ही होंगे...अरे, कार क्रय करना हो तो मार्केट चलो, रुपये दो और कार लो...यदि तन्त्र-मन्त्र के बल पर लेना हो तो विना रुपये लगाये लो...नाममात्र के रुपये लगाओ -सौ, दो-चार सौ रुपये...तब भी क्या कार क्या प्रकट होगी...? कल चलते हैं उससे मिलने..."

अगले दिन कमलेश दैव को उसके आवास से ले सुरेन्द्राचार्य के औफिस पहुंचा...वहां सुरेन्द्राचार्य के शिष्यों ने उन्हें सुरेन्द्राचार्य से मिलने में बाधा डाली....पर कमलेश चिल्लाने लगा...’कैसे रुपये नहीं लौटाओगे...तुम्हारी ठगी नहीं चलेगी...’ घबडाकर सुरेन्द्राचार्य निकला- "क्या बात हो गयी....आइये आइये, शान्ति से बैठ बात करें... हां, कहिये, क्या कहना चाहते हैं आप...?"

"यदि कार क्रय करना हो तो मार्केट गया और रुपये दे कार संग ले आया...कोई उसके लिये वर्ष-दो वर्ष प्रतीक्षा करेगा...? अतः विना विलम्ब किये सारे रुपये लौटा दें..."

"रुपये श्रीमान्‌ मन्त्रानुष्ठान में इन्वेष्ट कर दिये गये हैं...फलप्राप्ति में चाहे जितना भी समय लगे...धैर्य रखें..."

"आजतक नहीं सुना कि कार क्रय करने के स्थान पर मन्त्रानुष्ठान किये जाने से कार प्रकट होगी..."

"हमें यह नहीं बताया गया था कि कार का क्रय करना है, केवल कामनासिद्धि की बात कही गयी थी..."

"तब भी, हमें नयी कार या तो सप्ताह भर में दिला दो या वापस कर दो हमारे चालीस हजार रुपये..."

"ऐसे नहीं... रुपये वापस नहीं होते ...”

"सीधे से रुपये दे रहे या नहीं...? मेरे पास दूसरे उपाय भी हैं सच्चाइ के रुपये वापस लेने के..."

"क्या हैं...?"

"तुम्हें...अभी तुम्हारी गर्दन पकड मैं यहीं तुम्हारी धुलाई करने लग जाउंगा...उठुं क्या...?" कमलेश ने मुक्का मारा टेबल पर कि कुछ वस्तुयें उछलीं..."

उसके आक्रामक मुख को देखते हुए सुरेन्द्राचार्य ने चालीस हजार का लोभ छोड देने में ही अपनी भलाई समझी...- "ठीक है...आप चलें, निकट के एटीएम को...वहां मैं रुपये निकाल आपको देता हूं..."

तीनों एटीएम पहुंचे...दैव और कमलेश रुपये ले वैन की ओर बढे, और सुरेन्द्राचार्य औफिस की ओर...दैव की प्रसन्नता की सीमा नहीं थी...दोनों कुछ मिनट वैन में बैठे प्रसन्नतापूर्वक बातें करते रहे, तत्पश्चात्‌ कमलेश ने वैन चालु करना चाहा पर वैन ष्टार्ट हुआ नहीं...सुरेन्द्राचार्य क्रुद्ध मन से औफिस में बैठा था और मन से कमलेश और दैव को देख-सुन रहा था...उसने अपनी मानसिक शक्ति से वैन को चालु होने नहीं दिया...तब परेशान हो दोनों ने वैन को धक्का दे आगे बढाने का प्रयास किया...पर यह क्या...! वैन जैसे जाम पड गया हो, और हिला तक भी नहीं...तब कमलेश ने दैव को कहा वह वैन में बैठे तबतक वह किसी मेकैनिक को बुला लाता है... कमलेश एक मेकैनिक के समीप पहुंचता है...सुरेन्द्राचार्य ने अपनी मानसिक शक्ति से वैन को तो जाम कर ही रखा है, अब वह मेकैनिक के मन को भी कमलेश के विरुद्ध कर देता है...इससे मेकैनिक उसके संग चलना अस्वीकार कर देता है...अधिक रुपये देने का लोभ देनेपर भी जब मेकैनिक चलने को नहीं माना तो कमलेश को आश्चर्य हुआ और वहां से वह चलने को पीछे मुडा और आगे बढा...परन्तु सहसा वह एक समीप खडी बाइक से टकरा गया...बाइक पलट गयी...इसपर मेकैनिक ने क्रोध में कुछ कहा...कमलेश ने भी क्रोध में ही उसको उत्तर दिया...देखते ही देखते दोनों में बाताबाती बढने लगी...तब अन्य मेकैनिक आदि भी वहां आ कमलेश को धमकाते हैं कि चुपचाप चले जाओ नहीं तो मार खाओगे...अपमानित अनुभव करता कमलेश वहां से बाहर रोड पर आ सोचता है कि अब क्या करे....एक मेकैनिक उसका परिचित है, कमलेश उसे मोबाइल से फोन कर बुलाना चाहता है, पर सुरेन्द्राचार्य की दृष्टि उसके मोबाइल पर जाती है और मोबाइल से उसका उस मेकैनिक से सम्पर्क नहीं बन पाता है...कमलेश को लगता है कि उसका दिन आज अच्छा नहीं है....ऐसा विचार करते ही वह स्वयम्‌ को बहुत दुर्बल अनुभव करने लगता है...उसे लगता है जैसे उसपर दीनता (miserability) छा गयी है....सुरेन्द्राचार्य उसकी दीनता को अपने मन की आंखों से देख रहा है...यह देख कि उसका दुश्मन अब बहुत ही दुर्बल स्थिति में पहुंच गया है उसे अपनी मानसिक शक्ति से मारने लगता है...कमलेश को लगता है कि  कोई उसे घूंसे और कोडे से मार रहा है...उसे तीव्र पीडा हो रही है पर उससे बचने का कोई उपाय उसे नहीं सूझ पा रहा है...वह कुछ ही मिनटों में ’आह आह’ चिल्लाता पथ पर गिर पडता है और अचेत हो जाता है....कुछ मिनट और प्रतीक्षा कर जब दैव कमलेश को नहीं लौटता पाता है तो उसी दिशा में आगे बढता है जिस दिशा में कमलेश गया था...कुछ दूर जाने पर वह कमलेश को पथ पर अचेत गिरा पाता है...वह उसे उठा एक औटो में बिठा हौस्पीटल ले जाता है...वहां कमलेश को ऐड्मिट करा दैव एक मेकैनिक को संग लाता है वैन को रिपेयर करवाने...परन्तु मेकैनिक के श्टार्ट करते ही वैन चालु हो जाता है, क्योंकि तब सुरेन्द्राचार्य ने उसपर अपना मानसिक प्रभाव नहीं डाल रखा था...सुरेन्द्राचार्य ने कमलेश की मानसिक पिटायी कर सन्तुष्ट मन से अपने अन्य कार्यों में स्वयम्‌ को व्यस्त कर लिया था...दैव तत्पश्चात्‌ वैन से बैंक जा चालीस सहस्र रुपये जमा कर देता है, आवास जा आराम से खाता-पीता है, तत्पश्चात्‌ हौस्पीटल जाता है कमलेश को देखने...कमलेश को चेत (होश) आ गया था...डौक्टर्स ने इसे मेण्टल एण्ड हेल्थ वीकनेस बता हेल्थ टौनिक और पौष्टिक आहार आदि लेने का परामर्श दे कमलेश को छुट्‍टी दे दी...दैव कमलेश को ले उसके आवास चला जाता है...कुछ ही घण्टों में कमलेश खा-पी स्वस्थ अनुभव करने लगता है...वह निज संग घटी बात दैव एवम्‌ परिवार के लोगों को बताता है पर सभी इस पर ध्यान न दे इसे स्वास्थ्य की दुर्बलता ही मानते हैं..

 

सिद्‍ध और वर्तिका का प्रेम प्रसंग दिन प्रतिदिन और भी अधिक बली होता चला जा रहा है....दोनों प्रेमगीत गा रहे हैं...दृश्य विविध स्थानों के...एक उद्‍यान में वर्तिका सिद्‍ध के कन्धे पर सर रखी धीमे-धीमे बोल रही है....-"हमलोग विवाह कर लें तो कैसा रहेगा...?"

"और भी अच्छा होगा...."...

"जैसे...?"
"जैसे, हमारे पास होंगे पूरे २४ घण्टे होंगे आनन्द के संग बीताने को...."

"तो....?"

"तो क्या...?"

"तो क्या करें अब, इसके लिये...?"

"विवाह के लिये तो विवाह ही किया जा सकता है...चलो, बात करते हैं तुम्हारे पिता से..."

"चलो..."

इस समय सुरेन्द्राचार्य औफिस में था, अतः दोनों वहीं पहुंचते हैं....वर्तिका और सिद्‍ध सीधे जाकर सुरेन्द्राचार्य से मिलते हैं....सिद्‍ध सुरेन्द्राचार्य को प्रणाम करता है....वर्तिका सिद्‍ध का परिचय कराती है और कहती है कि दोनों विवाह करना चाहते हैं, और इसके लिये उनकी अनुमति चाहिये...

"मैं यह जानना चाहता हूं कि तुम दोनों में से कौन किसको अधिक चाहता है...?"

"हमदोनों एक-दूसरे को समान ही रूप से चाहते हैं...."

"ऐसा नहीं हो सकता है....एक में कुछ न्यूनता और दूसरे में कुछ प्रेम अवश्य होगा....किसमें है,,,?"

"पापा, आप भी कैसी बात कर रहे हैं...जितना सिद्‍ध मुझे चाहता है उतना ही मैं इसे चाहती हूं..."

"अच्छा...ये तो बताओ...तुम दोनों में से कौन दूसरे से मिलने को अधिक उत्सुक रहा करता था जिससे तुमदोनों का प्रेम आज इस स्थिति में आ पहुंचा है कि विवाह करने जा रहे हो....?"

"हूं..." दोनों चुप रह गये...तत्पश्चात्‌ चुप्पी तोडते हुए सिद्‍ध ने कहा - "यह मैं था जो आरम्भ में अधिक उत्सुक था वर्तिका संग मित्रता बढाने को..."

"अर्थात्‌ तुम चाहते हो वर्तिका से विवाह करना...और जिसे जो चाहिये होता है उसे उसके लिये मूल्य देना पडता है...बताओ, तुम कितने लाख रुपये देने को तैयार हो वर्तिका से विवाह करने के लिये...?"

"पापा, आप यह कैसी बात कर रहे हैं...रुपये यदि कोई देगा तो आप देंगे, न कि ये....!"

"देखो, संसार का यह साधारण सा नियम है कि जिसे किसी वस्तु की कामना होती है वह उसे उसका मूल्य चुका पाता है...अतः सिद्‍ध को भी मूल्य देना होगा यदि तुम्हें यह अपने संग सदा के लिये ले जाना चाहता है...कितने लाख रुपये देने में यह समर्थ हो सकता है यह यह स्वयम्‌ ही बताये...तबतक तुम इससे नहीं मिलोगी...अब आप श्रीमान्‌ सिद्‍ध, जा सकते हैं..."

सिद्‍ध उठा, वर्तिका की आंखों में देखा, और चला गया...

 

कमलेश की मानसिक पिटायी की घटना के पश्चात्‌ सुरेन्द्राचार्य को मानसिक आक्रमण और पिटायी का जैसे स्वाद लग गया था....नगर में एक राष्ट्रीय स्तर का ’ज्योतिष और तन्त्र विज्ञान सम्मेलन’ आयोजित किया गया था जिसमें सुरेन्द्राचार्य सहित देश के कई ज्योतिषी और तान्त्रिक आमन्त्रित किये गये थे...प्रत्येक को भाषण देने के संग-संग अभी तक की निज उपलब्धियां दिखलानी थी...सुरेन्द्राचार्य ने बढ-चढकर  अभी तक की अपनी उपलब्धियां दिखायीं तथा भाषण एवम्‌ प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम में भाग लिया...परन्तु पुरस्कार मिलते समय उसी नगर का एक अन्य ज्योतिषी और तान्त्रिक प्रथम आया, जबकि सुरेन्द्राचार्य का स्थान छ्ठा था...यह देख सुरेन्द्राचार्य का हृदय जलने लगा...उसका अहंकार स्वयम्‌ को किसी भी से न्यून मानने को तैयार नहीं था...सुरेन्द्राचार्य ने विजेता ज्योतिषी से बातें कीं, पर उससे वह कोई विद्‍वत्तापूर्ण उत्तर नहीं पा पाया, जबकि विजेता की प्रशंसायें और प्रसिद्धि प्रसरती ही जा रही थी...सुरेन्द्राचार्य इसे सह नहीं पा रहा था...एक दिन विजेता कहीं आमन्त्रित हुआ भाषण दे रहा था तो इसकी जानकारी सुरेन्द्राचार्य को मिली और उसने अपनी मानसिक शक्ति से विजेता की मानसिक शक्ति को अवरुद्‍ध कर दिया जिससे वह अच्छे से बोल नहीं पाया....उसे अपना सारा ज्ञान भूला जान पडा...इससे उसकी लोगों में छवि बिगडी....सुरेन्द्राचार्य का मन कुछ सन्तुष्ट हुआ...उसने विजेता के निजी जीवन में भी बाधा डालना आरम्भ किया...उसने भोलानाथ को आत्मा के रूप में विजेता के सर पर रहने को भेज दिया...अब सुरेन्द्राचार्य जैसा चाहता था वैसा भोलानाथ विजेता के लिये समस्यायें उत्पन्न करता था...विजेता जिससे भी बातें करता, भोलानाथ उसे विजेता के विरुद्‍ध प्रेरणा देता...विजेता जो भी सोचता विचारता वह सब भोलानाथ जानता रहता...और तो और भोलानाथ ने विजेता के मल-मूत्र त्यागने में भी अपनी आत्मिक-मानसिक शक्‍ति से बाधायें डालनी आरम्भ कर दीं...सुरेन्द्राचार्य ने विजेता के जीवन को परेशान करने में अपना अधिक से अधिक समय लगाना आरम्भ कर दिया...यह उसके मनोरंजन का विषय हो गया था...विजेता को सोने में भी बहुत बाधा डलवाता रहा...इस प्रकार सुरेन्द्राचार्य का जीवन अब शैतानी खेल खेलने लगा था...उसे भोलानाथ के माध्यम से विजेता को परेशान करना इतना मन भाया कि उसने सपना देखना आरम्भ किया कि उसके अधिकार में भोलानाथ जैसे सैंकडों आत्मायें हैं, वह उन सबको आदेश दे रहा है....कई आत्मायें उसके समक्ष नृत्य कर रहे हैं...वह उन आत्माओं को पूरे संसार में कहीं भी भेज अपनी इच्छानुसार कोई भी काम करवा ले रहा है...जो भी उसके विरुद्‍ध जाता है, उसके आत्मायें उस व्यक्‍ति को मार-मारकर धराशायी कर देते हैं...इस प्रकार पूरे संसार का राजा बन बैठा है...एक गीत चल रहा है...’सारे संसार का राजा...हां हां मैं राजा...बन मैं गया हूं...है किसी में यदि बल...तो सामने मेरे आजा...’

 

सिद्‍ध के प्रेस का एक सहकर्मी वर्धन अपनी एक व्यक्तिगत समस्या को लेकर सुरेन्द्राचार्य के समीप गया हाथ दिखाने...उससे भोलानाथ ने ५०१/- रुपये की फीस ली...तत्पश्चात्‌ सुरेन्द्राचार्य ने जो भी उसे भूत भविष्य और वर्तमान के फल बताये उन्हें सुनकर वर्धन की भौंहें तन गयीं...- "ये आप क्या बता रहे हैं...?आप मेरा हाथ देख रहे हैं या किसी और का...? आपके सम्बन्ध में इतना नाम सुना था, पर सब पर आपने पानी फेर दिया...ऐसी आशा नहीं थी आपसे....अच्छा ये रहेगा कि आप मुझे रुपये लौटा दें..."

"रुपये नहीं लौटाये जाते...यदि ऐसे लौटाये जाने लगे तो मेरा औफिस बन्द हो जायेगा..."

"ये मेरे गाढे परिश्रम से अर्जित धन है...व्यर्थ लुटाने को नहीं..."

"यदि किसी भी ज्योतिषी को दिया धन कभी किसी ने लौटाया हो तो मैं भी लौटा दूं..."

"आपको लौटाना होगा...पूरे पांच सौ एक रुपये...एक भी रुपया नहीं छोडुंगा..."

"अब आप जा सकते हैं..."

"मैं केवल जा ही नहीं सकता हूं, लौट आ भी सकता हूं, वह भी पुलिस के साथ...."

"पुलिस...! पुलिस का इसमें क्या काम?...रुपये देते हैं लोग और अपना भविष्यफल सुन चले जाते हैं लोग यहां से..."

"पर यहां पुलिस में मेरे परिचय के लोग हैं...वे मेरी बात सुनेंगे और समझेंगे, न कि वह जो तुम समझा रहे हो...वे मुझे जानते हैं और तुम्हारा फलकथन कितना सच्चा है यह जान जायेंगे..."

"हूं...मैं आपका हाथ पुनः देखता हूं...." सुरेन्द्राचार्य तुरत भोलानाथ की सहायता से वर्धन की जानकारी प्राप्त करता है और उसके भूत और वर्तमान के सम्बन्ध में जानी हुई बातें दुहरा देता है, और भविष्य के सम्बन्ध में गोलमटोल बातें बता देता है...

"भूत और वर्तमान की बातों को जानने में मेरी कोई रुचि नहीं है...और, आप जो यह कह रहे कि अगले मास मेरे पैर की पीडा ठीक हो जायेगी तो यह वर्षों  से ठीक नहीं हुई है तथा डौक्टर्स भी इस सम्बन्ध में निश्चित नहीं हैं कि कैसे ठीक होगी यह पीडा...अगले दो-तीन मासों में चार चक्कों की गाडी मिलनेवाली है इसमें कोई बल नहीं...मैं स्वयम्‌ क्रय करने नहीं जा रहा, और कहीं और से मिले इसकी कोई कोई आशा नहीं...आयु...कौन जाने अभी बीस वर्ष और जीयुंगा या बीस मास और...इस वर्ष मेरा प्रोमोशन होगा, यह कदापि सम्भव नहीं...मुझे जीवन में बहुत प्रसिद्धि मिले ऐसा कोई काम मैं न तो करता हूं और न करनेवाला हूं...सामान्य ही जीवन रहेगा...इसलिये रुपये लौटा दो...."

"अब तो तुम पुलिस बुला भी लो, इतने सच्चे फलकथन किये हैं..."

"तो तु चल पुलिस ष्टेशन...:" ऐसा कहते-कहते वर्धन ने अपने छाते से सुरेन्द्राचार्य की गर्दन पकड खींचा...सुरेन्द्राचार्य कुछ क्षणों के लिये स्तब्ध रह गया...उसे ऐसी आशा न थी...कुछ सम्भलकर उसने भोलानाथ को बुलाया और कहा वह वर्धन को रुपये लौटा दे...वर्धन रुपये ले चला गया... सुरेन्द्राचार्य की आंखें लाल थीं...उसे अपनी ही जन्मकुण्डली और दशा-अन्तर्दशा के अध्ययन की आवश्यकता जान पड रही थी...

वर्धन वहां से निकला तो सीधा एल आई सी औफिस पहुंचा...वहां वह कक्ष में आराम से बैठा वह अपनी ली पौलिसी के सम्बन्ध में और अधिक जानकारी ले रहा था...वह इसकी चौथे प्रीमियम को जमा करने आया था...उसने अपने बांयें पैर के टखने के ऊपर पुनः पीडा होता अनुभव किया...वहां उसकी हड्‍डी और नसों में रह-रहकर ऐसी पीडा होने लगती थी कि वह उसे बडी कठिनाई से ही सह पाता था...वह मुख्य रूप से इसी समस्या के सम्बन्ध में भविष्य जानने सुरेन्द्राचार्य के समीप गया था, पर उसे कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिल पाया...वह कभी इधर कभी उधर विचार कर ही रहा था कि सहसा उसके टखने के समीप पुनः पीडा उभरी...एक मैसर महेन्द्र था जो वहां तुरत मालिश कर उसे पर्याप्त आराम पहुंचाता था...पर वह यहां कहां...! ओह्...यह पीडा तो अति तीव्र हो गयी...इतनी तीव्र हुई कि वह चेत खोने लगा और वह लडखडाकर कुर्सी से नीचे गिर गया...लोगों ने सुशीघ्र (फटाफट) उसे उठाया और बैठाने का प्रयास किया, पर यह क्या...ये तो सांसें नहीं ले रहे हैं....वर्धन के प्राण निकल चुके थे...लोग इतना तो समझ गये थे कि टखने के समीप हुई अतितीव्र पीडा से ही उनकी मृत्यु हुई...वहीं कुछ लोगों ने अनुमान किया कि सम्भवतः हार्ट-अटैक से उसकी म्रृत्यु हुई...यद्‍यपि वर्धन की आयु अभी मात्र ४५ वर्ष हुई थी...कक्ष के अन्दर सीसीटीवी लगा हुआ था जिसमें वह सारी घटना रिकौर्ड हो रही थी....वर्धन ने जो जीवन बीमा करवा रखा था उसका पूरी धनराशि अब उसके परिवार वालों को मिलनी निश्चित थी...यह स्वाभाविक मृत्यु थी जिसका साक्षी (गवाह) स्वयम्‌ एल आई सी औफिस था....जब बहुत समय बीता और सिद्‍ध के निकट बैठनेवाला उसका मित्र और सहकर्मी वर्धन जब लौट नहीं आया तो सिद्‍ध को चिन्ता हुई...उसने उसे फोन किया...वर्धन के मोबाइल की घण्टी बजी..."हलो..."

किसी ने सिद्‍ध से बोला जो वर्धन का स्वर नहीं था..."कौन....? मि. वर्धन कहां हैं...? मुझे उनसे बात करनी है..."

"आप कौन बोल रहे हैं...?"

"मैं उनका कौलीग बोल रहा हूं..."

"अच्छा...अच्छा रहेगा यदि आप एल आई सी औफिस आ जायें...उनकी सहसा मृत्यु हो गयी है..." सिद्‍ध यह सुन जैसे सन्न रह गया...अभी-अभी वर्धन उससे यह कह निकला था कि वह कोई दो-ढाई घण्टों में लौट आयेगा, उसे प्रीमियम जमा करनी है, पर उससे पूर्व कुछ और भी काम है...सिद्‍ध विना विलम्ब किये निकल पडा...वहां पहुंच वह देखता है बहुत भीड लगी है अभी भी...सबसे बडी चर्चा की यह बात थी कि मरनेवाले ने एक करोड का जीवन बीमा करवा रखा था जिसके अभी चौथे ही प्रीमियम को भरने का समय आया था...मरनेवाला मरा पर अपने परिवार को एक करोड का लाभ करवा गया, ऐसी चर्चा भी सुनने को मिल रही थी...सिद्‍ध का मन इसे स्वाभाविक मृत्यु मानने को तैयार नहीं था....कैसे आराम से प्रसन्नतापूर्वक वर्धन उससे बातें कर रहा था अभी कुछ ही घण्टे पूर्व...उसे ऐसी कोई भी बडी समस्या या रोग नहीं था जो उसे अभी मौत ला दे....कोई शत्रु...उसकी भी आशंका नहीं थी....सिद्‍ध ने विना विलम्ब किये वहां फोटोग्राफ्स आदि लिये और लोगों के वक्तव्य भी रिकार्ड किये...सभी सहमत थे इस बात पर कि यह एक स्वाभाविक मौत थी, अतिरिक्त सिद्‍ध के, जो यह मानने को तैयार नहीं था...उसने सिद्‍ध की पत्नी से सम्पर्क किया...वहां पहुंच बातें कीं...

भाभी - "देवर नन्दन ने बहुत आग्रह कर वर्धन से एक करोड की पौलिसी लेने पर उन्हें विवश कर दिया...वैसे, वर्धन स्वयम्‌ ही नन्दन को बहुत चाहते थे...उनने अपने पिता की मृत्यु के पश्चात्‌ नन्दन का सारा उत्तरदायित्व अपने हाथों में लिया और भलीभांति निभाया...पिता ने मृत्यु से पूर्व सारी सम्पत्ति इनके ही नाम कर दी थी कि वह सबका उत्तरदायित्व ले और समय पर नन्दन को उसका भाग दे दे...अतः वर्धन ने अपनी वसीयत तैयार करवा उसमें अपनी आधी चल-अचल सम्पत्ति अपने अनुज भ्राता नन्दन के नाम कर दी थी...अभी जो जीवन बीमा करवाया था उसका भी आधा भाग नन्दन को मिलेगा...पर, एक बात है...मैं सदा ही देवर नन्दन के विरुद्‍ध रही वसीयत करवाने के पश्चात्‌...मुझे उसे आधा भाग मिलना पसन्द नहीं आया, और मैं इसका सदा विरोध करती रही...मैंने यह भी कहा कि वे वसीयत पुनः बनवा नन्दन को कुछ ही भाग दें, आधा नहीं...नन्दन को इस बात की जानकारी थी और वह मुझसे इस बात का भय करता भी था कि कहीं वर्धन मेरे बहकावे में यदि आ गये तो...! तब भी, उसकी नन्दन के संग औपचारिक बातें, और वह भी प्यार दिखाते हुए हुआ करती थी...छः कक्षों का यह फ्लैट था जिसके एक कोने में एक कक्ष बाथरूम-टाय्लेट और किचेन के संग था जिसमें नन्दन रहा करता है...शेष पांच कक्षों में वर्धन का परिवार रहता है....नन्दन का कक्ष अन्दर अन्य कक्षों में तो खुलता ही था, उसका निकास द्‍वार बाहर की ओर भी था...जिससे चाहे तो नन्दन अन्दर सम्पर्क करनेवाले द्‍वारों को बन्द कर बाहर के द्‍वार पर ताला लगा एक सेपरेट सिंगल रूम फ्लैट जैसा भी रहता है....खाना हमलोगों के संग ही खाता है, पर चाहे तो स्वयम्‌ भी अपने किचेन में बना सकता है या बाहर भी खा सकता है...’"

"क्या अभी ष्टडी कर रहा है या जौब...?"

"उसे फोटोग्रैफी-वीडियोग्रैफी में बहुत रुचि रही है, और जो उसे बहुत रुचता रहा उसे ही उसने प्रोफेशन के रूप में भी चुना...कुछ ऐसा ही काम किया करता है..."

"तो, वर्धन की मृत्यु से यदि किसी को सबसे अधिक लाभ हुआ, अर्थात्‌ होगा, तो वह है नन्दन...."

"हां, ये तो है ही..."

"तो...कहीं उसका कोई हाथ तो नहीं वर्धन की मृत्यु में...?"
"मुझे तो पूरी आशंका है कि नन्दन का इसमें हाथ है...क्योंकि इस बात का बडा भय था कि कहीं वर्धन मेरे बहकावे में आ वसीयत में परिवर्तन करवा दें...इसलिये, यह हो सकता है कि उसने बडी चतुराई से उनकी ऐसी हत्या करवा दी जो स्वाभाविक मौत लगे...और वह भी एल आई सी औफिस में ही, जिससे बीमा की राशि विना किसी झंझट के मिल जाये....सबसे बडी बात तो यह है कि यह बीमा वर्धन ने मात्र नन्दन के बहुत आग्रह करने पर ही लिया था...नन्दन ने वर्धन की जमापूंजी कोई दस-बारह लाख रुपयों के बल पर इस एक करोड की पौलिसी को लिये जाने की बात कही थी....यह आश्वासन दिया था कि यदि चाहें तो समय से पूर्व भी, कभी भी वे जमा किये गये सारे रुपये वापस ले ले सकते हैं, इसलिये भय करने की कोई आवश्यकता नहीं है...तब भी जब वर्धन का मन तैयार नहीं हो रहा था तो वह उन्हें बहुत अनुरोध कर संग अपने एल आई सी औफिस ले गया और फर्ष्ट प्रीमियम भी उसी ने भरा था..."

"हूं...." सिद्‍ध का माइण्ड बहुत तीव्रगति से सभी बातों पर सभी कोणों से विचार कर रहा था...सिद्‍ध एक प्रेस रिपोर्टर ही नहीं, एक केस-इन्वेष्टीगेटर भी था...पर ऐसी स्थिति में ऐसे स्थान पर मृत्यु हुई थी कि एल आई सी को किसी भी प्रकार से मर्डर की आशंका नहीं हुई, और न ही कोई ऐसा कोई रोग जानने में आ पाया जो उसकी मौत का कारण जान पडे.....अतः मौत के कारण की स्पष्ट जानकारी न मिल पाने के कारण यह एक स्वाभाविक ही मृत्यु मानी गयी और जीवन बीमा के सारे रुपये विना किसी विशेष बाधा के मिल गये जो वसीयत के अनुसार आधा नन्दन को तथा आधा भाभी को मिला...इसके लिये नन्दन ने ही विशेष भागदौड की कि एल आई सी रुपये दे दे...अब नन्दन का खाना-पीना प्रायः अपने कक्ष में ही या बाहर कहीं होता था...उसके कक्ष के अन्दर के द्‍वार अब प्रायः बन्द ही रहते थे...अभी अन्य चल-अचल सम्पत्तियों बंटवारा होना शेष था....इधर जब भी सिद्‍ध ने भाभी से बातें कीं, भाभी यही आशंका व्यक्त करती रही कि बडी चतुराई से नन्दन ने ही वर्धन की हत्या करवा दी है क्योंकि उसे ही भय था वसीयत से बाहर कर दिये जाने का...तो, सिद्‍ध ने भाभी के इस विश्वास पर ध्यान देते हुा ए इस सम्बन्ध में छानबीन करने का निर्णय लिया....भाभी ने वर्धन की कार सिद्‍ध को इन्वेष्टीगेशन करने तक के लिये दे दी और संग ही यह भी कहा कि वह पेट्रोल की भी चिन्ता ने करे, पेट्रोल भरवाने  का काम उसी का रहेगा...केवल वह मन लगाकर प्रूफ के संग हत्यारे को पकडवा दे...तब सिद्‍ध ने गम्भीरता से इस केस के इन्वेष्टीगेशन का दायित्व अपने हाथों में लिया...सिद्‍ध ने स्मरण किया कि उस दिन वर्धन यह कह बाहर निकले थे कि उन्हें एल आइ सी आदि में कुछ काम है...दो-ढाई घण्टे में वापस लौट आयेंगे...अपनी कार न ले जा वह टैक्सी से ही जा-आ रहे हैं...पर एल आई सी औफिस के सीसीटीवी के अनुसार प्रेस से निकलने के कोई डेढ घण्टे पश्चात्‌ ही वह वहां पहुंचे थे...तो इस मध्य वह कहां-कहां गये....? कैसे जानकारी मिलेगी...? उसने उनके मोबाइल सिम कम्पनी के औफिस से जानकारी लेनी चाही तो वहां से यह ज्ञात हुआ कि उस दिन उस डेढ घण्टे में केवल एक ही कौल किया गया था - प्रेस से निकलते समय उनने सुरेन्द्राचार्य के औफिस को फोन किया था और कोई ढाई मिनट बात की थी...’तो वर्धन अवश्य वहीं गये होंगे....’ ऐसी सम्भावना रखते हुए सिद्‍ध ने सुरेन्द्राचार्य के औफिस में फोन कर पूछा कि उस दिन वर्धन वहां आये थे या नहीं...? शिष्य ने रजिष्टर खोल कर देखा और बताया - "हां...वर्धन उस दिन वहां आये थे, पर..."

"पर क्या...? कोई विशेष बात हुई थी...?"

"नहीं....उनने हाथ दिखलाया था अपना भविष्य जानने के लिये, ऐसा लिखा है..."

"अच्छा...कितने मिनट वहां रुके होंगे...?"

"जी, जहां तक मुझे स्मरण आ रहा है...कोई बीस-पच्चीस मिनट रुके होंगे..."
"वहां से आगे कहां गये...? कुछ ऐसी कोई बात हुई होगी...?"

"जी नहीं...हमलोगों से इस सम्बन्ध में कोई बात नहीं हुई..."

"ठीक है..." ऐसा कह सिद्‍ध मोबाइल रख लेता है पौकेट में...’प्रेस से ज्योतिष कार्यालय, और वहां से एल आई सी....इतने में डेढ घण्टे का समय पूरा सेट बैठता है...पर यह भी तो हो सकता है कि मार्ग में किसी से एक-दो मिनट के लिये भी कोई झंझट हो गया हो...सम्भवतः वहां से कुछ विशेष जानकारी मिल पाये, चलो चलें ?’ सिद्‍ध ने कार निकाली, आराम से ड्राइविंग सीट पर बैठा, और पहुंच गया एल आई सी औफिस...जब सिद्‍ध ने पूछताछ की तो उस दिन उपस्थित कर्मचारी आदि लोगों से यह जानकारी मिली कि उस कक्ष में जब वर्धन चीख मार गिर पडे तो लोगों ने उन्हें घेर लिया...उस समय भीड में एक नया व्यक्‍ति दिखा था...जो मध्यम मुटाई और लम्बाई का था, तथा टाइट वस्त्र पहने था...वह व्यक्‍ति न तो उससे पूर्व कभी वहां दिखा था और न ही उसके पश्चात्‌ कभी वहां दिखा...कब आया था...तो जब वर्धन चीख मार गिर पडे थे उसके पश्चात्‌ ही वह वहां आया था...अर्थात्‌ वर्धन की मृत्यु में उसपर सन्देह करने की आवश्यकता नहीं है...तब भी, सिद्‍ध ने सीसीटीवी फुटेज ध्यान से देखा, और उसकी एक कौपी इन्वेष्टीगेशन के लिये आवश्यक बता रख ली...संग ही, उपस्थित सभी व्यक्‍तियों के नाम, पता, फोन नं. आदि विवरण सिद्‍ध ने नोट कर रख लिये...

अब कहां पूछताछ की जाये....भाभी से और जानकारियां प्राप्त की जायें...उसने कार की गति भाभी के आवास की दिशा में बढायी...

भाभी से पूछने पर यह ज्ञात हुआ कि यद्यपि वर्धन स्वस्थ थे पर बांयें पैर के टखने के ऊपर की नसों को छूने पर या वहां हल्की सी भी चोट लगने पर उन्हें बहुत तीव्र पीडा हो जाया करती थी...अन्यथा उन्हें किसी भी प्रकार का कोई रोग आदि कोई समस्या नहीं थी....वे रोगरहित घोषित थे डौक्टर्स द्वारा...क्योंकि टखने के ऊपर नसों की समस्या डौक्टर्स के जानने में नहीं आ पायी कि वहां वैसा कुछ है, और यदि है तो क्यों है...! इस कारण से एक मैसर उन्हें मसाज करने नियमित रूप से प्रत्येक दिन आया करता था...

"उनसे अन्तिम बार कब मिला था वह मैसर...?"

"उस दिन के ठीक पिछले दिन...वैसे मैसर को जब भी बुलाया जाये तभी वह आ जाया करता था...सम्भव है, उस दिन वह औफिस से आने के पश्चात्‌ बुलाते..."

"अच्छा, उनलोगों के विवरण जिनसे उनकी हल्की भी तानातानी हुई हो...या जो उनके प्रति हल्की भी शत्रुता, द्‍वेष, जलन, ईर्ष्या, आदि कुछ भी विरोध का भाव रखते हों....?"
"अर्थात्‌ जिनपर मुझे सन्देह हो...तो वह है नन्दन....अन्य कौन उन्हें मौत की नीन्द सुला प्रसन्न होना चाहेगा...." तब भी, वह कुछ   वैसे व्यक्‍तियों के नाम, पता आदि बताती है...तत्पश्चात्‌ वह उन लोगों के भी विवरण देती है जो वर्धन के प्रति अच्छा भाव रखते हैं... सिद्‍ध के इतने विवरण नोट करते-करते एक लम्बी लिष्ट बन गयी थी...उसने सोचा वह अब किन किन से क्या क्या पूछताछ करे...

"इस मैसर से सम्पर्क क्या आपने समाचारपत्रों में विज्ञापन देख किया था...?"

"न..."

"तो...?"

"यह नन्दन के द्‍वारा लाया गया है...हुआ यूं कि एक दिन सहसा (अचानक) वर्धन अचेत हो गये थे आवास में....उन्हें यूं अस्त-व्यस्त स्थिति में देख जब मैंने उन्हें झकझोडकर उठाया, तो उन्हें चेत (होश) आ गया...और उनने बताया कि चलते हुए में बांयें टखने के ऊपर टकराने से चक्कर खा वे गिर गये और अचेत हो गये....तब नन्दन ने एक मैसर महेन्द्र को बुलाया जो नियमित रूप से वर्धन की मालिश करते रहा है...."

"अच्छा, नन्दन ने...? नन्दन को यह मैसर कहां मिला...?"

"नन्दन कभी अपने मित्रों संग बातें कर रहा था, तो संयोगवश किसी ने मैसर का परिचय उनलोगों से कराया कि यदि आवश्यकता पडे तो इसे आप बुला सकते हैं- लेस चार्ज गुड रिजल्ट...नन्दन को तो कभी आवश्यकता नहीं पडी, पर उसे वह स्मरण था, इस कारण वर्धन के लिये ही बुलाया...और तो और, ये करोड रुपये का जो लाभ मिला, यह भी नन्दन के ही मस्तिष्क की उपज थी...उसने ही इस पौलिसी की बात बतायी...पर इसके इतने बडे प्रीमियम को देखते हुए वर्धन ने कहा कि प्रश्न ही नहीं उठता इस पौलिसी के लिये जाने का, क्योंकि इतना बडा प्रीमियम प्रत्येक मास हमलोग कैसे भर सकते हैं...? कोई उद्‍योगपति तो हैं नहीं....! तब नन्दन ने विश्वास  दिलाया कि ’अभी आप अपनी दस-बारह लाख की जमापूंजी से प्रीमियम भरें...तबतक और रुपये भी अर्जित किये जा रहे हैं....मुझे तो अपना भविष्य पूर्णतया निखरा दिखता है.. और तो और, जब चाहें तब आप तबतक भरे गये प्रीमियमों की कुल धनराशि वापस ले ले सकते हैं...केवल ब्याज नहीं मिलेगा...’ यह सुन वर्धन मान गये कि यह पौलिसी ली जा सकती है, पर तब भी जब वे तैयार नहीं हुए जाने को तब नन्दन स्वयम्‌ ही प्रथम प्रीमियम की धनराशि हाथ में ले कहा कि आरम्भ का प्रीमियम वह भरेगा, ऐसा कह वर्धन को कार में बैठा लेता गया एल आई सी औफिस कि ’आप केवल वैसा करते जायें जैसा मैं कह रहा हूं...’

"हूं....लगता है, नन्दन ने पूरा प्लान बना रखा था....तभी मात्र चौथे प्रीमियम तक पहुंच ही मृत्यु हो गयी...वह भी एल आई सी औफिस में...और वह भी वीडियो-रिकार्डेड नेचुरल डेथ...किसी बहुत ही चतुर मस्तिष्क का काम है यह...एनिवे, आपको मैं दिखाता हूं...ये वर्धन के डेथ  के समय की वीडियो रिकार्डिंग...."

भाभी, उसके पुत्र और पुत्री, तथा सिद्‍ध सभी वह वीडियो-रिकार्डिंग भाभी के लैप्टौप पर देख रहे हैं....

"अरे...यह तो मैसर है..." पुत्री ने महेन्द्र की ओर संकेत करते हुए कहा...उसके भाई और मां ने भी आश्चर्य व्यक्त किया...

"कहां...कौन है मैसर..?" सिद्‍ध भी चौंका...

"ये जो टाइट वस्त्र पहने मध्यम शरीर का व्यक्ति है..." तीनों ने एकस्वर में उस व्यक्ति की ओर संकेत किया...

"हूं...पर यह आया तब है जब वर्धन चीख मारकर भूमि पर गिर चुके हैं...." सिद्‍ध ने गम्भीर मुद्रा में सोचते हुए कहा..

"तब भी कोई सम्बन्ध हो सकता है इसका उनकी मृत्यु से...यह वहां गया ही क्यों था...?" भाभी क्रुद्‍ध हुई...

पूरी रिकौर्डिंग देखने के पश्चात्‌ सिद्‍ध यह कहते हुए चला जाता है कि वह शीघ्र आपलोगों को सूचित करेगा इस सम्बन्ध में...परन्तु तबतक मेरे या इस वीडियो के सम्बन्ध में नन्दन या महेन्द्र से कुछ भी न कहें...

 

सिद्‍ध ने मोबाइल फोन निकाला और वर्तिका से बात की...वर्तिका -"इतने दिनों से तुमने मुझसे बात क्यों नहीं की...?"

"यही प्रश्न मैं तुमसे भी कर सकता हूं कि तुमने मुझसे बात क्यों नहीं की....?"

"मैं सोची क्या तुमने रुपये देने के भय से मुझसे विवाह करने का विचार छोड दिया क्या जो मुझसे बात नहीं कर रहे...!"

"बहुत अच्छा...मैंने भी कुछ ऐसा ही सोचा...मैंने सोचा....मैंने सोचा...मैंने क्या सोचा...? हां...मैंने सोचा, तुम मुझे फोन करोगी और बोलोगी कि यदि तु्म्हारे पापा रुपये लेने की मांग नहीं छोडते तो तुम अपने पापा को छोड मुझसे विवाह कर लोगी...इसी आशा में मैं था कि तुम कब मुझे ऐसा फोन करती हो..."

"न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि तुमने अभी-अभी ऐसा कहना सोचा...वास्तविक कारण मुझे बताओ..."

"पहले तुम बताओ, तुमने मुझे फोन क्यों नहीं किया...?"

"क्योंकि....क्योंकि...मैं चाहती थी कि तुम मुझे फोन करो....तत्पश्चात्‌ हमदोनों मिल बैठ समस्या का समाधान ढूंढें..."

"तो ठीक है...फोन मैंने तुम्हें कर दिया...अब आओ, हम दोनों मिल बैठ समस्या का समाधान ढूंढें..."

"कहां मिलें...?"

"अपने आवास से बाहर निकल उत्तर की ओर के मोड पर मिलो..."

"ठीक है...मैं पन्द्रह मिनट पश्चात् वहां मिलुंगी...."

"मैं भी पहुंच रहा हूं..."

कोई सात-आठ मिनट से वर्तिका वहां खडी थी कि एक कार उसके समीप आ खडी हुई, अगला द्‍वार खुला, और अन्दर से स्वर (आवाज) आया -"आ जाओ..."

’हूं...ये स्वर तो जाना-सा है...जैसे सिद्‍ध ने पुकारा हो...’ वह चुप रही तो सिद्‍ध ने सिर बाहर निकाल दुहराया -"अब आ भी जाओ..."

तुरत वर्तिका अन्दर आ उसके बगल बैठ गयी...कार चल दी....सिद्‍ध उसे बताता है कि वास्तव में वह इन दिनों वर्धन की मृत्यु के केस के इन्वेष्टीगेशन में व्यस्त है...इस कारण वह उसे प्रायः भूला हुआ था...पर अब उसे वर्तिका का स्मरण हुआ क्योंकि उसे उसकी सहायता की आवश्यकता है इस कार्य में...

"मैं तुम्हारी इस कार्य में क्या सहायता कर सकती हूं...?"

"मेरी असिष्टेण्ट बनकर...मैं जैसा-जैसा कहुं तुम केवल वैसा-वैसा करती जाओ..."

सिद्‍ध ने कार भाभी के आवास के समीप स्थित झनकु पानवाले की शौप के समक्ष (सामने) रोका...

"भई पानवाले...क्या कुछ है...?"

"कई आइटम हैं...आप क्या लेंगे...?"

"जो स्वादिष्ट हो...और हानिकारक न हो...जैसे जर्दा आदि कुछ न हो..."

"तो मीठा पान लें..."

"नहीं नहीं...पान नहीं लेना है....कुछ और..." वर्तिका बोली..."न मैं खाउंगी पान, न तुम्हें यह खाते देखना मुझे रुचेगा..."

"तो कोई बात नहीं...आप गुलकन्द लें...इलायची लें...या अब बिस्किट या चौकलेट लें...ये ही सब वस्तुयें उपलब्ध हैं मेरे पास..."

"हां...गुलकन्द...और इलायची..." ऐसा कहते हुए सिद्‍ध उसकी ओर दस रुपये का नोट बढाता है...झनकु एक-एक पत्ते पर कुछ गुलकन्द और इलायची दोनों को देता है..."वाह...आपने तो मेरा मन प्रसन्न कर दिया...." झनकु मुस्कुराता है...

"एक बात और...यदि आप जानते हों....ये सामने जो मि. वर्धन का आवास है...उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में कुछ आपको विशेष जानकारी, यदि हो, तो..."

"देखिये....कहां किसी को अन्दर की बातें जानी हुई होती हैं...जितना सुनने में आ जाये...पर सुनी-सुनायी बातों पर कितना विश्वास किया जा सकता है...!"

"तब भी...मैं उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में इन्वेष्टीगेशन कर रहा हूं...ये मेरा आई-कार्ड..."

"अरे साहब...अवश्य बताउंगा...जो मेरी जानकारी में है...वर्धन साहब पान को पान बहुत पसन्द था, और प्रायः मेरे शौप से खाते और मंगवाते रहे...कई बार तो मैंने पान भिजवाने के स्थान पर स्वयम्‌ ही जाकर दिया..."

"उनकी किसी से कोई दुश्मनी थी...? या, कोई उनके विरुद्‍ध बोलता हो....?"

"दुश्मनी तो मेरी जानकारी में किसी भी से नहीं थी...कोई उनके विरुद्‍ध भी नहीं बोलता था...पर...एक बात है...उनके यहां मालिश करनेवाला महेन्द्र आया करता था...कई बार वह भी उनके लिये पान लेने आया था...एक बार उसने बोला था कि यद्यपि वर्धन की आयु अभी मात्र ४५ वर्ष की है पर उसे लगता नहीं कि वे बहुत दिन जी पायेंगे...मैंने पूछा -’भैया ऐसा क्यों कहते हो...अभी तो उनके आनन्द लेने के दिन हैं....तो उसने बताया कि वर्धन साहब के बांयें टखने के पास ऐसा कुछ रोग है जो शायद उन्हें बहुत दिनों पर्यन्त जीने न दे..."

"हूं...और कुछ महेन्द्र के सम्बन्ध में कोई विशेष बात...? नन्दन के सम्बन्ध में...?"

"ये महेन्द्र मुझे कुछ सन्देहास्पद व्यक्ति लगा...उसे नन्दन ने ही वहां लाया था...दोनों पर ही सन्देह जाता है...क्योंकि, आप भी जानते होंगे, कि वर्धन साहब की मौत से यदि किसी को सबसे अधिक लाभ हुआ तो वह हुआ है नन्दन को...इस कारण से भी..."

"और कुछ...नन्दन का स्वभाव कैसा था...?"

"स्वभाव...तो बुरा नहीं था...पर, आये दिन उनसे स्त्रियां मिलने आया करती रहती थीं...अब भी...उनका रूम किनारे में अलग-सा है...रोड से लगा गेट...गेट के सामने ही उनके रूम का द्वार...रोड से दस-बारह पग चल उसके रूंम में पहुंच जाये कोई भी...अब वे स्त्रियां अन्दर क्या करती हैं ये तो मैंने देखा नहीं...द्‍वार केवल यहांसे दिखता रहता है..."

"और कुछ..."

"नहीं साहब...मैं इतना ही कुछ बता सकता हूं..."

सिद्‍ध वर्तिका के संग भाभी से मिलता है...सिद्‍ध -"आवश्यकता इस बात की है कि नन्दन के ऊपर दृष्टि रखी जाये....इसके लिये, उसके रूम में मिनी कैमरे ऐसे लगा दिये जायें कि उसे इस बात का सन्देह भी न होने पाये.."

 

इसके पश्चात्‌ भाभी से अनुमति पा सिद्‍ध एक कीमेकर को ले आता है और नन्दन की अनुपस्थिति में उसके बाहरी द्‍वार के लौक की डुप्लीकेट चाभी बनवा द्‍वार अनलौक करता है और अन्दर जा तीन वायरलेस मिनी कैमरे इंष्टाल कर देता है....इस अवधि में वर्तिका बाहर से द्‍वार लौक कर बाहर रोड किनारे लगी कार में बैठी सावधान चारों ओर दृष्टि घुमा रही है कि यदि वर्तिका या कोई अन्य उस रूम की ओर बढे तो वह तुरत सिद्‍ध के मोबाइल की घण्टी बजा दे....सिद्‍ध सफलतापूर्वक कैमरे इंष्टाल कर वर्तिका के मोबाइल की घण्टी बजाता है, तो वर्तिका तुरत आ बाहर से लौक्ड द्‍वार अन्लौक्ड करती है...द्वार को पुनः लौक्ड कर दोनों भाभी के समीप जाते हैं...भाभी के शेष पांच कक्षों के फ्लैट के एक कक्ष के कोने में भाभी का लैप्टौप इन्वर्टर से जुडा २४ घण्टे नन्दन के कक्ष के अन्दर के दृ्श्यों की रिकार्डिंग कर रहा है...इसके १००० जीबी के हार्डडिस्क में पर्याप्त स्थान है कई दिनों की रिकार्डिंग के लिये...पर सिद्‍ध ने जब कैमरों से सम्पर्क स्थापित करने का प्रयास किया तो केवल एक कैमरा ही सफलतापूर्वक काम कर रहा था...अन्य दोनों कैमरों के सुधार के लिये अब पुनः नन्दन के कक्ष में प्रवेश करना होगा...भाभी ने बताया कि परसों नन्दन दिल्ली जाने वाला है, उसके जाते ही वह सूचित करेगी...दोनों प्रत्येक घण्टे भाभी से नन्दन के जाने की जानकारी ले रहे थे...नन्दन के निकलते ही सिद्‍ध और वर्तिका कार से वहां पहुंच जाते हैं....पूर्ववत्‌ (as before) वर्तिका द्‍वार बाहर से लौक्ड कर कार में बैठी सावधान दृष्टि से चारों ओर निरीक्षण कर रही है कि सहसा बाहर

गेट पर एक टैक्सी रुकती है...टैक्सी से नन्दन बाहर निकलता है...यह देख वर्तिका घबडा तुरत सिद्‍ध के मोबाइल की घण्टी बजाती है...सिद्‍ध के पूछने पर वर्तिका बताती है कि नन्दन बाहर गेट पर खडा टैक्सी वाले को रुपये दे रहा है...सिद्‍ध ने तुरत भाभी को फोन किया और कहा कि किसी भी स्थिति में नन्दन को उसके रूम में जाने न दें और अपने पांच मिनट भी अपने  आवास के अन्दर बैठाये रखें...भाभी तुरत बाहर निकली और गेट से अन्दर आते देवर नन्दन को बडे प्यार से अपने आवास के अन्दर ले गयी....पूछने पर ज्ञात हुआ कि कुछ आवश्यक प्रपत्र (डौक्युमेण्ट्स) लेने उसे वापस आना पडा...तब भी भाभी ने उसे तबतक बाहर जाने नहीं दिया जबतक कि सिद्‍ध ने पुनः भाभी को कौल किया कि वह सुरक्षित बाहर आ चुका है और कार में बैठा है...भाभी ने देखा तबतक चार मिनट बीत चुके थे...उधर जैसे ही वर्तिका ने नन्दन को भाभी के आवास में अन्दर जाते देखा, उसने विना विलम्ब किये सिद्‍ध की ओर दौड लगायी और द्‍वार अन्लौक्ड किया...सिद्‍ध बाहर निकला, पुनः द्‍वार लौक्ड कर दोनों कार में जा समाये...

नन्दन के अपने कक्ष (रूम) में जाते ही सिद्‍ध और वर्तिका उस कक्ष में गये जहां लैप्टौप का सम्बन्ध उन कैमरों से था...अब तीनों ही कैमरे सफलतापूर्वक काम कर रहे थे...नन्दन के लौट आनेपर सिद्‍ध प्रत्येक दिन की रिकार्डिंग भाभी के आवास जा ले आने लगा...केवल एक दिन वह किसी स्त्री के संग सम्भोग करता पाया गया, अन्य दिनों वह सामान्य कर्मों को करता दिखता पाया गया...एक दिन की रिकौर्डिंग में वह किसी से मोबाइल से बात कर रहा था...उससे किसी ने कहा -"सेठ...कोई और काम बताओ...जितने रुपये तुमने दिये थे वे सब व्यय (खर्च) हो गये...(कुछ रुककर)...वैसे भी...इतने बडे काम के लिये इतने कम रुपये...या, कुछ रुपये ही और दे दो...."

"और रुपये...?"

"हां...इतने बडे काम के लिये केवल बीस हजार रुपये...! बहुत सस्ता रहा....ये भी तो सोचो सेठ तुम्हें कितना लाभ हुआ....इसलिये, कुछ और रुपये मांगने का मेरा अधिकार बनता है..."

"देखो...मेरे पास इस समय तुम्हारे लिये कोई काम नहीं है...और, जो डील एक बार हो चुका है -काम हो गया और पेमेण्ट भी कर दिया गया, उसे तुम अब क्या दुबारा तय करना चाहते हो...? मैं इस सम्बन्ध में विचार भी नहीं करना चाहता..." ऐसा कह नन्दन ने कौल डिस्कनेक्ट कर दिया...

सिद्‍ध ने तुरत नन्दन के मोबाइल सिम कम्पनी से सम्पर्क पूछा अभी नन्दन ने किससे बात की थी...जानकारी मिली कि यह था महेन्द्र...उसका मोबाइल नं. सिद्‍ध ने नोट किया...तुरत उसने महेन्द्र को फोन किया -"क्या मैं महेन्द्र जी से बात कर सकता हूं...?"

"हां मैं बोल रहा हूं..."

"आप क्या काम करते हैं...?"

"जी...मैं एक मैसर हूं..."

’मैसर....! यह वही मैसर महेन्द्र है...अर्थात्‌ इसी ने वर्धन की हत्या की है जिसके लिये नन्दन ने बीस हजार रुपये दिये हैं...ओ नो...केस सौल्व्ड...!’ सिद्‍ध ने तुरत मैसर से कौल डिस्कनेक्ट कर वर्तिका से बात की, तत्पश्चात्‌ दोनों भाभी के आवास पहुंचे और वह वीडियो रिकार्डिंग उन्हें दिखायी जिसमें नन्दन महेन्द्र से बात कर रहा है...सभी गम्भीर थे...यह जान जाने के पश्चात्‌ भी विना प्रमाणों के कैसे उन दोनों को अपराधी ठहराया जा सकता था...? भाभी ने महेन्द्र को फोन किया -’अभी आ सकते क्या...? मसाज कराना है..."

महेन्द्र पन्द्रह-बीस मिनटों में ही आ गया...सिद्‍ध -"बहुत भागदौड कर थक जाता हूं...मेरा तन मालिश चाहता है...करोगे...?"

"जी सर...यही तो मेरा काम है..." वह वहीं सिद्‍ध की मालिश करता है...सिद्‍ध उसे दो सौ रुपये देता है जिसे महेन्द्र चुपचाप रख लेता है...

"ये केवल दो सौ रुपये हैं...इसका सौ गुणा कितना होगा...?"

"जी...बीस हजार रुपये..."

"यदि इतने रुपये तुम्हें दिये जायें तो तुम कितना बडा काम कर सकते हो...?

"मैं समझा नहीं सर....वैसे, दो सौ रुपये की रेट से सौ व्यक्तियों की मालिश करनी होगी...पर, आपसे मैंने कम रुपये लिये, नहीं तो मेरा रेट अधिक है..."

"अच्छा...सौ व्यक्ति नहीं, केवल एक ही व्यक्‍ति का काम करना हो...बीस हजार ले...तो...वह भी केवल एक बार के लिये....?"

"सर, आप तो हंसी कर रहे हैं...इतने रुपये कौन देगा....इस छोटे-से काम के लिये...!"

"छोटा-सा काम...? तुम्हें मालिश करनी है किसी के गर्दन की...इतनी मालिश कि पुनः उस गर्दन की मालिश न हो सके...वह टें बोल दे, सदा के लिये..."

"क्या मर्डर...?"

"अरे...तुम इसे मर्डर बोलते हो, मैं इसे मालिश बोलता हूं....यदि हां तो तुम्हें यह काम अभी मिल जा सकता है...बोलो..."

"नहीं नहीं सर...मैं कोई ऐसा-वैसा काम नहीं करना चाहता...अच्छा मैं जाउं...?" वह तुरत वहां से चला गया...

वर्तिका -"यह मनुष्य बहुत काम का जान पडता है....हमारे बहुत काम आ सकता है..."

"तुम्हारे काम....नो नो...मैं नहीं चाहता तुम्हारे यह काम आये....मैं जो हुं तुम्हारा काम करने के लिये..."

"काम...?कैसा काम...?"

"मालिश...और क्या...?"

"ओ नो....."

 

सिद्‍ध ने महेन्द्र के आवास जाने का विचार किया जिससे वह उसकी वास्तविक स्थिति का अनुमान लगा सके...उसे महेन्द्र के आवास का पता पूर्व (पहले) से ही ज्ञात था, अतः यह जान कि वह अभी आवास में है वहां पहुंच गया...- "जरा अपना बैंक पास-बुक दिखाना..." उसके पास बुक में डिपोजिट की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी...कभी एक हजार...पांच सौ रुपये...तो कभी दो हजार रुपये जमा किये गये थे प्रत्येक मास...केवल एक एण्ट्री थी दस हजार रुपये की बडी धनराशि की...और वह भी जमा की गयी थी वर्धन की मृत्यु के दो दिन पश्चात्‌..."कहां से आये ये दस हजार रुपये...?"

"जी, किसी से उधार लिया था..."

"हूं..." कोई और विशेष बात न पा वह उसे पास बुक लौटा देता है...पर महेन्द्र के पासबुक सूटकेस में रखते समय उसे पासबुक के आसपास कुछ और कागज दिखते हैं जिनकी ओर उसका मन आकर्षित हो जाता है...- "ये कागज कैसे है...?जरा दिखाना..."

सिद्‍ध पाता है कि वे अधिकतर कैश-मेमोज थे...ये ये ये...फ्रिज...वाशिंग मशीन...बडी धनराशि के क्रय (खरीद) हैं...इन दोनों के क्रय में लगी धनराशि प्रायः दस हजार रुपये...क्रय तिथि...वाह...दोनों की एक ही है...ओ नो...वर्धन की मृत्यु के अगले ही दिन..."केवल दस हजार ही नहीं, कुल बीस हजार रुपये इस दिनांक में तुम्हारे संग थे...किसने दिये तुम्हें इतने रुपये...?"

"जी...वर्धन के अनुज भ्राता नन्दन ने दिये थे...मैंने उधार मांगा था..."

"क्यों मांगा था उधार..? ऐसी क्या आवश्यकता आ पडी थी...? कहां है वह कागज जो तुम्हारे नन्दन से उधार लेने का प्रमाण है...?"

"जी, लिखा-पढी तो कुछ भी नहीं हुई थी...बस मुझे आवश्यकता थी और उनने मुझे हाथ में दे दिये.."

"कब लौटाओगे रुपये...? कोई काम तो नहीं करवाया था इन रुपयों को दे...?"

"जी, लौटाना तो कभी नहीं है...क्योंकि जो मैं वर्धन साहब की मालिश करता था, उसका पारिश्रमिक इन्हीं रुपयों से कटना था...:"

"अब लौटाओगे कैसे..?"

"जब वर्धन साहब नहीं रहे तो अब नन्दन साहब ही कभी-कभी मुझसे काम ले लिया करेंगे...ऐसे ही जितने भी समय में अब उधार चुके..."

सिद्‍ध तुरत भाभी को फोन कर महेन्द्र को दिये बीस हजार रुपयों के सम्बन्ध में पूछता है, पर भाभी ऐसे किसी उधार की जानकारी न होने की बात बताती है...महेन्द्र को प्रत्येक मास वह स्वयम्‌ ही रुपये देती रही है...अर्थात्‌ महेन्द्र झूठ बोल रहा है...

"भाभी कह रही है कि तुम प्रतिमास समय से पारिश्रमिक उन्हीं से लेते रहो हो, और नन्दन के संग ऐसी कोई बात नहीं हुई थी कि अब नन्दन तुम्हें पारिश्रमिक दिया करेगा...अतः स्पष्ट बताओ, बात क्या है...?"

महेन्द्र कुछ उत्तर नहीं दे पा रहा है...

"तो तुम मानते हो कि तुमने ये रुपये नन्दन से फ्री में लिये थे...? या कोई विशेष काम करने के लिये नन्दन ने तुम्हें ये रुपये दिये थे...?"

"हो सकता है वह भूल गयी हों...मुझे पारिश्रमिक देने के समय उन्हें स्मरण आता कि औलरेडी मुझे दिया जा चुका है..."

सिद्‍ध नन्दन को फोन करता है और पूछता है, पर वह महेन्द्र को कुछ सौ रुपये मात्र देने की बात स्वीकार करता है जो उसके पारिश्रमिक से कट जायेंगे...तब सिद्‍ध उस स्थान से सम्बद्‍ध पुलिस श्टेशन पहुंचता है और इंस्पेक्टर को सारी बात बताता है...इंस्पेक्टर फोन कर महेन्द्र को पास बुक और कैशमेमोज के संग बुलाता है...और उनका निरीक्षण करता है...-"वैसे तो यह केस हमारे अधिकार क्षेत्र का है, पर जब आप देख रहे हैं तो, यू प्रोसीड औन...मुझसे जो सहायता चाहिये वह आपको मिलता रहेगा...और हां महेन्द्र, तुम दिन भर इस नगर क्षेत्र के अन्दर ही जितना भी काम कर सकते हो, पर रात ८ से प्रातः ५ पर्यन्त तुम्हारा अपने आवास में रहना अनिवार्य है..."

 

सिद्‍ध और महेन्द्र दोनों पुलिस श्टेशन से चले जाते हैं...सिद्‍ध फोन कर वर्तिका को बुलाता है...दोनों एक कैफे में बैठ कौफी पी रहे हैं...तत्पश्चात्‌ कार से आगे बढते हैं..."यूं तो मेरे पास कई सन्देहास्पद व्यक्तियों की सूची है, पर इस समय केवल नन्दन और महेन्द्र सन्देह की सूची में सबसे आगे हैं...

"However, we both now should enjoy the moments..."

सहसा चार बाइकर्स उसकी कार को चारों ओर से घेर रोक लेते हैं और धमकाते हैं -"ऐ छोकरे...तू जीना चाहता है तो रुपये कमा और आराम से खा...इधर-उधर झांकता न चल...कुछ समझा क्या...?"

इसके पूर्व कि वे कुछ और बोलें, सिद्‍ध अपना लाइसेन्सी रिवाल्वर ले बाहर निकलता है और कहता है -"मेरा काम ही है वह जिसे करने से तू रोकना चाहता है...तब मैं जीकर करुंगा भी क्या...? उसके बोल्डली बाहर आ साहस के संग ऐसे रिवाल्वर के संग बोलने से वे चारों घबडा गये और विना विलम्ब किये वहां से भाग गये...सिद्‍ध ने कार आगे बढायी और एक रेष्टोरेण्ट के आगे रोका....वे दोनों कुछ खा-पी रहे हैं....

"क्या महेन्द्र के भेजे गुण्डे थे वे....?"

"महेन्द्र इतना धनी तो लगता नहीं..."

"यदि नन्दन या महेन्द्र किसी एक से भी कडायी से पूछताछ की जाये तो रहस्य खुल जा सकता है कि किसने वर्धन की हत्या की और करवायी..."

एक व्यक्ति बगल वाले टेबल पर बैठा उन दोनों की बातें बडे ध्यान से पर सर झुकाये सुन रहा था...वह कहता है -"मैं आरम्भ से ही आप दोनों की बातें सुन रहा हूं...आपका कहना है कि मरनेवाले व्यक्ति को न तो कोई रोग था न किसी ने चोट पहुंचायी थी या किसी ने विष दिया था...पर वह सहसा चीख मार कुर्सी से गिर गया और देखते ही देखते मर गया...?"

"हां...पर एक कष्ट या रोग था कि उनके बांयें टखने के ऊपर हल्का भी चोट लगने पर उन्हें असहनीय पीडा होती थी...तब भी एल आई सी ने पूरा क्लेम दे दिया क्योंकि वह कोई रोग सिद्‍ध नहीं हो पाया था..."

"पर उस समय उन्हें चोट आदि कुछ भी नहीं लगा था...?"

"हां ऐसा ही है..."

"तब एक कारण मृत्यु का जो हो सकता है, जो मेरी जानकारी में है...सम्भवतः आप इससे सहमत न हों...वह है....वह अभी जाने दीजिये....वह मैं बाद में बताउंगा...तब जब मैं इस साधारण समझ की बात से सच न पा पाउं...मैं स्वयम्‌ ही मिलता हूं महेन्द्र से...मेरा कुछ अलग ही ष्टाइल है सच उगलवाने का...पर उसका चार्ज आपको देना पडेगा..."

"कितना...?"

"अभी तो TA+DA+other expenses, but later the reward, only after success,that brings the real culprit behind bars..."

"दोनों में से एक से भी सच उगलवा देने में कितने रुपये लगेंगे...?"

"लगने को तो बहुत लगेंगे, पर अभी आप केवल एक हजार रुपये दे दें,...क्योंकि कुछ कर दिखाने के पश्चात्‌ ही अपना मूल्य बताया जा सकता है, जो कहीं अधिक होगा..." 

सिद्‍ध से नन्दन और महेन्द्र के ऐड्रेसेज और फोन नम्बर्स तथा एक हजार रुपये ले शीघ्र वहां से चला जाता है वह व्यक्ति....दोनों उसे जाता हुआ देख रहे हैं....

"मैंने एक हजार रुपये का रिस्क लिया है, परन्तु तभी जब वह व्यक्ति विश्वसनीय लगा..."

"अब आगे का क्या प्लान है...?"

"हमलोग प्रत्येक बीतते क्षण का आनन्द लें...कोई मूवी देखें..." दोनों एक मूवी देख रहे हैं...एक गाना चल रहा है...सिद्‍ध और वर्तिका स्वयम्‌ की कल्पना हीरो-हीरोइन के स्थान पर कर रहे हैं जैसे वे दोनों ही वह गाना गा रहे हैं...गाना का अन्त होते-होते उस व्यक्ति औजस का फोन आता है कि उसने महेन्द्र से यह स्वीकार करवा लिया है कि उसने नन्दन से बीस हजार रुपये वर्धन की हत्या करने के लिये लिया था...स्वीकारोक्ति रिकार्डिड है...पर कैसे मारा यह बडा ही अलग ष्टाइल है उसका...क्योंकि उसका कहना है कि उसके मारे विना ही वह मर गया...उसका कहना है कि उसने केवल मारने को सोचा और वह मर गया...

औजस उस मूवी हौल को पहुंचता है और महेन्द्र के रिकार्डिड कथन उन्हें सुनाता है...

सिद्‍ध नन्दन को फोन करता है -"मिष्टर...महेन्द्र ने यह स्वीकार कर लिया है कि तुमने उसे बीस हजार रुपये दिये थे वर्धन की हत्या करने के लिये..."

"तो क्या हुआ...अभी कई ऐसे व्यक्ति मिल जायेंगे जो यह स्वीकार कर लेंगे कि तुमने उन्हें रुपये दिये थे वर्धन की हत्या करने के लिये..."

सिद्‍ध औजस से - "कोई प्रमाण भी तो होना चाहिये कि नन्दन ने महेन्द्र को दिये थे रुपये वर्धन की हत्या करने के लिये...? केवल आरोप लगा देने से वास्तविक अपराधी की जानकारी पायी नहीं जा सकती..."

औजस महेन्द्र से -"परन्तु इसका क्या प्रूफ है कि नन्दन ने ही तुमसे यह हत्या करवायी थी...?

"मैंने कोई हत्या नहीं की...मैं जब पहुंचा तो वर्धन वहां मरा पडा था...पर मैंने नन्दन से बीस हजार रुपये लेने के लिये यह कह दिया कि मैंने वर्धन की हत्या कर दी है..."

"पर नन्दन ने तुम्हें कौण्ट्रैक्ट किलर के रूप में वहां भेजा यह तुम्हें सिद्‍ध करना होगा..."

"ठीक है...मैं नन्दन से बात करता हूं जिसे रिकार्ड कर प्रूफ बनेगा..." वह नन्दन को फोन करता है -"साहब साहब मुझे बचा लीजिये...कुछ लोगों ने मुझे पकड लिया है और एक गोडाउन में बन्द कर दिया है...वे कहते हैं कि मैंने ही वर्धन साहब का मर्डर किया है...मुझे बचा लीजिये...."

"अरे साले कमीने...एक तो तूने उन्हें यह कहा कि मैंने तुझे बीस हजार रुपये दिये थे वर्धन के मर्डर के लिये, और अब तू चाहता है मैं तुझे बचाउं...?"

"जो सच था उन्होंने मेरे मुंह से निकलवा लिया, इतना विवश किया..."

"तो अब मर..."

"साहब मुझे मरने से बचा लीजिये...यदि मैं जीवित रहा तो आपके बहुत काम आउंगा..."

"ठीक है...कहां से बोल रहा है तू अभी...? मैं अभी अपने आदमियों को भेजता हूं..."

परन्तु तभी ’ऊह्‌ आह्‌ ..’ स्वर और ध्वनियां गूंजी और कौल डिस्कनेक्ट हो गया...

महेन्द्र -"ये रिकार्डिंग हो गयी, जो प्रूफ बन सकती है..."

सिद्‍ध, वर्तिका, औजस, महेन्द्र पुलिस ष्टेशन पहुंचते हैं और इंस्पेक्टर से मिल सारी बात बताते हैं और रिकार्डिंग की एक कौपी उसे सौंपते हैं...इंस्पेक्टर तुरत नन्दन को फोन कर थाना बुलाता है और अकेले उसे उस रिकार्डिंग को सुनाता है....नन्दन -"महेन्द्र ने मुझसे फोन कर कहा कि वह टायलेट से बोल रहा है...कुछ लोग उसे पकड यह कहने पर विवश कर रहे हैं कि आप ने ही मुझे बीस हजार रुपये दे वर्धन की हत्या का कौण्ट्रैक्ट दिया था...आप स्वीकार कर लें कि आप ही ने वर्धन को मार डालने की सुपारी मुझे दी थी, नहीं तो ये मुझे मार डाल सकते हैं...साहब मुझे बचा लीजिये...तब मैंने महेन्द्र की बात मान ली और उसका कौल दुबारा आनेपर मैंने उसकी इच्छानुसार उसे उत्तर दे दिया..." इंस्पेक्टर ने उससे कुछ और बातें कीं और उसे जाने दे दिया...पुनः सिद्‍ध आदि से बात की....

महेन्द्र-"पर मेरी तो नन्दन से ऐसी कोई बात नहीं हुई..."

तब सिद्‍ध ने नन्दन के मोबाइल सिम कम्पनी से इस सम्बन्ध में बात की तो जानकारी मिली कि नन्दन ने न तो महेन्द्र के मोबाइल से और न ही कहीं और से दिन के  १० बजे से ३ बजे तक कोई कौल रिसीव किया है...महेन्द्र ने आज १० बजे से पूर्व ही एक बार नन्दन को कौल किया था जिसके पश्चात्‌ नन्दन ने वे चार बाईकर्स सिद्‍ध के पीछे भेजे थे...तब इंस्पेक्टर ने पुनः नन्दन को वापस बुलाया और प्राप्त रिकार्डिंग के आधार पर उसे अरेष्ट कर लिया...जब नन्दन से पर्याप्त कडायी से पूछताछ की गयी तो उसने स्वीकार कर लिया कि उसने महेन्द्र को २० हजार रुपये दिये थे वर्धन की हत्या करवाने को, क्योंकि उसे भय था कि कहीं वर्धन उसे आधी सम्पत्ति पाने के अधिकार से वंचित कर दे सकता है पत्नी के बहकावे में आकर...

नन्दन और महेन्द्र को कोर्ट में प्रस्तुत किया गया जहां महेन्द्र ने यह स्वीकार करने से मना कर दिया कि उसने वर्धन की हत्या की है, क्योंकि जब वह वहां पहुंचा तो वर्धन गिरकर मर चुका था,  पर २० हजार रुपये पाने के लोभ से उसने नन्दन को यह कहा कि उसने वर्धन की हत्या कर दी है...सीसीटीवी फुटेज भी यही बताता है...

 तब कोर्ट  ने नन्दन और महेन्द्र को हत्या के षड्यन्त्र का दोषी ठहराया, पर प्रश्न यह उठा कि वास्तविक अपराधी कौन है...क्योंकि विना कारण कोई गिरकर मर जाये यह बात स्वीकार करने योग्य नहीं है...

सिद्‍ध ने मस्तिष्क दौडाना आरम्भ किया...-"वर्तिका, तुम्हारे पिता तो तान्त्रिक मान्त्रिक और दिव्य शक्तियों वाले हैं...वे यदि यह बता पायें कि किसने की है यह हत्या...वर्तिका ने सुरेन्द्राचार्य से बात की और दोनों पहुंच गये सुरेन्द्राचार्य के औफिस...वहां प्रश्न पूछने की फीस पांच सौ एक रुपये सिद्‍ध को भोलानाथ को देने पडे....

"जिस दिन वर्धन आपसे हाथ दिखाने आये थे उसी दिन एक घण्टे के अन्दर उनकी मृत्यु हो गयी...क्या कारण हो सकता है उनकी मौत का...?"

सुरेन्द्राचार्य ने कुछ घबडाते हुए कहा -"ओ हो...यह तो बहुत बुरा हुआ...पर प्रश्नकुण्डली यह बताती है कि उनकी स्वाभाविक मौत हुई थी, किसीने उनकी हत्या नहीं की..." सिद्‍ध ने यह ध्यान दिया कि सुरेन्द्राचार्य ऐसे घबडा रहा है जैसे उसी पर वर्धन की हत्या का आरोप लगाया जा रहा हो...वह सुरेन्द्राचार्य के कक्ष से बाहर निकल भोलानाथ से वर्धन के सम्बन्ध में पूछता है...रजिष्टर में वर्धन का विवरण देखता है तो पाया कि वह     

काटा हुआ था...कारण पूछने पर भोलानाथ ने बताया..-"हमने उनके विवरण को काट दिया है, क्योंकि...क्योंकि उनकी फीस उनको लौटा दी गयी थी..."

"लौटा दी गयी थी...? ऐसी क्या बात हुई थी...स्पष्ट बताओ...?" जब शिष्य ने टालमटोल करना चाहा तो सिद्‍ध ने गम्भीरता से कहा- "यह मर्डर का केस है...कुछ भी छिपाने का प्रयास करोगे तो तुम भी सन्देह की सीमा में आ जाओगे..."

"जी...वे गुरुजी की भविष्यवाणी से सन्तुष्ट नहीं थे, और उनने अपने छाते की मूंठ से सुरेन्द्राचार्य पर प्रहार करने का प्रयास भी किया था...तब जाकर ही गुरुजी ने उनके रुपये लौटाने को कहा, यद्‍यपि गुरुजी बहुत क्रुद्‍ध हो गये थे..."

"तो क्या वर्धन की हत्या में सुरेन्द्राचार्य का हाथ हो सकता है क्या....?"

"ये कैसे हो सकता है..,?"

"अपनी तान्त्रिक मान्त्रिक शक्तियों से...या किसी आत्मा या भूत को भेज दिया हो...?"

"ऐसा हो सकता है...पर इसकी मुझे जानकारी नहीं..."

"कहीं तुमदोनों में से किसी एक को भेजा हो...?"

"परन्तु आप विश्वास करें, हमलोगों को इस सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं है..."

सिद्‍ध ने जब कडायेी से भोलानाथ से पूछा तो घबडाकर उसने स्वीकार कर लिया कि आत्मा के रूप में वह कहीं भी जाकर किसी भी को कोई भी हानि पहुंचा दे सकता है, हत्या भी कर दे सकता है....पर वर्धन के सम्बन्ध में उसे कोई जानकारी नहीं है...न ही गुरुजी उसे इस सम्बन्ध में बतायेंगे...

 

दिन में संयोग से सिद्‍ध और वर्तिका से औजस मिलता है...औजस-"अब मैं एक अन्य कारण बताना चाहता हूं जो वर्धन की मृत्यु का कारण हो सकता है..."

"वह क्या...?"

"वह है मानसिक प्रहार..." दोनों चौंके...

"हां...मैं कुछ वर्ष एक योगी के सम्पर्क में रहा, तो उसने मुझे यह बताया था..."

"यदि यह मान भी लें, तो हमें इसे सिद्‍ध करना होगा...!"

औजस ने मन ही मन सिद्‍ध के गाल पर थप्पड मारा और पूछा-"कुछ अनुभव हुआ आपको...?"

"हां, ऐसा लगा मानो किसी ने मेरे गाल पर थप्पड मारा हो..."

"इसे कहते हैं मेण्टल हिट....यदि लगातार तीव्र गति से मारा जाये तो यह मेण्टल बीटिंग कहलाता है...यह सम्भव है कि उस समय वर्धन के टखने के ऊपर किसी ने ऐसा तीव्र मानसिक प्रहार किया कि वर्धन सह न सका और मर गया..."

"यह थ्योरी की बात है...यदि प्रैक्टली ऐसा कर किसी को यदि अचेत भी यदि कर दिया जाये तो मेण्टल अटैक से मर्डर की बात मान ली जा सकती है..."

"Earning mental energy is a difficult work whereas to lose it is a simple work to hit somebody mentally...मेरी जानकारी में एक आध्यात्मिक  योगी व्यक्ति हैं- राघवेन्द्र कश्यप....आइये, इस सम्बन्ध में उनसे मिल बात करते हैं..."

तीनों राघवेन्द्र कश्यप के आवास पहुंचते हैं...

"मनुष्य वास्तव में आत्मा है, यह जीवशरीर नहीं...आत्मा अनुभूति का वस्तु है...मन आत्मा का अस्त्र-शस्त्र (हथियार) है...मन के द्‍वारा ही मनुष्य अच्छा या अशुभ सभी कर्म करता है....मन की शक्ति का दुरुपयोग करना अपनी आत्मशक्ति को ही हानि पहुंचाना है..."

"क्या मानसिक प्रहार से किसी व्यक्ति की हत्या कर दी जा सकती है...?"

"हां...पर उसके लिये किसी बली आत्मा की आवश्यकता होगी...उसका मन सावधान और बली होना चाहिये..."

"यदि आत्मा बहुत बली न हो तो...?"

"तो भी मन को एकाग्र कर मन के माध्यम से कई कर्मों को करने  की शक्ति पायी जा सकती है...इसका सदुपयोग किया जा सकता है...इसका दुरुपयोग किया जा सकता है..."

तीनों वर्धन की मृत्यु की घटना बता अपराधी जान पाने की आशा करते हैं...

"जैसी घटना घटी, और उसके ठीक पूर्व वर्धन की सुरेन्द्राचार्य के संग विवाद...मुझे सुरेन्द्राचार्य का कुछ अनुमान है...वह बहुत ही दुष्ट है...अवश्य उस अपमान से आहत हो  उसने मन की आंखों से वर्धन को देखते हुए वर्धन के सबसे दुर्बल अंग पर उसने इतना तीव्र मानसिक प्रहार करना आरम्भ किया कि वर्धन सह न पाये और मर गये...वर्धन ने सुरेन्द्राचार्य को अपना सबसे दुर्बल अंग स्वयम्‌ ही बता दिया था..."

"क्या आप श्योर हैं...?अर्थात्‌ योग-साधना की शक्ति से आप यह सच जान गये हों....?"

"नहीं, मैं तो केवल अनुमान से बता रहा हूं कि ऐसा हुआ सम्भव लगता है..."

तीनों राघवेन्द्र कश्यप को नमस्कार कर चले जाते हैं,,,,

 

"यह तो स्पष्ट हो गया कि अपराधी कौन है...अर्थात्‌ सुरेन्द्राचार्य..."

"अरे, उनने केवल अनुमान से बताया है...कोई ध्यानसाधना में योग की शक्ति से जान तो बताया नहीं..."

"पर\, इतना तो लाभ हुआ, कि हम सुरेन्द्राचार्य पर सन्देह कर सकते हैं...."

"ये लो समाचारपत्र पढो, क्या छपा है, देखो..." तीनों एक समाचार-लेख पर ध्यान जमाये हैं -’एक संस्कृत छात्र सुनील उपाध्याय का शरीर कोमा जैसी स्थिति में दिली विश्वविद्‍यालय के एक छात्रावास में पडा है....जबकि कुछ व्यक्तियों ने यह बताया है कि

सुनील आत्मा के रूप में शरीर से बाहर जा रह रहा है, और उसका शरीर जीवित बना हुआ अचेत-सा पडा है....आत्मा के रूप में सुनील विश्व का आतंक है, क्योंकि उसमें इतनी प्रबल मानसिक शक्ति है कि वह किसी भी व्यक्ति को किसी भी प्रकार से हानि पहुंचा दे सकता है...अतिक्रोध उत्पन्न कर देना, अतिशय कामुकता, सन्देह, अति भय, झूठी समझ, अतिलोभ, आदि उत्पन्न कर देना उसके बायें हाथ का खेल है...वह मन के कोडे ऐसे मारता है  कि व्यक्ति को तीव्र पीडा होती है....अभी तकर उसने कितने ही स्त्री और पुरुषों में कामवासना इतनी अधिक उत्पन्न कर दी उन्हें लगा वे स्वयम्‌ ही सेक्सुअली करप्ट हो गये हैं जबकि वहां सुनील का अतिमलिन और कामभ्रष्ट मस्तिष्क काम कर रहा होता है...कितने ही लोगों को उसने अपराध, पाप, भ्रष्टाचार, आदि करने की बली प्रेरणा वह देता रहा और करवाता रहा है और करवा रहा है...जहां सुनील मानवसमाज के लिये इतना अधिक घातक बना है वहीं कुछ व्यक्ति उसके शरीर को सुरक्षित बनाये रख सुनील के अपराधों में स्पष्ट रूप से भागीदार हैं...कई व्यक्तियों से सुनील 

 ने बातें की हैं, और वे सभी इस बात के साक्षी (गवाह) हैं....’

सिद्‍ध- "यदि यह सच है, तो निश्चय ही आत्मा जैसी कोई वस्तु होती है, और सुरेन्द्राचार्य अपराधी हो सकता है...मेरा मन अब इस सम्बन्ध में मानसिक प्रहार की बात स्वीकार कर सकता है...इससे पूर्व मैं यह सोच रहा था  कि सुरेन्द्राचार्य ने ही हत्या करवायी है, परन्तु किसी ऐसे ट्रिक से जिसे हमारी बुद्धि अभी तक पकड नहीं पायी..."

 

एक दिन सिद्‍ध अपनी कार की दिशा वर्तिका के आवास की ओर करता है...वहां पहुंच बेल बजाता है...वर्तिका द्‍वार खोलती है तो ’हाय’ कह सीधा अन्दर प्रवेश कर सोफे पर बैठ जाता है...वर्तिका अवाक्‌ रह गयी -"ये क्या कर रहे हो...? तुम जानते हो, पापा तुम्हें पसन्द नहीं करते...वो अभी अन्दर ही हैं...!"

"कोई बात नहीं, प्यार किया तो भय करना क्या...एक दिन तुम्हें मेरे संग रहने संग मेरे चल देना है....कल न सही आज ही..."

वर्तिका उसके इतने बोल्ड और निर्भय प्रस्ताव को देख चिन्तित हो उठी कि यदि दोनों में कोई तनाव की स्थिति उत्पन्न हुई तो वह क्या निर्णय लेगी...! पर सिद्‍ध की प्रसन्न मनःस्थिति को देख वह चिन्ता छिपा आराम से बातें करने लगी....धीरे-धीरे दोनों खुलकर बातें करने लगे...उनका स्वर अन्य कक्षों में भी पहुंचने लगा...तब सुरेन्द्राचार्य वहां आ पहुचा...सिद्‍ध ने बैठी स्थिति में नमस्कार कहा...सुरेन्द्राचार्य ने तीव्र दृष्टि से उसे देखा पर कुछ कहा नहीं और बरामदे में जाकर चुप उन दोनों के सम्बन्ध में विचार करने लगा...सिद्‍ध और वर्तिका यह अनुभव कर रहे थे कि सुरेन्द्राचार्य उन्हीं दोनों के सम्बन्ध में ध्यान जमाये है, तब भी दोनों पुनः खुलकर बातें करने लगे....चार-पांच मिनट पश्चात्‌ सिद्‍ध और वर्तिका बाहर निकलते हैं. सिद्‍ध कार की ओर बढता है...वर्तिका -"पापा, मैं अभी आ रही हूं...सिद्‍ध के संग कहीं जाना है..."

सुरेन्द्राचार्य सिद्‍ध से-"तुम्हारा इण्टेशन क्या है...? इसके पीछे पडे हो..."

"विवाह का..."

"तुम्हें स्मरण होगा, मैंने कुछ कण्डीशन रखा था इसके लिये...कहां है वो...? लाओ, और ले जाओ, चाहे जितने भी समय के लिये..."

’रुपये यदि इसमें बाधा बन रहे हों तो मैं देने को तैयार हूं..."

"तो लाओ तुरत और लेते जाओ....कुछ घण्टों के लिये नहीं, पूरे जीवन भर के लिये लेते जाना....पर तबतक यह तुम्हारे संग कहीं नहीं जायेगी...वर्तिका,,,चलो अन्दर..."

सिद्‍ध दुविधा में खडा रहा...वर्तिका उसकी वैसी स्थिति देख चुपचाप अन्दर चली गयी...सिद्‍ध - "आप तो मुझे जानते ही हैं...मैं आपका एक इण्टरव्यू अपने ’समाचारपत्र’ में प्रकाशित करना चाहता हूं...बडा-सा, और आकर्षक हो..."

"तो, उसके लिये तुम्हें मेरे कार्यालय आना चाहिये था..."

"अभी मेरे पास समय है...आगे समय मिले या न मिले..."

"अच्छा, पूछो..."

"पहले एक फोटो आपका...(एक क्लोज अप क्लिक करता है)....अब बैठकर यदि बातें की जायें तो अच्छा रहेगा..."

"हूं..." कह सुरेन्द्राचार्य पीछे द्वार की ओर मुडता है...सिद्‍ध भी उसके पीछे जा उसके पश्चात्‌ सोफे पर बैठ जाता है...

"हूं..." सुरेन्द्राचार्य संकेत करता है...

"आप पूरे नगर ही नहीं, पूरे राज्य के जाने-माने ज्योतिषियों में एक हैं...आपकी इतनी अधिक सफलता का रहस्य..?"

"रहस्य वह होता है जो अन्यों से छुपाकर रखने योग्य होता है, तब मैं यह रहस्य कैसे खोल दूं....!"

"तन्त्र साधना और मन्त्र साधना में क्या अन्तर है....?"

"मन्त्र साधना प्रायः शुभ रूप में ही होता है...जबकि तन्त्रसाधना के शुभ और अशुभ दोनों ही रूप होते हैं...इसमें पूज्य केवल देव ही नहीं, अपितु राक्षस आदि अशुभ आत्मायें भी हो सकती हैं....वैसे, यह भी मन्त्रसाधना का ही एक रूप है..."

"आपने तन्त्रसाधना ही क्यों चुना,,,?"

"भविष्यवाणी करने, और प्राप्त शक्तियों से धन अर्जित करने के लिये तन्त्र साधना ही चुना..."

"और क्या-क्या लाभ हैं इससे....?"

"मानसिक बलवृद्धि होती है..."

"मानसिक बलवृद्धि से क्या-क्या लाभ हो सकते हैं...?"

"ऐसा बली मन पूरे संसार में कहीं से भी भूत, वर्तमान, और भविष्य का ज्ञान एकत्र कर लाता है...दूसरा लाभ, ऐसा मन अन्य मनों को प्रभावित कर दे सकता है...तीसरा, ऐसा मन अपने बल से किसी भी वस्तु या व्यक्ति की स्थिति में विचारणीय अन्तर ला दे सकता है..."

"यह तीसरी स्थिति स्पष्ट करेंगे...?"

"बली और एकाग्र मन दूर भी स्थित किसी वस्तु को उठा या सरका दे सकता है...किसी व्यक्ति के मन को कोई भी काम करने को प्रवृत्त कर दे सकता है...किसी व्यक्ति पर प्रहार कर पीडा भी पहुंचा सकता है..."

"यदि यह पीडा कण्ठ, या श्वासनली जैसे मर्म अंग पर पहुंचायी जाये तो क्या व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है...?"

"अं...हां...पर...व्यक्ति का अपना भाग्य भी तो काम करता है..."

इसी समय वर्तिका वहां का दृश्य देख आश्चर्य चकित रह गयी...सिद्‍ध के संकेत करने पर वह तुरत कौफी बना ले आयी दोनों के लिये...

"तो...दूर बैठे या निकट बैठे भी किसी व्यक्ति को कोई व्यक्ति क्या विना छूये या प्रहार किये केवल अपने मन के बल से मार दे सकता है...?"

"देखो, बात इतनी सी है कि यदि मन बली हो तो अपनी कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हो जाता है...जैसे किसी ने कामना कि कुछ ऐसा घटे, तो घटनायें उस अनुसार रूप ले उभर सकती हैं...बली मन लाभ पहुंचा सकता है और हानि भी..."

और भी बातें हुईं...अगले दिन चित्र के साथ सुरेन्द्राचार्य का इण्टरव्यू छपा...सिद्‍ध ने फोन कर वर्तिका से सुरेन्द्राचार्य की प्रतिक्रिया पूछी -"पापा यह इण्टरव्यु देख प्रसन्न हुए, बोले यह काम का मनुष्य जान पडता है..."

"क्या अब मैं तुम्हारे आवास आ सकता हूं...?"

"मैं पूछती हूं...अं......हं.....हां, कह रहे हैं कि आ सकता है, पर इतने से काम नहीं चलेगा, कुछ ऐसा करो जिससे उनका नाम बहुत फैले...और....पापा अभी औफिस जाने ही वाले हैं, तुम आ जा सकते हो..."

सिद्‍ध वहां पहुंच वर्तिका संग गप्पे मार रहा है...वर्तिका सिद्‍ध को सारा आवास दिखला रही है...एक स्थान पर एक टूटी मूर्ति रखी थी...सिद्‍ध के पूछने पर वह बतायी - "यह पापा के इष्ट देव की मूर्ति है...टूटी कैसे यह तुम जानकर हंसोगे....हुआ यह कि एक दिन पापा तन्त्रसाधना कर रहे थे तो उसी समय उनका प्रतिद्‍वन्द्‍वी तान्त्रिक भी तन्त्रसाधना में लगा था...पापा का कहना है कि विना साधना-सिद्धि के केवल पुस्तकें पढकर कोई भूत-भविष्य नहीं जान ले सकता है...पर यह पापा के मन की बुरायी थी कि उनने मन से देखा-जाना उस तान्त्रिक को, और अपनी मानसिक शक्ति से उसपर आक्रमण कर उस तान्त्रिक को उसके साधना स्थल पर ही गिरा अचेत कर दिया..."

"क्या मानसिक प्रहार या आक्रमण कर किसी को अचेत कर दिया जा सकता है...?"

"पापा तो कहते हैं कि मानसिक आक्रमण से किसी को मार भी डाला जा सक्ता है..."

"यदि तुम यह जानती थी तो मेरे इन्वेष्टीगेशन के समय कभी यह बात तुमने मुझे बतायी क्यों नहीं...?"

"कोई प्रमाण तो उनके विरुद्‍ध हो....उनमें ऐसा सामर्थ्य है...पर इसका अर्थ यह नहीं कि उनने ही हत्या की है....यदि उनके विरुद्‍ध प्रमाण मिले तो मैं भी तुम्हारा साथ दूंगी..."

सिद्‍ध वहां से लौट अपने प्रेस-औफिस पहुंचा, कुर्सी पर बैठा, चिन्तनमग्न हो गया कि यदि ऐसा सम्भव है तो...तो...तो....

 

एक बली व स्वस्थ शरीर वाला व्यक्ति सुरेन्द्राचार्य के ज्योतिष कार्यालय में प्रवेश करता है...."भैया, मुझे अपना भविष्य जानना है..."

"जन्मकुण्डली लाये हैं क्या श्रीमान्‌..." भोलानाथ ने पूछा..,

"अपना हाथ...जगन्नाथ..." पंजा दिखलाता है....

"सामान्य भविष्य फलकथन का शुल्क केवल पांच सौ एक रुपये...अभी दें..."

वह बली रुपये निकाल देता है...बुलाये जानेपर बली अन्दर सुरेन्द्राचार्य के कक्ष में प्रवेश कर बैठता है...सुरेन्द्राचार्य उसका हाथ देख उसका फल

 बताता है...बली सुन तो रहा है पर इसपर विचार नहीं कर रहा है कि फल सत्य है या असत्य...अधिकतर वह उसके कथन को काट रहा या उसकी हंसी बना दे रहा है...-"अच्छा, ये तो बतायें, मेरा आज का दिन कैसा बीतेगा...?"

"आपकी प्रश्नकुण्डली तो बता रही है कि दिन कुल मिलाकर अच्छा बीतेगा...सफलता मिलेगी...जो समस्या होगी उसका समाधान करने में आप सफल हो जा सकेंगे..."

"ठीक है...ऐसा है...आप अपने शिष्य से कहें कि वह मेरे ५०१/- रुपये मुझे वापस कर दे..."

"क्यों..? भविष्यफल आपको बताया जा चुका है...!”

"देखो...यदि आज मुझे कार्यों में सफलता मिल जायेगी, तो समस्या का समाधान होते ही तुम्हारी समस्या का भी समाधान कर दूंगा...५०१ रुपये तुम्हें मिल जायेंगे..."

"ऐसा कहां होता है...?"

"सभी स्थानों पर ऐसा ही होता है...काम होने जाने पर पेमेण्ट कर दिया जाता है...यदि पहले भी पेमेण्ट किया तो काम न हो पाने की स्थिति में रुपये वापस कर दिये जाते हैं..."

"परन्तु, किसी भी ज्योतिषी के साथ ऐसा होता सुनने में नहीं आया है...और यहां भी नहीं होगा...अब आप जा सकते हैं..."

"पर, सुनो....यह तो गुण्डागर्दी होगी कि काम भी नहीं हुआ और शुल्क भी ले ली...अगर ऐसा करना हो तो करो, पर देखो, तुममें और मुझमें कौन अधिक बलवान्‌ है..." ऐसा कह उसने टेबल पर एक भारी घूंसा मारा...कुछ वस्तुयें उछल गयीं...दोनों शिष्य दौडे-दौडे अन्दर आये...

’’हं’ मेरे ऊपर आक्रमण....!" ऐसा कह बली दोनों शिष्यों के गले पकड उठाने लगता है...तब सुरेन्द्राचार्य उठकर उन्हें छुडाना चाहता है कि बली एक हाथ से सुरेन्द्राचार्य का गला पकड लेता है...तब सुरेन्द्राचार्य किसी प्रकार अपना गला छुडा भोलानाथ को कहता है कि वह बली को रुपये लौटा दे...बली को ५०१ रुपये लौटा दिये जाते हैं...बली मुस्कुराकर रुपये लेते हुए सुरेन्द्राचार्य से कहता है- "रुपये यदि लूटने हों जनता के पौकेट्स से तो न केवल तुम अपने शरीर को और अधिक बली बनाओ, कुछ बली गुण्डों को भी पाल लो...समझे..." ऐसा कह वह बाहर निकल सीढियों से नीचे उतरने लगा...बली को कुछ अस्वस्थता अनुभूत होने लगी....सीढियों से नीचे उतर अभी वह चार-पांच पग और अधिक चला था कि उसे चक्कर आने लगा...सहसा उसे तीव्र पीडा होने लगी और एक-दो मिनट के अन्दर ही ’आह्‌ आह्‌’ चिल्लाता भूमि पर गिर अचेत (बेहोश) हो जाता है...यहां सीढियों के समीप तो कोई-कोई ही आता-जाता दिखता है, पर कुछ दूरी पर लिफ्ट के समीप लोगों की कुछ संख्या दिखती रहती है...

ऊपर औफिस में बैठा सुरेन्द्राचार्य सहसा चौंकता है, और जैसे किसी को ढूंढने लगती है उसकी दृष्टि...वह चिन्तित-सा चेयर से उठता और सीढियों से नीचे उतरता है...आगे बढने पर वह बली को भूमि पर अचेत गिरा पाता है...अन्य किसी को समीप न पा जैसे वह बली को झकझोडकर जगाने का प्रयास करता है...उसके नहीं जागने पर सुरेन्द्राचार्य कहता है -"केवल अचेत होने से काम नहीं चलेगा...जिसका हाथ मेरी ओर बढता है, उसके जीवन को मैं मौत की ओर बढा देता हूं...केवल बढा ही नहीं देता हूं, अपितु मौत दे भी देता हूं...मैं भविष्यवक्ता हूं....क्या समझा...? तू अभी उठेगा...पर उसके पश्चात्‌ तू सांसें नहीं ले पायेगा...और मरेगा..." शैतानी मुस्कान के साथ ऐसा कह वह औफिस में लौटता है और अपने शिष्यों को कुछ कहता है...दोनों शिष्य शीघ्र सीढियों से नीचे बली के समीप आते हैं और उसके मुख पर पानी के छींटें मारते हैं...बली को चेत पाता देख उसकी आंखों से बचते हुए दोनों औफिस में लौट जाते हैं...बली तीन-चार मिनटों में ही उठ चलने की स्थिति में आ जाता है....जैसे ही वह उठ खडा हो चलना चाहता है कि चिल्लाता है -"आह्‌...मैं सांसें क्यों नहीं ले पा रहा हूं...बचाओ...आह्‌..." वह लडखडाता है और गिरने की स्थिति में आता है कि कोई तुरत उसकी बांहों को थाम उसे अपने आलिंगन में ले लेता है...यह सिद्‍ध है...-"कुछ सेकेण्ड्स के लिये ऐसा मानो कि तुम स्वयम्‌ ही सांसें नहीं ले पा रहे हो...ऐसा कण्ट्रोल करो..." और पन्द्रह-बीस सेकेण्ड्स में ही बली को सांसें लेने में आ रही बाधा हट गयी जान पडने लगी...उसने मुंह खोल आराम से सांसें लीं...-"आह्‌...अब मैं कितना आराम अनुभव कर रहा हूं..."

"अभी कुछ मिनट और रुको, और देखो, एक दृश्य उभरने वाला है यहां...बहुत प्रसन्नता मिलेगी तुम्हें उससे..."

आठ-दस मिनट पश्चात्‌ इंस्पेक्टर सीढियों से उतर समीप आया बली और सिद्‍ध के, और साथ में था सुरेन्द्राचार्य, हथकडी लगे हाथों के संग...

सुरेन्द्राचार्य को कोर्ट में प्रस्तुत किया जाता है जहां वह स्वीकार कर लेता है कि उसी ने वर्धन की हत्या की थी मानसिक प्रहारों से...और बली की भी हत्या का प्रयास उसने किया...

वर्तिका- "यह सब कैसे हुआ...? अर्थात्‌ कब कैसे योजना बनायी, और इसमें सफल भी हो गये...?"

सिद्‍ध -"बली को हमलोगों ने ही तुम्हारे पापा के समीप भेजा था...बली लौटते समय सीढियों से उतर वहां खडा हुआ जहां एक सीसीटीवी लगा था और स्पष्ट वीडियो-रिकौर्डिंग कर रहा था...वहां आकर सुरेन्द्राचार्य जो जो बोला और जो जो घटना घटी वह सब रिकौर्ड हो रहा था....जब सुरेन्द्राचार्य धमकी दे ऊपर औफिस गया तभी हमलोग जान गये कि बली के चेत पाते ही सुरेन्द्राचार्य उसे सफोकेट (श्वास-अवरुद्‍ध) करेगा....अतः सामान्य वस्त्रों में इंस्पेक्टर ऊपर जा उसके औफिस के बाहर मुझसे सूचना मिलते ही उसे तुरत अरेष्ट करने की मुद्रा में खडा हो गया...जैसे ही बली ने कहा वह सांसें नहीं ले पा रहा है मैंने तुरत इंस्पेक्टर के मोबाइल की घण्टी बजा दी, और इंस्पेक्टर ने तुरत औफिस में प्रवेश कर सुरेन्द्राचार्य को अरेष्ट कर लिया...तत्पश्चात् वह उसे ले नीचे सीसीटीवी के सामने हमदोनों के समीप लाया...तुम्हारी क्या प्रतिक्रिया है इस सफल योजना पर...?"

"इस सफल योजना ने तुम्हें एक और बडा लाभ तुम्हें दिलाया है...पूछो क्या...?"

"मुझे पुरस्कार मिल सकते हैं...."

"वो तो है...पर मेर मन में वह कौन-सा लाभ है जरा अपनी मानसिक शक्ति से पढ बताओ...?"

"तुम\...तुम मिल गयी हो..."

"हां....और तुम्हें अब रुपये देने की चिन्ता नहीं करनी है..."

"राइट...पर यह मैं क्यों नहीं सोच पाया...?"

"तुम्हारा मस्तिष्क अभी काम कहां कर पा रहा है...वह तो मुझमें डूबा है..."

"अच्छा है...कुछ आराम भी मिलना चाहिये मेरे मस्तिष्क को...." दोनों एक दूसरे को आलिंगन में लिये हुए हैं, और इसके संग ही

                                                                        THE END

 

 

SAMOSE - a story plot for making film

11/04/2012 13:47

 

समोसे

लेखक - राघवेन्द्र कश्यप

एक मनोरंजक फिल्म्‌ बनाने के उद्‍देश्य से लिखा गया यह कथा-प्लौट्‍ काल्पनिक घटनाओं पर आधारित है....

 

तीन यूनिवर्सिटी ष्‍टूडेण्ट्स एक कार में बैठे ऊंघ रहे हैं....एक झपकी लेता आंखें खोलता है -"आ गयी...आ गयी वो...पर...नहीं...मैं सपना देख रहा था..."

अन्य दोनों आंखें खोल ऊंघ रहे हैं - "ए चल, उठ...घण्टा भर हो गया पर अन्दर से कोई बाहर नहीं निकला..."

"हां....कोई भी बाहर नहीं निकला....! पर इतनी बडी और ष्‍टैण्डर्ड्‍ की शौप्‌ और कष्‍टमर दिख नहीं रहे...? पर...वो भी अन्दर इतने समय से कर क्या रही होगी...? चलो, अब अन्दर चलकर ही देखते हैं..."

"अरे यार, ये क्या चक्कर है....?"

"कोई किसी के पीछे यूं ही नहीं खिंचा नहीं चला जाता....कुछ बात विशेष होती है...सुन्दरी ऐसी लगी मानो मेरे मन में समा गयी है...यदि मिल जाये मुझे तो...."

"तो क्या....? विवाह कर लोगे....?"
"विवाह तो नहीं...पर गर्ल्‌फ्रेण्ड अवश्य बना लूंगा...श्योर....सबके सामने घोषित कर दूंगा...."

"कितनी रातों के लिये...?"

"दिन में तो दिख नहीं रही, रात की बात कौन जाने....?"

तीनों शौप में प्रवेश करते हैं....अन्दर कष्‍टमर्स हैं पर वह सुन्दरी कहीं नहीं दिखती....तभी सामने ’एग्जिट’ लिखा उन्हें दिखता है...सुन्दरी वहां से न जाने कितना पहले ही निकल चुकी होगी और वे बाहर बैठे समय गंवा रहे थे...’ओह्‌ नो...’

"चलो, यूनिवर्सिटी चलते हैं....फर्ष्‍ट पीरियड तो समाप्त होने पर है..."

तीनों यूनिवर्सिटी पहुंचते हैं...सौर्य और देव जहां साधारण धनी परिवारों से हैं वहीं प्रसन्न एक कई करोड रुपयों के स्वामी उद्‍योगपति का पुत्र है...प्रसन्न की पढने में रुचि थी अतः वह यूनिवर्सिटी आया जहां उसकी सौर्य और देव से घनिष्‍ठ मित्रता हो गयी...सौर्य के मेधावी होने के कारण उसकी बहुत प्रशंसा होती रहती है जिस कारण से भी प्रसन्न सौर्य के प्रति आकर्षित हुआ...देव मित्र था सौर्य का इस कारण वह भी सम्मिलित हो गया इस तीन के समूह में...एम ए प्रथम वर्ष की परीक्षा होती है जिसमें सौर्य प्रथम स्थान पाता है, देव प्रथम श्रेणी पाता है, वहीं प्रसन्न किसी प्रकार द्वितीय श्रेणी की सीमा में प्रवेश कर जाता है...

तीनों यूनिवर्सिटी के आकर्षक उद्‍यान की हरी घासों पर बैठे हैं....

"अबतक जीवन में मैंने जो इच्छा की वह पाया...रुपये मैं करोडों लगा दे सकता हूं अपनी कामनायें पूरी कर देने में....पर ये नम्बर....! मुझे मिले हैं कुल कृमि०.कृमि% अंक....और वह भी सौर्य की दी गयी गाइड्लाइन्स को फौलो करने के कारण...यदि इसके बताये प्रश्नोत्तर मैंने रटे नहीं होते तो क्या जाने मैं पास भी कर पाता या नहीं....!

काश....यदि मैं फर्ष्‍ट डिवीजन से एम ए पास कर पाउं...!"

"कामना तो बडी अच्छी की है, पर यह करोड रुपये की समस्या बन गयी है केवल पचास प्रतिशत अंक लाकर...न्यूनतम ७० प्रतिशत अंक आने चाहिये द्वितीय वर्ष में तभी यह स्वप्न साकार कर सकते हो...." देव बोला...

"सत्तर प्रतिशत...! इतने अंक तो मुझे आने से रहे... पर...मेरे सर पर भी भूत सवार है एम ए में फर्ष्‍ट डिवीजन पाने को....जिस किसी भी उपाय से मिले..."

"जुट जाओ मन लगाकर पढने में....मेरा पूरा सहयोग मिलेगा....मैं पूरा प्रयास करूंगा कि तुम्हें ७०% से अधिक अंक प्राप्‍त हो जायें..."

"यही तो समस्या है कि पढने में मेरा मन लगता नहीं...तब भी मेरी बडी इच्छा है कि यहां पढूं और....

बात क्या है कि...सुनो...बहुत मन लगा पढते अधिकतर वे हैं जिन्हें धन अर्जित करना होता है कुछ बनकर....मेरे पिता के पास आधा अरब रुपये होंगे....और मैंने जितना पढ लिया उतना पर्याप्त है बिजनेस के लिये....पर क्या है...कि मन-मन की बात है...यदि मेरे मन में यह बात आ गयी है कि मैं एम ए पास करुं, और वह भी फर्ष्‍ट डिवीजन से...तो मुझे चाहिये....चाहे जैसे भी मिले...

(उसके मस्तिष्क में कोई उपाय उभरा) एग्जामिनर्स को यदि लाखों रुपये खिला दिये जायें...तो मेरा काम हो जा सकता है....!"

"यह काम इतना सरल नहीं है....इस यूनिवर्सिटी में यह काम तभी सम्भव जब ओपेन डिसौनेष्टी का वातावरण बना दिया जाये, जो अभी सम्भव नहीं है...एक-दो प्रोफेसर्स को रुपये दे अपने पक्ष में कर लिया जा सकता है...पर इससे सभी पेपर्स में मार्क्स नहीं बढ जायेंगे...और सबसे बडी आशंका तो बात के लीक हो जाने की है...तब सारा किया-धरा मिट्‍टी में मिल जा सकता है..."

"हूं....तब अब क्या उपाय शेष रह गया....अब कैसे क्या होगा...!"

"तुम तो अभी कह रहे थे कि यह करोड रुपये की समस्या है...?" देव बोला...

"हं..." प्रसन्न उसके ऐसा पूछने का अर्थ समझा..."करोड तो नहीं, पर लाखों रुपये की बात यह अवश्य है..."

"कितने लाख रुपये....?"

"दो, चार, पांच लाख रुपये...और कितने इस बात के लिये लगाये जा सकते हैं....?"

"पांच...पांच नहीं, पचास लाख रुपये यदि निकालो, तो सत्तर ही नहीं, पचहत्तर प्रतिशत अंक भी तुम्हें मिल जा सकते हैं..." देव ने आंखें चमकाते हुए प्रस्ताव रखा...

"वो कैसे...?" प्रसन्न जिज्ञासु हुआ....

"वो मैं बता रहा हूं...सारा प्लान्‌ मेरे माइण्ड में आ चुका है....हमारा सौर्य करेगा यह काम...पर मुझे अलग से ओनली फाइव लैक रुपीज चाहिये...यदि स्वीकार हो तो मैं बताउं....?"

"रुपये किसे कितने चाहिये उसपर बल न दे प्लान के सक्सेस की सोचो...यदि सबकुछ सफलतापूर्वक हो गया तो इतने रुपये तुम दोनों को मिल जायेंगे...." सौर्य और प्रसन्न दोनों ने ही उत्सुकतापूर्वक देव की ओर देखा...

"हम सबों ने एक ही हौल में बैठ परीक्षायें देनी हैं....कौपी पर हमें नाम लिखना नहीं है, केवल रौल नं, विषय, पेपर सं, आदि लिखना है...रौल नं भरे विना तुमदोनों परीक्षा दोगे....निरीक्षक आरम्भ में ही कौपी साइन करके देगा....तुमदोनों जो भी कौपी लिखोगे उसपर एक-दूसरे का रौल नं भर दोगे....कब...? परीक्षा के अन्त में....जो भी विषय आदि विवरण भरना है वह टाइप के अक्षरों में आरम्भ में ही भर दोगे...केवल रौल नं छोडे रखना....इन केस निरीक्षक कौपी दे देने के पश्चात्‌ साइन करने आता है या परीक्षा मध्य में वह या कोई अन्य सबकी कौपीज देखने आता है तो उस स्थिति में यदि वह दबाब डालता है रौल नं भी लिखने को, तो हलके-से रौल नं लिख दोगे जो पश्चात्‌ (बाद में) चेंज कर दोगे....जब परीक्षा के एक या दो मिनट शेष होंगे तो हम तीनों एकत्र हो एक-दूसरे की कौपियां एक साथ ले निरीक्षक को सौंप देंगे..."

"हूं...प्लान तो अच्छा है....पर यदि किसी प्रकार यह बात लीक हो गयी तो...?"
"उसकी सावधानी रखो....और यदि किसी को सन्देह नहीं हुआ तो कभी कोई समस्या नहीं आयेगी..."
दोनों उसके प्लान पर ध्यानपूर्वक विचार करने लगे....

"और ये सावधानी अवश्य रखना कि जो टाइप के अक्षर लिखना वह तुमदोनों का एक ही फौण्ट जैसा हो....पेन-इंक भी समान ही प्रयोग में लाना....मैं भी विवरण वैसे ही टाइप के अक्षरों में ही लिखूंगा...." उन दोनों के मन को पढते हुए उसने आगे कहा- "और हां...तुमदोनों पौसिब्ली ये सोच रहे होगे कि मैं केवल प्लान ही बताउंगा या कुछ और भी करुंगा...तो सुनो...मैं इस बात के लिये सावधान रहुंगा कि कहीं कोई कहीं कोई निरीक्षण अधिकारी आ रहा हो...या कोई समस्या आ रही हो....या किसी के मन में सन्देह आ रहा हो...कौपी सब्मिट करते समय तुम दोनों की कौपियां चेंज कर विना समस्या या सन्देह के सब्मिट हो जाये इसके लिये मैं स्वयम्‌ ही उठकर तुमदोनों से मिलुंगा...किसी भी प्रकार के सन्देह या अप्रिय स्थिति से निबटने को रेडी रहुंगा मैं....इन चक्करों में मेरी परीक्षा अच्छी नहीं जायेगी, पर नो मैटर...वह देखा जायेगा...."

"प्लान पूरा हो गया...? या और भी कुछ घटनायें घटनायें घटनी हैं...?" सौर्य पूछा...

"हां...अभी इतना ही...और बातें समय पर देखी जायेंगी..."

"पर मैं ऐसा क्यों करुंगा...?मेरी परीक्षा डूब जायेगी...संग ही एक भी अपराध करुंगा...!"

"पर परीक्षा तो तुम अगले वर्ष भी पास कर ले सकते हो...संग होंगे तुम्हारे पचास लाख रुपये भी..."

"मुझे कुछ सोचना पडेगा...एक तो यह बात किसी भी प्रकार लीक नही होनी चाहिये...और द्वितीय यह कि प्रसन्न तुम पर्याप्त अध्ययन करते रहो...चलो, अब कुछ और भी विचार करें....कुछ काम करें..."

 

समय बीतता जाता है...वार्षिक परीक्षा निकट आ रही है...प्रसन्न पुनः सौर्य पर दबाब डालता है कि सौर्य उसके लिये वैसा करे...संग पचास लाख रुपयों का लोभ तो है ही... सौर्य वेब्साइट सर्फ कर रहा है...एक राघवेन्द्र कश्यप की वेब्साइट उसे मिलती है जिसपर विविध प्रकार के लेख, कथा, आदि प्रकाशित हैं...वह उनके आध्यात्मिक विचारों और परामर्शों से बहुत प्रभावित है...वह उनसे फोन पर बात करता और उनसे मिलने जाता है....

"ज्यौतिष का लाभ तभी है जब उससे जीवन की वास्तविकता मनुष्य जाने और आध्यात्मिक लाभ पाये..." राघवेन्द्र बोले...

"वो कैसे...?"

"ज्यौतिष से हमें जानकारी मिलती है मनुष्यजीवन की सभी घटनायें जन्म के पूर्व से ही निर्धारित हैं....जैसी घटना घटनी रहती है वैसा मन बन जाता है मनुष्य का, परिस्थितियों का..."

"तो क्या हमारी इच्छाओं और कामनाओं का कोई महत्त्व नहीं...?"

"हमारी कई प्रकार की इच्छायें और कामनायें वर्तमान रहती हैं...पर नियति में जो लिखा रहता है वही होता है...कुछ घटनायें हमारी इच्छाओं के अनुकूल होती हैं तो कई घटनायें हमारी इच्छाओं के विपरीत होती हैं....जब हमारी इच्छाओं के अनुकूल घटना घटती है तो हम कहते हैं कि यह हमने इच्छा की और वैसी ही घटना घटी...यह मेरा पराक्रम है...वहीं जब हमारी इच्छा के विपरीत घटना घटती है तो हम स्वयम्‌ को दुर्बल मान पराजय अनुभव करते हैं...जबकि घटनाओं का सम्बन्ध हमारी वर्तमान इच्छाओं से न होकर पूर्वजन्मों की इच्छाओं से होता है, अर्थात्‌ नियति (डेष्टिनी) से होता है...अर्थात्‌ यह संयोगमात्र ही होता है कि घटनायें हमारी इच्छाओं के अनुकूल या प्रतिकूल घटती हैं..."

"यदि ऐसा मान जीया जाये तो हमारे जीवन के कितने ही दुःख दूर हो जायें...पर हमारा मन ऐसा मानने को रेडी नहीं होता..."

"तब भी प्रयास किये जाने चाहिये...क्योंकि अगले जन्म की सभी घटनाओं के रचयिता हम स्वयम्‌ ही हैं...संग ही प्रयास करना चाहिये कि हम केवल वैसे ही कर्म करें जो हमारे लिये लाभदायक हों पर किसी भी के लिये हानिकारक न हों...ऐसे ही लाभ हमें पाने चाहिये..."

"अर्थात्‌ जिस कर्म से हमें लाभ होता हो और किसी भी को हानि नहीं पहुंचती हो वह कर्म करना पाप या अपराध नहीं होता....?"

"प्रायः(लगभग, अक्सर) ऐसा ही है..."
"तो क्या वेश्यागमन पाप या अपराध नहीं...? क्योंकि दोनों ही पक्ष लाभ में रहते हैं...एक को आनन्द मिलता है और इतर को धन..."

"उसे धन मिलता है और तुम्हें हानि मिलती है...तुम अपना आत्मबल अपना निर्दोष स्वभाव खो देते हो...नैतिकता तुममें बली नहीं रह जाती है...तुम मानवसमाज के लिये हानिकारक बन जाते हो...केवल निज पत्नी से ही यौन आनन्द पाने का अधिकार तुम्हें है..."

"अच्छा...पर यदि अन्य कोई ऐसा कर्म जिससे दोनों ही पक्ष लाभ में रहते हों और हानि किसी भी को नहीं पहुंचती हो किया जाये तो क्या कोई पाप या अपराध होगा...?"

"तुम स्वयम्‌ सभी के लाभ-हानि का आकलन करो....यदि वह कर्म करते तुम्हारा नैतिक साहस, आत्मबल, और निर्दोष स्वभाव बना रहता है, तथा तुम दोनों लाभ और सुख पाते हो तो वह कर्म करने योग्य है..."

 

सौर्य लौट आवास आता है और विचार करता है...वह इस निष्कर्ष पर आता है कि यदि वह प्रसन्न के लिये परीक्षा कौपी लिखता है तो उसे पचास लाख रुपये मिलेंगे, तथा प्रसन्न को फर्ष्ट डिवीजन का सर्टिफिकेट मिलेगा, और शिक्षण-संस्थानों और समाज को कोई हानि नहीं पहुंचेगी...क्योंकि यह सर्टिफिकेट पा प्रसन्न कोई जौब नहीं प्राप्त करेगा -वह करोडपति है, यह उसे केवल सम्मान का प्रतीक चिह्‌न बनाये रखेगा...इससे दोनों ही पक्ष लाभ में रहेंगे और हानि किसी भी को नहीं पहुंचेगी... नैतिक साहस और आत्मबल मैं खोता हूं या नहीं यह मेरी अण्डरष्टैण्डिंग पर निर्भर है...अतः यह कार्य मुझे अवश्य करना चाहिये..."

"मैं रेडी हूं तुम्हें फर्ष्ट डिवीजन दिलाने को..."

"क्या...! तो क्या तुम इससे पूर्व रेडी नहीं थे...? तुमने तो मुझे घबडा दिया यह कह...मैं तो ऐसा मानकर ही चल रहा हूं....और पढ रहा हूं केवल तुम्हारे पास होने के लिये....रुपये तुम्हें अभी चाहिये या पश्चात्‌...? क्योंकि मेरा कार्य तो हो ही जायेगा इसमें सन्देह नहीं...."

"इस सम्बन्ध में मेरा परामर्श लो...पांच लाख रुपये अभी एड्वांस लो...और शेष पैंतालिस लाख रुपये तुम्हारे और मेरे पांच लाख रुपये प्रसन्न अन्तिम पेपर के पूर्व देगा..." देव बोला...

ऐसा ही किया जाता है....प्रसन्न पांच लाख रुपये कैश सौर्य को दे देता है...परीक्षा के पेपर्स आरम्भ हो जाते हैं...देव सदा सावधानी रखता कि कहीं कोई चेकिंग करने आ रहा क्या...अन्य भी कोई आशंका...संग ही वह निरीक्षक के मन पर प्रभाव डालने का प्रयास करते रहता कि वह सौर्य या प्रसन्न पर किसी भी प्रकार से सन्देह न करे...कभी हौल में उपस्थित निरीक्षक या बाहर से आया निरीक्षक इधर-उधर देखता सभी परीक्षार्थियों को देखने जाता भी तो सौर्य और प्रसन्न इतने ध्यानमग्न हो लिखते रहते कि निरीक्षक का मन नहीं बन पाता कि वह उनकी कौपियां देखे या उनसे कुछ पूछें... जब परीक्षा में एक या दो मिनट शेष रहते तो वह उठता, प्रथम प्रसन्न के समीप जाता और तत्पश्चात्‌ सौर्य के समीप जाता और दोनों ही से कहता कि चलो बहुत लिख लिया कौपी इधर लाओ, समय पूरा हो गया है....दोनों सुशीघ्र(फटाफट) एक-दूसरे का रौल नं. लिख उसे थमा देते...तब देव उन दोनों और अपनी एक कुल तीनों कौपियों को निरीक्षक को थमा देता या जहां कौपियां संग्रह की जा रही हों वहां रख देता...तब तीनों संग ही बाहर निकल जाते...वे तीनों अपने व्यक्तित्व का लाभ उठाने में सफल रहे....यद्‍यपि आशंकायें सदा बनी रहती थीं पर वे सफलतापूर्वक पेपर्स पार करते गये...अन्तिम पेपर के पूर्व योजना के अनुसार प्रसन्न पैंतालिस लाख रुपये सौर्य को और पांच लाख रुपये देव को कैश थमा देता है...अन्तिम पेपर भी सफलतापूर्वक बीत जाता है...तीनों एक रेष्टोरेण्ट ’समोसा’ में बैठे हैं...

’चीयर्स’....कोल्ड ड्रिंक्स के बौटल तीनों टकराते हैं और अब पी रहे हैं...

"रियल चीयर्स तो रिजल्ट आने पर होगा..." सौर्य बोला...

"कुछ बातें कभी खुल नहीं पातीं...इतिहास के पन्नों में वर्णन नहीं पर वैसा घटा होता है..." प्रसन्न बोला...

"पर मेरा कहना यह है कि तुम दोनों यहां वह भी टेष्ट करो जो तुमने अभी तक यहां खाया नहीं...." देव बोला...

"वह क्या...?" दोनों उत्सुक हुए..

"समोसे....बहुत ही अच्छी क्वालिटी के समोसे...इसके अन्दर स्वादिष्ट वस्तुयें भरी होती हैं....एक तो आलु, मुंगफली आदि भरा...और दूसरा है मूंग, काजु, किसमिस आदि भरा...खाकर एक बार देखो..."

देव के आग्रह पर वे मान जाते हैं...मंगवाया जाता है....

"भाई वाह...समोसे तो समोसे, संग के छोले और चटनी भी बहुत स्वादिष्ट हैं...देव तुमने पहले क्यों नहीं बताया, हमलोग यूनिवर्सिटी में अभी तक जैसा-कैसा भी फूड-आइटम खाते रहे हैं..."

"ये संयोग की बात है...ये रेष्टोरेण्ट कुछ दूर है यूनिवर्सिटी से, पर एक दिन मेरी बाइक यही आकर रुक गयी....मैंने सामने रिपेयर के लिये दे दिया...वहां बताया कि दो घण्टे में मिलेगा....मैंने यहां प्रवेश कर विचारा कुछ समय तो यहीं बीत जायेगा, और संयोग से समोसे का और्डर दिया...दोनों ही प्रकार के समोसे थे, मैंने दोनों ही मंगा लिया...जब परीक्षायें आरम्भ होने में दो दिन शेष थे तब की ये बात है...इसीलिये आज तुमदोनों को यहीं आने को कहा..."

"अच्छा, मुझे यदि कभी अवसर मिला तो यहां आउंगा, अथवा यहां से मंगवा भी ले सकता हूं...पर तुमदोनों तो सम्भवतः अगले वर्ष पुनः परीक्षायें दोगे....तो इधर आओगे ही..."

तीनों ठहाके मारने लगे...

 

परीक्षा का परिणाम आ गया...प्रसन्न को इसबार ७८% अंक मिले थे, जिससे वह प्रथम श्रेणी भी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण कर गया था...देव किसी प्रकार पास कर पाया था जबकि सौर्य फेल हो गया था...किसी भी को विश्वास नहीं हो रहा था कि सौर्य फेल हो सकता है...वह बैच का सबसे मेधावी छात्र था...उससे पढ-समझकर तो कितने ही पास हो गये, कितने ही प्रथम श्रेणी पा गये, और पढानेवाल फेल हो गया यह बात किसी भी को पच नहीं पा रही थी....सौर्य को यह जान भय हुआ कि यदि कहीं उसकी कौपियों को निकलवा कर देखा गया कि वह कैसे फेल हुआ तो वह फंस जा सकता है....हैण्डराइटिंग भी पकड में आ जा सकती है कि उसका लिखा यह नहीं है...अतः उसने तुरत यह बात फैलानी आरम्भ कर दी कि एग्जाम के दिनों वह लगातार मेण्टल फीवर से ग्रस्त रहा जिस कारण उसकी बुद्धि काम नहीं कर रही थी और वह फेल हो गया...अधिक अच्छा तो यह होता कि वह एग्जाम देता ही नहीं...सभी यह सुन शान्त हो गये, तथा इस बात से उनका मन हट गया....सौर्य ने आराम की सांसें लीं...

सौर्य और देव बातें कर रहे हैं....सौर्य के संग पचास लाख रुपये हैं पर वह यह नहीं समझ पा रहा कि कैसे वह इन रुपयों को कहां रखे....

"देव, तुम कोई उपाय बताओ...मैं इन रुपयों को कहां रखुं और क्या करुं...?"
"ऊं...हुं...हुं...अच्छा तो यह होगा कि कोई बिजनेस आरम्भ कर दो...."

"पर एम ए देव की परीक्षा मैं पुनः देना इच्छता हूं...ऐट्लीष्‍ट एम ए की उपाधि तो मेरे संग हो ही...इसलिये एम ए देव में पुनः प्रवेश लेने का विचार है...बिजनेस आदि कुछ भी एक वर्ष के पश्चात्‌ ही आरम्भ किया जा सकता है..."

"तो...मेरा मानो और दो-तीन लाख रुपये बैंक-अकाउण्ट में रख दो...एक-डेढ लाख कैश संग रख लो...और शेष रुपयों का कोई ऐसा वस्तु क्रय कर लो जो आकार में बहुत ही छोटा हो पर कोई पैंतालिस लाख रुपयों में आये...साथ ही उसका विक्रय मूल्य एक वर्ष के पश्चात्‌ भी प्रायः उतना ही बना रहे...जैसे..."

"जैसे...?"

"तुम विचारो कि जैसे क्या....!"

सौर्य सोच ही रहा है कि देव बोलता है - "अरे जैसे हीरा..."

"हीरा..." सौर्य आंखें फैला विचारने लगा...."पर एक वर्ष पश्चात्‌ क्या मुझे उतने ही रुपये वापस मिल जायेंगे...?" 

"हां..यह बात तो किसी ज्वेलरी शौप में ही ज्ञात हो पायेगी...चलो चलें..."

सौर्य की कार संग है...दोनों पहुंचते हैं एक ज्वेलरी शौप...ज्वेलर से हीरे के छोटे पीसेज के मूल्य पूछते हैं....पर उसी पीस को यदि उनको लौटा बेचा जाये तो....तो ज्वेलर बताता है अलग-अलग आइटम के अनुसार दस से बीस प्रतिशत तक मूल्य न्यून हो जायेगा...यह सुन दोनों निराश हो जाते हैं...पुनः मस्तिष्क घूमा रहे हैं और ’समोसा’ में बैठे चाय पी रहे हैं...

"एक अपना प्रिय समोसा खाउं, तो, मेबी, उपाय सूझ जाये..." देव खाना आरम्भ करता है और सहसा कहता है -"मिल गया...उपाय...!" सौर्य का भी मन प्रसन्न हो जाता है और वह सुनने को उत्सुक हो जाता है...

"उपाय निश्चित सफलता देनेवाला है....वह यह कि हीरा ही लिया जायेगा, पर क्रय कर नहीं....वह हीरा हम लेंगे और उसके स्थान पर तुम कोई सैंतालिस लाख रुपये दोगे - केवल रखने को एक वर्ष के लिये...एक वर्ष पश्चात्‌ तुम हीरा लौटा दोगे, और वह तुम्हारे सैंतालिस लाख रुपये लौटा देगा, पूरे..."

"ऐसा कौन करेगा...?"

"और कोई नहीं, अपना प्रसन्न करेगा यह काम...!"

"हां....!" सौर्य की आंखें प्रसन्नता से चमक उठीं...वे दोनों प्रसन्न से इस सम्बन्ध में बात करते हैं...प्रसन्न तो अभी पायी सफलता से बहुत ही प्रसन्न है...बडी सरलता से यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेता है...रुपये ले हीरे के एक कैप्सुल के आकार के टुकडे को वह सौर्य को दे देता है...देव और प्रसन्न उस ज्वेलरी शौप में जा उस टुकडे का मूल्य पूछते हैं वे प्रायः पचास लाख का उसे बताते हैं...सौर्य लौट दो लाख रुपये वह बैंक-अकाउण्ट में संग्रह कर देता है तो एक लाख रुपये कैश निज संग रखता है...सौर्य के कक्ष में एक चित्र टंगा है...चित्र उतार उसके पीछे की कील को वह निकालता है....छेद को वह और लम्बा कर हीरे के कैप्सुल पीस को उसमें घुसा देता है...तब भी छेद में इतना स्थान है कि वहां कील स्थिरता से घुस जाये...कील की मोटाई अधिक है उस हीरे के पीस से...अतः यह काम बडी सरलता से पूरा हो जाता है....

 

सौर्य और देव दोनों ही पुनः एम ए द्वितीय वर्ष में प्रवेश लेते हैं...उनके जूनियर ष्टूडेण्ट्स अब उनके सहपाठी हैं....उनमें से कई ने सौर्य के  सम्बन्ध में सुन रखा है कि वह अस्वस्थता के कारण ही पास नहीं कर पाया अन्यथा वह पढने में सबसे आगे रहा है अपने बैच के छात्रों के मध्य....इन सहपाठियों ने किसी भी पेपर की किसी भी पुस्तक की कोई बात समझने के लिये सौर्य से पूछना आरम्भ किया... सौर्य ने जितनी सरलता और स्पष्टता से समझा दिया उससे वे बहुत प्रसन्न थे और उसकी बहुत प्रशंसा करने लगे थे...तभी एक और सहपाठिनी सुहासिनी का उसके जीवन में प्रवेश होता है...वह आरम्भ की कुछ कक्षाओं को मिस्स कर देती है नाटक में भाग लेने के कारण....अब आकर सोच रही है कि कैसे छूटे भागों को वह पूरा करे....वह एक सखी से यह बात कहती है तो वह उसे सौर्य से मिलने का परामर्श देती है उसकी बहुत प्रशंसा करती हुई...सुहासिनी उससे मिलने कक्षा के सामने के घास भरे फील्ड में जाती है जहां सौर्य एक बेंच पर बैठा किसी को पाठ्य पुस्तक से कुछ समझा रहा है...ऐसी सुन्दरी को अपने निकट आया देख सौर्य का मन स्वाभाविक रूप से आकर्षित हो गया...

"आप सौर्य हैं...?"

"हां..."

"नाटक में भाग लेने के कारण मैं अब जाकर क्लास अटेण्ड करने आयी हूं...और पीछे छूटे अध्यायों के कारण मुझे तो बहुत कठिनाई जान पड रही है...मेरी सखियों ने आपके सम्बन्ध में बताया....कि आप बडी सरलता से....और स्पष्टता से...वह सब समझा दे सकते हैं जो मैं जानना इच्छुं....यदि आप मुझे कुछ समय दे पायें..."

"हां...आइये बैठिये..."

सुहासिनी को समझाते समय अन्य भी कुछ छात्र-छात्रायें समझने का प्रयास करते हैं...सभी को सारी बातें स्पष्ट रूप से समझ में आ जाती हैं...सुहासिनी इस सहायता के लिये बहुत ही कृतज्ञ अनुभव करती है स्वयम्‌ को सौर्य के प्रति...धीरे-धीरे सुहासिनी अध्ययन के लिये सौर्य पर ही निर्भर हो जाती है...दोनों प्रायः प्रत्येक ही दिन मिलने लगते हैं....दोनों की मित्रता बढती ही जाती है...दोनों मन से एक-दूसरे के निकट आते चले जा रहे हैं...पर किसी को सौर्य की प्रसिद्धि खल रही है...

"हलो सौर्य, कैसे हो...?"

"अच्छा हूं कृमि.... तुम अपनी बताओ..."

"यहां की युवतियां तो तुम्हारी प्रशंसा के पुष्प बिखेरती थकती नहीं...यदि क्लास अटेण्ड करना हो, तो हमें ऐसे ही पुष्पों से भरे मार्गों पर से गुजरना पडता है..."

"नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है...जिसे जिससे सहायता मिलती है वह उसकी प्रशंसा करता ही है...नहीं तो कौन किसकी यहां व्यर्थ में प्रशंसा करता है...?"

"ओ हो...तो तुम यह कहना इच्छते हो कि तुम प्रशंसा के योग्य हो ही...?"

"जाने भी दो इस बात को...क्यों इस बात के पीछे पडे हो...?"

"इसलिये....कि इसका कारण यह है कि...वैसे ये बताओ...तुम्हारे सम्बन्ध में सुना है कि तुम्हें सभी पुस्तकों की पर्याप्त जानकारी है...तुमने औलरेडी सभी पुस्तकों का गहरा अध्ययन कर रखा है...?"
"हूं..."
"तब तुम्हें यहां आने की आवश्यकता ही क्या है....! जिन्हें नहीं आता है वे यहां आते हैं पढने..."

"तुम कहना क्या इच्छते हो...? मैं यहां आना छोड दूं....?"

"आओ...मैं तुम्हें कैसे रोक सकता हूं यहां आने से...? पर प्राइवेट ष्टूडेण्ट के रूप में भी तो तुम परीक्षा दे सकते थे....तब तुम्हें रेगुलर क्लास अटेण्ड करने की आवश्यकता नहीं पडती...पर तब भी तुमने रेगुलर एड्मिशन लिया...?"
"यह आवश्यक नहीं कि मैं तुम्हारे सभी प्रश्नों के उत्तर दूं...वैसे मुझे प्राइवेट एड्मिशन के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं है..."

कृमि क्रोध में वहां से चल देता है...सामने से सुहासिनी आ रही है...वह कृमि को ’हलो’ कहती है...

"हाय सुहासिनी, अभी क्लास आरम्भ होने में पन्द्रह मिनट शेष हैं...तबतक चलो चाय पीते हैं..."

"सौरी कृमि, मुझे अभी सौर्य से मिलना है....इस पन्द्रह मिनट में कुछ अध्ययन का कार्य हो जायेगा..." कहती वह सौर्य के समीप पहुंचती है...

"ये कृमि से तुम्हारा परिचय है...?"

"कृमि हमारे प्रथम वर्ष का सबसे छाया हुआ ष्टूडेण्ट रहा है....सबसे इसका परिचय है....इस वर्ष तुम छाये हो..."

"मेबी यही कारण है कि इसे मेरा यहां आना अच्छा नहीं लग रहा है..."

"ईर्ष्या हो रही होगी तुम्हारे महत्त्व को देखकर..."

"हूं...वैसे कृमि का फैमिली बैकग्राउण्ड क्या है...?"

"कृमि के पिता राजनीति में नेता हैं...कभी विधायक भी रहे थे...इससे यह भी रौब रखता है..."

"चलो, अभी चल चाय पीया जाये...क्योंकि इसने मेरा मूड अप्रसन्न कर दिया है...."

दोनों कैण्टीन में बैठे चाय पी रहे हैं कि कृमि वहां से गुजरता है...वह उन दोनों को चाय पीता देख और भी क्रुद्‍ध हो जाता है...

 

एक मास पश्चात्‌ सौर्य का जन्मदिन आता है...वह यूनिवर्सिटी में तो सबको खिलाता-पिलाता है ही, संग ही ले चलता है सबको एक पिकनिक स्पौट पर...वहां प्रसन्नकृमि-सुहासिनी० छात्र-छात्रायें एसी बस से जाते हैं...खाते-पीते, गीत गाते, मनोरंजन करते हैं...इस दिन कोई चालीस-पचास सहस्र रुपये व्यय करता है सौर्य इन सबों पर....कृमि का माइण्ड काम कर रहा है सौर्य के विरुद्‍ध सोचने में कि जिस प्रकार से सौर्य धन व्यय कर रहा है उससे यह बहुत धनी लगता है...कोई डोनेशन देना हो या फिल्म देखने जाना हो या और कोई काम हो, सौर्य मुक्तहस्त से धन व्यय करता है...यह देख कृमि उसके सम्बन्ध में छानबीन आरम्भ करता है...उसकी यूनिवर्सिटी औफिसेज में अन्दर तक पहुंच है...वह सौर्य का सारा विवरण निकलवाता है...उसके आवास का फोन नं. देख वहां डायल करता है-"हलो...मैं यूनिवर्सिटी से बोल रहा हूं....साधारण-सी बात है...डिटेल्स वेरिफिकेशन...ये सौर्य के पिता क्या करते हैं...परिवार की वार्षिक आय क्या है...." आदि पूछकर वह जाना कि सौर्य का परिवार साधारण धनी है...और इतने सारे रुपये पार्टी आदि पर व्यय करना उनके लिये कोई बडी बात नहीं है...इससे उसका शत्रुता से भरा मस्तिष्क कुछ क्षणों के लिये कुछ शान्त पडा....पर अब भी वह स्वयम्‌ को सौर्य से बहुत इन्फीरियर अनुभव कर रहा था...सौर्य जैसे कांटा बना हुआ था उसके लिये पुष्पों के मध्य...कृमि ने अबतक अपने रौब से पांच-छः फीमेल क्लास्मेट्स को खिला-पिला-घुमा संग उनके यौन सम्बन्ध बना लिया था...और सुहासिनी-कृमि अन्य पर उसकी दृष्टि थी पर वे पकड में आ नहीं रही थीं...सुहासिनी भी उनमें एक थी...सुहासिनी उससे केवल ’हाय, हलो’ कह निकल जाती थी जबकि कृमि उसके प्रति इतना अधिक आकर्षित था कि उससे विवाह करने को भी रेडी था...पर सुहासिनी को सौर्य के संग हंस-हंसकर बातें करता और घूमता देख मानो उसका हृदय जल रहा था...

 

एक दिन सौर्य इण्टरनेट सर्फ कर रहा था कि उसे राघवेन्द्र कश्यप की वेब्साइट का स्मरण हुआ और उसे देखा...वहां नया एक ज्योतिषीय लेख और एक कथा प्रकाशित हुए थे....सौर्य की रुचि ज्यौतिष में बढी और उसने अपनी कुण्डली राघवेन्द्र से दिखलवाने का विचार किया...उसने राघवेन्द्र को फोन किया और अपनी इच्छा बतायी...राघवेन्द्र ने उसे अगले दिन प्रसन्न बजे आने का समय दे दिया...अगले दिन सौर्य यूनिवर्सिटी से देव बजे शीघ्र निकलने को हुआ कि सुहासिनी ने उससे शीघ्रता का कारण पूछा...

"अपनी कुण्डली दिखलानी है...भविष्य की जानकारी लेनी है..."

"कौन है ऐसा भविष्य बतानेवाला....मैं अपना भी भविष्य जानुं..."

"हां हां तुम भी अपना भविष्य जान सकती हो...कुण्डली दिखा सकती हो..."

"पर, मेरी कुण्डली कहां है...?"

"केवल जन्म दिनांक, समय, और स्थान की जानकारी दो, तुम्हारी कुण्डली बन जायेगी...यदि नहीं जानती हो तो आवास फोन कर पूछ लो..."

सुहासिनी आवास फोन कर जानकारी ले लेती है...तत्पश्चात्‌ सौर्य की कार से वह भी राघवेन्द्र कश्यप के आवास पहुंचती है...राघवेन्द्र दोनों की कुण्डलियां कम्प्यूटर पर बना बताते हैं -"दोनों ही की कुण्डलियां भाग्यशालिनी हैं....सुख-समृद्धि से जीवन बीतेगा...लग्न और चन्द्रराशि का मेल है तथा सप्तम भाव सुखद हैं दोनों के...बडे प्रेम से तुम दोनों आजीवन रहोगे...."

दोनों यह सुन चुप रहे...कुछ और भी बातें हुईं, तत्पश्चात्‌ लौट चले, पर दोनों ही अब एक-दूसरे के प्रति अधिक आकर्षण अनुभव कर रहे थे....एक-दूसरे से विवाह करने के सम्बन्ध में भी विचार कर रहे थे मन ही मन...अगले दिन यूनिवर्सिटी में बेंच पर बैठे सौर्य ने सुहासिनी के मन को पढते हुए पूछा -"सुहासिनी, तुम्हारा क्या विचार है....जो राघवेन्द्र ने हमदोनों के विवाह के सम्बन्ध में कहा....?"

"हां..." सुहासिनी ने कुछ सम्भलते हुए कहा..."पर तुम पहले लेक्चरशिप पा लो...तब..."

"पर इसकी कोई निश्चितता है नहीं कि वह मुझे कब मिलेगा, जबकि मैं शीघ्र ही इच्छता हूं...क्योंकि एक बार जो बात मन में आ जाती है वह तबतक खटकती रहती है जबतक कि वह पूरी हो जाये..."

"तो कुछ और करो...मैं तुम्हें अपने पैरों पर खडा देखना इच्छती हूं..."

"हूं...इसका अर्थ यह हुआ कि अब एम ए देव की परीक्षा के पश्चात्‌ ही कोई बात बन पायेगी...."

अगले दिन दोनों यूनिवर्सिटी गार्डेन में बैठे हैं...अब सौर्य का हाथ सुहासिनी के कन्धे पर पहुंच गया था...संयोग से कृमि उधर से ही गुजर रहा था और उसकी दृष्टि उनदोनों पर पडी....उसे मानो करेण्ट लगा यह दृश्य देखकर....वह शीघ्रता से उनदोनों की ओर बढा...

"ये उद्‍यान में कोई विशेष क्लास चल रहा जान पडता है...?"

सुहासिनी कुछ चिन्तित हुई पर सौर्य सम्भलकर बोला - "हां....बीस-इक्कीस दिनों पश्चात्‌ सुहासिनी का जन्मदिन है...हम उसे सेलिब्रेट करने का प्लान बना रहे हैं...." सौर्य को सुहासिनी के जन्मदिन की जानकारी उसके जन्मविवरण से मिल गयी थी...

"ओ हो...तब तो बधायी हो...एड्वांस में...अभी क्लास चल रहे क्या...समय होने जा रहा है...?"

"हां, हम अभी आ रहे हैं...कुछ समय में..." कृमि चला जाता है....

 

सुहासिनी का बर्थ डे सेलिब्रेट किया जा रहा है...सौर्य के अनुरोध पर ’समोसा’ से समोसे भी फूड-आइटम्स में मंगवाये गये हैं...प्रसन्नता का वातावरण प्रसरा (फैला) है....बडे स्क्रीन पर एक फिल्म चल रही है...जो इच्छे जबतक देख सकते...अभी एक गाना चल रहा है - ’लाख घूंघट तेरे कारण, तेरे कारण, तेरे कारण....तू है रूप नगर की चान्दनी, मेरे आंगन, मेरे आंगन...’ सौर्य उसे चालीस सहस्र (हजार) रुपये का स्वर्णहार भेंट करता है....यह देख कृमि का मन तप रहा है...वह सोचता है कि अब तो सुहासिनी गयी उसके हाथ से...

आज यूनिवर्सिटी का वार्षिक उत्सव है...ष्टूडेण्ट्स और उनके गार्डियन्स दोनों ही बुलाये गये हैं...शिक्षक और अभिभावक दोनों परस्पर  बातचीत भी कर रहे हैं...एक प्रोफेसर से सौर्य के पिता बात कर रहे हैं...कृमि विशेषकर सौर्य के पिता के समीप है कुछ रहस्य जान पाये....प्रोफेसर ने सौर्य की बहुत प्रशंसा की और कहा कि सौर्य शीघ्र ही लेक्चरर बन अपने पैरों पर खडा हो जायेगा...कृमि तुरत बोल पडा -"हां अंकल...और ये इतने- सहस्रों रुपये जो हमलोगों पर व्यय कर रहा है वह भी आपसे लेना अब बन्द कर देगा..."

"वह तो उसने इस सत्र के आरम्भ से ही उसने बन्द कर दिया है...वह इतना मेधावी है...अपनी इन्कम से ही अब व्यय कर रहा है..."

’हं’ कृमि की आंखें प्रसरीं...’इतने रुपये वह ला कहां से रहा है...!’ "अंकल, आपने पहले ही लाखों रुपये उसे दे रखे होंगे...?"

" नहीं...न उसने आवश्यकता से अधिक रुपये मुझसे मांगे, न मैंने स्वयम्‌ स्वेच्छा से उसे दिये..."

कृमि ने तुरत सभी ष्टूडेण्ट्स से पूछना आरम्भ किया यदि कोई रुपये दे पढता हो सौर्य से, पर किसी भी ने रुपये देना स्वीकार न किया, और न ही किसी को जानकारी है कि सौर्य कही और से कुछ धनार्जन करता है...कृमि ने अच्छा अवसर हाथ लगता पाया...उसने एक पालतु इंस्पेक्टर से बात की जो उसके नेता पिता का चमचा था...-"सौर्य का अवश्य कोई क्रिमिनल लिंक है जहां से उसे लाखों रुपये प्राप्त हुए हैं...मैंने जानकारी ली उसके बैंक अकाउण्ट में दो लाख रुपये हैं, तथा एक लाख रुपये वह इन दिनों व्यय कर चुका है....और भी कैश होंगे उसके पास..."

"पर तीन-चार लाख रुपयों के लिये हम उसके विरुद्‍ध कोई कार्यवाही नहीं कर सकते...क्योंकि आज उसके पिता कह रहे हैं कि उनने उसे कोई रुपये नहीं दिये, पर उसे फंसता देख वह कह दे सकते हैं कि उनने उसे रुपये दिये, और तब हम कुछ नहीं कर पायेंगे, क्योंकि उसके पिता इतने धनी हैं कि उसे इतने रुपये दे सकें..."

"तब भी, हम यह जान तो चुके हैं कि उसके पास अवैध उपायों से प्राप्त धन है...तो उन अवैध उपायों को ज्ञात करने का कोई उपाय तो किया जा सकता है...!"

"क्या उपाय किया जा सकता है...?"

"उसके पीछे गुप्तचर लगा दिये जा सकते हैं....उसके फोन कौल्स रिकौर्ड किये जा सकते हैं...आदि आदि...जिससे यह जानकारी मिल सके कि उसके पास लाखों रुपये आये कहां से...!"

"यहां कितने मन्त्रियों और मुख्यमन्त्रियों के पास करोडों की सम्पत्ति है जो उनके चुनाव जीतने से पूर्व उनके पास नहीं थी...कोई क्यों नहीं जांच करता उनके विरुद्‍ध...? और जांच होने का कोई अर्थ भी नहीं है क्योंकि जांच चलती रहती वर्षों वर्ष और वे अपने पद पर सुरक्षित बने रहते हैं अपनी सम्पत्ति के संग...!"

"पर मैं इसका पीछा करवाना इच्छता हूं...क्या जाने इसका कोई टेररिष्ट या ड्रग-पेडलर लिंक निकल आये...?"

"यदि तुम्हारी इतनी प्रबल इच्छा है तो मैं गुप्तचर विभाग से बात करता हूं..."

 

कृमि वहां से बाहर निकलता है...एक मोबाइल कम्पनी वायुवार्ता के सीनियर कष्टमर केयर एग्जीक्यूटिव से बात करता है...वह उसे वहां औफिस में बुलाता है...कृमि वहां पहुंचता है -"फ्रेण्ड कैसे हो...?"

"वेल...कहो कैसे स्मरण किया....कोई समस्या हो तो बताओ...?"

"समस्या तो कोई सुलझेगी बाद में, अभी एक व्यक्ति के कौल्स रिकार्ड करने हैं...."

"हो जायेगा...कैसा व्यक्ति है यह...क्या करता है...?"

"इसके संग लाखों रुपये हैं, पर आये कहां से यह ज्ञात करना है...मेरी इच्छा तो इसके पीछे गुप्तचर भी लगा देने की है, पर..."

"गुप्तचर...! देखो, इसके मोबाइल से हम सुनते रहेंगे जहां कहीं भी यह जायेगा और जो भी बात जिस किसी से करेगा....संग ही कैमरे इसके आवास में लगा दिये जा सकते हैं...हमारे कैमरे इतने सूक्ष्म हैं कि दीवाल पर कहां लगे हैं जान पाना बहुत कठिन है...ये सैटेलाइट से जुडे होते हैं तथा बहुत ही स्पष्ट चित्र और वीडियो रिकार्डिंग देते हैं...जूम पावर द्वारा बहुत छोटे कागज की भी स्पष्ट फोटोग्राफी हो जाती है.... पर इसके लिये पुलिस या गुप्तचर विभाग या नेता-मन्त्री किसी का आदेश या अनुरोध लाना होगा...यह अपनी सुरक्षा के लिये होता है अन्यथा विना आदेश-अनुरोध के भी हम लगा दे सकते हैं जहां हमारी इच्छा हो..."

 

कृमि उस इंस्पेक्टर से इस काम के लिये अनुरोध करवा देता है कि सौर्य का कोई टेररिष्ट या ड्रग-पेडलर लिंक है इस कारण कैमरे उसके आवास में इंषटाल्ड कर दिये जायें जिससे अपराधी पकडे जा सकें...पर इसके लिये वायुवार्ता को कभी अवसर नहीं मिल रहा कि वे सौर्य के आवास में जा कैमरे फिट कर सकें....सदा कोई-कोई अवश्य उसके आवास में रहता है....जबकि फोन से सुन जान कर कि आवास में वायुवार्ता वाले किसी आवास को जा वहां लगे ताले की डुप्लिकेट चाभी तुरत वहीं बना अन्दर प्रवेश करते हैं और सारा काम पूरा कर पुनः ताले ऐसे लगा बाहर आ जाते हैं कि कोई यह क्लेम नहीं कर सकता कि अन्दर कोई घुसा था...वह एग्जिक्यूटिव गोडबोले यह समस्या बताता है कृमि को कि सौर्य का आवास कभी भी रिक्त मिल नहीं रहा कि वे प्रवेश कर सकें...यदि सौर्य कहीं एकाकी (अकेला) रह रहा होता तो यह काम बडी सरलता से हो जाता...तब कृमि सौर्य के पिता को फोन कर सौर्य के विरुद्‍ध प्रेरणा देता है कि सौर्य के पास अज्ञात स्रोत से प्राप्त लाखों रुपये हैं, अतः उसे कहें कि वह कहीं बाहर फ्लैट लेकर रहे...सौर्य के पिता जब सौर्य से पूछताछ करते हैं तो सौर्य कुछ भी सन्तोषजनक उत्तर नहीं दे पाता है...ऐसे में उसके पिता परामर्श प्राप्त बात दुहरा देते हैं कि वह कहीं बाहर फ्लैट लेकर रहे...सौर्य मान जाता है और शीघ्र ही एक फ्लैट किराये पर ले वह वहां रहने चला जाता है....वायुवार्ता के संग अब कई घण्टों का अवसर है कि वे सौर्य के यूनिवर्सिटी गये हुए होने पर उसके फ्लैट के लौक की डुप्लिकेट चाभी बना उसमें प्रवेश कर कैमरे इन्ष्टाल कर दें...वे ऐसा ही करते हैं और पुनः लौक द्वार पर लगा लौट जाते हैं...जब वायुवार्ता के एग्जीक्यूटिव्स कैमरे इन्ष्टाल्ड करने आये थे सौर्य के फ्लैट में तो उन्होंने वहां कुछ सहस्र रुपये कैश पाये थे, पर उनमें कृमि का माइण्ड काम कर रहा था जो सौर्य का जीवन ही छीन लेना इच्छता था,अतः वे रुपये चुराये विना केवल कैमरे इन्ष्टाल्ड कर लौट आये....अब सौर्य निज फ्लैट में क्या कर रहा है और क्या नहीं यह सब देखा-सुना-रिकार्ड किया जा सकता है...कृमि भी अपने लैप्टौप पर इण्टर्नेट कनेक्शन के माध्यम से सौर्य के फ्लैट के अन्दर सबकुछ वैसे ही देख-सुन-रिकार्ड कर सकता  है....कृमि अपनी इस विजय पर बहुत प्रसन्न है...अब वह दिनरात सौर्य के मोबाइल फोन और कैमरों के माध्यम से उसकी सारी गतिविधियों को ध्यान से सुनता-देखता और आवश्यकता पडने पर रिकार्ड भी करता रहता है...उसका मुख्य उद्‍देश्य सौर्य को जीवन को नष्ट कर देना तथा सुहासिनी को उससे छीन लेना है....कृमि ने सौर्य के विरुद्‍ध कार्यवाही के कारण बहुत अच्छे बताये पर उसके इण्टेन्शन्स बहुत ही बैड हैं...

 

सौर्य और सुहासिनी अब खुलकर प्रेम कर रहे हैं और गीत गा रहे हैं उद्‍यानों में, मार्गों पर, विश्वविद्यालय में, सर्वत्र....पर उन्हें जानकारी नहीं है कि उनके मोबाइल्स से उनकी बातें सुनी जा रही हैं...आज सुहासिनी प्रथम बार सौर्य के इस नये आवास में आयी...दोनों बातें कर रहे हैं...सुहासिनी यूरिनल जाती है...टाय्लेट के अन्दर उसे लगता है कोई उसे देख रहा है...वह सावधानी से वहां से लौट आती है....वह यह बात बताती है सौर्य को...सौर्य हंसता है...और वह कहता है कि वह भूतों में विश्वास नहीं करता, न ही उसने कभी भूत देखा है...अगले दिन दोनों यूनिवर्सिटी में बैठे बातें कर रहे हैं....तभी कृमि किसी के संग बात करता वहां से गुजरता है...वह कह रहा है - "भई मुझे एक प्रेमिका ऐसी मिल जाये जिसके संग मैं ए वी पार्क, रौयल गार्डेन, सेमिनार, एम हिल्स न जाने कितने ही स्थानों पर प्रेम से भ्रमण करुं और आनन्द मनाउं...काश ऐसा मेरा भाग्य हो...." वह तो ऐसा कहता वहां से चला गया पर सौर्य और सुहासिनी को आश्चर्य चकित छोड गया कि उसे कैसे ज्ञात हुआ वे दोनों इन स्थानों पर कल गये थे...

"कल तुम्हें लगा कि कोई टाय्लेट में देख रहा था, आज कृमि को उन सभी स्थानों की जानकारी है जहां हम कल गये थे...एक स्थान पर वह या कोई अन्य देख ले सकता है, पर सभी स्थानों पर कैसे...!" सौर्य का मन चिन्तित हुआ...

"कुछ तो रहस्य की बात है...हां...सम्भव है हमारे मोबाइल फोन्स से उसे हमारे लोकेशन की जानकारी मिल रही हो...कृमि की मोबाइल कम्पनी में भी पहुंच हो..."

"राइट...यही कारण है...पर टाय्लेट में...हो सकता है मन का भ्रम हो...पर मेरा मन कह रहा है कि मैं अब सावधान रहुं..."

दोनों जितनी प्रसन्नता से जी रहे हैं उतनी चिन्ता से जी रहा है कृमि....वह किसी भी प्रकार सुहासिनी को सौर्य के जीवन से निकाल स्वयम्‌ उससे विवाह कर लेना इच्छता है...

एक दिन दोनों बैठे बातें कर रहे हैं..."सुहासिनी, जीवन में सुखपूर्वक जीने के लिये किस प्रकार की जीवनशैली होनी चाहिये...तुम्हारी दृष्टि में...?"

"सबसे प्रथम तो ईर्ष्या और द्वेष न रहें मन में...क्योंकि इनके रहते सारे सुख निष्प्रभावी हो जाते हैं...जैसे सूर्य को मेघों ने घेर लिया हो..."

"अरे वाह...तुम इतनी बुद्धिमती हो इसकी तो मुझे जानकारी नहीं थी..." तभी उसे लगता है किसी को उनकी बातें अच्छी नहीं लग रही हैं...वह सिर घुमा इधर-उधर देखा पर उनके निकट कोई नहीं था...

"क्या हुआ...कोई समस्या....?"

"अभी मुझे लगा कि कोई हमारी बातें सुन रहा है पर दिख तो कोई नहीं रहा यहां..."

"वहां मुझे सन्देह हुआ था यहां तुम्हें हो रहा है..." सुहासिनी मुस्कुरायी...

"कुछ गडबड तो है...सन्देह यूं व्यर्थ में नहीं हो रहे हैं..."

एक दिन सौर्य मोबाइल पर सुहासिनी से बातें कर रहा है तो लगता है कोई उन दोनों की बातों को सुन रहा है...वह अपने निकट किसी भी को नहीं पाता है तो सुहासिनी से पूछता है कि कोई उसकी बातों को सुन रहा है क्या, तो वह भी न कहती है...सौर्य यूनिवर्सिटी जा रहा है तब भी उसे ऐसा लगता है कि कोई उसका पीछा कर रहा है या उसकी सारी गतिविधियों को जान रहा है कि वह कहां-कहां जा रहा है...उसका सन्देह गहराने लगता है कि कोई न केवल उसके फोन कौल्स को ही सुनते रहता है अपितु मोबाइल के निकट होनेवाली बातों को तथा उसके वर्तमान स्थान को भी जानता रहता है...वह अब पूरा सावधान हो जाता है....कहीं टौयलेट में कोई कैमरा तो फिट नहीं...? यदि वहां होगा तो दोनों कक्षों और किचेन में भी कैमरे हो सकते हैं...! ओह्‌ नो...ये कौन करवा सकता है....? एक कृमि तो है मुझसे जलनेवाला...इतर तो कोई नहीं दिखता....कहीं किसी ने चोरी से अन्दर घुस मेरा हीरा चुरा तो नहीं लिया...! यह आशंका उसके मन में उभरती है....वह उस चित्र को उतारता है....चित्र के पीछे का कील निकालता है...उस छेद से अब हीरे का पीस  खींच निकालता है...वह उसे पा प्रसन्न हो जाता है...कुछ समय तक हाथ में लिये रहता है...भावी जीवन के सुखद दृश्यों को मन में देख रहा है...पुनः उस हीरे को उस छेद डालने से पूर्व कुछ समय तक वह अपने साथ रखना इच्छता है कि हीरे का क्या अच्छा ज्योतिषीय प्रभाव उसपर पडता है...वह जूते पहन रेडी हो लाइट औफ कर बाहर निकलने वाला है कि बाहर द्वार पर नौक होता है... वह कैट्स आई से झांककर बाहर देखता है तो यह क्या...! पुलिस....? उसने तुरत हीरे को अपने तलवे के नीचे रख जूते पहन लिये...उसकी सारी गतिविधियां कैमरे से देखी और रिकार्ड की जा रही थी यह आशंका उसके मन में आ गयी...वस्तुतः उसकी सारी गतिविधियां देखी जा रही थीं और कृमि को इससे अधिक अच्छा अवसर कब मिलता...उसने तुरत पुलिस से कहा कि वे सौर्य के आवास पर छापा मारें, हीरे उसके पास होने की रिकार्डिंग उसके संग उपलब्ध है....पुलिस तुरत वहां पहुंची...जैसे ही पुलिस ने सौर्य के द्‍वार पर नौक किया उस समय सौर्य लाइट औफ कर बाहर निकलने ही वाला था....अतः विना विलम्ब किये आशुबुद्धि से सौर्य ने हीरे को जूते में डाल पुनः जूता पहन द्वार खोला....

"हमलोगों को गुप्त सूचना मिली है कि यहां चोरी या तस्करी की वस्तुयें रखी हैं....अतः आपका फ्लैट सर्च करना होगा...हां...हमारे पास विश्वसनीय प्रमाण हैं इस बात के, तभी हम यहां आये हैं...." वीडियो रिकार्डिंग के बल पर पुलिस ने कहा...

’यहां कैमरे फिट हैं...जिससे इन्होंने मुझे हीरा निकालता देखा, पर जूते में रखते नहीं देखा होगा क्योंकि तब यहां अन्धेरा था... ’ सौर्य का सन्देह अब विश्वास में परिणत हो चुका था...

पुलिस वाले पूरे फ्लैट में घुमा रहे हैं पर डायमण्ड-पीस को कहां से निकालें यह उनकी समझ में नहीं आ रहा है....वे कुछ समय तक इधर - उधर सर्च करते रहते हैं पर हीरे को किस छेद या वस्तु में छिपा रखा है यह अभी तक वे सोच रहे थे...तभी सौर्य के मस्तिष्क ने काम किया..."मैं अभी समोसे लाने जा रहा था....यदि आपकी अनुमति हो तो मैं ले आउं..."

"नहीं...सर्च पूरा होने पर्यन्त आप कहीं नहीं जायेंगे..."

"पर...ऐट्‍ लीष्ट यूरिनल तो जाने दें....या वह भी मुझे यहीं...?"

एक पुलिस्मैन के संग सौर्य को टौयलेट जाने दिया जाता है...टौयलेट में घुस वह तुरत देव को फोन करता है...यद्‍यपि उसकी कौल सुन लिये जाने का भय है पर वह रिस्क लेता है....उसका यह रिस्क उसके लिये बहुत लाभदायक सिद्‍ध होता है क्योंकि वायुवार्ता के लोग और कृमि सभी अन्दर के दृश्य को देखने-सुनने में लगे हैं, मोबाइल कौल पर किसी का ध्यान नहीं है...सौर्य सारा प्लान देव को समझा देता है...अभी पन्द्रह मिनट बीते थे कि देव बाइक से वहां आ पहुंचा...पर पुलिसवाले उसे अन्दर आने से मना करते हैं...

"देव, तुम अन्दर नहीं आ सकते तो मत आओ, पर प्लीज मेरा एक छोटा-सा काम कर दो...वह यह कि समोसे लेते आओ...मुझे खाने की बडी इच्छा है...इंस्पेक्टर, यदि आप कहें तो आपलोगोंके लिये भी मंगवा दूं...थक रहे होंगे, या थक जायेंगे अभी कुछ ही समय में...?"
"तो चाय भी साथ में मंगवाओ..."

"देव, ऐसा ही कुछ करो...." सौर्य उसे पांच सौ रुपये का नोट देता है...

आधे घण्टे पश्चात्‌ देव लौट आता है...एक-एक कागजी प्लेट में दो-दो समोसे रख सौर्य सभी को परोसता है...देव द्वार पर ही खडा है...चाय नहीं आ पायी...कोई बात नहीं...एक चायवाले को फोन कर वह अभी मंगवा दे सकता है....तब सौर्य आराम से जूते खोल सोफे पर बैठ समोसा खाना आरम्भ करता है....समोसे का कुछ टुकडा उसके जूते में गिर जाता है...वह उसे बाहर निकालता है...यह क्या विचित्र स्वाद है समोसे का...! इतना कडवा कि खाना सम्भव नहीं है...वह एक कागज पर शेष समोसे को रखता है और लपेटकर लायी गयी थैली में ही उसे फेंक डालता है....पुलिस वाले भी थू-थू करने लगे...सौर्य तुरत सभी के समोसे उस थैली में रख देव को देता और कहता है कि यह क्या ले आये...प्लीज इसे ले जा कूडे-कचरे में डाल दो...और कुछ नहीं चाहिये खाने को...देव उस थैली को ले वहां से चला जाता है...इसके पश्चात्‌ पुलिस्वाले घण्टे-दो घण्टे पर्यन्त सौर्य के फ्लैट को, और अन्ततः सौर्य को भी सर्च करते हैं पर हीरे का पीस कहीं से भी नहीं निकला...कुछ सहस्र (हजार) रुपये मिले जो सौर्य के परिवार की आर्थिक समृद्धि के समक्ष कुछ भी नहीं थे...अतः हारकर ’सौरी’ कह पुलिसवाले वहां से चले गये....

कृमि इस सारे दृश्य को देख-सुन रहा है...वह अतिक्रुद्‍ध होने लगता है कि जब हीरा कैमरे से स्पष्ट देखा गया है तो मिनट भर में सौर्य ने उसे कहां छुपा दिया...कहीं निगल तो नहीं गया...? यह बात तो उसके मन में तब आयी ही नहीं...पर अब क्या हो सकता था...! कृमि इस असफलता से आंखें लाल किये है...

 

सौर्य अपना मोबाइल स्विच्ड औफ कर देता है...और आराम कर दो-तीन घण्टे पश्चात्‌ कार से देव के आवास पहुंचता है...कार उसके पिता के द्‍वारा गिफ्टेड थी जिसे वह अपने संग ही लेता आया था...देव प्लान के अनुसार बहुत ही कडवे समोसे बनवा लाया था जिनमें से खाये जा रहे एक समोसे में सौर्य ने चुपके से हीरा डाल थैली में फेंक दिया था...जूते से समोसे के टुकडे निकालते समय वह हीरे को भी संग ही निकाल लिया था...देव बाहर कूडे में समोसों को फेंकने के स्थान पर अपने आवास लेते गया...वहां हीरे का पीस बाहर निकाल शेष को कूडे में डाल देता है...सौर्य देव को कैमरा फिट होने, मोबाइल से सुने जाने आदि की सारी बातें बताता है...सावधानी बरतते वह देव के मोबाइल को भी उस समय स्विच्ड औफ रखता है...ऐसी संकट की स्थिति में हीरा पुनः सौर्य निज फ्लैट में रखना नहीं इच्छता है...वह देव पर विश्वास करते हुए उसे कहता है कि वह उस डायमण्ड-पीस को तबतक अपने संग सुरक्षित रखे जबतक कि वह उसके लिये कोई अन्य सुरक्षित स्थान पा लेता है...यदि नहीं मिल सका तो अधिक से अधिक एम ए देव की परीक्षाओं के अन्त पर्यन्त...तत्पश्चात्‌ वह स्वयम्‌ ही मांग लेगा क्योंकि कोई व्यवसाय आरम्भ करना तो है ही...देव बडी सरलता से उस डायमण्ड-पीस को निज संग तबतक सुरक्षित रखने का वचन देता है...

 

समय आशंकाओं के मध्य पर सुहासिनी के संग प्रेमपूर्वक प्रसन्नता से बीत रहा है सौर्य का...देव यूनिवर्सिटी आता है पर सौर्य को सुहासिनी के संग देख उनके समीप नहीं जाता क्योंकि वह उनकी प्रेमवार्ताओं में बाधा नहीं डालना इच्छता है....सौर्य और सुहासिनी दोनों बस से कुछ दूर स्थित एक झील में नाव खेने और भ्रमण का आनन्द लेने जाते हैं...उसने निज मोबाइल को स्विच्ड औफ कर रखा है पर सुहासिनी को भी मोबाइल स्विच्ड औफ करने कहना भूल गया....कृमि सुहासिनी के मोबाइल से सुनते हुए उनदोनों का पीछा करते वहां पहुंच जाता है...दोनों मनोहारी दृश्यों का अवलोकन करते अब झील में नाव खे रहे हैं...सुहासिनी कुछ समय पश्चात्‌ ’अब इतना ही’ कहती है और उतर जाती है बोट से, पर सौर्य एक और चक्कर लगा आने की बात कह पुनः कभी झील मध्य कभी झील किनारे होता नाव ले जा रहा है...झील बहुत ही लम्बी है...एक किनारे से वह गुजर रहा था कि सहसा उसे तीव्र चोट उसके मस्तिष्क पर लगती है और वह अचेत हो पानी में गिर जाता है...कृमि उसकी मृत्यु की पूरी आशा मान तुरत वहां से चला जाता है... तभी एक तैराक की दृष्टि उसपर जाती है और वह पानी के नीचे जा सौर्य को निकाल बाहर ले आता है और एक किनारे रख चला जाता है...सौर्य का शरीर एक साधारण पुष्पों वाली झाडी के नीचे पडा है जिसे लोग देख भी चले जाते हैं यह समझ कि वह आराम कर रहा होगा....सुहासिनी कुछ समय पर्यन्त सौर्य के लौट आने की प्रतीक्षा करती रहती है...जब एक घण्टा बीत जाता है तो वह घबडाने लगती है...आधा घण्टा और बीतने पर वह उसे अन्वेषने (खोजने) निकल जाती है...सभी ओर देख लिया पर सौर्य कहीं नहीं दिखा...सायंकाल निकट आ रहा है... सौर्य का मोबाइल भी स्विच्ड औफ है...कहीं सौर्य यह तो नहीं देख रहा कि सुहासिनी अब कितना चिन्तित होती है...प्रैंक...नहीं...अब वह जा रही है...एकाकिनी (अकेली) ही...यह विचार कर वह उसे कहीं देख पाने की आशा भरी आंखों से देखती लौट जाती है...

 

सायंकाल बीता...रात भी बीत गयी...प्रातःकाल जब सूर्य की किरणें उसके तन पर पडीं तो उसे चेत (होश) आने लगा...उसने आंखें खोल सब ओर देखा...यह पृथिवी है यह बात उसके समझ में आयी पर वह कौन है यह बात उसकी समझ में नहीं आयी....वह स्वयम्‌ को ही अभिजान (पहचान) न पाया...वह धीरे-धीरे उठा, और चलता-चलता बाहर निकला उस झील-परिसर से...बाहर एक बस-ष्टौप पर जा खडा हो गया...एक बस आयी...वह उसमें बैठ गया....कण्डक्टर के पूछने पर कि कहां जाना है उसने कहा जहांतक यह बस उसे ले जाये...अन्तिम ष्टौप का टिकट ले वह बस से बाहर के दृश्यों को देखते रहा....अन्तिम श्टौप पर उतर एक रोड पर चलता-चलता आगे एक गली में घुस गया...अन्दर चलते हुए उसे एक व्यक्ति चिल्लाता हुआ दिखा....-"यह काम मुझ एकाकी के वश का नहीं है...कोई और मुझे संग देनेवाला चाहिये..." सौर्य को उसपर दया आयी...

"क्या बात है...?"

"अरे, मुझे चाहिये कोई सहायता करनेवाला....यदि मिल पाये तो...!"

"चलो, मैं तुम्हारी सहायता करता हूं..."
"तुम....? पर रुपये कितने लोगे...?"

"जितना तुम दोगे..."

"मैं जितना दूंगा...! ठीक है, तो सौ रुपये दिनभर के मिलेंगे..."

दोनों मिलकर काम करते रहते हैं...दोपहर हो जाती है...

"खाने कहां जाओगे...?"

"मैं नहीं जानता कहां भोजन मिलेगा..."

"तो चलो, मेरे संग खा लो...पर तुम्हारे पारिश्रमिक से दस रुपये कट जायेंगे..."

सौर्य हां में सिर हिलाता है...दोनों संग खाते हैं...सायम्‌ वह व्यक्ति सोमनाथ उसे पूरे सौ रुपये दे देता है कि उसने मन लगाकर काम किया है इसलिये वह भोजन के रुपये नहीं काट रहा है...

"कल समय से आ जाना....अभी जाओगे कहां...?"

"मैं नहीं जानता मुझे कहां जाना है..."

"कोई स्थान, आवास, परिवार...?"

"मुझे कुछ भी स्मरण नहीं...मैं कुछ नहीं जानता...मेरा कुछ भी नहीं है..."

"तो यहीं सो लो...कल प्रातः पुनः काम पर लग जाना..."

सौर्य बाहर ही चादर बिछा सोता है...रात में मच्छर काटते हैं पर वह क्या करे...उसकी दृष्टि दूर एक अपार्ट्मेण्ट पर पडती है जहां अन्दर पंखा चल रहा है, बन्द कक्ष है...वह सोचता है काश उसके संग भी ऐसा कोई फ्लैट होता...प्रातःकाल वह स्नान करना इच्छता है पर पानी पर्याप्त स्वच्छ नहीं है...गर्मी का ध्यान रखते हुए वह उसी पानी से स्नान करता है...सोमनाथ उसे कहता है कि यहां वे लोग उसी पानी को पीते भी हैं और इसे स्नान के योग्य भी मानने में तुम्हें शंका हो रही है...सात-आठ दिन इसी प्रकार बीत जाते हैं...एक दोपहर सोमनाथ भोजन बनानेवाले को बहुत डांट रहा है कि वह अच्छे से भोजन नहीं बना रहा है...भाजी आदि अच्छे से धुली नहीं... अपवचन (गालियां) भी देता है....इससे भोजन बनानेवाला बहुत क्रोध में आ जाता है पर चुप रहता है...दीवाल पर उसे एक छिपकली बैठी दिखायी देती है...वह उसे मार उबलती भाजी में डाल देता है...सौर्य अभी उसके संग सहानुभूति कर रहा था कि वह ऐसा उसे करते देख लेता है...वह सोमनाथ को जाकर यह बताता है...सोमनाथ घबडाया आता है और भाजी उतारकर देखता है तो सच में छिपकली उसमें मिली थी...

"पहिले देख लिये, नहीं तो छिपकिली निकाल कर भाजी तुमको हम परोस दिये होते..."

"अर्थात्‌ तुम मेरी हत्या कर देते....?"

"देखो...किसी पर क्रोध दिखाते या हाथ उठाते यह विचार कर लो कि तुम उसे क्या हानि पहुंचा सकते हो और वह तुम्हें क्या हानि पहुंचा सकता है...तुम अपने रुपये के आगे मुझको कुछ नहीं समझे...? सर्वेण्ट पर अपने बल का, अपने धन का अहंकार दिखाना बहुत सरल है...तुम उसका रुपया मार ले सकते हो...पर वह तुम्हें कितनी हानि पहुंचा सकता है इसका तुमको अनुमान नहीं...क्योंकि तुम उसके विश्वास पर ही जीते हो...वह तुम्हारे लिये चाय, भोजन, औषधि, आदि सबकुछ लाता है...एक में भी यदि विष मिला दिया तो मारे जाओगे तुम सबके सब....वह आवास के कई रहस्यों को भी जानता है...वह तुम सबके सोये में सबको मौत के घाट उतार दे सकता है...वह तुम्हारे धन को लूट भाग जा सकता है...जबकि उसके हाथ से यदि सौ-पचास रुपये की भी हानि भूल से हो जाये तो तुम उसके संग कुत्ते जैसा व्यवहार करते हो...

एक चुटकुला सुनो...टीवी पर सुना था...

"रामु...मैंने तुम्हें अबतक बहुत डांटा-फटकारा...अब मैं तुम्हें अपने पुत्र जैसा प्यार दूंगा...बडी भूल हुई मुझसे..."

"मालिक, मैं भी अब...."

"हां हां बोलो... अब...?"

"मैं भी अब आपको थूक मिलाकर चाय कभी नहीं पिलाउंगा...कभी नहीं..."

 

सोमनाथ तुरत उसको वेतन दे उसकी छुट्‍टी कर देता है...अब सोमनाथ और सौर्य मिल भोजन भी बनाते है...सोमनाथ का कहना है कि ऐसा ही पानी पूरी बस्ती में लोग पीते हैं...सो इससे कोई हानि नहीं होगी....सौर्य मन मारकर उसे सहता है...सोने को जहां तहां लेट जाता है...दिनभर काम करना पडता है...उसे समझ में नहीं आता है कि वह क्या करे...एक दिन एक व्यक्ति वहां आता और सोमनाथ से सौर्य के सम्बन्ध में पूछता है...वह कहता है कि उसके अपार्ट्मेण्ट में एक नये वाचमैन की आज ही आवश्यकता आ पडी है...यदि सौर्य इच्छे तो वहां उसे वह वाचमैन बनवा दे सकता है...अच्छी सैलरी मिलेगी....

सोमनाथ सौर्य को कहता है कि वहां बैठे-बैठे यहां से कहीं अधिक सैलरी मिलेगी, और यहां अब उतना काम भी नहीं रह गया है...अतः वहां चला जाये काम करने...सौर्य उस व्यक्ति के संग चला जाता है...वह व्यक्ति सौर्य के लिये यूनिफार्म, आवास, आदि सभी आवश्यकताओं की व्यवस्था करता है...सौर्य निर्देशानुसार वाचमैन का कार्य करने लगता है...

 

उधर सुहासिनी प्रतीक्षा कर रही है सौर्य की कि कब वह लौट आयेगा....सौर्य के फ्लैट में अभी भी ताला लगा है...यूनिवर्सिटी में उद्‍यान में एकाकिनी वह पुस्तक पढ समझने का प्रयास कर रही है कि वहां कृमि पहुंचता है...

"हाय सुहासिनी, कैसी हो...?"

"अच्छी हूं..." कह वह पुनः अध्ययन में लगी रहती है...

"मेरे पिता मुझपर विवाह के लिये दबाब डाल रहे हैं, कि उनकी विशाल सम्पत्ति को देखरेख के लिये मेरा मन तभी बनेगा जब मैं विवाह कर लूं..."

सुहासिनी सुन भी अनसुना कर पढती रहती है....

"सुहासिनी, मैं तुम्हें बहुत ही अच्छी स्त्री समझता हूं...इसी कारण तुमसे यहां बात करने आया हूं, नहीं तो स्त्रियां मुझसे बात करने को लालायित रहती हैं...मैं इच्छता हूं कि तुम इस सम्बन्ध में परामर्श दो, मैं अभी पढता ही रहुं या विवाह कर लूं..."

उसके दबाब भरे प्रश्न पर सुहासिनी ने कहा -"तुम्हारे लिये अच्छतर (बेटर) होगा कि तुम विवाह कर लो..."

"वेरी गुड..." वह मुस्कुराया..."पर विवाह के लिये कोई बहुत मन भाने वाली स्त्री भी तो चाहिये...?"

"क्यों...कोई अभी तक जंची नहीं क्या...?"

"एक बहुत प्रिय है...प्रोपोज करुं क्या...?"

"हां....करो..." वह वैसे ही पढती रही...

"तो तुम मुझसे विवाह कर लो..."

"मैं....? तुम जानते हो मैं सौर्य से प्रेम करती हूं और विवाह भी उसीसे करुंगी..."

"पर मरे व्यक्ति कभी लौट कर वापस आते नहीं....उस झील से अभी एक शव भी केवल अस्थियों वाला निकला है..."

"नहीं...मेरा मन स्वीकार नहीं करता...सौर्य अभी जीवित है और लौट आयेगा....भले ही मुझे जीवन भर उसकी प्रतीक्षा करनी पडे...अब तुम जाओ...यह मेरा अन्तिम निर्णय है..."

वह उदासी में विरह-गीत गा रही है....

 

वाच्मैन के रूप में सौर्य को निर्देश है कि वह रजिष्टर् में एण्ट्री किये विना , और सम्बद्‍ध फ्लैट में इण्टरकौम से फोन कर अनुमति लिये विना किसी भी को अन्दर जाने न दे....एक दिन एक व्यक्ति आता है और सौर्य को पांच सौ रुपये दे कहता है कि वह उसे अन्दर जाने दे विना इण्टरकौम से पूछे, उसे कुछ ऐसी ही आवश्यकता है....सौर्य उसे अन्दर जाने देता है....पर सीढियों पर चढते समय एक अन्तः निवासी की दृष्टि में आ जाता है कि यह कोई सन्देहास्पद व्यक्ति है...वह उससे पूछताछ करता है तो वह कुछ भी ढंग से उत्तर नहीं दे पाता है...तब दो-तीन और भी व्यक्ति उसे पकड सौर्य के समीप लाते हैं और उसकी रजिष्टर में एण्ट्री दिखाने को कहते हैं...जब सम्बद्‍ध फ्लैट में फोन करते हैं तो वे बताते हैं कि वाचमैन ने उनसे किसी भी के आने की अनुमति नहीं मांगी है....

तब उनके क्रुद्‍ध मुखों को देख सौर्य बोलता है कि उसे उस व्यक्ति ने पांच सौ रुपये दिये थे, इस कारण उसने उसे जाने दिया...इसने कहा था कि वह विना किसी से मिले अपना कुछ काम कर लौट आयेगा, इसलिये मैंने जाने दिया...

सभी क्रोध करते हुए उस व्यक्ति को बुलाते हैं जिसने सौर्य को काम पर रखा था....उस व्यक्ति ने बताया कि सौर्य ने अपनी स्मृति खो दी है, पर ऐसा भी करेगा इसका उसे अनुमान न था....इसी समय एम ए देव में ही पढने वाली एक छात्रा उस बिल्डिंग में किसी से मिलने आती है...वह सौर्य को देख अभिजान जाती है और तुरत सुहासिनी को फोन कर इसकी सूचना देती है...वह इस बिगडी स्थिति को भी शान्त करती है और सौर्य के सम्बन्ध में उन सबों को बताती है...वे उसे कहते हैं कि वह तुरत सौर्य को वहां से ले जाये...कुछ समय में सुहासिनी वहां पहुंच जाती है, और टैक्सी कर वे दोनों वहां से चले जाते हैं...सुहासिनी सौर्य को उसके फ्लैट में ले जाती है और कहती है कि यह उसी का फ्लैट है, आराम से रहो, कल तुम्हें डौक्टर के समीप ले चलेंगे...सौर्य को अगले दिन हौस्पीटल में एड्मिट कर लिया जाता है...कुछ दिनों में वह स्वस्थ हो जाता है और उसकी स्मृति लौट आती है....सुहासिनी उसका सबसे अधिक ध्यान रखती है....इन घटनाओं में कोई ढाई-तीन मास बीत जाते हैं...

सुहासिनी और सौर्य अब पुनः प्रेमपूर्वक संग-संग पढ रहे और जी रहे हैं...एम ए देव की परीक्षायें समय से आरम्भ हो जाती हैं...सौर्य जहां प्रथम स्थान पाता है वहीं सुहासिनी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो जाती है...दोनों ही प्रसन्न हैं....

 

सौर्य अब कोई व्यवसाय आरम्भ करने को विचारता है...वह देव से बात करता है...

"मित्र, तुमने मेरा हीरा अबतक सुरक्षित रखा, मुझपर बहुत बडा उपकार किया है....अब संग ही तुमसे यह परामर्श चाहिये कि मैं अब कौन सा व्यवसाय किस प्रकार आरम्भ करुं....यह भी दिखाना आवश्यक है कि इतने सारे रुपये मेरे पास आये कहां से...?"

"इस समस्या का समाधान सरल है...तुम प्रसन्न से एक लोन का डाक्युमेण्ट साइन करवा लो...यह डाक्युमेण्ट केवल तुम्हारे पास ही होना चाहिये, उसके पास नहीं...लोन विना ब्याज और विना अवधि का हो, और मित्रता के नाम पर दिया गया...उसके पश्चात्‌ ही किसी व्यवसाय के आरम्भ का विचार करो..."

सौर्य प्रसन्न से मिलने जाता है हीरा लेकर....प्रसन्न सौर्य से मिलता है पर उसे महत्त्व की दृष्टि से नहीं देखता है...सौर्य की बात सुन वह कहता है -"उस समय मैं छात्र रूप में था...प्रथम श्रेणी पाने का क्रेज चढा था मेरे मन पर, सो मैंने पचपन लाख रुपये देना स्वीकार कर लिया....आज के दिनांक में तो मैं व्यावसायिक बुद्धि से किसी को एक लाख भी रुपये न दूं ऐसे काम के लिये....सच पूछो तो उस प्रथम श्रेणी के प्रमाणपत्र का कोई महत्त्व नहीं है मेरे आज के व्यावसायिक जीवन में...तब भी, मैं तुम्हारा यह काम कर देता हूं जैसा तुम कह रहे हो..." वह लोन-डाक्युमेण्ट साइन कर सौर्य को दे देता है...संग ही हीरा ले सैंतालिस लाख रुपये सौर्य के अकाउण्ट में संग्रह करवा देता है...

सौर्य इस डाक्युमेण्ट को खोल कर निज कक्ष में रख देता है कि यदि कोई कैमरा है तो इसे देख-पढ-समझ ले...और ऐसा ही हुआ...इस कारण कृमि सौर्य के अकाउण्ट में सैंतालिस लाख रुपये आये जान भी चुप रहता है...अब व्यवसाय कौन-सा आरम्भ किया जाये....उसने पुस्तक-प्रकाशन का कार्य आरम्भ करने का विचार किया...उसने दो कक्षों का एक औफिस किराये पर लिया और पब्लिकेशन का कार्य आरम्भ किया...उसने शिक्षा के क्षेत्र में तथा अन्य भी अवसर-अनुकूल क्षेत्रों में पुस्तकें प्रकाशित करनी आरम्भ की...उसने शिक्षा के क्षेत्र में  दो-तीन पुस्तकें लिखीं और प्रकाशित कीं जिनकी बहुत आवश्यकता थी शिक्षा-क्षेत्र में...इस कार्य में उसने सुहासिनी से सहायता ली...पुस्तकें अच्छी संख्या में बिक रही थीं...सुहासिनी ने उसका व्यवसाय अच्छा चलता देख उससे विवाह की बात की...

"मैं भी बहुत इच्छुक हूं, पर मन को कुछ आराम मिले इस क्षेत्र में अपना पांव जमा लेने पर...अतः प्लीज...कुछ मास और प्रतीक्षा कर लो..."

सौर्य के आवास में सौर्य और सुहासिनी दोनों हैं...दोनों का मन विवाह करने को बहुत इच्छुक था पर केवल अनुकूल अवसर पाने की प्रतीक्षा कर रहे थे...अतः दोनों ने एक-दूसरे के मध्य कोई दूरी न जानी और सम्भोग रत हो गये...इस समय वे यह भूल गये कि अदृश्य कैमरा यह सम्भोग-दृश्य रिकार्ड कर रहा होगा...कृमि अपना अवसर आया देख रहा था...अगले दिन सौर्य ने जैसे ही मोबाइल औन किया उसके स्क्रीन पर कल के सौर्य और सुहासिनी के सम्भोग का दृश्य चलने लगा...दोनों नंगे तन ही सम्भोग कर रहे थे....तभी वह दृश्य रुका और एक स्वर उभरा -’यह सम्पूर्ण दृश्य हमारे संग उपलब्ध है...यदि इस वीडियो को इण्टरनेट पर अपलोड किये जाने से रोकना इच्छते हो तो दस लाख रुपये दे दो...’

सौर्य ने पुनः मोबाइल औफ कर दिया...उसने देव से मिल इस सम्बन्ध में बात की...

"तुम दोनों यथाशीघ्र विवाह कर लो...पति-पत्नी के सम्भोग की कोई वीडियोग्रैफी कर ले, और उसे पौर्न वेब्साइट पर अपलोडेड कर दे, इन सभी बातों से कोई अन्तर नहीं पडता..." सौर्य विचारमग्न हो जाता है.....

सौर्य विवाह के सम्बन्ध में सुहासिनी से परामर्श करता है...अगले ही दिन विवाह के योग्य दिन जान वे अगले ही दिन विवाह कर लेते, उस फ्लैट को छोड एक नये फ्लैट में शिफ्ट कर जाते हैं...फ्लैट के द्‍वार पर अब वे कम्प्यूटराइज्ड लौक लगाते हैं जिसकी चाभियां लौक देखकर तो नहीं बनायी जा सकती हैं पर चाभियों की डुप्लिकेट बन सकती हैं...अतः वे चाभियां बडी सावधानी से छुपा कर निज संग रखते, तथा लौक खोलते समय भी वे इस बात को ले सावधान रहते कि उनकी अनुपस्थिति में किसी ने यदि द्वार के बाहर कैमरा लगा दिया हो जिससे वे चाभी की फोटो ले डुप्लिकेट चाभी बना ले सकते हैं...

 

सौर्य ने समाचार पत्रों में एक विज्ञापन दिया है कि विभिन्न विषयों पर प्रकाशन के लिये पाण्डुलिपियां आमन्त्रित हैं...एक फिल्म प्रोड्यूसर का फोन आता है उसे, उसकी फिल्मी इतिहास पर लिखी पाण्डुलिपि प्रकाशित करने को...प्रोड्यूसर कहता है कि वह अभी एक नयी फिल्म की शूटिंग आरम्भ करने वाला है...अतः सौर्य आकर मिल ले तो अच्छा रहेगा....सौर्य वहां जाता है...

"ये मेरी पुस्तक-पाण्डुलिपि है -’बौलिवुड के पिछले पचास वर्ष’...पिछले पचास वर्षों में बौलिवुड में क्या हुआ इसका सचित्र विवरण है...संग ही मैंने अपने अभिनीत और निर्मित फिल्मों का भी विवरण दिया है...मैं एक मीडियम लेवेल का प्रोड्यूसर हूं जिसका कई प्रकाशकों से कौण्टैक्ट है...पर आपका विज्ञापन देखकर मेरा मन हुआ कि इस इच्छुक प्रकाशक को ही अवसर दिया जाये..."

"वो तो है...पर मुझे यह सर्वप्रथम देखना है कि वैसी पुस्तक प्रकाशित करुं जो बहुत बिके....इस पाण्डुलिपि में आपकी व्यक्तिगत उपलब्धियां बहुत अधिक हैं जबकि आप उतने प्रसिद्‍ध नहीं हैं..."

"वो तो है...पर मैं अपना रौयल्टी छोड देता हूं...अब आप पुस्तक छापें और बेचें...मैं अपना रौयल्टी भूल जाता हूं...आप मुझे केवल कमप्लिमेण्ट्री कौपीज, ऐट्लीष्ट टेन, भिजवा दें..."

"ठीक है...."

"ये देखें पुस्तक...आप ऐसी ही पुस्तक छपवायें...ष्टैण्डर्ड इससे न्यून नहीं..."

सौर्य एग्रीमेण्ट साइन करा पाण्डुलिपि ले आता है और देव और सुहासिनी को दिखाता है...

"यद्यपि यह प्रोड्यूसर कुछ नाम वाला तो अवश्य है, पर कितने समय में इस पुस्तक की प्रतियां बिकेंगी इसका निश्चित अनुमान नहीं...जबकि इसके प्रकाशन में रुपये बहुत लग जायेंगे...अतः तुम कुछ और लाभ भी पाने का प्रयास करो...."
"कुछ और भी लाभ...?" सौर्य ने देव की ओर जिज्ञासा से देखा...

"हां...तुम कह रहे थे कि वह किसी नयी फिल्म की शूटिंग आरम्भ करने वाला है...सुहासिनी नाटकों में सफल अभिनय करती रही है...वह फिल्म में भी अच्छा प्रदर्शन करेगी..."

सौर्य प्रोड्यूसर से बात करता है फोन पर...

"आपकी पुस्तक प्रकाशित करने के सम्बन्ध में ही योजना बनायी जा रही है..."

"अच्छी बात है..."

"आप कह रहे थे आप किसी नये फिल्म की शूटिंग आरम्भ करने जा रहे हैं...?"

"हां...अगले सप्ताह..."
"किसी नये को सम्मिलित कर सकते फिल्म में...?"

"कौन है...?"

"मेरी पत्नी..."

"अनुभव...?"

"चार-पांच नाटकों में सफल अभिनय किया है जिसकी वीडियो रिकार्डिंग है..."

"अच्छी बात है...तब उन रिकार्डिंग्स के संग कल मध्याह्‌न मेरे औफिस भेज दें...या लेते आयें..."

अगले दिन सौर्य और सुहासिनी कार से वहां पहुंचते हैं...औडिशन में बहुत अच्छा पर्फार्म करती है सुहासिनी...उसे एक अच्छा रोल मिल जाता है...

गोडबोले उनके मोबाइल्स को सुनता इस बात की सूचना कृमि को देता है...कृमि तिलमिला जाता है कि जहां वह उसे डुबा मारने के प्रयासों में लगा है वहीं ये उभरते ही चले जा रहे हैं...उसका शैतानी मस्तिष्क शैतानी योजना बनाने लगता है...

आज भी सुहासिनी की शूटिंग है...सौर्य उसे कार से फिल्म ष्टूडियो छोड पुनः सायंकाल लेने आने की बात कह चला जाता है...सायंकाल इण्डोर शूटिंग औफ हो जाती है...सभी बाहर निकल रहे हैं हौल से...एक स्त्री सुहासिनी से कहती है कि उनके पति अभी कुछ ही समय में आपसे मिलने यहीं आयेंगे, अतः आप यहीं रुकें....सुहासिनी सौर्य को फोन करती है पर सौर्य का मोबाइल स्विच्ड औफ बताया जा रहा है...गोडबोले ने यह व्यवस्था कर रखी है कि यदि सुहासिनी सौर्य के मोबाइल पर कौल करना इच्छे तो सौर्य का मोबाइल स्विच्ड औफ बताया जाये...सुहासिनी को आश्चर्य होता है कि सौर्य ने उसे यह बात न बता किसी और को कही...वह प्रतीक्षा करती इधर-उधर टहल रही है...तभी...

"हाय सुहासिनी, कैसी हो...?"
"तुम....? मैं तो अपने पति की प्रतीक्षा कर रही हूं..."

"मुझे भी तुम अपना पति समझो...मैंने तो तुम्हें कितना पूर्व ही अपनी पत्नी चुन लिया था..."

"सौर्य अभी आ रहे होंगे...वे तुम्हें जीता न छोडेंगे यदि तुम यहां से चले न गये तो..."

"चले जायेंगे...हम चले जायेंगे...और मेरे जाने के पश्चात्‌ ही वे यहां पहुंच पायेंगे...क्योंकि वे जहां भी उपस्थित हैं उनके मार्ग में बाधायें डाल दी जा रही हैं..."

"कैसे जान रहे हो वे कब कहां हैं ...? क्या उनके मोबाइल से...?"

"श्योर..."

"पर उनका मोबाइल तो स्विच्ड औफ है...?"
"ऊं हूं...स्विच्ड औन है...पर यदि कोई फोन करे उसे तो यही सुनायी पडेगा कि स्विच्ड औफ है..."

"पर तुम यहां क्यों, कैसे...?"

"हम तो उडते पंछी हैं, जिसका न कोई ठिकाना है...

आज इस डाल तो कल उस डाल, हमसे ये न पूछो, कब कैसे कहां उड जाना है...."

"क्या बौलिवुड के लिये गीत लिखने लग गये हो....?"

"गीत तो मैं तुम्हारे लिये लिखुंगा...तुम्हारे तन में...अभी...इसी समय..."

"क्या अर्थ...? तुम अभी यहां से चले जाओ...नहीं तो मैं चिल्लाउंगी..."

"कोई सुननेवाला नहीं...न ही किसी ने मुझे यहां आते देखा है...जबसे तुमदोनों का न्यूड सेक्स देखा है तबसे तुम्हारा तन पाने को मेरा मन तरसा है...आज मैं यह प्यास बुझा कर ही रहुंगा..."

"मैं मर जाउंगी...पर तुम्हें मेरे तन को छूने भी न दूंगी..."

"चलेगा...मेरा इण्टेन्शन तुम्हारा रेप कर हत्या कर देने का है...क्योंकि यह सौर्य के लिये मेजर सेटबैक होगा, अन्यथा वह तुम्हारे संग फिल्मों में छा जा सकता है...और यदि तुम स्वयम्‌ ही आत्महत्या करना इच्छो, तो कर सकती हो ...विना रेप भी मुझे तुम्हारा मरना स्वीकार है..."

सुहासिनी भयभीत हो जाती है...वह दौडती है एग्जिट की ओर...कृमि दौड उसे पकड लेता है और उसकी साडी उतारने लगता है...पर पुनः छुडा वह चीखती और भागती है...वह एक अन्धेरे कोने में छिपी खडी है...धीरे से कृमि वहां पहुंच सुहासिनी को पीछे से पकड अपनी बांहों में जकड लेता है...पर इससे पूर्व कि वह उसका बलात्कार आरम्भ कर सके, सौर्य और देव वहां पहुंच जाते हैं...दोनों ने जब अपने मोबाइल्स स्विच्ड औफ किये तब जाकर उनकी समस्यायें सुलझीं...जब सुहासिनी बाहर कहीं नहीं दिखी तो यह विचार कर कि अभी हौल में ही, सम्भव है, प्रतीक्षा कर रही हो....कृमि उन्हें देख सुहासिनी का मुंह दबा लेता है और अन्धेरे कोने में दोनों खडे हैं...सौर्य और देव किसी भी को अन्दर हौल में न पा बाहर जाने को मुडे कि सुहासिनी पूरी शक्ति लगा चीख पडती है...सौर्य और देव तुरत वहां पहुंचते हैं और सुहासिनी और कृमि  को पाते हैं...दोनों कृमि को ललकारते हैं...कृमि चाकु निकाल उन्हें पीछे जाने कहता है...और कहता है कि वह आज सुहासिनी को मारकर ही रहेगा...इसी समय वहां से गुजरता एक कर्मचारी वहां आता है...उसके हाथ में एक छोटा डण्डा है...वह सारी स्थिति समझ जाता है और डण्डा कृमि के हाथ पर दे मारता है...चाकु उसके हाथ से छूट जाता है...कृमि चाकु उठाने झुकता है तो सुहासिनी उसकी पकड से निकल बाहर की ओर भागती है और जा खडे दो-तीन व्यक्तियों को अन्दर की स्थिति बताती है...वे तीनों अन्दर की ओर दौडते हैं...सुहासिनी को न पा कृमि सौर्य को लक्ष्य बनाता है और कहता है कि वह आज सौर्य को मार अपने हृदय में जल रही आग शान्त करेगा, क्योंकि My mind blows seeing him alive ऐसा कह वह चाकु से सौर्य पर आक्रमण करता है कि अन्दर आये तीन व्यक्तियों से एक ने अपना पैर मारा कृमि को जिससे उसके हाथ का चाकु उसी के हृदय में घुस जाता है...कृमि भूमि पर गिर तडपता मर जाता है...पुलिस आ सबका कथन नोट कर कृमि के शव को ले जाती है...

सौर्य और सुहासिनी के सुखी जीवन का कांटा निकल चुका था...दोनों सानन्द प्रेमपूर्वक जीने लगते हैं विना किसी समस्या या भय के...दोनों प्रेमगीत गा रहे हैं...

समाप्त

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

अपराधी आत्मा - a story-plot for making film

26/03/2012 14:25
                                                                                                 अपराधी आत्मा
                                                                                             लेखक - राघवेन्द्र कश्यप
कोई भी व्यक्ति आत्मा के रूप में शरीर से बाहर जा ऐसे कर्म कर डाल सकता है - इस सच्चाई के आधार पर एक मनोरंजक फिल्म्‌बनाने के उद्‍देश्य से लिखा गया यह कथा-प्लौट्‍अधिकतर काल्पनिक घटनाओं पर आधारित है...


एक कार्‌ तीव्र गति से चली जा रही है....प्रसन्न मन से कार्‌ चला रहा व्यक्‌ति सहसा घबडाकर इधर-उधर देखने लगता है....कार्‌में उसके अतिरिक्‌त और कोई नहीं है....उसे लगता है किसी ने उसे थप्पड मारे....अब घूंसे भी पडने लगे....वह तुरत कार्‌ रोकता है...अब नहीं....पर अब लगता है कोई उसे पिन चुभा रहा है....वह कुछ समझ पाये इससे पूर्व उसे ’हा हा हा’ गूंजता सुनायी पडता है....
’हं....!’ यह ठहाका केवल मेरे कानों के अन्दर ही गूंजा या बाहर भी....!’ उसने आंखें फाडी....
धीमी वर्षा की बून्दें पड रही हैं....सहसा उसे लगा दो बांहों और एक सिर से किसी ने उसके गले और सिर को पकड लिया है जबकि कार्‌के अन्दर उसे कोई और नहीं दिखता... वह मन ही मन उन बांहों से स्वयम्‌को स्वतन्त्र करने का प्रयास करता है....बांहों ने उसे छोड दिया तो वह झटके से कार से बाहर निकल भागने लगता है...एक शौप्‌के नीचे जा वह खडा हो है वर्षा की बून्दों से बचने के लिये...जान बची ऐसा सोच वह आराम की सांस लेता है....वह इधर-उधर देख रहा है कि सहसा उसके कानों में किसी के हंसने का स्वर सुनायी पडा....हंसा कोई कानों से सटे पर वह कहीं दिखायी नहीं दिया... एक थप्पड उसके गालों पर पडा पर मारनेवाला कहीं दिखायी नहीं पडा....वह गाल पकडे आंखें फाडे खडा है कि वैसी बांहों ने पुनः उसके गले को घेरा तथा एक सिर उसके सिर पर अनुभूत होने लगा...वह मन से छुडाने का प्रयास करता है पर छुडा नहीं पाता है....वे हाथ अब उसे चुट्‍टी काट रहे जैसे पिन चुभा रहे हों....वह दौडा-दौडा पुलिस्‌ष्‍टेशन्‌पहुंचता है और सारी बात बताता है...
"पर वह है कौन...? कुछ तो झलका होगा....?"
"कुछ लगा तो, पर मैं अभिजान (पहचान) न पाया..."
"तो ऐसे में तो हम आपकी कोई सहायता नहीं कर पायेंगे..."
वह निराश बाहर निकल रहा है कि उसे और थप्पड पडे....वह चिल्लाता है ’आ......ह्‌......’ भूतों-जैसे ठहाके गूंजने लगते हैं हौल में और काष्‍टिंग्‌का आरम्भ हो जाता है....काष्‍टिंग्‌के अन्तर्गत ही वह व्यक्‍ति, नाम कमलनाथ, धीरे-धीरे कार्‌की ओर जाता दिख रहा है....कार्‌में बैठ ड्राइव्‌करता आवास की ओर जा रहा है....काष्‍टिंग्‌समाप्त होते-होते वह आवास पहुंच जाता है....
"बडे चिन्तित दिख रहे हैं....भींग भी गये हैं...." कमलनाथ की पत्नी ने पूछा....
"अं हं..." इतना ही कह अन्दर ही अन्दर घबडाया कमलनाथ गैरेज् में कार रख बेड्‍रूम्‌में जा लेट गया....वह सोना इच्छता (चाहता) है पर उसके ललाट पर किसी ने हथेली रख दिया जिस कारण बहुत इच्छा कर भी नीन्द नहीं पा पाया...उसने एक मित्र को फोन्‌कर सारी बात बतायी....
"बडी विचित्र समस्या है....पर मैं किस प्रकार तुम्हारी सहायता करुं यह मेरी समझ से परे है...वैसे भी, कहीं वह भूत मुझपर चढ गया तो....?"
कमलनाथ फोन्‌रख देता है और मरी-मरी आंखों से बैठा है...वह और भी स्थानों पर फोन्‌करता है पर कहीं से भी सन्तोषजनक उत्‍तर नहीं पा पाता है...किसी प्रकार सायंकाल भी बीत जाता है और वह रात का भोजन कर सो जाता है...पर अभी पन्द्रह-बीस ही मिनट्‍बीते थे कि उसकी नीन्द टूट जाती है....उसके ललाट पर वह अदृश्य हाथ है तथा पलकों पर और शरीर में जैसे कोई पिन चुभा रहा है...सहसा उसे थप्पड और घूंसे लगने आरम्भ हो जाते हैं और ’हा हा हा....’ उसके मस्तिष्क में गूंजने लगता है...वह घबडाकर कक्ष में इधर-उधर देखने लगता है....
"क्या देख रहा है...?"
"क्‌क क्‌कौन....?"
"ह ह ह....सोना इच्छता है....? सो जा...."
’अं...हं...हं...’ करता कमलनाथ सोने को लेट जाता है....पर पन्द्रह-बीस मिनट्‍पश्चात्‌वैसे ही ललाट पर हाथ तत्पश्‍चात्‌पिटायी....कमलनाथ रातभर अशान्त रहता है....प्रातःकाल कमलनाथ मौर्निंग्‌वाक्‌के लिये निकलता है.....
"ये कुत्ता तुम्हें अभी दौडायेगा...."अदृश्य स्वर ने कहा....
"क्यों....?" कमलनाथ ने उद्यान में दृष्‍टि घूमाते हुए पूछा....
तभी वह कुत्‍ता भौंकने लगता है और उसके निकट आ जैसे काटने लगा हो तो कमलनाथ ’बचाओ बचाओ’ चिल्लाता दौडने लगता है....संयोग से माली आ डण्डे से उस कुत्‍ते को रोक देता है....कमलनाथ हांफता-हांफता एक बेंच पर बैठ जाता है पर माली का हाथ पकडे रहता है....लौट वह आवास आता है....रेडी हो ब्रेक्‌फ्राष्‍ट्‍कर समाचारपत्र देख कार से निज ज्वेलरी शौप्‌को चला जाता है....वहां कमलनाथ का अनुज भ्राता पूर्व से ही शौप्‌खोल दो कर्मचारियों के संग बैठा है....एक ग्राहक आ ज्वेलरी देख रहा है....
"अभी एक व्यक्‍ति आयेगा और तुम्हारी कोई ज्वेलरी-पीस्‌ले भाग जायेगा...." उस अदृश्य स्वर ने कहा....
’हैं.....!’ कुत्‍ते की घटना से घबडाया कमलनाथ सावधानी से बैठा ग्राहकों का निरीक्षण करने लगा....तभी एक ग्राहक एक ज्वेलरी-आइटम्‌ले कर्मचारी के पीछे मुडने पर विना मूल्य दिये तीव्र चाल से बाहर निकलने लगा....कमलनाथ ने जैसे ही उसे द्वार से बाहर जाता देखा, पूछा कि इसने मूल्य दिया...! कर्मचारी के नहीं कहने पर कमलनाथ चिल्लाया- ’पकडो...’ सभी उसके पीछे दौडे....अल्प ही दूरी पर होने के कारण अन्य लोगों की सहायता से वह पकड लिया गया....
"मैंने कोई भविष्यवाणी नहीं की थी....वरन्‌उस व्‍यक्‍ति का मन बना दिया था कि वह ऐसा करे....ये तो मैंने बता दिया था इस कारण पकडा गया....पर अब मैंने बताया नहीं कि कब कौन क्या करने वाला है तो तुम लुट जाओगे....हो सकता है तुम्हारा कर्मचारी या तुम्हारा भाई ही सारी ज्वेलरी ले भाग जाये..." अदृश्य स्वर ने कहा....
"हं....! पर तुम ऐसा क्यों करोगे...? मुझे हानि पहुंचा तुम्हें क्या लाभ मिलेगा....?"
"हूं....यदि तुम हानि से बचना इच्छते हो तो मुझे लाभ पहुंचाओ...."
"लाभ...! क्या लाभ चाहिये तुम्हें....?"
"केवल एक लाख रुपये....साधारण-सी धनराशि है तुम्हारे लिये..."
"तो क्या तुम मुझे सदा के लिये छोडकर चले जाओगे....?"
"हूं..."
"पर तुम लोगो कैसे....?"
"अभी रुपये लो और बाहर निकलो....मैं बताता हूं कहां रखने हैं रुपये तुम्हें...."
"कहां चलुं...?" पांच सौ रुपये के नोटों की दो गड्डियां ले कार में बैठते हुए कमलनाथ ने पूछा....
"वहीं उद्‍यान में चलो, जहां आज प्रातःकाल गये थे.... "वहां पहुंच कमलनाथ को एक बेंच पर बैठने को कहता है - "कुछ मिनट्‍प्रतीक्षा करो..."
आधे घण्टे पश्चात्‌अदृश्य स्वर ने कहा -"बेंच के नीचे दोनों गड्डियां रखो और चलते बनो..."
"मुझे सदा के लिये छोड दोगे....? हां...?"
"हां...ऐसा ही जानो....पर यह बात केवल तुमतक ही रहनी चाहिये, नहीं तो..."
कमलनाथ ने आराम की सांस ली और आवास लौट आराम से सो गया...अब उसे कोई समस्या नहीं आ रही थी किसी भूत से....
उधर कमलनाथ के चले जाने के पश्चात्‌एक दूर खडा व्यक्‍ति सुजित धीरे-धीरे उस बेंच के निकट आया....सावधानी से इधर-उधर देख अपना बैग नीचे रख खोला उसमें दोनों गड्डियां रख लीं, और बैग उठा चलता बना....बस पकड एक स्थान पर उतरा, चलता हुआ एक गृह में प्रवेश कर गया....एक कक्ष का ताला खोल अन्दर घुसा....अन्दर पूर्व से ही एक व्यक्‍ति कुनील उसकी प्रतीक्षा कर रहा था....उसने बैग से दोनों गड्डियां निकालीं और हाथ में ले प्रसन्नता से उछल पडा....
कुनील- "यह हमलोगों की प्रथम सफलता है....शीघ्र ही हमलोग करोडपति बन जायेंगे..."
सुजित- "बहुत लोभ न करो....यदि किसी ने गुप्‍तचरों का जाल बिछा हमें रुपये दिये तो.....? तब हम करोडपति क्या रोडपति भी न रह जायेंगे....!"
"ह ह ह.....ऐसा नहीं हो सकता...क्योंकि जिसका भी मैं इच्छुं उसकी बातचीत और उसके मन में उठने वाली बातें सबकुछ मुझे ज्ञात हो जाती हैं...."
"तो...अब क्या प्लान्‌है....?"
"सर्वप्रथम एक अच्छे फ्लैट्‍में शिफ्‍ट्‍कर जाने का...."
दोनों जाकर प्रोपर्टी-डीलर्‌से मिलते हैं...दो-तीन दिनों में एक अच्छे-से फ्लैट्‍में रहने चले जाते हैं...तीन-चार मास बडे आराम से बीताते हैं....अब पुनः उन्हें और रुपयों की आवश्यकता जान पडती है....
"अब हमें कोई नया सेठ मिले जो हमें एक नहीं दो लाख रुपये दे दे..."
"जैसे-जैसे मांग के रुपये बढते जायेंगे वैसे-वैसे संकट की आशंका भी बढती जायेगी...."
"यदि ऐसे ही भय करते रहे तो ले लिये जीवन का आनन्द....!"
कुनील समाचारपत्र के पृष्‍ठ पलट रहा है कि उसे एक करोडपति का चित्र दिखायी देता है....वह उससे रुपये पाने को विचारता है....वह विस्तर पर लेट शरीर छोड आत्मा के रूप में उस करोडपति के सिर के निकट पहुंचता है....पर उस करोडपति का आत्मा और भाग्य दोनों ही इतने बली हैं कि कुनील स्वयम् को उसपर प्रहार करने असमर्थ पाता है....वह लौट आता है निज आवास को...
"उस करोडपति का भाग्य उसकी रक्षा कर रहा था....हमें चाहिये एक ऐसा धनी जिसका आत्मा बहुत बली न हो....और उसकी ग्रहदशा भी उतनी अच्छी न चल रही हो....डिसौनेष्‍ट्‍का आत्मा भी बहुत सरलता से पकड में आ जा सकता है...."
कुनील की दृष्‍टि एक नये सेठ पर जाती है...वह सरलता से वश में आ जाता है....उसके संग भी कुनील वैसे-वैसे ही कष्‍ट देने के हथकण्डे अपनाता है.....अन्ततः वह सेठ दो लाख रुपये देना स्वीकार लेता है....कुनील और सुजित लम्बे समय के लिये स्वयम्‌को निश्चिन्त अनुभूत करते हैं....पर पुनः कुनील का लोभ जाग जाता है और इसबार वह पांच लाख रुपये पाने की कल्पना करता है...इन दिनों उसकी दृष्‍टि कुछ सुन्दरियों पर पडती है....उसका मन उधर मोहित होने लगा...
"एक-दो का संग तो मिलना ही चाहिये..."
"रुपये निकालो तो बहुतों का संग मिलेगा..."
"पर कौल्‌गर्ल्स्‌हमें नहीं चाहिये...अच्छे परिवार की अच्छी युवतियां हमारे वश में आ जायें...."
"ये तो तुम निज आत्मशक्‍ति से भी पा जा सकते हो....पकड कर वश में कर लो...."
कुनील एक स्त्री के मस्तिष्क पर आत्मा के रूप में चढता है....उसे मारने लगता है तो वह घबडाकर अचेत हो जाती है...उसके चेत पाने पर कुनील उसे कभी सुई चुभाता, कभी ललाट पर हाथ रखता, कभी उसके मस्तिष्क पर मारता....पर इतना कुछ करने पर भी यह स्पष्‍ट नहीं होता कि कैसे वह उससे सम्भोगसुख प्राप्‍त करे....! इसके लिये कुनील को शरीर धारण करना पडेगा, और तब वह अभिजान (पहचान) लिया जायेगा...पर अब उसे उपाय मिल गया कि वह वेश परिवर्तित कर सम्भोग करेगा...कुनील उस स्त्री के मस्तिष्क में ठहाके मारता है....सुन वह स्त्री समझ जाती है कि किसी भूत ने उसे पकड रखा है जो उसे इतना कष्ट दे रहा है...
"क्या मुझसे छुटकारा इच्छती हो....?"
"अं हां....पर तुम कौन हो....?"
"वह तुम मत ही जानो....पर इसके लिये तुम्हें मेरे संग सेक्स्‌करना होगा..."
"सेक्स्‌....! वो कैसे...? तुम तो भूत हो...."
"ऐसे ही आत्मा के रूप में....यदि स्वीकार हो तो बोलो हां...."
"ठीक है..."
कुनील आत्मा के रूप में ही उसके संग सम्भोग करता है....युवती को लगता है कोई सच में ही सम्भोग कर रहा है जबकि वहां वह एकाकिनी (अकेली) होती है...कुनील का मन नहीं भरा....वह कहता है वह सच में ही उससे सम्भोग करना इच्छता (चाहता) है....वह मान जाती है....
"तुम आज रात ठीक आठ बजे उद्‍यान में प्रवेश कर दायें से चौथे बेंच पर बैठी रहो...मैं वहीं तुमसे मिलुंगा...."
"अं...ठीक है...."
"अभी मैं जा रहा हूं...."
युवती स्वयम्‌को भूत से मुक्त अनुभव कर रही है....पर यदि वह उसकी बात न मानी तो कितनी समस्या आ सकती है यह सोच भय कर रही है....रात में आठ बजे वह उद्‍यान में प्रवेश कर चौथे बेंच पर जा बैठती है....कुछ ही मिनटों पश्चात्‌उसे सुगन्धित वायु का झोंका मिलने लगा...यह कुनील का मानसिक प्रभाव था...वह विचार ही कर रही थी कि कहां से यह सुगन्धित वायु आ रहा है कि कुनील उसके निकट आ कहता है-"मैं आ गया हूं..." लाइट्‍वहां से दूर है जिस कारण उसका मुख नहीं दिख रहा है...युवती को कुनील के संग सम्भोग की बात रुचती नहीं है पर सहसा वह निज तन-मन में कामोत्तेजना प्रसरती (फैलती) अनुभव करती है....उसे सम्भोग के लिये जैसे प्यासी हो उठी और कुनील वहां अन्धेरे में अपनी कामना पूरी करता है...वह अभी लेटी ही है कि कुनील उसे वैसे ही छोड चला जाता है....वह युवती अब भूत के प्रभाव मुक्‍त पा भूत का भय भुला अपनी एक सखी को भूत के संग सम्भोग की बात बता देती है....किसी को भी विश्वास नहीं होता है....

कुनील निज कक्ष में बैठा तान्त्रिक मन्त्रों का जाप कर रहा है....कुनील के संग अन्य आत्माओं को निज वश में करने की विशेष शक्‍ति है....उसके संग जो भी विशेष शक्‍तियां हैं वे पिछले जन्म से ही चलती आ रही हैं, क्योंकि इस जन्म में साधारण रूप से ही उसने मन्त्रजाप आदि साधनायें की हैं....अधिकतर समय उसने सांसारिक विद्‍याओं और सांसारिक प्रपंचों में ही बीताया है....ऐसा जान पडता है कि वह पिछले जन्म में प्रभावशाली तान्त्रिक रहा था जिसने निज शक्‍तियों का अधिकतर दुरुपयोग ही किया....पर अब भी शक्‍तियां दुःखदायी रूप में संग शेष हैं...कुनील के संग यह शक्‍ति है कि वह स्वयम्‌से न्यून बली किसी भी व्यक्‍ति के आत्मा को शरीर छोडने पर विवश कर मार-मार उसे निज वश में कर लेता है...वह एक सेना बनाना इच्छता है आत्माओं का...जिसका नायक वह स्वयम्‌हो, और पूरे देश में उपद्रव करे....इस प्रकार वह देश पर राज करना इच्छता है....वह किसी भी व्यक्‍ति के मन को पकड उससे कुछ भी काम करवा लेता है...उसने इसी प्रकार पीएम के मन को भी नि आत्मिक प्रभाव में ला रखा है....कुनील का शरीर देखने में साधारण व्यक्‍तियों जैसा है पर हानि पहुंचाने की जैसी क्षमता है उससे वह विषैला सांप ही है...

"भैया...कई वस्तुओं का क्रय करना है..." उसके अनुज भ्राता सुजित ने कहा....
"तो कर आओ....मेरा एटीएम्‌कार्ड्‍ले लो.....वैसे, कैश्‌भी तो तुम्हारे संग होंगे ही...."
"पर तुम भी चलो....संग रहने से और भी अच्छा रहेगा..."
"चल्‌लो...." कुनील कार निकालता है और स्वयम्‌ड्राइव्‌करता है....दोनों एक शौपिंग्‌मौल्‌पहुंचते हैं....वहां घूम-घूमकर वस्तुएं चुनते और एक ट्रौली में रखते जाते हैं....वस्तुएं चुनते असावधानी से कुनील का पांव एक महिला के पांव पर पड जाता है और उस महिला के मुंह से तुरत ’यू बाष्‍टर्ड्‍....’ शब्द निकल जाते हैं...वह महिला देखने में बहुत धनी लग रही थी... कुनील वस्तुएं चुनना रोक जितना चुन चुका था उतने को ले सुजित को काउण्टर्‌पर जाने को को कहता है...पेमेण्ट्‍कर वस्तुएं ले वे कार्‌में रखते हैं....कुनील ड्राइविंग्‌सीट्‍पर बैठा उस महिला की प्रतीक्षा करने लगा...वह मौल्‌से  बाहर निकली, डिक्की में वस्तुएं रखी, और कार ड्राइव्‌करने लगी....कुनील उसके पीछे अपनी कार चलाने लगा...सहसा उस महिला को लगा कि उसके सिर पर कोई दनादन हण्टर्‌मार रहा है...उसे तीव्र पीडा का अनुभव हुआ...उसने ब्रेक्‌लगा कार्‌रोकना इच्छा, पर पांव जैसे सुन्न पडा हो....वह शक्‍ति नहीं लगा पायी...उसका सिर चकराने लगा और कार्‌रोड्‍से उतर एक आवास की बाउण्ड्री वाल्‌से जा टकरायी...महिला अचेत हो चुकी थी....सुजित और कुनील कार से उतर मुस्कुराने लगे...
जब महिला को चेत (होश) आया तो उसने बताया कि यद्‍यपि वह कार्‌में एकाकिनी थी तथापि उसे लगा कोई अन्दर सच में उसपर तीखे हण्टरों की मार मार रहा है....पैर की शक्‍ति भी जैसे किसी ने खींच ली हो....वह ऐसे बता रही थी जैसे किसी भूत ने यह सब किया हो....कुनील बहुत प्रसन्न था कि प्रतिशोध में उसे सफलता मिली...मानसिक-आत्मिक शक्‍तियों का प्रयोग करना अभी कुछ वर्ष पूर्व ही उसने आरम्भ किया था...उससे पूर्व वह एक साधारण व्यक्‍ति की भांति ही जीता रहा था... उसका रूपरंग अनाकर्षक था पर आत्मिक-मानसिक शक्‍ति की तीव्रता प्रबल थी...
फ्लैट्‍में रहते हुए एक दिन संयोग से निज पडोसी से उसकी किसी बात पर तू-तू मैं-मैं हो जाती है....दोष कुनील का है....पडोसी क्रोध में पुलिस्‌को कम्प्लेन्‌करने जाता है....कुनील घबडा जाता है...वह तुरत सुजित को ध्यान करने बैठने कहता है....सुजित मन एकाग्र कर बैठता है और आत्मा के रूप में शरीर से निकल सीधा उस पडोसी के सिर पर पहुंच जाता है....सुजित और कुनील तब मानसिक वार्ता करते रहते हैं....पडोसी बैंक्‌से लगे एक एटीएम्‌से रुपये निकालने जाता है....कुनील यह सूचना पा बैंक्‌वालों का मन बना देता है कि वे कुछ समय के लिये एटीएम्‌बन्द कर दें....निराश पडोसी वहां से आगे बढ एक अन्य एटीएम्‌जाता है और रुपये निकाल लेता है पर सुजित उसके मन से पास्‌वर्ड्‍जान कुनील को बता देता है...पडोसी पुलिस्‌ष्‍टेशन्‌पहुंचता है...सुजित उसके मुख को काल्पनिक मकडी-जालों से घेर देता है जिससे वह बातचीत करने में बहुत असुविधा अनुभूत कर रहा है....वह पुलिस्‌से ठीक-ठीक बात कर नहीं पाता है, और पुलिस्‌भी उसकी बातों में रुचि नहीं लेती है...सहसा उसका हाथ वहां टेबल्‌पर रखे बल्ब्‌से टकराता है और वह नीचे गिर फूट जाता है....वह एक नया बल्ब्‌क्रय कर लाता है....असफल वह वहां से आवास लौट जाता है....सुजित और कुनील केवल एकाग्र मन से सोचते हैं और बातें एक-दूसरे तक ऐसे पहुंच जाती हैं जैसे एक-दूसरे के संग प्रत्यक्ष बात कर रहे हों.....कुनील सुजित को कुछ समय पर्यन्त (तक) पडोसी के संग ही रहने को कहता है...कुछ विशेष बात न हो रही देख सुजित निज (अपने) शरीर को लौट प्रवेश कर जाता है...यद्‍यपि कुनील स्वयम्‌यह सब कर सकता था पर अन्य आत्माओं से करवाकर वह सैंकडों आत्माओं की सेना बनाना इच्छता है जो उसके निर्देश पर कहीं भी जा कुछ भी कर आयें...वह निज आत्मिक-मानसिक शक्‍तियों से अत्युच्च पदों पर बैठे व्यक्‍तियों को भी निजवश में ले आने का सामर्थ्य रखता है....दुर्बल आत्मिक-मानसिक शक्‍ति वाले व्यक्‍ति को वह बहुत अधिक निज वश में ले आता है जबकि बली आत्मिक-मानसिक शक्‍ति वाले व्यक्‍ति की अण्डर्‌ष्‍टैण्डिंग्‌वह दूषित कर देता है और अशुभ प्रेरणा देता है...

कुनील मन्त्रजाप कर रहा है - तान्त्रिक मन्त्रों का, और शैतान की पूजा कर रहा है- ’ओम्‌शैतानाय नमः’....शैतानी शक्‍तियां और भावनायें उसमें और निखर रही हैं.... उसे तान्त्रिक सिद्धि के लिये एक खोपडी चाहिये जो फ्रेश्‌हो और अपवित्र न हो....कहां से मिले...? हत्या कर ही ऐसी खोपडी पायी जा सकती है...कुनील का शैतानी मस्तिष्क चिन्तन करने लगा....उसने एक छोटा कृपाण बैग्‌में रखा और स्वयम्‌ही बाहर निकला...रात्रि का आरम्भ हो चुका था...मार्ग पर लोग आ-जा रहे थे...वह आगे बढता गया....एक बालक एकाकी (अकेला) जाता दिखा...कुनील उसे प्रेम से बुला, मार्ग से नीचे उतर झाडियों में ले जा उसका मुंह दबा उसका गला काट देता है, और उसका सिर प्लाष्‍टिक्‌में बान्ध बैग्‌में रख ले आता है...
अगले दिन उस बालक की हत्या का समाचार चारों ओर प्रसरता है...कुनील के आवास से कोई डेढ-दो सौ मीटर्‌की दूरी पर ही यह घटना घटी थी, इसलिये उस क्षेत्र में यह घटना विशेष चर्चा का विषय बन जाती है....लोगों को समझ में नहीं आ रहा था कि यह किसने और क्यों किया होगा....! जबकि कुनील को रक्‍त का स्वाद मिल चुका था...उसके अन्दर ईर्ष्या, क्रोध, घृणा, द्‍वेष, शत्रुता, अतिलोभ, आदि दुर्भावनायें और अधिक बली हो चुकी थीं...अच्छे और सच्चे व्यक्‍तियों को देख उसके मन और हृदय में आग लगने लगती थी...
कुनील निज आत्मिक-मानसिक शक्‍तियों से किसी भी व्यक्‍ति के मन की बात जान लेता है चाहे वह व्यक्‍ति कितनी भी दूरी पर उपस्थित हो....वह बहुत दूर स्थित व्यक्‍तियों से भी बातें कर लेता है तथा उनके मन को पूरे वश में ला कोई भी कर्म करवा ले सकता है...
"एक तुम हो जो कहीं किसी भी के सिर पर रह उसके मन को दिशा देते रह सकते तथा सारी सूचनायें भेजते रह सकते....मैं इच्छता हूं कि कई आत्मायें मेरे वश में ऐसे ही रहा करें...एक पूरा समूह हो मेरे दास आत्माओं का जिनसे मैं कोई भी कर्म जब इच्छे वैसे करवाते रहूं..."
"पर भइया, कोई ऐसा करते रहना क्यों स्वीकार करेगा....?"
"जब मेरी चुभती मार पडेगी तो अच्छे-अच्छे आत्मायें भी स्वीकार करेंगे..."
"पर...वैसे लोगों का चयन भी तो करना पडेगा...."
"हूं...मैं देखता हूं..."
कुनील विचार करता है और इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि यदि एक कम्पनी या औफिस्‌खोल ली जाये, और चुन-चुनकर ऐसे एम्प्लौयी रखे जायें जो उसके मनोवांछित कर्मों को किया करें....पर यदि पन्द्रह-बीस ऐम्प्लौयिज्‌का औफिस्‌खोला जाये तो इसके लिये न्यूनतम तीस-चालीस लाख रुपये तो चाहिये ही....अर्थात्‌कोई आधा-एक करोड रुपये हाथ लग जायें तो....पर आधा-एक करोड रुपये हाथ कैसे लगेंगे....?"
"आधा-एक करोड रुपये....?"
"हां...अब हमारे दिन वैसे नहीं रहे....कि किसी से पान खिलाने को कहना पडे....पर इतने रुपये पाने में बडा रिस्क्‌लेना पडेगा...और  हमारे इतने अधिक धन पाने के स्रोत के सम्बन्ध में कभी भी पूछताछ की जा सकती है....बात केवल रुपये पाने की ही नहीं है...उसके पश्‍चात्‌क्या-क्या समस्यायें आ सकती हैं उसपर भी विचार करना आवश्यक है..."
कुनील चिन्तामग्न है....कोई उपाय अभी तक नहीं सूझा....सबसे बडी समस्या यह थी कि वह इतने रुपये वह पाये तो कैसे...! कौन देगा उसे....? जिसके संग कई करोड रुपये होंगे उसकी आत्मशक्‍ति भी उतनी दुर्बल न होगी कि कुनील के वश में सरलता से आ जाये... एक से बढकर धनी लोगों के नाम और चित्र समाचार पत्र में छपे हैं...कुनील की दृष्‍टि एक धनी पर स्थिर हो जाती है...उसे लगता है उसका काम यहां बन जायेगा...कुनील ने मन एकाग्र किया, उस धनी की कल्पना की, और आत्मा के रूप में निकल सीधा उस धनी के सिर के समीप पहुंच गया...सुजित कुनील के शरीर को विस्तर पर लिटा कम्बल से ढंक देता है...धनी निज कार्यों में व्यस्त है....
"यह मेरा समाचारपत्र ... मध्यमान से (औसतन) कोई दो लाख प्रतियां प्रतिदिन बिक जाती हैं....तब भी...यह भय सदा ही लगा रहता है कि न जाने कब यह डूब जाये....कारण एकमात्र हमारे प्रतिद्‍वन्द्‍वी समाचारपत्र के लोग हैं...न जाने ये क्यूं हमारे समाचारपत्र को डूबाकर ही अपनी उन्नति इच्छते हैं..." धनी क्रोध में है...
कुनील उसके मन में यह बात उभारता है कि कोई तान्त्रिक उसकी इस समस्या का समाधान कर सकता है....’हां...तान्त्रिक....’ ऐसी प्रेरणा पा वह किसी तान्त्रिक से मिलने का विचार करता है...पर पुनः आराम से चेयर्‌पर बैठ जाता है...कुनील निज मानसिक प्रभाव तीव्र करता है तो वह पुनः किसी तान्त्रिक से मिलने का विचार कर उठ खडा होता है...कुछ पग आगे बढा कि कोई उससे मिलने आया है...जब उस अतिथि को धनी का ऐसा विचार ज्ञात होता है तो वह उसपर हंसता है-
"अरे...ये कैसी बात सोची...! खुले मस्तिष्क से विचार किया करो..."
धनी का मन पूरा हट जाता है ऐसे समाधान से...कुनील पुनः प्रेरणा देता है पर धनी नहीं मानता, तो क्रुद्‍ध हो कुनील उसे मानसिक मुक्के मारता है....धनी को कुछ पीडा होती है पर उसका आत्मा बली है जो इस पीडा को शीघ्र ही भूल जाता है...कुनील उसे और मारता है तो धनी मानसिक थकावट अनुभव करते हुए सोने लेट जाता है...कुनील उसके ललाट पर हाथ रखता पर धनी आराम से खर्राटे भरने लगता है...धनी कर्मशील और अपने ही धुन में मग्न रहता है चौबीस घण्टे...कुनील कमलनाथ को निज वश में सरलता से कर लिया था, पर इस धनी को निज वश में कर पाना उसे कठिन जान पडा...अतः उसे छोड वह निज शरीर में लौट जाता है....अभी भी उसके संग लाखों रुपये हैं जिससे वह आराम से जीवन धनंजय रहा है...पर उसका मन अभी भी उस धनी की ओर खिंचा हुआ है....वह एक दिन धनी को रुपयों की डीलिंग्‌की बात करते निज मानसिक शक्‍ति से सुनता है....कुनील के संग शक्‍ति है कि वह न केवल किसी को भी सुन ले सकता है अपितु वहां के दृश्य को आंखों से देखने जैसा देखते भी रह सकता है....वह सुनता है कि किसी बिजनेस-डीलिंग से धनी को अस्सी लाख रुपये कैश मिलने वाले हैं...धनी एक बहुत बडा बिजनेस-मैन है....कुनील सुनता है कि ढाई बजे दिन में कोई व्यक्‍ति सूट्केस्‌में अस्सी लाख रुपये कैश लाकर धनी को दे जायेगा...कुनील तुरत शरीर छोड धनी के सिर के निकट पहुंचता है....धनी चिन्तन कर रहा है -’इतने रुपये आवास में रखना उचित न होगा...चार बजे पर्यन्त बैंक खुला है....मैं तुरत जमा कर दूंगा जाकर...’ कुनील सोचता है-’यदि ये रुपये उसके हाथ लग जायें तो उसकी कम्पनी खुल जायेगी, वह राजा बन जायेगा....’ वह तुरत शरीर में लौट आ उस धनी के आवास की ओर चल देता है...वहां पहुंच देखता है अभी दो बजे हैं दिन के....धनी के आवास-परिसर में एक गैरेज है जिसमें कार रहती होगी धनी की, कुनील ने ऐसा विचार किया....कुछ दूरी पर एक रेष्‍टोरेण्ट्‍है....धनी के मन को सुनता वह रेष्‍टोरेण्ट्‍पहुंचता है...पर अन्दर जाते-जाते उसके पांव रुक जाते हैं कि वह अभिजान लिया जा सकता है....वह धनी के आवास से पन्द्रह मिनट्‌चल पुनः पन्द्रह मिनट्‍में लौट आता है...अब ढाई बज रहे हैं...मन से वह सुनता है कि धनी किसी-किसी से बातें कर रहा है...पर हां...अब वह इतर कक्ष में जा किसी से कहता है-"धन्यवाद आपका जो समय से रुपये ले आये..." पुनः बाहर निकल वाचमैन से कहता है- "ये लो चाभी...कार की सीटों पर कुछ धूल लगी होगी उसे स्वच्छ करो, और एयर्‌यदि न्यून हो तो उसे भरो..."
वाचमैन कार का द्वार खोलता है, सीटों को स्वच्छ करता है, टायर्‌देख एयर न्यून पाता है तो एयर्‌डालने गैरेज्‌के अन्दर घुसता है...तब कुनील साहस कर वाचमैन के मन को बांध अन्दर घुस कार की पिछली सीट के पीछे छुप जाता है....वाचमैन एयर्‌भर कार का द्वार लगा चाभी धनी को दे देता है...धनी सूट्केस्‌ले आ कार की ड्राइविंग्‌सीट पर बैठता है और सूटकेस भी वहीं द्वितीय सीट के नीचे रख कार ड्राइव करता रोड पर निकल आता है...कार आगे बढ रही है...चहल-पहल वाले मार्गों से आगे निकल अब एक सन्नाटा छाये मार्ग पर चल रही है...कुनील को अवसर मिला जान पडा...उसने निज मानसिक शक्‍ति का प्रयोग किया और कार चलती-चलती रुक गयी....धनी ने कार ष्‍टार्ट्‍करने का बहुत प्रयास किया पर कार ष्टार्ट नहीं हुई...यह कुनील की मानसिक शक्‍ति का प्रभाव  था जो निर्जीव वस्तुओं पर भी कार्य करता था....चिन्तित वह कार्‌से बाहर निकल डिक्की खोल कुछ इंष्‍ट्रूमेण्ट्‍निकालने लगता है...तब कुनील तुरत आगे की सीट पर जा सूटकेस ले चुपके से बाहर निकल रोड्‍के किनारे से आगे बढ किसी एक गली में घुस जाता है...रोड के दोनों ओर छोटी और मध्यम श्रेणी के आवास कुछ-कुछ रिक्‍त स्थान पर हैं, अन्दर गलियां हैं और गलियों के अन्त के पश्चात्‌द्वितीय पक्का रोड्‍है...पर इस समय शान्ति छायी हुई थी और लोग आते-जाते नहीं दिख रहे थे...कुनील गली में तीव्र गति से आगे बढता जा रहा है कि एक १६-१७ वर्ष की लडकी से टकरा जाता है...उसने घूरकर कुनील को देखा....कुनील उसकी चिन्ता किये विना पुनः आगे की ओर तीव्र गति से बढता गया और गली पारकर द्वितीय पक्के रोड्‍पर निकल गया...तुरत ही उसे औटोरिक्शा मिल गया जिसमें बैठ वह सफलतापूर्वक बहुत दूर जा चुका था...इधर जैसे ही धनी आगे की सीट की ओर आया उसके हाथ से तोते उड गये...उसे लगा वह अचेत हो जायेगा पर सम्भलकर ’चोर-चोर’ चिल्लाने लगा...कोई सुननेवाला नहीं दिखा...पर तभी वह लडकी वहां पहुंची....उस एकाकी धनी पर उसे दया आयी और उसके समीप जा पूछी-"क्या चोरी हो गया....?"
"अस्सी लाख रुपये...एक सूट्‍केस्‌में था..."
"सूट्‍केस्‌....? भूरे रंग का था क्या...?"
"हां हां...तुम्हें कैसे जानकारी...? क्या चोर को तुमने देखा...?"
"हां...अभी-अभी मेरे आवास के निकट से हो उधर वाले रोड्‍की ओर गया है...."
’चलो-चलो’ कहता धनी उसके संग उधर ही जाता है पर कुनील कहीं नहीं दिखता है....धनी तुरत निज प्रेस्‌के रिपोर्टर्स्‌को आने कहता है....वे आ लडकी का कथन नोट्‍करते और रिकार्डिंग्‌भी करते...अगले दिन यह घटना समाचारपत्रों में छपती और टीवी पर दिखायी जाती है - वह लडकी कह रही है -"मैं उसकी आकृति का पूरा-पूरा वर्णन नहीं कर सकती पर देखते ही तुरत अभिजान(पहचान) लूंगी...लडकी उस समय निज आवास में एकाकिनी थी, उसका अनुज स्कूल्‌गया था और परिवार के अन्य लोग गांव गये हुए थे....कुनील भी इस समाचार को समाचार पत्रों में पढता और टीवी पर देखता है...उसने निज जीवन में संकट आया पाया कि वह लडकी कभी भी उसे अभिजान ले सकती है...वह मन एकाग्र कर उस लडकी को मन से देखता है...वह निज अनुज से बातें कर रही है....आत्मा के रूप में कुनील वहां जाता है...वह लडकी को मार-मारकर अचेत कर दे सकता है पर इससे उसके मन में बना उसका चित्र वह मिटा नहीं सकता था...भाई कुछ ही समय में स्कूल्‌जानेवाला था...कुनील लौट शरीर में आया और तुरत उस लडकी के आवास को प्रस्थान कर गया...उसने उसके द्वार पर नौक्‌किया...द्वार खोलते ही उसने अन्दर घुस द्‍वार अन्दर से बन्द किया और उस लडकी का मुंह दबा लिया...
"तुम एक सुसाइड्‍नोट्‍लिखो कि तुम स्वेच्छा से आत्महत्या कर रही हो...."
"मैं तुम्हें अभिजान गयी....और मैं आत्महत्या क्यों करूं...?"
"जिससे तुम मेरे सम्बन्ध में लोगों को बता न सको...सबके समक्ष मुझे अभिजान न लो कभी कहीं..."
वह चुप शान्त खडी रहती है...कुनील उसके शरीर में पिन चुभाता है...वह पीडा से चिल्लाना इच्छती है पर कुनील उसका मुंह दबा लेता है....अब वह उसकी अंगुली की त्वचा पर ब्लेड्‌से काटता है...रक्‍त निकलने लगता है...उसकी गहन पीडा देख वह उसका मुंह धीरे-धीरे छोडता है...
"क्या...क्या चाहिये तुम्हें....?" वह कराहती पूछी...
"एक सुसाइड्‍नोट्‍लिखो जैसा मैं कहता हूं..."
"यदि न लिखी तो....?"
"तब...तब...तब...ऐसे ही तडपा-तडपाकर मार डालुंगा...."
"यदि लिख दी तो....?"
"वह लिखने पर बताउंगा...."
वह सुसाइड्‍नोट्‍लिखना स्वीकार कर लेती है -’मैं जीवन से दुःखी हो आत्महत्या कर रही हूं...मेरी आत्महत्या के लिये कोई भी उत्‍तरदायी नहीं है....’
कुनील उस सुसाइड्‍नोट्‍को टेबल्‌पर एक कैंची से दबा रखता है....एक साडी ले उसे छ्त के पंखे से बान्ध लटकाता है...बलपूर्वक लडकी का गला साडी की रस्सी से बान्ध उसका शरीर पंखे से बन्धा लटकाता है....लडकी का शरीर कुछ समय पर्यन्त छ्टपटाता पुनः शान्त हो जाता है....कुनील उसके नाक पर ऊंगली रख यह निश्‍चित कर लेता है कि वह मर चुकी है तब आवास का द्वार सटा वहां से चला जाता है....किसी भी ने यह आशंका नहीं की टार्चर्‌के भय से भी कोई सुसाइड्‍नोट्‍लिख दे सकता है...सबने यह मान लिया कि जब सुसाइड्‍नोट्‍है तो उस लडकी ने आत्महत्या ही की होगी...

कुनील ने आराम की सांस ली....निज फ्लैट्‍में बैठा वह विचार रहा है कि कैसे वह कैसी कम्पनी खोले...धन पाने के स्रोत के सम्बन्ध में उसे चिन्ता नहीं है...उसने ऐसा सोचा कि वह निज आत्मिक-मानसिक शक्‍तियों से किसी को इतने रुपये कहां से मिले इस सम्बन्ध में विचारने भी नहीं देगा, वैधानिक कार्यवाही तो दूर की बात...
"आपके पब्लिकेशन्‌से जीवनी, बालकथा, स्कूली पुस्तकें, सामाजिक, धार्मिक, आदि विविध विषयों पर पुस्तकें प्रकाशित होती रहती  हैं...मैं एक प्री-प्रेस्‌पब्लिकेशन्‌खोलने जा रहा हूं जो इन किन्हीं भी विषयों पर ई-पुस्तकें एडीटर्स्‌/राइटर्स्‌, डीटीपी औप्रेटर्स्‌, और आर्टिष्‍ट्स्‌के द्‍वारा निर्मित करवा आपको प्रकाशित करने योग्य रूप में दे सकता है..." -कुनील ने एक प्रकाशक से बात की...
"हूं...पर आरम्भ में तो देखना होगा कि आप किस क्वालिटी की पुस्तकें निर्मित करवाते हैं...उसके पश्‍चात्‌ही बार-बार आर्डर्स्‌मिलते रहने की बात आ सकती है...."
कुनील ने एक छः कक्षों के औफिस्‌का क्रय किया...उसमें एक प्री-प्रेस्‌पब्लिकेशन्‌का औफिस्‌स्थापित किया...कम्प्यूटर्स्‌, टेबल्स्‌,चेयर्स्‌, आदि से सज्जित करवा एडीटर्स्‌, राइटर्स्‌, आदि के लिये उसने समाचारपत्र में विज्ञापन दिये...और दस एडीटर्स्‌/राइटर्स्‌, पांच डीटीपी औप्रेटर्स्‌, और पांच आर्टिष्‍ट्स्‌की नियुक्‍तियां कीं...कुल बीस ष्‍टाफ्स्‌में आधे पुरुष और आधी स्त्रियां थीं....कुनील ने केवल उन्हीं को नियुक्‍त किया था जो उसके काम आने योग्य जान पडे, ज्ञानगत योग्यता उनमें पर्याप्‍त हो या नहीं...अब वह एक आकर्षक औफिस्‌का बौस्‌बन औफिस्‌चला रहा था...उसकी अनुपस्थिति में उसका अनुज सुजित बौस्‌के रूप में काम देखता था....कुनील ने सभी एम्प्लायिज्‌के कामों में त्रुटियां निकाल सबको अपने समक्ष लज्जित खडा कर दिया था...इस प्रकार सभी एम्प्लायिज्‌उसकी मुट्‍ठी में आ गये थे...सभी जानते थे कि बौस्‌उन्हें कभी भी जौब्‌से निकाल दे सकता है जबकि प्रत्येक एम्प्लौयी की मानसिक प्रवृत्ति ऐसी थी कि वह जौब्‌से जिस किसी भी प्रकार चिपका रहना इच्छता था....कुनील ने उस पब्लिशर्‌से और अन्य भी पब्लिशर्स्‌से बात कर ई-फाइल्‌के रूप में पुस्तकें निर्मित करने का और्डर्‌प्राप्‍त कर लिया था....उसका बिजनेस्‌पर्याप्‍त लाभ में चल रहा था...अब कुनील बारी-बारी से फीमेल्‌ष्‍टाफ्‌को निज फ्लैट्‍बुला उनके संग यौन सम्बन्ध बनाने लगा...यह आनन्द सुजित ने भी पाया...फीमेल्‌ष्‍टाफ्स्‌के लिये जौब्‌सुरक्षित बनाये रखना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य था, इसके लिये यौन सम्बन्ध बनाना उनके लिये कोई आपत्ति की बात नहीं थी...वे कुनील के संग यौन सम्बन्ध के लिये स्वयम्‌को बहुत इच्छुक अनुभव करती थीं, तथा यह गर्व रहता था  मन में कि बौस्‌जैसे बडे व्यक्‍ति उन्हें यौन आनन्द प्रदान कर रहे हैं...कुनील का भाग्य भी कुछ ऐसा ही था...
पर पुरुष एम्प्लायिज्‌से क्या अतिरिक्‍त लाभ ले....एक दिन एक एडीटर्‌इन्दीवर को कुनील ने कुछ अधिक ही डांट दिया...इन्दीवर का मन अप्रसन्न था आवास लौटते समय भी...एक डीटीपी औप्रेटर्‌दीपक की निकटता थी कुनील से... कुनील ने उससे पूछा- "क्या इन्दीवर बहुत अप्रसन्न था...?"
"अप्रसन्न तो कुछ था ही...पर ऐसा नहीं कि जौब्‌छोडने के मूड्‌में हो..."
"तब भी...मैं इच्छता हूं कि तुम उससे मिलकर बात करो...अभी जाओ...."
"सर्‌, अभी रात होनेवाली है और उसका आवास भी यहां से बहुत दूर है..."
"हूं...तो शौर्ट्‍कट्‍मार्ग से जाओ..." कुनील को अवसर मिल गया था...
"शौर्ट्‍कट्‍...!"
"हां...आत्मा के रूप में जाओ..."
"आत्मा के रूप में...! क्या ऐसा सम्भव है....?"
"हां...तुम अन्दर कक्ष में जाकर लेट जाओ...मन एकाग्र कर इन्दीवर का ध्यान करो...निज शरीर से बाहर निकलने का प्रयास करो...और इन्दीवर के समीप पहुंच जाओ..."
निर्देशानुसार दीपक करना आरम्भ करता है....
"और हां, सुनो...मैं तुम-दोनों को मन से देख-सुन रहा हूंगा...उसे सर्वप्रथम एक घूंसा मारना...जब वह जानना इच्छे कि किसने मारा तो अपना परिचय मत देना...केवल पूछना कि जौब्‌के सम्बन्ध में उसका क्या प्लान है...?"
दीपक वैसा ही करता है...जब इन्दीवर से बातें कर रहा होता है तो कुनील उसे निर्देश देता रहता है कि वह क्या पूछे और क्या करे...तत्पश्‍चात्‌निज शरीर में लौट आता है...
"बडा ही आश्‍चर्यजनक अनुभव कर रहा हूं..."
"मैं इच्छता हूं कि यह अनुभव हमारे सभी एम्प्लायिज्‌प्राप्‍त करें....पर यह बात पूर्णतया गुप्‍त रहनी चाहिये..."
"सर, आपकी तो सभी लोग बात मानेंगे..."
"कल से मैं इस सम्बन्ध में देखता हूं..."
अगले दिन दीपक इन्दीवर से मिल उसका समाचार पूछता है -"कल कैसा दिन बीता...?कुछ अप्रसन्न लग रहे थे..."
"ठीक ही बीता....ऐसी कोई समस्या की बात नहीं है..."
"कोई विशेष बात हुई हो कल तो बताओ..."
"हां....कल एक भूत ने मुझे मारा...और मेरे जौब्‌के सम्बन्ध में भी पूछताछ कर रहा था..."
"अच्छा...!" दीपक उसे कुनील के समीप ले जाता और उसकी कही बात दुहराता है...
"हूं...बैठ जाओ....देखो, यह कोई बडे आश्‍चर्य की बात नहीं है...इच्छो तो तुम भी वैसे ही आत्मा के रूप में कहीं जा किसी को मार सकते और उससे बातें कर सकते...."
"सर्‌, यह कैसे सम्भव है...?"
"सम्भव है...तुम इच्छो तो अभी यह अनुभव प्राप्‍त कर सकते हो...."
इन्दीवर निज मन को बहुत उत्सुक और रेडी पाता है यह अनुभव पाने को...तब कुनील कहता है -"दीपक...इन्दीवर को संग ले मन एकाग्र करो उस मोटे व्यक्‍ति पर जो कल यहां मुझसे मिलने आया था और घूम-घूमकर प्रत्येक कक्ष में निरीक्षण भी कर रहा था...तुम सबने उसे देखा होगा..."
तब दोनों उस मोटे पर ध्यान एकाग्र करते हैं...दोनों आत्मा के रूप में उसके सिर के निकट पहुंच जाते हैं...
"तुम दोनों यहां के सम्बन्ध में अर्थात्‌रूप क्रियेशन्स्‌के सम्बन्ध में बातें उभारो उसके मन में...तब देखो वह क्या चिन्तन करता है..."
दोनों उसके मन को रूप क्रियेशन्स्‌की ओर मोडते हैं निज आत्मिक प्रभाव से...’साला...कुनील का बच्चा...समझता क्या है स्वयम्‌को...जैसा-तैसा कौण्टेण्ट्‍दे लाखों रुपये हडप लेना इच्छता है मुझसे...मैं नहीं क्रय कर रहा उसकी बनायी पुस्तक...’
"मारो मोटे को इतना कि अचेत हो जाये...प्रथम इसके मस्तिष्क के चारों ओर दुर्गन्ध प्रसारो (फैलाओ)..." क्रोध में कुनील ने यह मानसिक निर्देश दिया जो स्वयम्‌वहां की घटनाओं का निरीक्षण कर रहा था....दोनों आत्मायें निज काल्पनिक मुखों को खोल दुर्गन्ध उस मोटे को सुंघाते हैं...मोटा चिल्लाने लगता है कि यह दुर्गन्ध कहां से आने लगा...तब वे निज (अपने) काल्पनिक मुक्कों से मोटे को मार-मार अचेत कर देते हैं...मारते समय वे उस मोटे को यह बोध कराते हैं कि चूंकि उसने कुनील के विरुद्‌ध विचारा इस कारण उसपर यह संकट आया है...कुनील दोनों को लौट आने को कहता है...उसे प्रसन्न्ता है कि उसे दो आत्मा सैनिक मिल गये हैं जो कहीं भी जा कुछ भी कर दे सकते हैं उसके निर्देश पर...एक-दो घण्टे पश्‍चात्‌कुनील मोटे की स्थिति को मन से देखता है तो पाता है कि उसे चेत में लाने का प्रयास किया जा रहा है...मोटा आंखें खोल देखने लगता है...कुनील उसे प्रेरणा देता है कि रूप क्रियेशन्स्‌को रुपये न देने की बात सोचने के कारण ही ऐसा हुआ, अतः वह उसे जाकर रुपये दे दे...मोटा दौडा-दौडा कुनील के समीप पहुंचता है और दो लाख रुपये दे पुस्तक की इलेक्ट्रौनिक्‌फाइल्‌सीडी में ले क्रय कर लेता है....इस प्रकार कुनील को इस बिजनेस से लाखों रुपये का लाभ हो रहा है...
"कैसा रहा ये अनुभव...?"
"सर्‌...बहुत अच्छा लगा...पर आश्‍चर्य है कि अभी तक संसार को इस बात की जानकारी नहीं है....!"
"और न ही जाने...इसका लाभ केवल हमलोग उठायेंगे..."
कुनील विचार रहा है कि औफिस्‌के बीसों ष्‍टाफ्‌को दसों मेल्‌ष्‍टाफ्‌को आत्मा सैनिक बना डाले...तत्पश्‍चात्‌वह आत्मिक प्रभावों से लोगों का मन अपनी ओर मोड चुनाव लड सकता है, और इसी प्रकार वह प्रधान मन्त्री तक बन जा सकता है...वह स्वयम्‌को प्रधान मन्त्री की तुलना में उसके स्तर का प्रतीत कर रहा है...
एक जनवरी को नये वर्ष के अवसर पर उसे अवसर मिल जाता है...सभी ष्‍टाफ्‌एक ष्‍टैण्डर्ड्‍होटल्‌में लंच करने जाते हैं...तत्पश्‍चात्‌स्त्री एम्प्लायिज्‌को छुट्‍टी दे दी जाती है जबकि पुरुष एम्प्लायिज्‌लौट औफिस्‌आते हैं...वहां कुनील सबके समक्ष एक नये मनोरंजन का प्रस्ताव रखता है - "दीपक और इन्दीवर, तुम दोनों इन आठों को आत्मा के रूप में ले पीएम्‌के मस्तिष्क के समीप पहुंचो और वहां निकट हो रही बातों का निरीक्षण करो...मैं तुम्हें और भी निर्देश दूंगा..."
प्रेम मोहन एक शक्‍तिशाली व्यक्‍ति है...दीपक और इन्दीवर अन्यों को बोध कराते हैं कि कैसे क्या करना है...पीएम्‌भाषण दे रहा है...कुनील के निर्देश पर वे पीएम की मस्तिष्क को अवरुद्‍ध कर देते हैं...पीएम की मानसिक शक्‍ति काम नहीं करने लगती है...-"यह वर्ष २०११-२०१२ चल रहा है और...." वह सोच-विचार नहीं कर पाता है कि आगे क्या बोले...ऐसे में वह अकस्मात्‌अस्वस्थ हो जाने की बात कह बैठ जाता है जबकि लोग चिन्तित हो जाते हैं यह सोच कि वे तो पीएम को ही सुनने आये थे...इसके पश्‍चात्‌वे आत्मायें निज अदृश्य मुखों से दुर्गन्ध भरा वायु चारों ओर प्रसारने लगते हैं...सभी लोग सभा छोड चले जाते हैं...दसों आत्मायें कुछ मिनट्‍और बीता लौट आते हैं निज शरीरों में...सभी प्रसन्न और उत्साहित हैं ऐसा अनुभव लेकर...कुनील ने आत्मिक शक्‍ति से दसों के मन को बान्ध रखा है कि न तो इस सम्बन्ध में किसी अन्य से चर्चा करेंगे न ही विना उसकी इच्छा के वे ऐसा अनुभव लेंगे...कुनील ने अब इन दसों आत्माओं को निज वश में कर लिया है...
लोकसभा चुनाव अब निकट आ रहे हैं...कुनील अबतक करोडपति बन चुका है और वह चुनाव लडना इच्छता है...उसने एक बडी पार्टी से टिकट्‍पा लिया निज आर्थिक और आत्मिक शक्‍ति का प्रयोग कर...उसका निकटतम प्रतिद्‍वन्द्‍वी आलु है केवल जिससे ही उसे पराजय का भय है, अन्य सभी प्रत्याशी उसे उसकी पार्टी के और उसके निजी सामर्थ्य के समक्ष दुर्बल जान पडे...कुनील चिन्तन करता है कि किस प्रकार आलु को वोटिंग्‌से पूर्व ही परास्त कर दिया जाये...पर आलु का आत्मा बली है और वह भाग्यशाली भी है...अर्थात्‌उसके आत्मा को वश में कर पाना कुनील को कुछ कठिन जान पड रहा है, तब भी उसकी मानसिक पिटायी का विकल्प वह पा रहा है...
कुनील एक मंच पर खडा भाषण दे रहा है...उसने सभी प्रतिद्‍वन्द्‍वी प्रत्याशियों की आलोचना की, विशेषकर उसने आलु की खिचाई की...उसने अपनी प्रशंसा बढ-चढकर की...आलु को जब ज्ञात हुआ कि कुनील ने स्वयम्‌को सबसे अच्छा प्रत्याशी बताते हुए अन्य सभी की विशेषकर आलु की ऐसी निन्दा की है तो वह क्रुद्‍ध हो गया...परन्तु कुनील उसकी मानसिक स्थिति का निरीक्षण कर रहा था...इसके पूर्व कि आलु कुनील के विरुद्‍ध कुछ प्लान्‌बनाये, कुनील अपने दास आत्माओं को वहां भेज आलु को पीटने कहता है....वे सभी आलु के मस्तिष्क की पिटायी करते हैं...आलु को अनुभव हो जाता है कि आत्मायें पीट रहे हैं...पर पिटायी न सह पा वह अचेत हो जाता है...जब चेत आता है तो वह बताता है कि आत्माओं ने उसे पीटा है...और ये आत्मायें कुनील के द्‍वारा भेजे गये थे क्योंकि उसने उस समय एक स्वर सुना था -’मर कुनील के दुश्मन’...
कुनील की प्रतिक्रिया पत्रकारों के समक्ष -"वह निज रोग छिपाने के लिये मुझपर ऐसा निम्न श्रेणी का आरोप लगा रहा है...अच्छा होगा वह किसी मनश्‍चिकित्सक को निज समस्या या रोग बताये..."
पर आलु को पूरा विश्वास था इस सम्बन्ध में....उसने कुनील का रहस्य ज्ञात करने को विचारा...पर कुनील उसके मस्तिष्क में उठ रहे विचारों को पढ रहा था...उसने सोचा-’यदि आलु का पत्‍ता काट दिया जाये तो मेरी जीत सुनिश्‍चित है...’ उसने निज मानसिक प्रभावों से आलु के मन को हंसोड और मूर्ख जैसा बनाना आरम्भ किया....
आलु निजी असिष्‍टेण्ट्‍के संग चला जा रहा है...रेड्‍लाइट्‍पर उसकी कार खडी है...आलु की दृष्‍टि संग खडी कार की ड्राइविंग सीट पर जाती है....एक युवती कार ड्राइव कर रही है...कुनील आलु की आंखों से उस युवती को देखता है क्योंकि कुनील उस समय निज आत्मिक-मानसिक शक्‍ति से आलु की सभी क्रियाओं का अवलोकन कर रहा था...वह आलु के मन में कामोत्‍तेजना उत्पन्न करता है और उसके मन को अनियन्त्रित कर अपने अधीन-सा कर लेता है...इससे आलु उस युवती के प्रति तीव्र आकर्षित हो जाता है...उसे लगता है उसे उस युवती से प्रथम दृष्‍टि में प्रेम हो गया है...कुनील आलु का साहस बढा देता है और प्रेरणा देता है किसी भी प्रकार उसे अपनी पत्नी बना लेने की...आलु कार से बाहर निकला और उस युवती शालिनी से सीधे बोला -"तुम मुझसे विवाह कर लो..."
इसपर वह चौंकी और बोली -"तू है कौन...?"
"मुझे नहीं आइडेण्टिफाई कर पायी....!.मैं हूं आलु सिंह...देश का केन्द्रीय मन्त्री..."
"हां, जान गयी...पर मेरी सगाई हो गयी है...."
"सगाई हो गयी तो क्या हुआ, फेरे तो नहीं पडे हैं...!"
"पर मैं उसीसे विवाह करुंगी जिससे मेरी सगाई हुई है..."
"ऐसा न निर्णय लो...क्योंकि जिसपर मेरा मन आ जाये उसे मैं विवाह-मण्डप से भी उठवा लूं...अभी तो आपकी केवल सगाई ही हुई है..."
"अभी मुझे शीघ्रता है...कुछ आवश्यक कार्य है...पश्‍चात् कभी मिले तो..."
"आपका ऐड्रेस्‌...फोन्‌नम्बर्‌...?"
वह कार आगे बढाने लगी तो आलु ने उसका हाथ पकड लिया...कई लोगों ने देखा पर सब चुप रहे...आलु ने असिष्टेण्ट्‍से कहा -"इसे जाने न दो..."
बात बिगडती देख शालिनी ने मोबाइल्‌पर सौ नम्बर्‌डायल् कर पुलिस्‌बुला लिया...पर पुलिस वाले आ केन्द्रीय मन्त्री को सैल्यूट करने लगे...आलु ने बताया कि उसका मन शालिनी पर आ गया है और वह उससे विवाह कर ही रहेगा...तब सब-इंस्पेक्टर्‌ने भी शालिनी को समझाया -"ये आपसे विवाह करना इच्छते हैं, बलात्कार नहीं..."
शालिनी का कुछ भी मन नहीं था उससे विवाह करने का, पर आलु उसके आवास भी पहुंच गया और विवाह के लिये दबाब डालने लगा...एक दिन, दो दिन, तीन दिन...तो शालिनी समझ गयी यदि उसने उसकी बात नहीं मानी तो वह उसे शान्ति से जीने नहीं देगा...अन्ततः वह हार गयी और विवाह के लिये मान गयी...
शालिनी - "ये तुम्हारा नाम आलु सिंह क्यों है...?"
"मेरे पिताजी आलु के बहुत बडे व्यापारी थे...जिस वर्ष मेरा जन्म हुआ उस वर्ष उन्हें आलु के व्यापार से बहुत लाभ हुआ था....अतः यह विचार कर पिता ने मेरा नाम आलु रख दिया जिस प्रकार आलु के व्यापार से उन्हें बहुत लाभ होता है उसी प्रकार इस पुत्र का नाम आलु रख देने से यह भी मुझे बहुत लाभ देगा..."
"पर मेरे सोशल्‌ष्टेटस्‌से यह नाम मैच नहीं करता...अर्थात्‌मेरे पति का नाम आलु, बैंगन, राजमा, यह मेरे पोजीशन्‌के अनुकूल नहीं है...लोग क्या कहेंगे -’आलु की पत्नी बैंगन रानी...!"  
"अरे, आप क्या मुझे भाजी बेचनेवाला समझ रही हैं....? मैं हूं इस देश का केन्द्रीय मन्त्री...किस माई के लाल का साहस है कि वह मेरे या आपके विरुद्‍ध एक शब्द भी बोल सके...!"
"हां वो तो है... पर एक कण्डीशन्‌है...वह आपको मानना होगा...."
"अरे एक क्या दस भी कण्डीशन्‌मानने को रेडी हूं....आवास में दो और कार में एक कण्डीशनर लगा रखा है...अब मैं शालिनी कण्डीशनर भी लगवाने को रेडी हूं जिससे आप सदा आनन्द से रहें..."
"विवाह केप पश्‍चात्‌आप मेरा सर्‌नेम्‌शर्मा अपने नाम के आगे लगायेंगे...और मैं केवल शालिनी शर्मा ही रहूंगी..."
"धत्‌तेरे की...इतनी छोटी-कुनील कण्डीशन्‌....मैं रेडी हूं...मैं समाचारपत्रों में छपवा दूंगा कि आज से मुझे आलु सिंह शर्मा के नाम से जाना जाये..."
आलु ने सुशीघ्र शालिनी से विवाह कर लिया, और एक नये फ्लैट्‌का क्रय कर वहां निवास करना आरम्भ कर दिया...तीन-चार दिनों के पश्‍चात्‌सहसा उसका ध्यान निज गांव की ओर गया...वह तुरत गांव की ओर प्रस्थान कर गया, और पहुंचकर अपनी प्रथम पत्नी और बच्चों से मिला...
"पांच वर्ष होने को है और मन्त्री बने और हमलोगों को आप अभी तक गांव में ही रखे हुए हैं...नगर नहीं ले चलेंगे...?" पत्नी ने अप्रसन्नता व्यक्‍त की...
"ये लो मिठाई खाओ...एक बहुत ही फर्ष्‍ट्‍क्लास्‌पत्नी मिल गयी मुझको....अभी-अभी विवाह कर आ रहा हूं..." आलु ने इतनी निर्लज्जता और साहस से कहा कि पत्नी ’क्या...?’ बोल कुछ कहना इच्छती ही थी कि आलु ने सौ के नोटों की कई गड्डियां सूट्केस्‌से निकाल उसके हाथों में थमायी और बोला-"ये सब तुम्हारे लिये है...तुमलोग यहीं आनन्द लो...और हम वहीं आनन्द लेंगे अब अपनी नयी पत्नी के संग..."
पत्नी, पुत्र, पुत्री सभी प्रसन्न हो गये - "क्या ये सब हमारे लिये है...!"
आलु ने हां में सिर हिलाया...तीनों नोट्‍गिनने में लग गये और योजना बनाने लगे कि आगे क्या करना है...
"इतना ही नहीं, और भी भिजवाता रहुंगा...तो मैं अब जाउं...?"
"हां पिताजी...पर कभी-कभी आते रहियेगा...."
"हां जी, पूरा मत भूल जाइयेगा...हमलोगों का भी स्मरण करते रहियेगा कि हमलोग किस स्थिति में हैं..."

तबसे आलु सिंह का नाम आलु सिंह शर्मा हो गया...वह नयी पत्नी में इतना मग्न हो गया कि चुनाव हार गया, और कुनील चुनाव जीत गया...कुनील यही इच्छता था कि आलु का मन कहीं और व्यस्त हो जाये और वैसा ही हुआ...पर उसकी पार्टी विपक्ष में रही जिस कारण वह मन्त्री नहीं बन सका....कुनील कितना भी आत्मिक-मानसिक शक्‍ति का प्रयोग करे, सत्तारूढ दल उसे निज समूह में ले मन्त्री बना दे ऐसी स्थिति वह नहीं ला पाया...इससे उसका मन क्रुद्‍ध होने लगा...अब वह प्रधानमन्त्री कैसे बनेगा....वह खिन्न मन से बौस्‌के चेयर्‌पर बैठा था...लोगों की दृष्‍टि में जहां उसके सांसद बन जाने से उसका महत्त्व बढ गया था वहीं कुनील की प्रधानमन्त्री बनने की कामना पूरी न होने के कारण वह अप्रसन्न रह रहा था...कुनील ने सत्तारूढ दल के अध्यक्ष पर दृष्‍टि घुमायी जिसने उसकी पार्टी को सत्तापक्ष के समूह में सम्मिलित करना अस्वीकार कर दिया था...कुनील के मन, हृदय, और आत्मा सभी बहुत ही लैसिवियस्‌अर्थात्‌कामातुर थे...उसने निज अतिकामातुर और मलिन मस्तिष्क का तीव्र प्रभाव उस पार्टी अध्यक्ष पर डाला...अध्यक्ष का मन और तन अनियन्त्रित हो किसी के संग यौन सम्बन्ध बनाने को इतना आतुर हो गया कि उसने पार्टी कार्यालय के उसी कक्ष में बैठी एक स्त्री का सबके समक्ष बलात्कार करना आरम्भ कर दिया...बैठे तीन-चार अन्य लोगों के लिये यह एक मनोरंजक दृश्य बन गया और वे आनन्द उठाने लगे लाइव्‌शो का...जब अध्यक्ष काम पूरा कर पुनः चेयर्‌पर बैठा तो उनमें एक बोला- "अध्यक्ष महोदय, यदि ये आपके मन को इतना ही भा गयी थीं तो आप कहे होते, सब काम ढंग से होता...ऐसे सबके समक्ष...!"
"अरे क्या बतायें...अकस्मात्‌ऐसा लगा कि किसी को लिया नहीं तो प्राण निकलने लगेंगे....इसीलिये...नहीं तो...."
"तो ठीक है....पर अब इनका काम भी तो आपको पूरा करना चाहिये..."
"हां हां, अवश्य..." अध्यक्ष ने उस स्त्री की ओर देखते हुए कहा...
कुनील का मस्तिष्क इस दृश्य को देख रहा था...उसके गर्म मन को कुछ आराम का अनुभव हुआ...

अभी उसकी गर्मी कुछ न्यून हुई थी कि उसे अनुभव हुआ कहीं प्रकाश प्रसरा है...कहीं कोई ऐसा ध्यान लगा रहा है कि वह प्रकाशमय हो गया है...कौन होगा वह...? कुनील ने निज मन को दौडाया और ध्यानकर्ता पर्यन्त पहुंचाया...’अरे ये तो राघवेन्द्र कश्यप है...!’ उसके मन में जैसे आग लग गयी और हृदय जैसे जलने लगा राघवेन्द्र को इतना अच्छा ध्यान लगाते देख...कुनील का हृदय और मन उन सबके प्रति शत्रुता अनुभव करता था जिनमें अच्छाई के या सच्चाई के या अध्यात्म के स्पष्‍ट लक्षण दिखाई देते थे...उसने निज मानसिक शक्‍ति से राघवेन्द्र की ध्यानसाधना में बाधा डालना आरम्भ कर दिया...अब उनकी ध्यान ज्योति न्यून दिख रही थी...धीरे-धीरे ध्यान ज्योति कुनील के मन को दिखने से अदृश्य हो गयी...कुनील का मन राघवेन्द्र की ओर खिंच गया...कुनील यह मानता था कि एम ए की परीक्षा में राघवेन्द्र को नहीं वरन्‌उसे टौप्‌करना चाहिये था...राघवेन्द्र ने उसे यूनिवर्सिटी टौपर्‌नहीं बनने दिया, वह राघवेन्द्र को कोई भी सफलता पाने नहीं देगा और न ही सुख से जीने देगा...सांसद बन जहां लोग सुख, शान्ति और उन्नति का जीवन पा जाते हैं वहीं कुनील सांसद बन जाने के पश्‍चात्‌दुःख, अशान्ति और पतन का जीवन पा गया...वह राघवेन्द्र के कार्य कलापों का मानसिक प्रत्यक्ष करता रहता और उन्हें दुर्गति देने से लेकर नष्‍ट कर देने के प्रयासों में लग गया...वह राघवेन्द्र की अनुपस्थिति में अन्य व्यक्‍तियों को उनके कक्ष की डुप्लिकेट चाभी बना प्रवेश कर उनके लेखन कार्यों को प्रकाशन से पूर्व ही कौपी करवा लेने की सफल प्रेरणा देता है...आगे चलकर वह भोज्य पदार्थों आदि में विष मिला देने को भी कहता है और ऐसा ही किया जाता है पर राघवेन्द्र निज भाग्य से मानसिक बोध आदि द्वारा रक्षा पाते रहते हैं...कुनील की जलन और शत्रुता राघवेन्द्र के प्रति इतनी बढ गयी है कि वह प्रत्येक उस व्यक्‍ति के जीवन में विष घोलने का प्रयास करता है जिससे राघवेन्द्र को सहायता या लाभ पाने की सम्भावना जान पडती है या जो राघवेन्द्र के सम्बन्धी हैं...दिल्ली, उत्तराखण्ड, बिहार, महाराष्ट्र कितने ही स्थानों पर कुनील ने कितने ही लोगों के तन-मन में तीव्र कामाग्नि जला या अशुभ प्रेरणा दे पारिवारिक जनों के मध्य ही यौन सम्बन्ध बनवा दिया....लोगों को लगता था कि वह उसकी अपनी इच्छा है पर उसके पीछे कुनील का या उसके दास आत्माओं का तीव्र प्रभाव काम कर रहा होता था... कभी किसी के विरुद्‍ध तीव्र जनाक्रोश उत्पन्न करवा दिया कुनील ने तो किसी की हत्या करवा दी वैसी ही प्रेरणा दे...अच्छी और बली आत्मायें भी अनियन्त्रित कामाग्नि की पकड में आ जाती हैं....कुनील पीएम के मन को स्वीकार करवा देता है कि वह राघवेन्द्र की हत्या करवा दे...पीएम ने दो बार राघवेन्द्र को मार डालने को हत्यारों को भिजवाया कि वे राघवेन्द्र को पीट-पीट कर मार डालें, पर यह उनका भाग्य ही थी कि दोनों बार हत्यारे उन्हें किसी कारणवश मार न पाये और राघवेन्द्र सुरक्षित रहे...देश को हानि पहुंचाने के उद्‍देश्य से उसने देश चलाने वालों को प्रेरणा देनी आरम्भ कर दी कि वे जितना बन सके उतना आर्थिक आदि भ्रष्‍टाचार करें...और कुनील एवम्‌उसके दास आत्माओं की अशुभ प्रेरणा लोग अधिकतर स्वीकार कर ही लेते थे...कुनील न केवल राघवेन्द्र और सज्जनों का ही अपितु देश का भी दुश्मन बन चुका था...वह मानव समाज का भी रावण, कंस आदि जैसा दुश्मन बन चुका था जो निज प्रबल शक्‍ति से केवल हानि और पतन प्रसार रहा था चारों ओर...और किसी का भी साहस नहीं था कि वह उसके विरुद्‍ध मुंह भी खोल सके...
कुनील के सांसद काल के पांच वर्ष बीत गये थे...जबसे उसने राघवेन्द्र को नष्ट करने को ठान लिया तबसे उसका मन बिजनेस में नहीं लगने लगा...अब सुजित ही बिजनेस-डीलिंग करता था और औफिस चला रहा था...कुनील राजा की भांति वहां केवल मनोरंजन करने जाया करता था...सभी ष्‍टाफ वैसे ही निज जौब से चिपके थे...कुनील के मन में ईर्ष्या और द्‍वेष की आग लगी हुई थी...अतः उसका मन नहीं बना कि वह पुनः चुनाव लडे...उसका मन जिसके भी विरुद्‍ध हुआ उसे उसने दुर्गति में या मृत्यु के मुख में भी पहुंचा दिया, पर राघवेन्द्र के विरुद्‍ध लोगों को सफल रूप से भडकाकर भी केवल संकट की स्थिति ही उत्पन्न कर पाया और राघवेन्द्र सुरक्षित शेष रहे...इस असफलता से उसका क्रोध इतना बढा कि उसने निज विवेक को खो दिया....उसने आत्माओं की एक सेना बनाने का जो स्वप्न देखा था वह भी धूल में मिला जान पड रहा था क्योंकि उसकी मनःप्रवृत्‍ति कुछ भी विकास या निर्माण की नहीं रह गयी थी...पोर्नोग्रैफी इन दिनों वह कुछ अधिक ही मन लगाकर देख रहा था जिससे वह एक अनैतिक व हिंसक पशु बन चुका था जिसकी दृष्‍टि में संसार में कोई भी अपना नहीं रह गया था और वह किसी भी को कैसी भी हानि पहुंचा दे सकता था...कुनील के अतिकामुक, अनैतिक, और हिंसक मन-बुद्‍धि-आत्मा के कुप्रभाव से देश में चारों ओर पतनकारी कर्म बहुत तीव्र गति से प्रसर रहे थे...लोग निर्भय और निर्लज्ज हो यौन और आर्थिक आदि भ्रष्‍टाचार में संलग्न होने लगे...केवल  राघवेन्द्र कुनील की वास्तविकता का बोध कर पाये थे अभी तक...
जिन चतुर्मार्गों के निकट कुनील के आवास और औफिस थी वहां प्रत्येक ही दिन दुर्घटनायें होने लगीं...वहां से गुजरते कभी किसी गाडी का ब्रेक काम नहीं करने लगता तो कभी चलानेवाला का मस्तिष्क काम नहीं करने लगता...लोगों को वहां से गुजरते ’ही ही ही...भूः भूः बूः...’ ऐसी कुछ ध्वनियां सुनायी पडने लगती हैं कि ऐसा कोई बोल रहा है...दुर्घटना में लोगों को क्षति पाते या मरते देख कुनील के मन को इतनी प्रसन्नता मिलती है कि वह खिलखिलाकर हंसता है...ऐसा उसका मनोरंजन है....
एक दिन पीएम वहां से गुजर रहा होता है...कुनील उसे वहां से गुजरते मन से देख लेता है और उसके मस्तिष्क की शक्‍ति को बान्ध देता है...उसे ऐसी ही स्वरध्वनियां सुनायी पडने लगती हैं...पर कार ड्राइवर चला रहा था इसलिये ऐक्सीडेण्ट नहीं होता है...पर पीएम अभिजान जाता है यह कुनील का ही स्वर है क्योंकि ऐसे ही स्वर ने उसे राघवेन्द्र के विरुद्‍ध भडकाया था... और जब राघवेन्द्र ने कुनील के विरुद्‍ध कम्प्लेन्‌करते हुए उसकी तान्त्रिक शक्‍तियों को बताया तब जाकर यह स्पष्‍ट हुआ कि वह कुनील था...पर पीएम ने राघवेन्द्र के कम्प्लेन को अनदेखा किया क्योंकि एक तो कुनील के विरुद्‍ध कोई प्रमाण नहीं था, द्वितीय, पीएम स्वयम् ही राघवेन्द्र के विरुद्‍ध मन वाला व्यक्‍ति था...अतः वह कुनील के सभी अशुभ और आपराधिक कर्मों को जानकर भी चुप रहता है...
अब देश के एक प्रख्यात वैज्ञानिक वहां से गुजर रहे थे...वैज्ञानिक और ड्राइवर दोनों कुनील के मानसिक कुप्रभावों में आ जाते हैं...वैज्ञानिक को मस्तिष्क में चोट लगती है और वह हौस्पीटलाइज्ड्‌हो जाता है...चेत आने पर वह कहता है कि किसी आत्मा ने यह ऐक्सीडेण्ट करवाया ऐसा अनुभव हुआ...पीएम यह बात जानता है...वह अन्य लोगों से इस सम्बन्ध में बात करता है पर कोई कार्यवाही नहीं करवाता है...कुनील मन से तुरत जान जाता है जो बातें उसके सम्बन्ध में पीएम आदि के मन में उभर रही हैं..वह तुरत देश के विभिन्न चतुर्मार्गों (चौक) पर वैसी दुर्घटनायें करवाना आरम्भ कर देता है...कुनील का मन और आत्मा भी संसार के किसी भी स्थान पर पल भर में पहुंच कर वहां होने जैसा सारा काम कर दे सकता है...कभी कुनील केवल मन से कामना करता और वैसी घटनायें आकार लेना आरम्भ कर देती हैं...जैसे उसने पूर्व के जन्म में मनःकामनासाधक मन्त्र सिद्‍ध किया हो...
यद्‍यपि पीएम की यह स्वभाव था कि वह राघवेन्द्र के विरुद्‍ध सभी बातों और व्यक्‍तियों को अपने पक्ष में समझता था, और राघवेन्द्र के विरोधी पक्ष को बल देने का प्रयास करता था, तथापि संयोग से एक दिन उसकी राघवेन्द्र से मनोवार्ता (टेलिपैथी) हो जाती है...राघवेन्द्र बताते हैं कि यह सब और भी अनेक बातें सब कुनील के कारण हो रही हैं...
"कुनील के संग इतनी प्रबल शक्ति हुई कैसे...?"
"कुनील पूर्व जन्म का तान्त्रिक भाई बाबा है...उसी की शेष शक्‍ति अभी भी इतनी प्रबल है..."
"पर, भाई बाबा तो विनय ठाकुर था...!"
"विनय ठाकुर अन्य सभी रूपों में था, केवल भाई बाबा के अतिरिक्‍त...भाई बाबा कुनील ही था..."
"इस समस्या का क्या समाधान हो सकता है...?"
"पूर्व जन्म में बोरी में बान्ध पत्थरों से मारा गया था....इस जन्म में आग में जला मारा जा सकता है..."
"आग में...?"
यहीं तक मानसिक वार्ता हो पायी...तब राघवेन्द्र का ध्यान कुनील की ओर गया...उनने अनुभव किया कि कुनील बहुत आनन्द पा रहा है...जब ध्यान एकाग्र किया तो...ये क्या...! ये तो फक्ड्‍हो रहा है...! वहां क्या हो रहा था कि कुनील औफिस में कमप्यूटर पर पोर्नोग्रैफी देख रहा था और कामभ्रष्‍ट हो अपने पुरुष एम्लायिज, दास आत्माओं, से फक्‍ड हो रहा था...वस्तुतः कुनील का यह प्लान था कि यदि राघवेन्द्र को वह फक्ड करवा दे तो राघवेन्द्र की सारी ध्यान-साधना और अध्यात्म और उसका महत्त्व सब बिखर जा सकते हैं...इसके लिये ’फक्ड होने में बहुत आनन्द है’ यह विचार निज तन-मन में छा राघवेन्द्र के मन में समाने का प्रयास कर रहा था....राघवेन्द्र के मन को बहुत उत्तेजित करने पर भी वह उन्हें फक्ड नहीं करवा पाया, पर ऐसी बुद्धि उसकी स्वयम्‌की बन गयी कि फक्ड होने में बहुत आनन्द है और वह स्वयम्‌ही फक्ड होने लगा...उसके पश्चात्‌कुनील आराम करने लगा कि सहसा उसे लगा कोई उसे मनसा (मन से) देख रहा है...उसने भौंहें सिकोडी और मन दौडाया तो पाया कि ये तो राघवेन्द्र है...राघवेन्द्र के जानने में सारी बात आ गयी...कुनील ने तुरत बुद्धि दौडायी और मन से पहुंचा आलु के समीप...आलु निज फ्लैट में किसी से बातें कर रहा था...कुनील ने आलु को कुप्रेरणा दी -’यह व्यक्‍ति ऊपर से मित्रता का दिखावा करता है पर अन्दर से तुमसे जलता है...ये तुम्हें मार डालना इच्छता है...पर उससे पूर्व तुम इसे मार डालो...यह बाल्कोनी के टूटे रेलिंग से एक ही धक्के में गिर मरेगा...हां...करो...’ संग ही कुनील यह दृश्य वह राघवेन्द्र को दिखा-सुना रहा है...’मुझे इसे मार डालना चाहिये’ ऐसी भावना उसके मन में इतनी अधिक छा गयी कि वह उठा और उस व्यक्‍ति को बाहर का दृश्य दिखाते पीछे से धक्का मार नीचे गिरा दिया...वह व्यक्ति नीचे गिरा, रक्त ही रक्त प्रसरा भूमि पर....आलु चिल्लाया -"अरे कोई है....! बचाओ....ये नीचे गिर पडे..."  राघवेन्द्र को यह दृश्य दिखा कुनील ने उन्हें मानसिक धमकी दी..."यह सच में घटी घटना है...कल समाचारपत्रों में पढ लेना...और यदि तुम नहीं इच्छते कि कोई तुम्हें भी मार डाले मुझसे प्रेरणा पा तो तुम ध्यान लगाना बन्द कर दो..."
राघवेन्द्र ने कुनील को मनसा देखना रोका और विचार किया कि उसे कुनील से भय करने की कोई आवश्यकता नहीं है...पर कुनील की शक्‍तियां मानवजाति के लिये बहुत ही हानिकारक हैं...देश में कभी भी किसी भी व्यक्ति पर संकट ला देने का सामर्थ्य रखता है....
प्रदेश के मुख्यमन्त्री का भाषण बडे मैदान में हो रहा है...सहसा बम फूटने की ध्वनियां सुनायी पडती है....और गोलियां चलने की ध्वनियां भी संग सुनायी दे रही हैं...लोगों में भगदड मच जाती है...देखते ही देखते मैदान रिक्त हो जाता है...पर वास्तव में न कोई बम फूटा है और न ही गोलियां चली हैं...मुख्यमन्त्री आश्चर्यचकित हुआ यह जानकर...तभी उसे लगा कोई उसके कानों में कह रहा है -"तूने मेरे विरुद्‍ध कार्यवाही की बात सोची भी तो तेरा शासन नहीं रहेगा...."
’मैंने किसके विरुद्‍ध कार्यवाही की बात विचारी...और यह भूत जैसा मेरे कानों में कहा कौन...? क्या कोई भूत मानव रूप में रह रहा है...!’ उसने निज सचिव से पूछा कि उसने अभी निकट में किसके विरुद्‍ध कार्यवाही की बात कही है...?
"सर, आपने कल बल देते हुए कहा था कि आये दिन अप्रत्याशित रूप से होनेवाली दुर्घटनाओं के पीछे जिनका हाथ है उन हाथों को काट डाला जायेगा...और अपराधी के सम्बन्ध में आपको कुछ लोगों से जानकारी मिली है..."
"ये हाथ मुझे दे दे मुख्यमन्त्री...."
"हं...ये किसने कहा मुझसे...?"
"क्या सर...क्या हुआ...?"
"किसी ने मुझसे कहा कि ये हाथ मुझे दे दे मुख्यमन्त्री...."
"पर मैं तो लगातार आपके संग हूं....किसी भी ने नहीं कहा आपसे..."
"चलो, यहां से चलो सुशीघ्र..."
मुख्यमन्त्री की कही बात प्रसरती है कि किसी भूत ने विस्फोट की केवल ध्वनियां उत्पन्न कीं और मुख्यमन्त्री को धमकाया...पीएम मुख्यमन्त्री की बात सुन समझ जाता है कि यह कुनील ही है धमकी देनेवाला...वह मुख्यमन्त्री को फोन कर कुनील के सम्बन्ध में बताता है...कुनील उनदोनों की हो रही बातों को मनसा सुन रहा है, क्योंकि जब भी कोई उसके सम्बन्ध में विचारता या बोलता है तब उसके मस्तिष्क को स्वयम्‌ही जानकारी मिलने लगती है...स्थिति अब यह बनी कि देश-प्रदेश के प्रमुख लोगों को इस सम्बन्ध में जानकारी मिल गयी कि कुनील ऐसा कर-करवा रहा है पर सबको भय है कि कहीं कुनील उनकी बातें सुन उनकी दुर्गति या मृत्यु ला दे सकता है...इस कारण सभी चुप हैं...किसी भी को कोई उपाय नहीं सूझ रहा है इस संकट से मुक्ति का...मुख्यमन्त्री कुनील को अरेष्ट करवाने की सोचता है...पर सोचते ही उसका मस्तिष्क काम करना बन्द कर देता है...वह आंखें खोल मूर्ति सा चेयर पर बैठा है और उसका मस्तिष्क उसकी बुद्धि काम नहीं कर रही है...उसका आत्मा कुनील की पकड में है...अन्य लोग तुरत उसे हौस्पीटल ले जाते हैं...कुछ समय पश्चात्‌कुनील उसके आत्मा को छोडता है पर आत्मा के रूप में वहां उपस्थित रहता है...मुख्यमन्त्री को चेत आता है...वह उपस्थित लोगों की ओर देखता है...सभी प्रसन्नता दर्शाते हैं...
"यह तभी हुआ जब मैंने उसे अरेष्ट करने को सोचा..."
"किसे...?" सभी उत्सुक हुए...
"वो..." कहते-कहते वह ’आह्‌आह्‌...’ कराहता पुनः अचेत हो गया...आत्मा कुनील उसे आत्मिक मुक्कों से मारने लगता है कि वह पुनः अचेत हो  गया...मुख्यमन्त्री कुनील के सम्बन्ध में पूर्व ही बहुत कुछ सुन चुका था, पर अब मार खाकर वह बहुत सावधान हो गया था...मुख्यमन्त्री स्वयम्‌ही गुण्डा-टाइप का व्यक्ति था जो मार-धाड और छल-प्रपंच की राजनीति करते-करते विधायक से मन्त्री से मुख्यमन्त्री तक का पद पा गया पर इस भूत गुण्डे के समक्ष वह टिक न सका...

कुनील ने रुपये अर्जित करने में मन लगाना छोड दिया था और ईर्ष्या, शत्रुता और हिंसा भरा जीवन बीताने पर उतारु हो गया था...उसका मन करता था कि पूरे देश में और पूरे विश्व में भी अशान्ति. हिंसा, युद्‍ध आरम्भ हो जाये और लोग मारे जाने लगें....कोई शेष न रहे इस पृथिवी पर...पोर्नोग्रैफी का पर्याप्त मनोरंजन करते रहने से माइण्ड करप्ट हो कुछ भी अनुचित करने को रेडी हो जाता है ऐसा उसने स्वयम्‌के संग और कई अन्य के संग भी घटते अनुभव किया था...अतः उसने जिस किसी के मन को पोर्नोग्रैफी देखने में बहुत आनन्द लेनेवाला बनाना आरम्भ कर दिया, विशेषकर जो उसके विरुद्‍ध विचारे...वह आत्मा के रूप में नगर में निकला और कुछ गडबड कर मनोरंजन करने को एक स्थान से द्वितीय स्थान को भ्रमण करने लगा...एक पर्यटक बस उसकी दृष्टि में आयी जो तीव्र गति से चली जा रही थी....उसने उसके ड्राइवर्‌को प्रेरणा दी कि वह तुरत गाडी से बाहर कूद जाये...ड्राइवर्‌का मन वैसा करने को रेडी हो गया और विना विचार किये वह तीव्र चलती बस से बाहर कूद पडा....बस विना ड्राइवर के यात्रियों को लिये तीव्र दौडती एक अन्य वाहन से टकरा रोड पर पलट गयी....कई लोग घायल हुए और कई मारे गये...कुनील के जलते मन को वर्षा की बून्दें पडती जान पडीं...उसने कुछ सन्तोष अनुभव किया...अभी वह आनन्द ले रहा था कि उसे षड्‍यन्त्र रचा जाता अनुभव हुआ....उसने मनसा जाना कि एक गाडी यहां बम से भरी जा रही है जो देश में विस्फोटों के काम आने हैं...उसने उन्हें प्रेरणा दी कि वे गाडी को किसी मार्केट में ले जायें...यद्‍यपि उन्हें सावधानी से गन्तव्य पर पहुंचाना था पर उनका मन रेडी  हो जाता है मार्केट जाने को...उनका मन कुनील के नियन्त्रण में आ जाता है और वे वहां उसकी इच्छानुसार एक बम अन्य बमों पर दे मारते हैं...इससे भयंकर विस्फोट होता है और जिससे कई बिल्डिंग्स क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और सैंकडों घायल और मारे जाते हैं....
कुनील आत्मा के रूप में मानवजाति को चुनौती बन गया था...वह किसी भी व्यक्ति से कुछ भी करवा ले सकता था...उसने विचारा भारत शासन के अधीन तो बम और बारुद के कई भण्डार हैं, यदि उनमें वह विस्फोट करवा दे तो क्या रंगीन दृश्य होगा....! जिस समय वह ऐसा विचार रहा था उसी समय उसने राघवेन्द्र की ध्यान साधना से प्रकाश प्रसरता अनुभव किया...जिससे उसके मन का सम्पर्क राघवेन्द्र के मन के संग हो गया और राघवेन्द्र विस्फोट आदि बातों का रहस्य जान जाते हैं...अगले दिन जब यह समाचार समाचार पत्रों में प्रकाशित होता है तो राघवेन्द्र तुरत पीएम से मनोवार्ता कर बताते हैं कि कुनील ने ही करवाया बस-ऐक्सीडेण्ट और मार्केट में विस्फोट क्योंकि उन्हें उसी समय अनुभव हो गया था कुनील के मस्तिष्क का...उसी ने बस-ड्राइवर का मन बना दिया था चलती बस को छोड बाहर कूद जाने का...
"पर ऐसे तो कुनील ट्रेन के ड्राइवर और एयरोप्लेन के पायलेट का भी मन बना दे सकता है कि वे यात्रियों को चलते में छोड बाहर कूद जायें....?"
"हां...और अब हमारे परमाणु संयंन्त्र, आयुधशाला, संसद्‌भवन आदि कोई भी स्थान सुरक्षित नहीं रह गया है, क्योंकि कुनील कहीं भी कुछ भी करवा दे सकता है...इससे पूर्व कि यह संकट विकराल रूप ले, इस संकट को कुचल देना होगा..."
पर पीएम इस भय से कि कुनील उनकी बातें सुन ले सकता है, चुप ही रहता है...उसे भय है कि वह भी मुख्यमन्त्री जैसी या अधिक भी दुर्गति पा जा सकता है कुनील से...जानने वाले जान चुके हैं यह कुनील शैतान है पर कोई भी व्यक्‍ति उसके विरुद्‍ध बोलने का भी साहस नहीं कर पाता है....कुनील का ऐसा आतंक प्रसरा है... यद्‍यपि कुनील का मन अभी ट्रेन, वायुयान आदि की दुर्घटनाओं पर नहीं गया है पर कार, बस आदि ऐक्सीडेण्टस वह जब इच्छे तब करवाता रहता है...पर लोग अभी भी ड्राइव करना छोडे नहीं हैं...पर कुनील इस चिन्ता को जान जाता है और कहता है कि वह दिन भी अब शीघ्र आयेगा...क्या पायलेट एयरोप्लेन छोड नीचे कूद जाये...नहीं...अभी रेलगाडी ही ठीक रहेगी...पर ऐसा विचार करते समय उसके मन का सम्पर्क राघवेन्द्र के मन से बना है और यह बात उनको ज्ञात हो जाती है...राघवेन्द्र कुनील के पुराने संगी धनंजय को मनोवार्ता में यह बात बताते हैं...
धनंजय -"हमें इतनी बडी दुर्घटना को रोकने का कोई उपाय करना होगा..."
"हूं...पर एक रोक भी लेनेपर द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ आदि या कोई अन्य दुर्घटनायें...और समस्या यह है कि जो कोई कुनील के विरुद्‍ध जाना इच्छता है उसे या तो तीखी मार मिलती है या उसे कामोत्तेजित कर जिस-किसीके संग उसका यौन सम्बन्ध बनवा दिया जाता है...ऐसे में कामभ्रष्ट व्यक्ति कुनील के विरुद्‍ध साहस खो देता है..."
"मैं भी मनसा देखता हूं कि कुनील क्या प्लान बना रहा है...."
पर कुनील ने तो यह विचारा और वह कर डाला...कुछ ही समय में एक चलती ट्रेन का ड्राइवर अचेत या सो गया होता है और ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है...सैंकडों घायल हुए और मारे गये...पर कुनील का मन प्रसन्नता के झोंके पा रहा है...धनंजय यह समाचार सुनते ही  कुनील पर क्रुद्‍ध हो जाता है पर उसका क्रोध कुनील के मस्तिष्क को छू जाता है....कुनील यह जान तुरत धनंजय के तन-मन को इतना अधिक कामोत्तेजित करता है कि धनंजय निज पुत्री को पकड उससे सम्भोग करने लगता है...सम्भोग के पश्चात्‌धनंजय का मन पोर्नोग्रैफी देखने का होने लगता है...वह वह भी करता है...तत्पश्चात्‌सोचता है -’कुनील के विरुद्‍ध कुछ कर पाना उसके वश की बात नहीं... जो हो रहा है होने दो...’ राघवेन्द्र समझ जाते हैं कि धनंजय के मन में उभरी बातों को जान कुनील ने उसे शिथिल कर दिया है...
कुनील राघवेन्द्र के मन को देखते रहता है कि वे किससे क्या बातें कर रहे हैं, क्या विचार रहे हैं...इस बात को ध्यान में रखते हुए अपने ब्लौग्‌वेब्साइट्‌पर उनने प्रकाशित किया कि शैतान इन-इन कर्मों को कर चुका है और उसकी ऐसी-ऐसी शक्‍तियां हैं, और वह ऐसा-ऐसा और कर सकता है...इस संकट से मुक्ति पाना सरल नहीं है क्योंकि जैसे ही कोई उसके सम्बन्ध में सोचता है वह उस व्यक्ति के मन की सारी बातें जान लेता है...तत्पश्चात्‌वह कुनील के विरुद्‍ध क्या प्लान बनायेगा, कुनील किसी अन्य व्यक्ति के मन को पकड उसके माध्यम से उस व्यक्तिकी हत्या तक करवा दे सकता है....तत्पश्चात्‌वह अन्य व्यक्ति यह सोचता ही रह जायेगा कि उसने ऐसा क्यों किया...! शैतान का अन्त विषाक्त भोजन से किया जा सकता है...पर जो व्यक्ति इस कार्य को रूप दे वह निज मन में शैतान का रूप उभरे विना या शैतान के सम्बन्ध में कुछ भी सोचे विना सारा कार्य करे...

तीन मित्रों की दृष्टि में यह लेख आया...उन्होंने भी ऐसा कुछ सुना था पर यह शैतान है कौन...?लेख पढ उन्होंने विचार किया कि अब वे उस शैतान का न तो चित्र देखेंगे और न ही उसके सम्बन्ध में सोचेंगे पर लक्ष्य को पायेंगे...केवल उसके भोजन में विष मिला देना है इस बात पर मस्तिष्क केन्द्रित रखेंगे...प्रयास कर वे तीनों मुख्यमन्त्री से मिलने में सफल हुए और उससे यह स्वीकार करवा ही लिया कि शैतान ने उसे मारा है और विभिन्न दुर्घटनाओं, हत्याओं आदि दुःखद घटनाओं में कुनील का ही हाथ निश्चित रूप से है...पर भय के कारण उसने उन तीनों को कुनील का ऐड्रेस बताना अस्वीकार कर दिया कि यदि कुनील क्रुद्‍ध हो गया तो...अब उन तीनों ने कुनील का ऐड्रेस जानने के लिये राघवेन्द्र को ईमेल किया...संयोग से एक सप्ताह में उत्तर आ गया फोन पर जिसमें शैतान का नाम और ऐड्रेस बताया राघवेन्द्र की ओर से किसी व्यक्ति ने....पर यह व्यक्ति यदि शैतान न निकला तो...! इस आशंका से उन्होंने पुनः राघवेन्द्र को ईमेल किया और स्वयम्‌मिलने की इच्छा व्यक्त की निश्चितता के लिये...पर राघवेन्द्र ने उत्तर में ईमेल किया कि उस व्यक्ति ने वास्तविक जानकारी दी है...इससे तीनों निश्चिन्त हुए पर कुछ ही घण्टों पश्चात्‌वे पुनः चिन्तित हो गये यह सोचकर व लोगों के जीवन की रक्षा के लिये ही वे शैतान को मार डालना इच्छते हैं...पर शैतान के नाम पर कोई अन्य मारा गया तो यह अपराध हो जायेगा...अतः शैतान की शैतानियत का स्वयम्‌अनुभव कर ही हत्या जैसे कर्म को रूप दिया जायेगा...ये तीनों हैं हिमेश, ईशान, और जयेश...
"हम तीनों के अतिरिक्त किसी अन्य को कुनील की परीक्षा लेने भेजा जाये कि वह शैतान है या नहीं..."
"हूं...सुखद को केवल कहने की आवश्यकता है, वह हमारा कार्य करने को रेडी हो जायेगा..."
"मेरी जानकारी के अनुसार कुनील ने लम्बे समय से निज कार्यालय में नयी नियुक्तियां न की हैं और न ही करने का मन है...सांसद अब वह है नहीं...कोई बहाना दिखता नहीं उससे मिलने का...वैसे भी, वह किसी से मिलना नहीं इच्छता है..."
"बाहर कहीं मिला जा सकता है..."
"कहां...? और कैसे...?"
"मेरा एक मित्र सीनियर्‌कष्टमर्‌केयर्‌एग्जीक्यूटिव्‌है वायुवार्ता में...अपनी कम्पनी के फोन कनेक्शन्स हों या इतर (अन्य) कम्पनी के, वह चाहे जिस किसी के लैण्ड्लाइन्‌या मोबाइल्‌फोन्‌के कौल्स को और उस फोन के निकट हो रही बातचीत को सुनते रह सकता है...हमें यह सुविधा प्राप्त हो जा सकती है..."
"वेरी गुड्‍...देन्‌आवर्‌वर्क्‌इज्‌डन्‌..."
वह एग्जीक्यूटिव्‌सुखद के मोबाइल को यह सुविधा दे देता है कि वह एक नम्बर डायल कर कभी भी कुनील के मोबाइल स्क्रीन पर हो रही सारी गतिविधियों को, सारे कौल्स को, और निकट हो रही बातचीत को सुनते रह सकता है...सुखद सुनते रहता है...दो घण्टे पश्चात्‌सुनता है कि ३.३० की फ्लाइट्‍से उसका कोई सम्बन्धी विदेश से आ रहा है जिसे लेने वह स्वयम्‌एयर्‌पोर्ट्‍जायेगा...हिमेश विना विलम्ब किये सुखद को कुनील का फोटो दे एयर्‌पोर्ट्‍जाने कहता है...सुखद वहां पहुंच कुनील की प्रतीक्षा कर रहा है...हिमेश, ईशान, और जयेश सुखद के मोबाइल के निकट हो रही ध्वनियों को निज मोबाइल से सुन रहे हैं...कोई ३.१५ बजे एक कार पार्किंग में आकर लगी...सुखद ने उस व्यक्ति के मुखडे को कुनील के फोटो से बहुत मैच करता पाया...वह आगे की ओर धीरे-धीरे बढने लगा...सामने की ओर से कुनील आ रहा था...पर सुखद अन्य दिशा में देखने का बहाना करते कुनील से टकरा जाता है...टकराकर उसने कुनील से कहा -"यू बाष्टर्ड्‍..." कुनील ने उसे घूरकर देखा...पांच-दस सेकेण्ड्स में ही निकट से जा रहे चार-पांच स्त्रियां और पुरुष सुखद पर टूट पडते हैं यह कहते हुए कि ’गाली देता है...’ आश्चर्यजनक रूप से स्त्रियां भी सुखद को मारने लगीं...कुनील केवल यह मनोरंजक दृश्य देख रहा था...सुखद को यह बात समझ में आ गयी कि कुनील ने लोगों का मन बना दिया कि वे उसे मारें...पर इतनी परीक्षा ही पर्याप्त नहीं थी, अतः सुखद ने मन ही मन कुनील को मुक्कों से मारना आरम्भ किया...कुनील ने क्रोध में आंखें फाडीं और उसने जब अपने मानसिक मुक्के मारने आरम्भ किये तो सुखद को लगा कि कोई उसे तपे हुए लोहे के हण्टर से मार रहा है...वह शीघ्र अचेत हो गया...तीनों तुरत कार ले एयरपोर्ट की ओर चल निकले...वहां पहुंच उन्होंने देखा कि सुखद वैसे ही अचेत पडा है और किसी भी का ध्यान उसकी ओर नहीं है...वे तुरत सुखद को हौस्पीटल ले गये...वहां दो दिन ऐड्मिट्‍रह ही सुखद स्वस्थ हो पाया...तीनों इस निष्कर्ष पर आये कि कुनील में प्रबल आत्मिक-मानसिक शक्तियां हैं...ऐसा व्यक्ति इच्छे तो संसार को बहुत लाभ पहुंचा सकता है और इच्छे तो बहुत हानि...सुखद के संग हुई घटना से उन्हें विश्वास हो गया कि मुख्यमन्त्री ने हत्याओं और दुर्घटनाओं के कारण कुनील को अरेष्ट करवाने को सोचा और कुनील ने उसे ऐसा ही तीखा मार मारा, अर्थात्‌कुनील अपराधी आत्मा है इसमें सन्देह नहीं...तो अब कुनील की मृत्यु निश्चित करनी है...
हिमेश, ईशान और जयेश कुनील के मोबाइल से वहां की बातें सुन रहे हैं...तीनों अपना मस्तिष्क बन्द रखते हैं कुनील के सम्बन्ध में कुछ भी सोचने से...कुनील उनका आखेट (शिकार) है और उन्हें कुनील को मार गिराना है, ऐसा लक्ष्य है उनका...कुनील निज आवास में है....उसका सहायक उससे कह रहा है- "सर, किचन आदि के लिये कई वस्तुएं मंगानी हैं....यदि आपकी अनुमति हो तो लिष्ट बना दूं...?" कुनील के हूं कहने पर सहायक लिष्ट बनाता है...तीनों तुरत कुनील के आवास के निकट पहुंच जाते हैं और कुनील तथा सहायक दोनों के मोबाइल्स सुनते रहते हैं...कुछ ही समय में सहायक कुनील की कार को ले बाहर निकलता है...इन तीनों की कार उसके पीछे है...सहायक एक शौपिंग मौल में प्रवेश करता है...वस्तुएं चुन-चुन दो बास्केट्स में रख रहा है...तीनों विचार करते हैं कि बडी सरलता से इसकी चुनी वस्तुओं में विष मिला दिया जा सकता है...पर ऐसा तभी जब वे पूर्व से व्यवस्था करके आयें...अब वे पुनः सहायक के मोबाइल को सुनते रहते हैं कि पुनः (अगेन्‌) वह कब क्रय करने जाता है...उन्हें पुनः अवसर मिल ही जाता है और इस बार वे सहायक की आंखों से बचते हुए उसके बास्केट्स के वस्तुओं में घातक विष मिला देते हैं...इनमें से कुछ खाद्‍य-पदार्थों का उपयोग तीन दिन पश्चात्‌सहायक करता है...भोजन बना वह कुनील से खाने को कहता है पर कुनील कहता है उसका मन अभी फाइव ष्टार होटल में खाने को कर रहा है...ऐसा कह वह कार से निकल जाता है...तब सहायक और कुनील भोजन करते हैं और तुरत यमलोक चले जाते हैं विष के प्रभाव से...लौट जब कुनील आता है तो दोनों को डायनिंग टेबल पर मरा पा समझ जाता है ऐसा घातक विष के प्रभाव से ही हुआ है...उसे यह समझते भी विलम्ब नहीं होता कि लक्ष्य वह स्वयम्‌था जो बच गया...उसका क्रोध उच्चतम स्तर पर आ पहुंचा...उसने रोड की ओर देखा....जो-जो वाहन उसकी दृष्टि में आये वे ड्राइवर के नियन्त्रण से बाहर हो पलटते गये...लोग मरने लगे और रोड वहां जाम हो गया...क्या मुख्यमन्त्री ने उसे मरवाने की चेष्टा की...? उसका क्रोध अब मुख्यमन्त्री पर उतरा और वह उसके बौडीगार्ड के मन को अपने नियन्त्रण में ले उसे मुख्यमन्त्री को मार डालने को प्रवृत्त कर दिया...पर जैसे ही गार्ड ने मुख्यमन्त्री को शूट करने को हाथ बढाया, निकट खडे एक व्यक्ति को उसकी मनःप्रवृत्ति का आभास हो गया और उसने उसके हाथ पर दे मारा कि पिस्तौल दूर जा गिरा...वह अरेष्ट कर लिया गया...और किसपर वह सन्देह करे ऐसा कुनील सोच रहा था कि उसे दूर एयरोप्लेन उडता दिखा...उसने विना विलम्ब किये पायलेट के मन को शिथिल कर दिया और प्लेन क्रैश हो गया...
इधर इन तीनों को इतनी दुर्घटनाओं की जानकारी मिली जो आश्चर्यजनक थी...उन्होंने कुनील के मोबाइल को सुनना आरम्भ किया...कुनील की बडबडाहट सुनायी पडी कि उसके भाई के मारे जाने के पश्चात्‌अब कोई भी जीवित नहीं बचेगा...
आज होलिकादहन की रात है...कुनील स्वयम्‌को बहुत असुरक्षित और अशान्त अनुभव कर रहा है...क्योंकि उसे भय है कि कभी भी कहीं भी फूड्‍प्वायज्निंग से उसकी मृत्यु हो जा सकती है...रात धीरे-धीरे बढती जा रही है...कुनील कार से बाहर निकला...तीनों उसके मोबाइल को सुनते हुए उसका पीछा कर रहे हैं...’लीला का टीला’ पर लोगों ने होलिकादहन के लिये एक बडा मंच बना लकडियों-लट्‍ठों का एक विशाल समूह एकत्र किया जा रहा है...अभी भी लोग मंच पर चढ लकडियां आदि उस विशाल समूह में फेंक रहे हैं...कुछ समय पश्चात्‌लकडियों के इस विशाल समूह में आग लगायी जायेगी...कुनील कार से उतर अन्धेरे में खडा हो चुपचाप यह दृश्य देखने लगता है...रोड किनारे के शौप्स अभी ओपेन हैं...एक शौप में लकडियों के लट्‍ठे आदि बेचे जा रहे हैं जिन्हें क्रय कर लोग उस समूह में मंच से डाल रहे हैं...इन तीनों ने भी लकडियां क्रय कर एक बडे बोरे में बन्धवा लिया...उसे ले वे कुनील के समीप पहुंचे...कुनील का मन अशान्त और भयभीत होने के कारण वह अन्य लोगों के मन पढना नहीं इच्छ रहा है...कुनील वैसे ही अशान्ति में खडा सोच रहा था...उन तीनों ने विना विलम्ब किये लकडी के लट्‍ठों से कुनील के सिर पर प्रहार किया...कुनील के सिर से रक्त निकलने लगा...वह भूमि पर गिर अचेत हो गया...तीनों ने उसे उस बोरे में अन्दर बान्धा और मंच पर चढ उस विशाल लकडी समूह में फेंक डाला...तत्पश्चात्‌क्रय की गयी लकडियां भी ले जा उसके ऊपर फेंक डाली...न तो मारते समय और न ही कुनील को समूह में फेंकते किसी अन्य का ध्यान गया उस ओर....तीनों प्रतीक्षा करने लगते हैं उन लकडियों में आग लगाये जाने की...कुनील के ऊपर अब और भी लकडियां पड रही हैं...समय पर आग लगा दी जाती है...लकडियों का विशाल समूह धू-धू कर जलने लगता है...पूरा जल जाने तक वे देखते रहते हैं...तत्पश्चात्‌प्रसन्नता से एक-दूसरे को देखते और हाथ पकडे लौटने लगते हैं....इस दृश्य के संग ही The End 



 

अपराधी आत्मा - a story-plot for making film

26/03/2012 14:25
                                                                                                 अपराधी आत्मा
                                                                                             लेखक - राघवेन्द्र कश्यप
कोई भी व्यक्ति आत्मा के रूप में शरीर से बाहर जा ऐसे कर्म कर डाल सकता है - इस सच्चाई के आधार पर एक मनोरंजक फिल्म्‌बनाने के उद्‍देश्य से लिखा गया यह कथा-प्लौट्‍अधिकतर काल्पनिक घटनाओं पर आधारित है...


एक कार्‌ तीव्र गति से चली जा रही है....प्रसन्न मन से कार्‌ चला रहा व्यक्‌ति सहसा घबडाकर इधर-उधर देखने लगता है....कार्‌में उसके अतिरिक्‌त और कोई नहीं है....उसे लगता है किसी ने उसे थप्पड मारे....अब घूंसे भी पडने लगे....वह तुरत कार्‌ रोकता है...अब नहीं....पर अब लगता है कोई उसे पिन चुभा रहा है....वह कुछ समझ पाये इससे पूर्व उसे ’हा हा हा’ गूंजता सुनायी पडता है....
’हं....!’ यह ठहाका केवल मेरे कानों के अन्दर ही गूंजा या बाहर भी....!’ उसने आंखें फाडी....
धीमी वर्षा की बून्दें पड रही हैं....सहसा उसे लगा दो बांहों और एक सिर से किसी ने उसके गले और सिर को पकड लिया है जबकि कार्‌के अन्दर उसे कोई और नहीं दिखता... वह मन ही मन उन बांहों से स्वयम्‌को स्वतन्त्र करने का प्रयास करता है....बांहों ने उसे छोड दिया तो वह झटके से कार से बाहर निकल भागने लगता है...एक शौप्‌के नीचे जा वह खडा हो है वर्षा की बून्दों से बचने के लिये...जान बची ऐसा सोच वह आराम की सांस लेता है....वह इधर-उधर देख रहा है कि सहसा उसके कानों में किसी के हंसने का स्वर सुनायी पडा....हंसा कोई कानों से सटे पर वह कहीं दिखायी नहीं दिया... एक थप्पड उसके गालों पर पडा पर मारनेवाला कहीं दिखायी नहीं पडा....वह गाल पकडे आंखें फाडे खडा है कि वैसी बांहों ने पुनः उसके गले को घेरा तथा एक सिर उसके सिर पर अनुभूत होने लगा...वह मन से छुडाने का प्रयास करता है पर छुडा नहीं पाता है....वे हाथ अब उसे चुट्‍टी काट रहे जैसे पिन चुभा रहे हों....वह दौडा-दौडा पुलिस्‌ष्‍टेशन्‌पहुंचता है और सारी बात बताता है...
"पर वह है कौन...? कुछ तो झलका होगा....?"
"कुछ लगा तो, पर मैं अभिजान (पहचान) न पाया..."
"तो ऐसे में तो हम आपकी कोई सहायता नहीं कर पायेंगे..."
वह निराश बाहर निकल रहा है कि उसे और थप्पड पडे....वह चिल्लाता है ’आ......ह्‌......’ भूतों-जैसे ठहाके गूंजने लगते हैं हौल में और काष्‍टिंग्‌का आरम्भ हो जाता है....काष्‍टिंग्‌के अन्तर्गत ही वह व्यक्‍ति, नाम कमलनाथ, धीरे-धीरे कार्‌की ओर जाता दिख रहा है....कार्‌में बैठ ड्राइव्‌करता आवास की ओर जा रहा है....काष्‍टिंग्‌समाप्त होते-होते वह आवास पहुंच जाता है....
"बडे चिन्तित दिख रहे हैं....भींग भी गये हैं...." कमलनाथ की पत्नी ने पूछा....
"अं हं..." इतना ही कह अन्दर ही अन्दर घबडाया कमलनाथ गैरेज् में कार रख बेड्‍रूम्‌में जा लेट गया....वह सोना इच्छता (चाहता) है पर उसके ललाट पर किसी ने हथेली रख दिया जिस कारण बहुत इच्छा कर भी नीन्द नहीं पा पाया...उसने एक मित्र को फोन्‌कर सारी बात बतायी....
"बडी विचित्र समस्या है....पर मैं किस प्रकार तुम्हारी सहायता करुं यह मेरी समझ से परे है...वैसे भी, कहीं वह भूत मुझपर चढ गया तो....?"
कमलनाथ फोन्‌रख देता है और मरी-मरी आंखों से बैठा है...वह और भी स्थानों पर फोन्‌करता है पर कहीं से भी सन्तोषजनक उत्‍तर नहीं पा पाता है...किसी प्रकार सायंकाल भी बीत जाता है और वह रात का भोजन कर सो जाता है...पर अभी पन्द्रह-बीस ही मिनट्‍बीते थे कि उसकी नीन्द टूट जाती है....उसके ललाट पर वह अदृश्य हाथ है तथा पलकों पर और शरीर में जैसे कोई पिन चुभा रहा है...सहसा उसे थप्पड और घूंसे लगने आरम्भ हो जाते हैं और ’हा हा हा....’ उसके मस्तिष्क में गूंजने लगता है...वह घबडाकर कक्ष में इधर-उधर देखने लगता है....
"क्या देख रहा है...?"
"क्‌क क्‌कौन....?"
"ह ह ह....सोना इच्छता है....? सो जा...."
’अं...हं...हं...’ करता कमलनाथ सोने को लेट जाता है....पर पन्द्रह-बीस मिनट्‍पश्चात्‌वैसे ही ललाट पर हाथ तत्पश्‍चात्‌पिटायी....कमलनाथ रातभर अशान्त रहता है....प्रातःकाल कमलनाथ मौर्निंग्‌वाक्‌के लिये निकलता है.....
"ये कुत्ता तुम्हें अभी दौडायेगा...."अदृश्य स्वर ने कहा....
"क्यों....?" कमलनाथ ने उद्यान में दृष्‍टि घूमाते हुए पूछा....
तभी वह कुत्‍ता भौंकने लगता है और उसके निकट आ जैसे काटने लगा हो तो कमलनाथ ’बचाओ बचाओ’ चिल्लाता दौडने लगता है....संयोग से माली आ डण्डे से उस कुत्‍ते को रोक देता है....कमलनाथ हांफता-हांफता एक बेंच पर बैठ जाता है पर माली का हाथ पकडे रहता है....लौट वह आवास आता है....रेडी हो ब्रेक्‌फ्राष्‍ट्‍कर समाचारपत्र देख कार से निज ज्वेलरी शौप्‌को चला जाता है....वहां कमलनाथ का अनुज भ्राता पूर्व से ही शौप्‌खोल दो कर्मचारियों के संग बैठा है....एक ग्राहक आ ज्वेलरी देख रहा है....
"अभी एक व्यक्‍ति आयेगा और तुम्हारी कोई ज्वेलरी-पीस्‌ले भाग जायेगा...." उस अदृश्य स्वर ने कहा....
’हैं.....!’ कुत्‍ते की घटना से घबडाया कमलनाथ सावधानी से बैठा ग्राहकों का निरीक्षण करने लगा....तभी एक ग्राहक एक ज्वेलरी-आइटम्‌ले कर्मचारी के पीछे मुडने पर विना मूल्य दिये तीव्र चाल से बाहर निकलने लगा....कमलनाथ ने जैसे ही उसे द्वार से बाहर जाता देखा, पूछा कि इसने मूल्य दिया...! कर्मचारी के नहीं कहने पर कमलनाथ चिल्लाया- ’पकडो...’ सभी उसके पीछे दौडे....अल्प ही दूरी पर होने के कारण अन्य लोगों की सहायता से वह पकड लिया गया....
"मैंने कोई भविष्यवाणी नहीं की थी....वरन्‌उस व्‍यक्‍ति का मन बना दिया था कि वह ऐसा करे....ये तो मैंने बता दिया था इस कारण पकडा गया....पर अब मैंने बताया नहीं कि कब कौन क्या करने वाला है तो तुम लुट जाओगे....हो सकता है तुम्हारा कर्मचारी या तुम्हारा भाई ही सारी ज्वेलरी ले भाग जाये..." अदृश्य स्वर ने कहा....
"हं....! पर तुम ऐसा क्यों करोगे...? मुझे हानि पहुंचा तुम्हें क्या लाभ मिलेगा....?"
"हूं....यदि तुम हानि से बचना इच्छते हो तो मुझे लाभ पहुंचाओ...."
"लाभ...! क्या लाभ चाहिये तुम्हें....?"
"केवल एक लाख रुपये....साधारण-सी धनराशि है तुम्हारे लिये..."
"तो क्या तुम मुझे सदा के लिये छोडकर चले जाओगे....?"
"हूं..."
"पर तुम लोगो कैसे....?"
"अभी रुपये लो और बाहर निकलो....मैं बताता हूं कहां रखने हैं रुपये तुम्हें...."
"कहां चलुं...?" पांच सौ रुपये के नोटों की दो गड्डियां ले कार में बैठते हुए कमलनाथ ने पूछा....
"वहीं उद्‍यान में चलो, जहां आज प्रातःकाल गये थे.... "वहां पहुंच कमलनाथ को एक बेंच पर बैठने को कहता है - "कुछ मिनट्‍प्रतीक्षा करो..."
आधे घण्टे पश्चात्‌अदृश्य स्वर ने कहा -"बेंच के नीचे दोनों गड्डियां रखो और चलते बनो..."
"मुझे सदा के लिये छोड दोगे....? हां...?"
"हां...ऐसा ही जानो....पर यह बात केवल तुमतक ही रहनी चाहिये, नहीं तो..."
कमलनाथ ने आराम की सांस ली और आवास लौट आराम से सो गया...अब उसे कोई समस्या नहीं आ रही थी किसी भूत से....
उधर कमलनाथ के चले जाने के पश्चात्‌एक दूर खडा व्यक्‍ति सुजित धीरे-धीरे उस बेंच के निकट आया....सावधानी से इधर-उधर देख अपना बैग नीचे रख खोला उसमें दोनों गड्डियां रख लीं, और बैग उठा चलता बना....बस पकड एक स्थान पर उतरा, चलता हुआ एक गृह में प्रवेश कर गया....एक कक्ष का ताला खोल अन्दर घुसा....अन्दर पूर्व से ही एक व्यक्‍ति कुनील उसकी प्रतीक्षा कर रहा था....उसने बैग से दोनों गड्डियां निकालीं और हाथ में ले प्रसन्नता से उछल पडा....
कुनील- "यह हमलोगों की प्रथम सफलता है....शीघ्र ही हमलोग करोडपति बन जायेंगे..."
सुजित- "बहुत लोभ न करो....यदि किसी ने गुप्‍तचरों का जाल बिछा हमें रुपये दिये तो.....? तब हम करोडपति क्या रोडपति भी न रह जायेंगे....!"
"ह ह ह.....ऐसा नहीं हो सकता...क्योंकि जिसका भी मैं इच्छुं उसकी बातचीत और उसके मन में उठने वाली बातें सबकुछ मुझे ज्ञात हो जाती हैं...."
"तो...अब क्या प्लान्‌है....?"
"सर्वप्रथम एक अच्छे फ्लैट्‍में शिफ्‍ट्‍कर जाने का...."
दोनों जाकर प्रोपर्टी-डीलर्‌से मिलते हैं...दो-तीन दिनों में एक अच्छे-से फ्लैट्‍में रहने चले जाते हैं...तीन-चार मास बडे आराम से बीताते हैं....अब पुनः उन्हें और रुपयों की आवश्यकता जान पडती है....
"अब हमें कोई नया सेठ मिले जो हमें एक नहीं दो लाख रुपये दे दे..."
"जैसे-जैसे मांग के रुपये बढते जायेंगे वैसे-वैसे संकट की आशंका भी बढती जायेगी...."
"यदि ऐसे ही भय करते रहे तो ले लिये जीवन का आनन्द....!"
कुनील समाचारपत्र के पृष्‍ठ पलट रहा है कि उसे एक करोडपति का चित्र दिखायी देता है....वह उससे रुपये पाने को विचारता है....वह विस्तर पर लेट शरीर छोड आत्मा के रूप में उस करोडपति के सिर के निकट पहुंचता है....पर उस करोडपति का आत्मा और भाग्य दोनों ही इतने बली हैं कि कुनील स्वयम् को उसपर प्रहार करने असमर्थ पाता है....वह लौट आता है निज आवास को...
"उस करोडपति का भाग्य उसकी रक्षा कर रहा था....हमें चाहिये एक ऐसा धनी जिसका आत्मा बहुत बली न हो....और उसकी ग्रहदशा भी उतनी अच्छी न चल रही हो....डिसौनेष्‍ट्‍का आत्मा भी बहुत सरलता से पकड में आ जा सकता है...."
कुनील की दृष्‍टि एक नये सेठ पर जाती है...वह सरलता से वश में आ जाता है....उसके संग भी कुनील वैसे-वैसे ही कष्‍ट देने के हथकण्डे अपनाता है.....अन्ततः वह सेठ दो लाख रुपये देना स्वीकार लेता है....कुनील और सुजित लम्बे समय के लिये स्वयम्‌को निश्चिन्त अनुभूत करते हैं....पर पुनः कुनील का लोभ जाग जाता है और इसबार वह पांच लाख रुपये पाने की कल्पना करता है...इन दिनों उसकी दृष्‍टि कुछ सुन्दरियों पर पडती है....उसका मन उधर मोहित होने लगा...
"एक-दो का संग तो मिलना ही चाहिये..."
"रुपये निकालो तो बहुतों का संग मिलेगा..."
"पर कौल्‌गर्ल्स्‌हमें नहीं चाहिये...अच्छे परिवार की अच्छी युवतियां हमारे वश में आ जायें...."
"ये तो तुम निज आत्मशक्‍ति से भी पा जा सकते हो....पकड कर वश में कर लो...."
कुनील एक स्त्री के मस्तिष्क पर आत्मा के रूप में चढता है....उसे मारने लगता है तो वह घबडाकर अचेत हो जाती है...उसके चेत पाने पर कुनील उसे कभी सुई चुभाता, कभी ललाट पर हाथ रखता, कभी उसके मस्तिष्क पर मारता....पर इतना कुछ करने पर भी यह स्पष्‍ट नहीं होता कि कैसे वह उससे सम्भोगसुख प्राप्‍त करे....! इसके लिये कुनील को शरीर धारण करना पडेगा, और तब वह अभिजान (पहचान) लिया जायेगा...पर अब उसे उपाय मिल गया कि वह वेश परिवर्तित कर सम्भोग करेगा...कुनील उस स्त्री के मस्तिष्क में ठहाके मारता है....सुन वह स्त्री समझ जाती है कि किसी भूत ने उसे पकड रखा है जो उसे इतना कष्ट दे रहा है...
"क्या मुझसे छुटकारा इच्छती हो....?"
"अं हां....पर तुम कौन हो....?"
"वह तुम मत ही जानो....पर इसके लिये तुम्हें मेरे संग सेक्स्‌करना होगा..."
"सेक्स्‌....! वो कैसे...? तुम तो भूत हो...."
"ऐसे ही आत्मा के रूप में....यदि स्वीकार हो तो बोलो हां...."
"ठीक है..."
कुनील आत्मा के रूप में ही उसके संग सम्भोग करता है....युवती को लगता है कोई सच में ही सम्भोग कर रहा है जबकि वहां वह एकाकिनी (अकेली) होती है...कुनील का मन नहीं भरा....वह कहता है वह सच में ही उससे सम्भोग करना इच्छता (चाहता) है....वह मान जाती है....
"तुम आज रात ठीक आठ बजे उद्‍यान में प्रवेश कर दायें से चौथे बेंच पर बैठी रहो...मैं वहीं तुमसे मिलुंगा...."
"अं...ठीक है...."
"अभी मैं जा रहा हूं...."
युवती स्वयम्‌को भूत से मुक्त अनुभव कर रही है....पर यदि वह उसकी बात न मानी तो कितनी समस्या आ सकती है यह सोच भय कर रही है....रात में आठ बजे वह उद्‍यान में प्रवेश कर चौथे बेंच पर जा बैठती है....कुछ ही मिनटों पश्चात्‌उसे सुगन्धित वायु का झोंका मिलने लगा...यह कुनील का मानसिक प्रभाव था...वह विचार ही कर रही थी कि कहां से यह सुगन्धित वायु आ रहा है कि कुनील उसके निकट आ कहता है-"मैं आ गया हूं..." लाइट्‍वहां से दूर है जिस कारण उसका मुख नहीं दिख रहा है...युवती को कुनील के संग सम्भोग की बात रुचती नहीं है पर सहसा वह निज तन-मन में कामोत्तेजना प्रसरती (फैलती) अनुभव करती है....उसे सम्भोग के लिये जैसे प्यासी हो उठी और कुनील वहां अन्धेरे में अपनी कामना पूरी करता है...वह अभी लेटी ही है कि कुनील उसे वैसे ही छोड चला जाता है....वह युवती अब भूत के प्रभाव मुक्‍त पा भूत का भय भुला अपनी एक सखी को भूत के संग सम्भोग की बात बता देती है....किसी को भी विश्वास नहीं होता है....

कुनील निज कक्ष में बैठा तान्त्रिक मन्त्रों का जाप कर रहा है....कुनील के संग अन्य आत्माओं को निज वश में करने की विशेष शक्‍ति है....उसके संग जो भी विशेष शक्‍तियां हैं वे पिछले जन्म से ही चलती आ रही हैं, क्योंकि इस जन्म में साधारण रूप से ही उसने मन्त्रजाप आदि साधनायें की हैं....अधिकतर समय उसने सांसारिक विद्‍याओं और सांसारिक प्रपंचों में ही बीताया है....ऐसा जान पडता है कि वह पिछले जन्म में प्रभावशाली तान्त्रिक रहा था जिसने निज शक्‍तियों का अधिकतर दुरुपयोग ही किया....पर अब भी शक्‍तियां दुःखदायी रूप में संग शेष हैं...कुनील के संग यह शक्‍ति है कि वह स्वयम्‌से न्यून बली किसी भी व्यक्‍ति के आत्मा को शरीर छोडने पर विवश कर मार-मार उसे निज वश में कर लेता है...वह एक सेना बनाना इच्छता है आत्माओं का...जिसका नायक वह स्वयम्‌हो, और पूरे देश में उपद्रव करे....इस प्रकार वह देश पर राज करना इच्छता है....वह किसी भी व्यक्‍ति के मन को पकड उससे कुछ भी काम करवा लेता है...उसने इसी प्रकार पीएम के मन को भी नि आत्मिक प्रभाव में ला रखा है....कुनील का शरीर देखने में साधारण व्यक्‍तियों जैसा है पर हानि पहुंचाने की जैसी क्षमता है उससे वह विषैला सांप ही है...

"भैया...कई वस्तुओं का क्रय करना है..." उसके अनुज भ्राता सुजित ने कहा....
"तो कर आओ....मेरा एटीएम्‌कार्ड्‍ले लो.....वैसे, कैश्‌भी तो तुम्हारे संग होंगे ही...."
"पर तुम भी चलो....संग रहने से और भी अच्छा रहेगा..."
"चल्‌लो...." कुनील कार निकालता है और स्वयम्‌ड्राइव्‌करता है....दोनों एक शौपिंग्‌मौल्‌पहुंचते हैं....वहां घूम-घूमकर वस्तुएं चुनते और एक ट्रौली में रखते जाते हैं....वस्तुएं चुनते असावधानी से कुनील का पांव एक महिला के पांव पर पड जाता है और उस महिला के मुंह से तुरत ’यू बाष्‍टर्ड्‍....’ शब्द निकल जाते हैं...वह महिला देखने में बहुत धनी लग रही थी... कुनील वस्तुएं चुनना रोक जितना चुन चुका था उतने को ले सुजित को काउण्टर्‌पर जाने को को कहता है...पेमेण्ट्‍कर वस्तुएं ले वे कार्‌में रखते हैं....कुनील ड्राइविंग्‌सीट्‍पर बैठा उस महिला की प्रतीक्षा करने लगा...वह मौल्‌से  बाहर निकली, डिक्की में वस्तुएं रखी, और कार ड्राइव्‌करने लगी....कुनील उसके पीछे अपनी कार चलाने लगा...सहसा उस महिला को लगा कि उसके सिर पर कोई दनादन हण्टर्‌मार रहा है...उसे तीव्र पीडा का अनुभव हुआ...उसने ब्रेक्‌लगा कार्‌रोकना इच्छा, पर पांव जैसे सुन्न पडा हो....वह शक्‍ति नहीं लगा पायी...उसका सिर चकराने लगा और कार्‌रोड्‍से उतर एक आवास की बाउण्ड्री वाल्‌से जा टकरायी...महिला अचेत हो चुकी थी....सुजित और कुनील कार से उतर मुस्कुराने लगे...
जब महिला को चेत (होश) आया तो उसने बताया कि यद्‍यपि वह कार्‌में एकाकिनी थी तथापि उसे लगा कोई अन्दर सच में उसपर तीखे हण्टरों की मार मार रहा है....पैर की शक्‍ति भी जैसे किसी ने खींच ली हो....वह ऐसे बता रही थी जैसे किसी भूत ने यह सब किया हो....कुनील बहुत प्रसन्न था कि प्रतिशोध में उसे सफलता मिली...मानसिक-आत्मिक शक्‍तियों का प्रयोग करना अभी कुछ वर्ष पूर्व ही उसने आरम्भ किया था...उससे पूर्व वह एक साधारण व्यक्‍ति की भांति ही जीता रहा था... उसका रूपरंग अनाकर्षक था पर आत्मिक-मानसिक शक्‍ति की तीव्रता प्रबल थी...
फ्लैट्‍में रहते हुए एक दिन संयोग से निज पडोसी से उसकी किसी बात पर तू-तू मैं-मैं हो जाती है....दोष कुनील का है....पडोसी क्रोध में पुलिस्‌को कम्प्लेन्‌करने जाता है....कुनील घबडा जाता है...वह तुरत सुजित को ध्यान करने बैठने कहता है....सुजित मन एकाग्र कर बैठता है और आत्मा के रूप में शरीर से निकल सीधा उस पडोसी के सिर पर पहुंच जाता है....सुजित और कुनील तब मानसिक वार्ता करते रहते हैं....पडोसी बैंक्‌से लगे एक एटीएम्‌से रुपये निकालने जाता है....कुनील यह सूचना पा बैंक्‌वालों का मन बना देता है कि वे कुछ समय के लिये एटीएम्‌बन्द कर दें....निराश पडोसी वहां से आगे बढ एक अन्य एटीएम्‌जाता है और रुपये निकाल लेता है पर सुजित उसके मन से पास्‌वर्ड्‍जान कुनील को बता देता है...पडोसी पुलिस्‌ष्‍टेशन्‌पहुंचता है...सुजित उसके मुख को काल्पनिक मकडी-जालों से घेर देता है जिससे वह बातचीत करने में बहुत असुविधा अनुभूत कर रहा है....वह पुलिस्‌से ठीक-ठीक बात कर नहीं पाता है, और पुलिस्‌भी उसकी बातों में रुचि नहीं लेती है...सहसा उसका हाथ वहां टेबल्‌पर रखे बल्ब्‌से टकराता है और वह नीचे गिर फूट जाता है....वह एक नया बल्ब्‌क्रय कर लाता है....असफल वह वहां से आवास लौट जाता है....सुजित और कुनील केवल एकाग्र मन से सोचते हैं और बातें एक-दूसरे तक ऐसे पहुंच जाती हैं जैसे एक-दूसरे के संग प्रत्यक्ष बात कर रहे हों.....कुनील सुजित को कुछ समय पर्यन्त (तक) पडोसी के संग ही रहने को कहता है...कुछ विशेष बात न हो रही देख सुजित निज (अपने) शरीर को लौट प्रवेश कर जाता है...यद्‍यपि कुनील स्वयम्‌यह सब कर सकता था पर अन्य आत्माओं से करवाकर वह सैंकडों आत्माओं की सेना बनाना इच्छता है जो उसके निर्देश पर कहीं भी जा कुछ भी कर आयें...वह निज आत्मिक-मानसिक शक्‍तियों से अत्युच्च पदों पर बैठे व्यक्‍तियों को भी निजवश में ले आने का सामर्थ्य रखता है....दुर्बल आत्मिक-मानसिक शक्‍ति वाले व्यक्‍ति को वह बहुत अधिक निज वश में ले आता है जबकि बली आत्मिक-मानसिक शक्‍ति वाले व्यक्‍ति की अण्डर्‌ष्‍टैण्डिंग्‌वह दूषित कर देता है और अशुभ प्रेरणा देता है...

कुनील मन्त्रजाप कर रहा है - तान्त्रिक मन्त्रों का, और शैतान की पूजा कर रहा है- ’ओम्‌शैतानाय नमः’....शैतानी शक्‍तियां और भावनायें उसमें और निखर रही हैं.... उसे तान्त्रिक सिद्धि के लिये एक खोपडी चाहिये जो फ्रेश्‌हो और अपवित्र न हो....कहां से मिले...? हत्या कर ही ऐसी खोपडी पायी जा सकती है...कुनील का शैतानी मस्तिष्क चिन्तन करने लगा....उसने एक छोटा कृपाण बैग्‌में रखा और स्वयम्‌ही बाहर निकला...रात्रि का आरम्भ हो चुका था...मार्ग पर लोग आ-जा रहे थे...वह आगे बढता गया....एक बालक एकाकी (अकेला) जाता दिखा...कुनील उसे प्रेम से बुला, मार्ग से नीचे उतर झाडियों में ले जा उसका मुंह दबा उसका गला काट देता है, और उसका सिर प्लाष्‍टिक्‌में बान्ध बैग्‌में रख ले आता है...
अगले दिन उस बालक की हत्या का समाचार चारों ओर प्रसरता है...कुनील के आवास से कोई डेढ-दो सौ मीटर्‌की दूरी पर ही यह घटना घटी थी, इसलिये उस क्षेत्र में यह घटना विशेष चर्चा का विषय बन जाती है....लोगों को समझ में नहीं आ रहा था कि यह किसने और क्यों किया होगा....! जबकि कुनील को रक्‍त का स्वाद मिल चुका था...उसके अन्दर ईर्ष्या, क्रोध, घृणा, द्‍वेष, शत्रुता, अतिलोभ, आदि दुर्भावनायें और अधिक बली हो चुकी थीं...अच्छे और सच्चे व्यक्‍तियों को देख उसके मन और हृदय में आग लगने लगती थी...
कुनील निज आत्मिक-मानसिक शक्‍तियों से किसी भी व्यक्‍ति के मन की बात जान लेता है चाहे वह व्यक्‍ति कितनी भी दूरी पर उपस्थित हो....वह बहुत दूर स्थित व्यक्‍तियों से भी बातें कर लेता है तथा उनके मन को पूरे वश में ला कोई भी कर्म करवा ले सकता है...
"एक तुम हो जो कहीं किसी भी के सिर पर रह उसके मन को दिशा देते रह सकते तथा सारी सूचनायें भेजते रह सकते....मैं इच्छता हूं कि कई आत्मायें मेरे वश में ऐसे ही रहा करें...एक पूरा समूह हो मेरे दास आत्माओं का जिनसे मैं कोई भी कर्म जब इच्छे वैसे करवाते रहूं..."
"पर भइया, कोई ऐसा करते रहना क्यों स्वीकार करेगा....?"
"जब मेरी चुभती मार पडेगी तो अच्छे-अच्छे आत्मायें भी स्वीकार करेंगे..."
"पर...वैसे लोगों का चयन भी तो करना पडेगा...."
"हूं...मैं देखता हूं..."
कुनील विचार करता है और इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि यदि एक कम्पनी या औफिस्‌खोल ली जाये, और चुन-चुनकर ऐसे एम्प्लौयी रखे जायें जो उसके मनोवांछित कर्मों को किया करें....पर यदि पन्द्रह-बीस ऐम्प्लौयिज्‌का औफिस्‌खोला जाये तो इसके लिये न्यूनतम तीस-चालीस लाख रुपये तो चाहिये ही....अर्थात्‌कोई आधा-एक करोड रुपये हाथ लग जायें तो....पर आधा-एक करोड रुपये हाथ कैसे लगेंगे....?"
"आधा-एक करोड रुपये....?"
"हां...अब हमारे दिन वैसे नहीं रहे....कि किसी से पान खिलाने को कहना पडे....पर इतने रुपये पाने में बडा रिस्क्‌लेना पडेगा...और  हमारे इतने अधिक धन पाने के स्रोत के सम्बन्ध में कभी भी पूछताछ की जा सकती है....बात केवल रुपये पाने की ही नहीं है...उसके पश्‍चात्‌क्या-क्या समस्यायें आ सकती हैं उसपर भी विचार करना आवश्यक है..."
कुनील चिन्तामग्न है....कोई उपाय अभी तक नहीं सूझा....सबसे बडी समस्या यह थी कि वह इतने रुपये वह पाये तो कैसे...! कौन देगा उसे....? जिसके संग कई करोड रुपये होंगे उसकी आत्मशक्‍ति भी उतनी दुर्बल न होगी कि कुनील के वश में सरलता से आ जाये... एक से बढकर धनी लोगों के नाम और चित्र समाचार पत्र में छपे हैं...कुनील की दृष्‍टि एक धनी पर स्थिर हो जाती है...उसे लगता है उसका काम यहां बन जायेगा...कुनील ने मन एकाग्र किया, उस धनी की कल्पना की, और आत्मा के रूप में निकल सीधा उस धनी के सिर के समीप पहुंच गया...सुजित कुनील के शरीर को विस्तर पर लिटा कम्बल से ढंक देता है...धनी निज कार्यों में व्यस्त है....
"यह मेरा समाचारपत्र ... मध्यमान से (औसतन) कोई दो लाख प्रतियां प्रतिदिन बिक जाती हैं....तब भी...यह भय सदा ही लगा रहता है कि न जाने कब यह डूब जाये....कारण एकमात्र हमारे प्रतिद्‍वन्द्‍वी समाचारपत्र के लोग हैं...न जाने ये क्यूं हमारे समाचारपत्र को डूबाकर ही अपनी उन्नति इच्छते हैं..." धनी क्रोध में है...
कुनील उसके मन में यह बात उभारता है कि कोई तान्त्रिक उसकी इस समस्या का समाधान कर सकता है....’हां...तान्त्रिक....’ ऐसी प्रेरणा पा वह किसी तान्त्रिक से मिलने का विचार करता है...पर पुनः आराम से चेयर्‌पर बैठ जाता है...कुनील निज मानसिक प्रभाव तीव्र करता है तो वह पुनः किसी तान्त्रिक से मिलने का विचार कर उठ खडा होता है...कुछ पग आगे बढा कि कोई उससे मिलने आया है...जब उस अतिथि को धनी का ऐसा विचार ज्ञात होता है तो वह उसपर हंसता है-
"अरे...ये कैसी बात सोची...! खुले मस्तिष्क से विचार किया करो..."
धनी का मन पूरा हट जाता है ऐसे समाधान से...कुनील पुनः प्रेरणा देता है पर धनी नहीं मानता, तो क्रुद्‍ध हो कुनील उसे मानसिक मुक्के मारता है....धनी को कुछ पीडा होती है पर उसका आत्मा बली है जो इस पीडा को शीघ्र ही भूल जाता है...कुनील उसे और मारता है तो धनी मानसिक थकावट अनुभव करते हुए सोने लेट जाता है...कुनील उसके ललाट पर हाथ रखता पर धनी आराम से खर्राटे भरने लगता है...धनी कर्मशील और अपने ही धुन में मग्न रहता है चौबीस घण्टे...कुनील कमलनाथ को निज वश में सरलता से कर लिया था, पर इस धनी को निज वश में कर पाना उसे कठिन जान पडा...अतः उसे छोड वह निज शरीर में लौट जाता है....अभी भी उसके संग लाखों रुपये हैं जिससे वह आराम से जीवन धनंजय रहा है...पर उसका मन अभी भी उस धनी की ओर खिंचा हुआ है....वह एक दिन धनी को रुपयों की डीलिंग्‌की बात करते निज मानसिक शक्‍ति से सुनता है....कुनील के संग शक्‍ति है कि वह न केवल किसी को भी सुन ले सकता है अपितु वहां के दृश्य को आंखों से देखने जैसा देखते भी रह सकता है....वह सुनता है कि किसी बिजनेस-डीलिंग से धनी को अस्सी लाख रुपये कैश मिलने वाले हैं...धनी एक बहुत बडा बिजनेस-मैन है....कुनील सुनता है कि ढाई बजे दिन में कोई व्यक्‍ति सूट्केस्‌में अस्सी लाख रुपये कैश लाकर धनी को दे जायेगा...कुनील तुरत शरीर छोड धनी के सिर के निकट पहुंचता है....धनी चिन्तन कर रहा है -’इतने रुपये आवास में रखना उचित न होगा...चार बजे पर्यन्त बैंक खुला है....मैं तुरत जमा कर दूंगा जाकर...’ कुनील सोचता है-’यदि ये रुपये उसके हाथ लग जायें तो उसकी कम्पनी खुल जायेगी, वह राजा बन जायेगा....’ वह तुरत शरीर में लौट आ उस धनी के आवास की ओर चल देता है...वहां पहुंच देखता है अभी दो बजे हैं दिन के....धनी के आवास-परिसर में एक गैरेज है जिसमें कार रहती होगी धनी की, कुनील ने ऐसा विचार किया....कुछ दूरी पर एक रेष्‍टोरेण्ट्‍है....धनी के मन को सुनता वह रेष्‍टोरेण्ट्‍पहुंचता है...पर अन्दर जाते-जाते उसके पांव रुक जाते हैं कि वह अभिजान लिया जा सकता है....वह धनी के आवास से पन्द्रह मिनट्‌चल पुनः पन्द्रह मिनट्‍में लौट आता है...अब ढाई बज रहे हैं...मन से वह सुनता है कि धनी किसी-किसी से बातें कर रहा है...पर हां...अब वह इतर कक्ष में जा किसी से कहता है-"धन्यवाद आपका जो समय से रुपये ले आये..." पुनः बाहर निकल वाचमैन से कहता है- "ये लो चाभी...कार की सीटों पर कुछ धूल लगी होगी उसे स्वच्छ करो, और एयर्‌यदि न्यून हो तो उसे भरो..."
वाचमैन कार का द्वार खोलता है, सीटों को स्वच्छ करता है, टायर्‌देख एयर न्यून पाता है तो एयर्‌डालने गैरेज्‌के अन्दर घुसता है...तब कुनील साहस कर वाचमैन के मन को बांध अन्दर घुस कार की पिछली सीट के पीछे छुप जाता है....वाचमैन एयर्‌भर कार का द्वार लगा चाभी धनी को दे देता है...धनी सूट्केस्‌ले आ कार की ड्राइविंग्‌सीट पर बैठता है और सूटकेस भी वहीं द्वितीय सीट के नीचे रख कार ड्राइव करता रोड पर निकल आता है...कार आगे बढ रही है...चहल-पहल वाले मार्गों से आगे निकल अब एक सन्नाटा छाये मार्ग पर चल रही है...कुनील को अवसर मिला जान पडा...उसने निज मानसिक शक्‍ति का प्रयोग किया और कार चलती-चलती रुक गयी....धनी ने कार ष्‍टार्ट्‍करने का बहुत प्रयास किया पर कार ष्टार्ट नहीं हुई...यह कुनील की मानसिक शक्‍ति का प्रभाव  था जो निर्जीव वस्तुओं पर भी कार्य करता था....चिन्तित वह कार्‌से बाहर निकल डिक्की खोल कुछ इंष्‍ट्रूमेण्ट्‍निकालने लगता है...तब कुनील तुरत आगे की सीट पर जा सूटकेस ले चुपके से बाहर निकल रोड्‍के किनारे से आगे बढ किसी एक गली में घुस जाता है...रोड के दोनों ओर छोटी और मध्यम श्रेणी के आवास कुछ-कुछ रिक्‍त स्थान पर हैं, अन्दर गलियां हैं और गलियों के अन्त के पश्चात्‌द्वितीय पक्का रोड्‍है...पर इस समय शान्ति छायी हुई थी और लोग आते-जाते नहीं दिख रहे थे...कुनील गली में तीव्र गति से आगे बढता जा रहा है कि एक १६-१७ वर्ष की लडकी से टकरा जाता है...उसने घूरकर कुनील को देखा....कुनील उसकी चिन्ता किये विना पुनः आगे की ओर तीव्र गति से बढता गया और गली पारकर द्वितीय पक्के रोड्‍पर निकल गया...तुरत ही उसे औटोरिक्शा मिल गया जिसमें बैठ वह सफलतापूर्वक बहुत दूर जा चुका था...इधर जैसे ही धनी आगे की सीट की ओर आया उसके हाथ से तोते उड गये...उसे लगा वह अचेत हो जायेगा पर सम्भलकर ’चोर-चोर’ चिल्लाने लगा...कोई सुननेवाला नहीं दिखा...पर तभी वह लडकी वहां पहुंची....उस एकाकी धनी पर उसे दया आयी और उसके समीप जा पूछी-"क्या चोरी हो गया....?"
"अस्सी लाख रुपये...एक सूट्‍केस्‌में था..."
"सूट्‍केस्‌....? भूरे रंग का था क्या...?"
"हां हां...तुम्हें कैसे जानकारी...? क्या चोर को तुमने देखा...?"
"हां...अभी-अभी मेरे आवास के निकट से हो उधर वाले रोड्‍की ओर गया है...."
’चलो-चलो’ कहता धनी उसके संग उधर ही जाता है पर कुनील कहीं नहीं दिखता है....धनी तुरत निज प्रेस्‌के रिपोर्टर्स्‌को आने कहता है....वे आ लडकी का कथन नोट्‍करते और रिकार्डिंग्‌भी करते...अगले दिन यह घटना समाचारपत्रों में छपती और टीवी पर दिखायी जाती है - वह लडकी कह रही है -"मैं उसकी आकृति का पूरा-पूरा वर्णन नहीं कर सकती पर देखते ही तुरत अभिजान(पहचान) लूंगी...लडकी उस समय निज आवास में एकाकिनी थी, उसका अनुज स्कूल्‌गया था और परिवार के अन्य लोग गांव गये हुए थे....कुनील भी इस समाचार को समाचार पत्रों में पढता और टीवी पर देखता है...उसने निज जीवन में संकट आया पाया कि वह लडकी कभी भी उसे अभिजान ले सकती है...वह मन एकाग्र कर उस लडकी को मन से देखता है...वह निज अनुज से बातें कर रही है....आत्मा के रूप में कुनील वहां जाता है...वह लडकी को मार-मारकर अचेत कर दे सकता है पर इससे उसके मन में बना उसका चित्र वह मिटा नहीं सकता था...भाई कुछ ही समय में स्कूल्‌जानेवाला था...कुनील लौट शरीर में आया और तुरत उस लडकी के आवास को प्रस्थान कर गया...उसने उसके द्वार पर नौक्‌किया...द्वार खोलते ही उसने अन्दर घुस द्‍वार अन्दर से बन्द किया और उस लडकी का मुंह दबा लिया...
"तुम एक सुसाइड्‍नोट्‍लिखो कि तुम स्वेच्छा से आत्महत्या कर रही हो...."
"मैं तुम्हें अभिजान गयी....और मैं आत्महत्या क्यों करूं...?"
"जिससे तुम मेरे सम्बन्ध में लोगों को बता न सको...सबके समक्ष मुझे अभिजान न लो कभी कहीं..."
वह चुप शान्त खडी रहती है...कुनील उसके शरीर में पिन चुभाता है...वह पीडा से चिल्लाना इच्छती है पर कुनील उसका मुंह दबा लेता है....अब वह उसकी अंगुली की त्वचा पर ब्लेड्‌से काटता है...रक्‍त निकलने लगता है...उसकी गहन पीडा देख वह उसका मुंह धीरे-धीरे छोडता है...
"क्या...क्या चाहिये तुम्हें....?" वह कराहती पूछी...
"एक सुसाइड्‍नोट्‍लिखो जैसा मैं कहता हूं..."
"यदि न लिखी तो....?"
"तब...तब...तब...ऐसे ही तडपा-तडपाकर मार डालुंगा...."
"यदि लिख दी तो....?"
"वह लिखने पर बताउंगा...."
वह सुसाइड्‍नोट्‍लिखना स्वीकार कर लेती है -’मैं जीवन से दुःखी हो आत्महत्या कर रही हूं...मेरी आत्महत्या के लिये कोई भी उत्‍तरदायी नहीं है....’
कुनील उस सुसाइड्‍नोट्‍को टेबल्‌पर एक कैंची से दबा रखता है....एक साडी ले उसे छ्त के पंखे से बान्ध लटकाता है...बलपूर्वक लडकी का गला साडी की रस्सी से बान्ध उसका शरीर पंखे से बन्धा लटकाता है....लडकी का शरीर कुछ समय पर्यन्त छ्टपटाता पुनः शान्त हो जाता है....कुनील उसके नाक पर ऊंगली रख यह निश्‍चित कर लेता है कि वह मर चुकी है तब आवास का द्वार सटा वहां से चला जाता है....किसी भी ने यह आशंका नहीं की टार्चर्‌के भय से भी कोई सुसाइड्‍नोट्‍लिख दे सकता है...सबने यह मान लिया कि जब सुसाइड्‍नोट्‍है तो उस लडकी ने आत्महत्या ही की होगी...

कुनील ने आराम की सांस ली....निज फ्लैट्‍में बैठा वह विचार रहा है कि कैसे वह कैसी कम्पनी खोले...धन पाने के स्रोत के सम्बन्ध में उसे चिन्ता नहीं है...उसने ऐसा सोचा कि वह निज आत्मिक-मानसिक शक्‍तियों से किसी को इतने रुपये कहां से मिले इस सम्बन्ध में विचारने भी नहीं देगा, वैधानिक कार्यवाही तो दूर की बात...
"आपके पब्लिकेशन्‌से जीवनी, बालकथा, स्कूली पुस्तकें, सामाजिक, धार्मिक, आदि विविध विषयों पर पुस्तकें प्रकाशित होती रहती  हैं...मैं एक प्री-प्रेस्‌पब्लिकेशन्‌खोलने जा रहा हूं जो इन किन्हीं भी विषयों पर ई-पुस्तकें एडीटर्स्‌/राइटर्स्‌, डीटीपी औप्रेटर्स्‌, और आर्टिष्‍ट्स्‌के द्‍वारा निर्मित करवा आपको प्रकाशित करने योग्य रूप में दे सकता है..." -कुनील ने एक प्रकाशक से बात की...
"हूं...पर आरम्भ में तो देखना होगा कि आप किस क्वालिटी की पुस्तकें निर्मित करवाते हैं...उसके पश्‍चात्‌ही बार-बार आर्डर्स्‌मिलते रहने की बात आ सकती है...."
कुनील ने एक छः कक्षों के औफिस्‌का क्रय किया...उसमें एक प्री-प्रेस्‌पब्लिकेशन्‌का औफिस्‌स्थापित किया...कम्प्यूटर्स्‌, टेबल्स्‌,चेयर्स्‌, आदि से सज्जित करवा एडीटर्स्‌, राइटर्स्‌, आदि के लिये उसने समाचारपत्र में विज्ञापन दिये...और दस एडीटर्स्‌/राइटर्स्‌, पांच डीटीपी औप्रेटर्स्‌, और पांच आर्टिष्‍ट्स्‌की नियुक्‍तियां कीं...कुल बीस ष्‍टाफ्स्‌में आधे पुरुष और आधी स्त्रियां थीं....कुनील ने केवल उन्हीं को नियुक्‍त किया था जो उसके काम आने योग्य जान पडे, ज्ञानगत योग्यता उनमें पर्याप्‍त हो या नहीं...अब वह एक आकर्षक औफिस्‌का बौस्‌बन औफिस्‌चला रहा था...उसकी अनुपस्थिति में उसका अनुज सुजित बौस्‌के रूप में काम देखता था....कुनील ने सभी एम्प्लायिज्‌के कामों में त्रुटियां निकाल सबको अपने समक्ष लज्जित खडा कर दिया था...इस प्रकार सभी एम्प्लायिज्‌उसकी मुट्‍ठी में आ गये थे...सभी जानते थे कि बौस्‌उन्हें कभी भी जौब्‌से निकाल दे सकता है जबकि प्रत्येक एम्प्लौयी की मानसिक प्रवृत्ति ऐसी थी कि वह जौब्‌से जिस किसी भी प्रकार चिपका रहना इच्छता था....कुनील ने उस पब्लिशर्‌से और अन्य भी पब्लिशर्स्‌से बात कर ई-फाइल्‌के रूप में पुस्तकें निर्मित करने का और्डर्‌प्राप्‍त कर लिया था....उसका बिजनेस्‌पर्याप्‍त लाभ में चल रहा था...अब कुनील बारी-बारी से फीमेल्‌ष्‍टाफ्‌को निज फ्लैट्‍बुला उनके संग यौन सम्बन्ध बनाने लगा...यह आनन्द सुजित ने भी पाया...फीमेल्‌ष्‍टाफ्स्‌के लिये जौब्‌सुरक्षित बनाये रखना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य था, इसके लिये यौन सम्बन्ध बनाना उनके लिये कोई आपत्ति की बात नहीं थी...वे कुनील के संग यौन सम्बन्ध के लिये स्वयम्‌को बहुत इच्छुक अनुभव करती थीं, तथा यह गर्व रहता था  मन में कि बौस्‌जैसे बडे व्यक्‍ति उन्हें यौन आनन्द प्रदान कर रहे हैं...कुनील का भाग्य भी कुछ ऐसा ही था...
पर पुरुष एम्प्लायिज्‌से क्या अतिरिक्‍त लाभ ले....एक दिन एक एडीटर्‌इन्दीवर को कुनील ने कुछ अधिक ही डांट दिया...इन्दीवर का मन अप्रसन्न था आवास लौटते समय भी...एक डीटीपी औप्रेटर्‌दीपक की निकटता थी कुनील से... कुनील ने उससे पूछा- "क्या इन्दीवर बहुत अप्रसन्न था...?"
"अप्रसन्न तो कुछ था ही...पर ऐसा नहीं कि जौब्‌छोडने के मूड्‌में हो..."
"तब भी...मैं इच्छता हूं कि तुम उससे मिलकर बात करो...अभी जाओ...."
"सर्‌, अभी रात होनेवाली है और उसका आवास भी यहां से बहुत दूर है..."
"हूं...तो शौर्ट्‍कट्‍मार्ग से जाओ..." कुनील को अवसर मिल गया था...
"शौर्ट्‍कट्‍...!"
"हां...आत्मा के रूप में जाओ..."
"आत्मा के रूप में...! क्या ऐसा सम्भव है....?"
"हां...तुम अन्दर कक्ष में जाकर लेट जाओ...मन एकाग्र कर इन्दीवर का ध्यान करो...निज शरीर से बाहर निकलने का प्रयास करो...और इन्दीवर के समीप पहुंच जाओ..."
निर्देशानुसार दीपक करना आरम्भ करता है....
"और हां, सुनो...मैं तुम-दोनों को मन से देख-सुन रहा हूंगा...उसे सर्वप्रथम एक घूंसा मारना...जब वह जानना इच्छे कि किसने मारा तो अपना परिचय मत देना...केवल पूछना कि जौब्‌के सम्बन्ध में उसका क्या प्लान है...?"
दीपक वैसा ही करता है...जब इन्दीवर से बातें कर रहा होता है तो कुनील उसे निर्देश देता रहता है कि वह क्या पूछे और क्या करे...तत्पश्‍चात्‌निज शरीर में लौट आता है...
"बडा ही आश्‍चर्यजनक अनुभव कर रहा हूं..."
"मैं इच्छता हूं कि यह अनुभव हमारे सभी एम्प्लायिज्‌प्राप्‍त करें....पर यह बात पूर्णतया गुप्‍त रहनी चाहिये..."
"सर, आपकी तो सभी लोग बात मानेंगे..."
"कल से मैं इस सम्बन्ध में देखता हूं..."
अगले दिन दीपक इन्दीवर से मिल उसका समाचार पूछता है -"कल कैसा दिन बीता...?कुछ अप्रसन्न लग रहे थे..."
"ठीक ही बीता....ऐसी कोई समस्या की बात नहीं है..."
"कोई विशेष बात हुई हो कल तो बताओ..."
"हां....कल एक भूत ने मुझे मारा...और मेरे जौब्‌के सम्बन्ध में भी पूछताछ कर रहा था..."
"अच्छा...!" दीपक उसे कुनील के समीप ले जाता और उसकी कही बात दुहराता है...
"हूं...बैठ जाओ....देखो, यह कोई बडे आश्‍चर्य की बात नहीं है...इच्छो तो तुम भी वैसे ही आत्मा के रूप में कहीं जा किसी को मार सकते और उससे बातें कर सकते...."
"सर्‌, यह कैसे सम्भव है...?"
"सम्भव है...तुम इच्छो तो अभी यह अनुभव प्राप्‍त कर सकते हो...."
इन्दीवर निज मन को बहुत उत्सुक और रेडी पाता है यह अनुभव पाने को...तब कुनील कहता है -"दीपक...इन्दीवर को संग ले मन एकाग्र करो उस मोटे व्यक्‍ति पर जो कल यहां मुझसे मिलने आया था और घूम-घूमकर प्रत्येक कक्ष में निरीक्षण भी कर रहा था...तुम सबने उसे देखा होगा..."
तब दोनों उस मोटे पर ध्यान एकाग्र करते हैं...दोनों आत्मा के रूप में उसके सिर के निकट पहुंच जाते हैं...
"तुम दोनों यहां के सम्बन्ध में अर्थात्‌रूप क्रियेशन्स्‌के सम्बन्ध में बातें उभारो उसके मन में...तब देखो वह क्या चिन्तन करता है..."
दोनों उसके मन को रूप क्रियेशन्स्‌की ओर मोडते हैं निज आत्मिक प्रभाव से...’साला...कुनील का बच्चा...समझता क्या है स्वयम्‌को...जैसा-तैसा कौण्टेण्ट्‍दे लाखों रुपये हडप लेना इच्छता है मुझसे...मैं नहीं क्रय कर रहा उसकी बनायी पुस्तक...’
"मारो मोटे को इतना कि अचेत हो जाये...प्रथम इसके मस्तिष्क के चारों ओर दुर्गन्ध प्रसारो (फैलाओ)..." क्रोध में कुनील ने यह मानसिक निर्देश दिया जो स्वयम्‌वहां की घटनाओं का निरीक्षण कर रहा था....दोनों आत्मायें निज काल्पनिक मुखों को खोल दुर्गन्ध उस मोटे को सुंघाते हैं...मोटा चिल्लाने लगता है कि यह दुर्गन्ध कहां से आने लगा...तब वे निज (अपने) काल्पनिक मुक्कों से मोटे को मार-मार अचेत कर देते हैं...मारते समय वे उस मोटे को यह बोध कराते हैं कि चूंकि उसने कुनील के विरुद्‌ध विचारा इस कारण उसपर यह संकट आया है...कुनील दोनों को लौट आने को कहता है...उसे प्रसन्न्ता है कि उसे दो आत्मा सैनिक मिल गये हैं जो कहीं भी जा कुछ भी कर दे सकते हैं उसके निर्देश पर...एक-दो घण्टे पश्‍चात्‌कुनील मोटे की स्थिति को मन से देखता है तो पाता है कि उसे चेत में लाने का प्रयास किया जा रहा है...मोटा आंखें खोल देखने लगता है...कुनील उसे प्रेरणा देता है कि रूप क्रियेशन्स्‌को रुपये न देने की बात सोचने के कारण ही ऐसा हुआ, अतः वह उसे जाकर रुपये दे दे...मोटा दौडा-दौडा कुनील के समीप पहुंचता है और दो लाख रुपये दे पुस्तक की इलेक्ट्रौनिक्‌फाइल्‌सीडी में ले क्रय कर लेता है....इस प्रकार कुनील को इस बिजनेस से लाखों रुपये का लाभ हो रहा है...
"कैसा रहा ये अनुभव...?"
"सर्‌...बहुत अच्छा लगा...पर आश्‍चर्य है कि अभी तक संसार को इस बात की जानकारी नहीं है....!"
"और न ही जाने...इसका लाभ केवल हमलोग उठायेंगे..."
कुनील विचार रहा है कि औफिस्‌के बीसों ष्‍टाफ्‌को दसों मेल्‌ष्‍टाफ्‌को आत्मा सैनिक बना डाले...तत्पश्‍चात्‌वह आत्मिक प्रभावों से लोगों का मन अपनी ओर मोड चुनाव लड सकता है, और इसी प्रकार वह प्रधान मन्त्री तक बन जा सकता है...वह स्वयम्‌को प्रधान मन्त्री की तुलना में उसके स्तर का प्रतीत कर रहा है...
एक जनवरी को नये वर्ष के अवसर पर उसे अवसर मिल जाता है...सभी ष्‍टाफ्‌एक ष्‍टैण्डर्ड्‍होटल्‌में लंच करने जाते हैं...तत्पश्‍चात्‌स्त्री एम्प्लायिज्‌को छुट्‍टी दे दी जाती है जबकि पुरुष एम्प्लायिज्‌लौट औफिस्‌आते हैं...वहां कुनील सबके समक्ष एक नये मनोरंजन का प्रस्ताव रखता है - "दीपक और इन्दीवर, तुम दोनों इन आठों को आत्मा के रूप में ले पीएम्‌के मस्तिष्क के समीप पहुंचो और वहां निकट हो रही बातों का निरीक्षण करो...मैं तुम्हें और भी निर्देश दूंगा..."
प्रेम मोहन एक शक्‍तिशाली व्यक्‍ति है...दीपक और इन्दीवर अन्यों को बोध कराते हैं कि कैसे क्या करना है...पीएम्‌भाषण दे रहा है...कुनील के निर्देश पर वे पीएम की मस्तिष्क को अवरुद्‍ध कर देते हैं...पीएम की मानसिक शक्‍ति काम नहीं करने लगती है...-"यह वर्ष २०११-२०१२ चल रहा है और...." वह सोच-विचार नहीं कर पाता है कि आगे क्या बोले...ऐसे में वह अकस्मात्‌अस्वस्थ हो जाने की बात कह बैठ जाता है जबकि लोग चिन्तित हो जाते हैं यह सोच कि वे तो पीएम को ही सुनने आये थे...इसके पश्‍चात्‌वे आत्मायें निज अदृश्य मुखों से दुर्गन्ध भरा वायु चारों ओर प्रसारने लगते हैं...सभी लोग सभा छोड चले जाते हैं...दसों आत्मायें कुछ मिनट्‍और बीता लौट आते हैं निज शरीरों में...सभी प्रसन्न और उत्साहित हैं ऐसा अनुभव लेकर...कुनील ने आत्मिक शक्‍ति से दसों के मन को बान्ध रखा है कि न तो इस सम्बन्ध में किसी अन्य से चर्चा करेंगे न ही विना उसकी इच्छा के वे ऐसा अनुभव लेंगे...कुनील ने अब इन दसों आत्माओं को निज वश में कर लिया है...
लोकसभा चुनाव अब निकट आ रहे हैं...कुनील अबतक करोडपति बन चुका है और वह चुनाव लडना इच्छता है...उसने एक बडी पार्टी से टिकट्‍पा लिया निज आर्थिक और आत्मिक शक्‍ति का प्रयोग कर...उसका निकटतम प्रतिद्‍वन्द्‍वी आलु है केवल जिससे ही उसे पराजय का भय है, अन्य सभी प्रत्याशी उसे उसकी पार्टी के और उसके निजी सामर्थ्य के समक्ष दुर्बल जान पडे...कुनील चिन्तन करता है कि किस प्रकार आलु को वोटिंग्‌से पूर्व ही परास्त कर दिया जाये...पर आलु का आत्मा बली है और वह भाग्यशाली भी है...अर्थात्‌उसके आत्मा को वश में कर पाना कुनील को कुछ कठिन जान पड रहा है, तब भी उसकी मानसिक पिटायी का विकल्प वह पा रहा है...
कुनील एक मंच पर खडा भाषण दे रहा है...उसने सभी प्रतिद्‍वन्द्‍वी प्रत्याशियों की आलोचना की, विशेषकर उसने आलु की खिचाई की...उसने अपनी प्रशंसा बढ-चढकर की...आलु को जब ज्ञात हुआ कि कुनील ने स्वयम्‌को सबसे अच्छा प्रत्याशी बताते हुए अन्य सभी की विशेषकर आलु की ऐसी निन्दा की है तो वह क्रुद्‍ध हो गया...परन्तु कुनील उसकी मानसिक स्थिति का निरीक्षण कर रहा था...इसके पूर्व कि आलु कुनील के विरुद्‍ध कुछ प्लान्‌बनाये, कुनील अपने दास आत्माओं को वहां भेज आलु को पीटने कहता है....वे सभी आलु के मस्तिष्क की पिटायी करते हैं...आलु को अनुभव हो जाता है कि आत्मायें पीट रहे हैं...पर पिटायी न सह पा वह अचेत हो जाता है...जब चेत आता है तो वह बताता है कि आत्माओं ने उसे पीटा है...और ये आत्मायें कुनील के द्‍वारा भेजे गये थे क्योंकि उसने उस समय एक स्वर सुना था -’मर कुनील के दुश्मन’...
कुनील की प्रतिक्रिया पत्रकारों के समक्ष -"वह निज रोग छिपाने के लिये मुझपर ऐसा निम्न श्रेणी का आरोप लगा रहा है...अच्छा होगा वह किसी मनश्‍चिकित्सक को निज समस्या या रोग बताये..."
पर आलु को पूरा विश्वास था इस सम्बन्ध में....उसने कुनील का रहस्य ज्ञात करने को विचारा...पर कुनील उसके मस्तिष्क में उठ रहे विचारों को पढ रहा था...उसने सोचा-’यदि आलु का पत्‍ता काट दिया जाये तो मेरी जीत सुनिश्‍चित है...’ उसने निज मानसिक प्रभावों से आलु के मन को हंसोड और मूर्ख जैसा बनाना आरम्भ किया....
आलु निजी असिष्‍टेण्ट्‍के संग चला जा रहा है...रेड्‍लाइट्‍पर उसकी कार खडी है...आलु की दृष्‍टि संग खडी कार की ड्राइविंग सीट पर जाती है....एक युवती कार ड्राइव कर रही है...कुनील आलु की आंखों से उस युवती को देखता है क्योंकि कुनील उस समय निज आत्मिक-मानसिक शक्‍ति से आलु की सभी क्रियाओं का अवलोकन कर रहा था...वह आलु के मन में कामोत्‍तेजना उत्पन्न करता है और उसके मन को अनियन्त्रित कर अपने अधीन-सा कर लेता है...इससे आलु उस युवती के प्रति तीव्र आकर्षित हो जाता है...उसे लगता है उसे उस युवती से प्रथम दृष्‍टि में प्रेम हो गया है...कुनील आलु का साहस बढा देता है और प्रेरणा देता है किसी भी प्रकार उसे अपनी पत्नी बना लेने की...आलु कार से बाहर निकला और उस युवती शालिनी से सीधे बोला -"तुम मुझसे विवाह कर लो..."
इसपर वह चौंकी और बोली -"तू है कौन...?"
"मुझे नहीं आइडेण्टिफाई कर पायी....!.मैं हूं आलु सिंह...देश का केन्द्रीय मन्त्री..."
"हां, जान गयी...पर मेरी सगाई हो गयी है...."
"सगाई हो गयी तो क्या हुआ, फेरे तो नहीं पडे हैं...!"
"पर मैं उसीसे विवाह करुंगी जिससे मेरी सगाई हुई है..."
"ऐसा न निर्णय लो...क्योंकि जिसपर मेरा मन आ जाये उसे मैं विवाह-मण्डप से भी उठवा लूं...अभी तो आपकी केवल सगाई ही हुई है..."
"अभी मुझे शीघ्रता है...कुछ आवश्यक कार्य है...पश्‍चात् कभी मिले तो..."
"आपका ऐड्रेस्‌...फोन्‌नम्बर्‌...?"
वह कार आगे बढाने लगी तो आलु ने उसका हाथ पकड लिया...कई लोगों ने देखा पर सब चुप रहे...आलु ने असिष्टेण्ट्‍से कहा -"इसे जाने न दो..."
बात बिगडती देख शालिनी ने मोबाइल्‌पर सौ नम्बर्‌डायल् कर पुलिस्‌बुला लिया...पर पुलिस वाले आ केन्द्रीय मन्त्री को सैल्यूट करने लगे...आलु ने बताया कि उसका मन शालिनी पर आ गया है और वह उससे विवाह कर ही रहेगा...तब सब-इंस्पेक्टर्‌ने भी शालिनी को समझाया -"ये आपसे विवाह करना इच्छते हैं, बलात्कार नहीं..."
शालिनी का कुछ भी मन नहीं था उससे विवाह करने का, पर आलु उसके आवास भी पहुंच गया और विवाह के लिये दबाब डालने लगा...एक दिन, दो दिन, तीन दिन...तो शालिनी समझ गयी यदि उसने उसकी बात नहीं मानी तो वह उसे शान्ति से जीने नहीं देगा...अन्ततः वह हार गयी और विवाह के लिये मान गयी...
शालिनी - "ये तुम्हारा नाम आलु सिंह क्यों है...?"
"मेरे पिताजी आलु के बहुत बडे व्यापारी थे...जिस वर्ष मेरा जन्म हुआ उस वर्ष उन्हें आलु के व्यापार से बहुत लाभ हुआ था....अतः यह विचार कर पिता ने मेरा नाम आलु रख दिया जिस प्रकार आलु के व्यापार से उन्हें बहुत लाभ होता है उसी प्रकार इस पुत्र का नाम आलु रख देने से यह भी मुझे बहुत लाभ देगा..."
"पर मेरे सोशल्‌ष्टेटस्‌से यह नाम मैच नहीं करता...अर्थात्‌मेरे पति का नाम आलु, बैंगन, राजमा, यह मेरे पोजीशन्‌के अनुकूल नहीं है...लोग क्या कहेंगे -’आलु की पत्नी बैंगन रानी...!"  
"अरे, आप क्या मुझे भाजी बेचनेवाला समझ रही हैं....? मैं हूं इस देश का केन्द्रीय मन्त्री...किस माई के लाल का साहस है कि वह मेरे या आपके विरुद्‍ध एक शब्द भी बोल सके...!"
"हां वो तो है... पर एक कण्डीशन्‌है...वह आपको मानना होगा...."
"अरे एक क्या दस भी कण्डीशन्‌मानने को रेडी हूं....आवास में दो और कार में एक कण्डीशनर लगा रखा है...अब मैं शालिनी कण्डीशनर भी लगवाने को रेडी हूं जिससे आप सदा आनन्द से रहें..."
"विवाह केप पश्‍चात्‌आप मेरा सर्‌नेम्‌शर्मा अपने नाम के आगे लगायेंगे...और मैं केवल शालिनी शर्मा ही रहूंगी..."
"धत्‌तेरे की...इतनी छोटी-कुनील कण्डीशन्‌....मैं रेडी हूं...मैं समाचारपत्रों में छपवा दूंगा कि आज से मुझे आलु सिंह शर्मा के नाम से जाना जाये..."
आलु ने सुशीघ्र शालिनी से विवाह कर लिया, और एक नये फ्लैट्‌का क्रय कर वहां निवास करना आरम्भ कर दिया...तीन-चार दिनों के पश्‍चात्‌सहसा उसका ध्यान निज गांव की ओर गया...वह तुरत गांव की ओर प्रस्थान कर गया, और पहुंचकर अपनी प्रथम पत्नी और बच्चों से मिला...
"पांच वर्ष होने को है और मन्त्री बने और हमलोगों को आप अभी तक गांव में ही रखे हुए हैं...नगर नहीं ले चलेंगे...?" पत्नी ने अप्रसन्नता व्यक्‍त की...
"ये लो मिठाई खाओ...एक बहुत ही फर्ष्‍ट्‍क्लास्‌पत्नी मिल गयी मुझको....अभी-अभी विवाह कर आ रहा हूं..." आलु ने इतनी निर्लज्जता और साहस से कहा कि पत्नी ’क्या...?’ बोल कुछ कहना इच्छती ही थी कि आलु ने सौ के नोटों की कई गड्डियां सूट्केस्‌से निकाल उसके हाथों में थमायी और बोला-"ये सब तुम्हारे लिये है...तुमलोग यहीं आनन्द लो...और हम वहीं आनन्द लेंगे अब अपनी नयी पत्नी के संग..."
पत्नी, पुत्र, पुत्री सभी प्रसन्न हो गये - "क्या ये सब हमारे लिये है...!"
आलु ने हां में सिर हिलाया...तीनों नोट्‍गिनने में लग गये और योजना बनाने लगे कि आगे क्या करना है...
"इतना ही नहीं, और भी भिजवाता रहुंगा...तो मैं अब जाउं...?"
"हां पिताजी...पर कभी-कभी आते रहियेगा...."
"हां जी, पूरा मत भूल जाइयेगा...हमलोगों का भी स्मरण करते रहियेगा कि हमलोग किस स्थिति में हैं..."

तबसे आलु सिंह का नाम आलु सिंह शर्मा हो गया...वह नयी पत्नी में इतना मग्न हो गया कि चुनाव हार गया, और कुनील चुनाव जीत गया...कुनील यही इच्छता था कि आलु का मन कहीं और व्यस्त हो जाये और वैसा ही हुआ...पर उसकी पार्टी विपक्ष में रही जिस कारण वह मन्त्री नहीं बन सका....कुनील कितना भी आत्मिक-मानसिक शक्‍ति का प्रयोग करे, सत्तारूढ दल उसे निज समूह में ले मन्त्री बना दे ऐसी स्थिति वह नहीं ला पाया...इससे उसका मन क्रुद्‍ध होने लगा...अब वह प्रधानमन्त्री कैसे बनेगा....वह खिन्न मन से बौस्‌के चेयर्‌पर बैठा था...लोगों की दृष्‍टि में जहां उसके सांसद बन जाने से उसका महत्त्व बढ गया था वहीं कुनील की प्रधानमन्त्री बनने की कामना पूरी न होने के कारण वह अप्रसन्न रह रहा था...कुनील ने सत्तारूढ दल के अध्यक्ष पर दृष्‍टि घुमायी जिसने उसकी पार्टी को सत्तापक्ष के समूह में सम्मिलित करना अस्वीकार कर दिया था...कुनील के मन, हृदय, और आत्मा सभी बहुत ही लैसिवियस्‌अर्थात्‌कामातुर थे...उसने निज अतिकामातुर और मलिन मस्तिष्क का तीव्र प्रभाव उस पार्टी अध्यक्ष पर डाला...अध्यक्ष का मन और तन अनियन्त्रित हो किसी के संग यौन सम्बन्ध बनाने को इतना आतुर हो गया कि उसने पार्टी कार्यालय के उसी कक्ष में बैठी एक स्त्री का सबके समक्ष बलात्कार करना आरम्भ कर दिया...बैठे तीन-चार अन्य लोगों के लिये यह एक मनोरंजक दृश्य बन गया और वे आनन्द उठाने लगे लाइव्‌शो का...जब अध्यक्ष काम पूरा कर पुनः चेयर्‌पर बैठा तो उनमें एक बोला- "अध्यक्ष महोदय, यदि ये आपके मन को इतना ही भा गयी थीं तो आप कहे होते, सब काम ढंग से होता...ऐसे सबके समक्ष...!"
"अरे क्या बतायें...अकस्मात्‌ऐसा लगा कि किसी को लिया नहीं तो प्राण निकलने लगेंगे....इसीलिये...नहीं तो...."
"तो ठीक है....पर अब इनका काम भी तो आपको पूरा करना चाहिये..."
"हां हां, अवश्य..." अध्यक्ष ने उस स्त्री की ओर देखते हुए कहा...
कुनील का मस्तिष्क इस दृश्य को देख रहा था...उसके गर्म मन को कुछ आराम का अनुभव हुआ...

अभी उसकी गर्मी कुछ न्यून हुई थी कि उसे अनुभव हुआ कहीं प्रकाश प्रसरा है...कहीं कोई ऐसा ध्यान लगा रहा है कि वह प्रकाशमय हो गया है...कौन होगा वह...? कुनील ने निज मन को दौडाया और ध्यानकर्ता पर्यन्त पहुंचाया...’अरे ये तो राघवेन्द्र कश्यप है...!’ उसके मन में जैसे आग लग गयी और हृदय जैसे जलने लगा राघवेन्द्र को इतना अच्छा ध्यान लगाते देख...कुनील का हृदय और मन उन सबके प्रति शत्रुता अनुभव करता था जिनमें अच्छाई के या सच्चाई के या अध्यात्म के स्पष्‍ट लक्षण दिखाई देते थे...उसने निज मानसिक शक्‍ति से राघवेन्द्र की ध्यानसाधना में बाधा डालना आरम्भ कर दिया...अब उनकी ध्यान ज्योति न्यून दिख रही थी...धीरे-धीरे ध्यान ज्योति कुनील के मन को दिखने से अदृश्य हो गयी...कुनील का मन राघवेन्द्र की ओर खिंच गया...कुनील यह मानता था कि एम ए की परीक्षा में राघवेन्द्र को नहीं वरन्‌उसे टौप्‌करना चाहिये था...राघवेन्द्र ने उसे यूनिवर्सिटी टौपर्‌नहीं बनने दिया, वह राघवेन्द्र को कोई भी सफलता पाने नहीं देगा और न ही सुख से जीने देगा...सांसद बन जहां लोग सुख, शान्ति और उन्नति का जीवन पा जाते हैं वहीं कुनील सांसद बन जाने के पश्‍चात्‌दुःख, अशान्ति और पतन का जीवन पा गया...वह राघवेन्द्र के कार्य कलापों का मानसिक प्रत्यक्ष करता रहता और उन्हें दुर्गति देने से लेकर नष्‍ट कर देने के प्रयासों में लग गया...वह राघवेन्द्र की अनुपस्थिति में अन्य व्यक्‍तियों को उनके कक्ष की डुप्लिकेट चाभी बना प्रवेश कर उनके लेखन कार्यों को प्रकाशन से पूर्व ही कौपी करवा लेने की सफल प्रेरणा देता है...आगे चलकर वह भोज्य पदार्थों आदि में विष मिला देने को भी कहता है और ऐसा ही किया जाता है पर राघवेन्द्र निज भाग्य से मानसिक बोध आदि द्वारा रक्षा पाते रहते हैं...कुनील की जलन और शत्रुता राघवेन्द्र के प्रति इतनी बढ गयी है कि वह प्रत्येक उस व्यक्‍ति के जीवन में विष घोलने का प्रयास करता है जिससे राघवेन्द्र को सहायता या लाभ पाने की सम्भावना जान पडती है या जो राघवेन्द्र के सम्बन्धी हैं...दिल्ली, उत्तराखण्ड, बिहार, महाराष्ट्र कितने ही स्थानों पर कुनील ने कितने ही लोगों के तन-मन में तीव्र कामाग्नि जला या अशुभ प्रेरणा दे पारिवारिक जनों के मध्य ही यौन सम्बन्ध बनवा दिया....लोगों को लगता था कि वह उसकी अपनी इच्छा है पर उसके पीछे कुनील का या उसके दास आत्माओं का तीव्र प्रभाव काम कर रहा होता था... कभी किसी के विरुद्‍ध तीव्र जनाक्रोश उत्पन्न करवा दिया कुनील ने तो किसी की हत्या करवा दी वैसी ही प्रेरणा दे...अच्छी और बली आत्मायें भी अनियन्त्रित कामाग्नि की पकड में आ जाती हैं....कुनील पीएम के मन को स्वीकार करवा देता है कि वह राघवेन्द्र की हत्या करवा दे...पीएम ने दो बार राघवेन्द्र को मार डालने को हत्यारों को भिजवाया कि वे राघवेन्द्र को पीट-पीट कर मार डालें, पर यह उनका भाग्य ही थी कि दोनों बार हत्यारे उन्हें किसी कारणवश मार न पाये और राघवेन्द्र सुरक्षित रहे...देश को हानि पहुंचाने के उद्‍देश्य से उसने देश चलाने वालों को प्रेरणा देनी आरम्भ कर दी कि वे जितना बन सके उतना आर्थिक आदि भ्रष्‍टाचार करें...और कुनील एवम्‌उसके दास आत्माओं की अशुभ प्रेरणा लोग अधिकतर स्वीकार कर ही लेते थे...कुनील न केवल राघवेन्द्र और सज्जनों का ही अपितु देश का भी दुश्मन बन चुका था...वह मानव समाज का भी रावण, कंस आदि जैसा दुश्मन बन चुका था जो निज प्रबल शक्‍ति से केवल हानि और पतन प्रसार रहा था चारों ओर...और किसी का भी साहस नहीं था कि वह उसके विरुद्‍ध मुंह भी खोल सके...
कुनील के सांसद काल के पांच वर्ष बीत गये थे...जबसे उसने राघवेन्द्र को नष्ट करने को ठान लिया तबसे उसका मन बिजनेस में नहीं लगने लगा...अब सुजित ही बिजनेस-डीलिंग करता था और औफिस चला रहा था...कुनील राजा की भांति वहां केवल मनोरंजन करने जाया करता था...सभी ष्‍टाफ वैसे ही निज जौब से चिपके थे...कुनील के मन में ईर्ष्या और द्‍वेष की आग लगी हुई थी...अतः उसका मन नहीं बना कि वह पुनः चुनाव लडे...उसका मन जिसके भी विरुद्‍ध हुआ उसे उसने दुर्गति में या मृत्यु के मुख में भी पहुंचा दिया, पर राघवेन्द्र के विरुद्‍ध लोगों को सफल रूप से भडकाकर भी केवल संकट की स्थिति ही उत्पन्न कर पाया और राघवेन्द्र सुरक्षित शेष रहे...इस असफलता से उसका क्रोध इतना बढा कि उसने निज विवेक को खो दिया....उसने आत्माओं की एक सेना बनाने का जो स्वप्न देखा था वह भी धूल में मिला जान पड रहा था क्योंकि उसकी मनःप्रवृत्‍ति कुछ भी विकास या निर्माण की नहीं रह गयी थी...पोर्नोग्रैफी इन दिनों वह कुछ अधिक ही मन लगाकर देख रहा था जिससे वह एक अनैतिक व हिंसक पशु बन चुका था जिसकी दृष्‍टि में संसार में कोई भी अपना नहीं रह गया था और वह किसी भी को कैसी भी हानि पहुंचा दे सकता था...कुनील के अतिकामुक, अनैतिक, और हिंसक मन-बुद्‍धि-आत्मा के कुप्रभाव से देश में चारों ओर पतनकारी कर्म बहुत तीव्र गति से प्रसर रहे थे...लोग निर्भय और निर्लज्ज हो यौन और आर्थिक आदि भ्रष्‍टाचार में संलग्न होने लगे...केवल  राघवेन्द्र कुनील की वास्तविकता का बोध कर पाये थे अभी तक...
जिन चतुर्मार्गों के निकट कुनील के आवास और औफिस थी वहां प्रत्येक ही दिन दुर्घटनायें होने लगीं...वहां से गुजरते कभी किसी गाडी का ब्रेक काम नहीं करने लगता तो कभी चलानेवाला का मस्तिष्क काम नहीं करने लगता...लोगों को वहां से गुजरते ’ही ही ही...भूः भूः बूः...’ ऐसी कुछ ध्वनियां सुनायी पडने लगती हैं कि ऐसा कोई बोल रहा है...दुर्घटना में लोगों को क्षति पाते या मरते देख कुनील के मन को इतनी प्रसन्नता मिलती है कि वह खिलखिलाकर हंसता है...ऐसा उसका मनोरंजन है....
एक दिन पीएम वहां से गुजर रहा होता है...कुनील उसे वहां से गुजरते मन से देख लेता है और उसके मस्तिष्क की शक्‍ति को बान्ध देता है...उसे ऐसी ही स्वरध्वनियां सुनायी पडने लगती हैं...पर कार ड्राइवर चला रहा था इसलिये ऐक्सीडेण्ट नहीं होता है...पर पीएम अभिजान जाता है यह कुनील का ही स्वर है क्योंकि ऐसे ही स्वर ने उसे राघवेन्द्र के विरुद्‍ध भडकाया था... और जब राघवेन्द्र ने कुनील के विरुद्‍ध कम्प्लेन्‌करते हुए उसकी तान्त्रिक शक्‍तियों को बताया तब जाकर यह स्पष्‍ट हुआ कि वह कुनील था...पर पीएम ने राघवेन्द्र के कम्प्लेन को अनदेखा किया क्योंकि एक तो कुनील के विरुद्‍ध कोई प्रमाण नहीं था, द्वितीय, पीएम स्वयम् ही राघवेन्द्र के विरुद्‍ध मन वाला व्यक्‍ति था...अतः वह कुनील के सभी अशुभ और आपराधिक कर्मों को जानकर भी चुप रहता है...
अब देश के एक प्रख्यात वैज्ञानिक वहां से गुजर रहे थे...वैज्ञानिक और ड्राइवर दोनों कुनील के मानसिक कुप्रभावों में आ जाते हैं...वैज्ञानिक को मस्तिष्क में चोट लगती है और वह हौस्पीटलाइज्ड्‌हो जाता है...चेत आने पर वह कहता है कि किसी आत्मा ने यह ऐक्सीडेण्ट करवाया ऐसा अनुभव हुआ...पीएम यह बात जानता है...वह अन्य लोगों से इस सम्बन्ध में बात करता है पर कोई कार्यवाही नहीं करवाता है...कुनील मन से तुरत जान जाता है जो बातें उसके सम्बन्ध में पीएम आदि के मन में उभर रही हैं..वह तुरत देश के विभिन्न चतुर्मार्गों (चौक) पर वैसी दुर्घटनायें करवाना आरम्भ कर देता है...कुनील का मन और आत्मा भी संसार के किसी भी स्थान पर पल भर में पहुंच कर वहां होने जैसा सारा काम कर दे सकता है...कभी कुनील केवल मन से कामना करता और वैसी घटनायें आकार लेना आरम्भ कर देती हैं...जैसे उसने पूर्व के जन्म में मनःकामनासाधक मन्त्र सिद्‍ध किया हो...
यद्‍यपि पीएम की यह स्वभाव था कि वह राघवेन्द्र के विरुद्‍ध सभी बातों और व्यक्‍तियों को अपने पक्ष में समझता था, और राघवेन्द्र के विरोधी पक्ष को बल देने का प्रयास करता था, तथापि संयोग से एक दिन उसकी राघवेन्द्र से मनोवार्ता (टेलिपैथी) हो जाती है...राघवेन्द्र बताते हैं कि यह सब और भी अनेक बातें सब कुनील के कारण हो रही हैं...
"कुनील के संग इतनी प्रबल शक्ति हुई कैसे...?"
"कुनील पूर्व जन्म का तान्त्रिक भाई बाबा है...उसी की शेष शक्‍ति अभी भी इतनी प्रबल है..."
"पर, भाई बाबा तो विनय ठाकुर था...!"
"विनय ठाकुर अन्य सभी रूपों में था, केवल भाई बाबा के अतिरिक्‍त...भाई बाबा कुनील ही था..."
"इस समस्या का क्या समाधान हो सकता है...?"
"पूर्व जन्म में बोरी में बान्ध पत्थरों से मारा गया था....इस जन्म में आग में जला मारा जा सकता है..."
"आग में...?"
यहीं तक मानसिक वार्ता हो पायी...तब राघवेन्द्र का ध्यान कुनील की ओर गया...उनने अनुभव किया कि कुनील बहुत आनन्द पा रहा है...जब ध्यान एकाग्र किया तो...ये क्या...! ये तो फक्ड्‍हो रहा है...! वहां क्या हो रहा था कि कुनील औफिस में कमप्यूटर पर पोर्नोग्रैफी देख रहा था और कामभ्रष्‍ट हो अपने पुरुष एम्लायिज, दास आत्माओं, से फक्‍ड हो रहा था...वस्तुतः कुनील का यह प्लान था कि यदि राघवेन्द्र को वह फक्ड करवा दे तो राघवेन्द्र की सारी ध्यान-साधना और अध्यात्म और उसका महत्त्व सब बिखर जा सकते हैं...इसके लिये ’फक्ड होने में बहुत आनन्द है’ यह विचार निज तन-मन में छा राघवेन्द्र के मन में समाने का प्रयास कर रहा था....राघवेन्द्र के मन को बहुत उत्तेजित करने पर भी वह उन्हें फक्ड नहीं करवा पाया, पर ऐसी बुद्धि उसकी स्वयम्‌की बन गयी कि फक्ड होने में बहुत आनन्द है और वह स्वयम्‌ही फक्ड होने लगा...उसके पश्चात्‌कुनील आराम करने लगा कि सहसा उसे लगा कोई उसे मनसा (मन से) देख रहा है...उसने भौंहें सिकोडी और मन दौडाया तो पाया कि ये तो राघवेन्द्र है...राघवेन्द्र के जानने में सारी बात आ गयी...कुनील ने तुरत बुद्धि दौडायी और मन से पहुंचा आलु के समीप...आलु निज फ्लैट में किसी से बातें कर रहा था...कुनील ने आलु को कुप्रेरणा दी -’यह व्यक्‍ति ऊपर से मित्रता का दिखावा करता है पर अन्दर से तुमसे जलता है...ये तुम्हें मार डालना इच्छता है...पर उससे पूर्व तुम इसे मार डालो...यह बाल्कोनी के टूटे रेलिंग से एक ही धक्के में गिर मरेगा...हां...करो...’ संग ही कुनील यह दृश्य वह राघवेन्द्र को दिखा-सुना रहा है...’मुझे इसे मार डालना चाहिये’ ऐसी भावना उसके मन में इतनी अधिक छा गयी कि वह उठा और उस व्यक्‍ति को बाहर का दृश्य दिखाते पीछे से धक्का मार नीचे गिरा दिया...वह व्यक्ति नीचे गिरा, रक्त ही रक्त प्रसरा भूमि पर....आलु चिल्लाया -"अरे कोई है....! बचाओ....ये नीचे गिर पडे..."  राघवेन्द्र को यह दृश्य दिखा कुनील ने उन्हें मानसिक धमकी दी..."यह सच में घटी घटना है...कल समाचारपत्रों में पढ लेना...और यदि तुम नहीं इच्छते कि कोई तुम्हें भी मार डाले मुझसे प्रेरणा पा तो तुम ध्यान लगाना बन्द कर दो..."
राघवेन्द्र ने कुनील को मनसा देखना रोका और विचार किया कि उसे कुनील से भय करने की कोई आवश्यकता नहीं है...पर कुनील की शक्‍तियां मानवजाति के लिये बहुत ही हानिकारक हैं...देश में कभी भी किसी भी व्यक्ति पर संकट ला देने का सामर्थ्य रखता है....
प्रदेश के मुख्यमन्त्री का भाषण बडे मैदान में हो रहा है...सहसा बम फूटने की ध्वनियां सुनायी पडती है....और गोलियां चलने की ध्वनियां भी संग सुनायी दे रही हैं...लोगों में भगदड मच जाती है...देखते ही देखते मैदान रिक्त हो जाता है...पर वास्तव में न कोई बम फूटा है और न ही गोलियां चली हैं...मुख्यमन्त्री आश्चर्यचकित हुआ यह जानकर...तभी उसे लगा कोई उसके कानों में कह रहा है -"तूने मेरे विरुद्‍ध कार्यवाही की बात सोची भी तो तेरा शासन नहीं रहेगा...."
’मैंने किसके विरुद्‍ध कार्यवाही की बात विचारी...और यह भूत जैसा मेरे कानों में कहा कौन...? क्या कोई भूत मानव रूप में रह रहा है...!’ उसने निज सचिव से पूछा कि उसने अभी निकट में किसके विरुद्‍ध कार्यवाही की बात कही है...?
"सर, आपने कल बल देते हुए कहा था कि आये दिन अप्रत्याशित रूप से होनेवाली दुर्घटनाओं के पीछे जिनका हाथ है उन हाथों को काट डाला जायेगा...और अपराधी के सम्बन्ध में आपको कुछ लोगों से जानकारी मिली है..."
"ये हाथ मुझे दे दे मुख्यमन्त्री...."
"हं...ये किसने कहा मुझसे...?"
"क्या सर...क्या हुआ...?"
"किसी ने मुझसे कहा कि ये हाथ मुझे दे दे मुख्यमन्त्री...."
"पर मैं तो लगातार आपके संग हूं....किसी भी ने नहीं कहा आपसे..."
"चलो, यहां से चलो सुशीघ्र..."
मुख्यमन्त्री की कही बात प्रसरती है कि किसी भूत ने विस्फोट की केवल ध्वनियां उत्पन्न कीं और मुख्यमन्त्री को धमकाया...पीएम मुख्यमन्त्री की बात सुन समझ जाता है कि यह कुनील ही है धमकी देनेवाला...वह मुख्यमन्त्री को फोन कर कुनील के सम्बन्ध में बताता है...कुनील उनदोनों की हो रही बातों को मनसा सुन रहा है, क्योंकि जब भी कोई उसके सम्बन्ध में विचारता या बोलता है तब उसके मस्तिष्क को स्वयम्‌ही जानकारी मिलने लगती है...स्थिति अब यह बनी कि देश-प्रदेश के प्रमुख लोगों को इस सम्बन्ध में जानकारी मिल गयी कि कुनील ऐसा कर-करवा रहा है पर सबको भय है कि कहीं कुनील उनकी बातें सुन उनकी दुर्गति या मृत्यु ला दे सकता है...इस कारण सभी चुप हैं...किसी भी को कोई उपाय नहीं सूझ रहा है इस संकट से मुक्ति का...मुख्यमन्त्री कुनील को अरेष्ट करवाने की सोचता है...पर सोचते ही उसका मस्तिष्क काम करना बन्द कर देता है...वह आंखें खोल मूर्ति सा चेयर पर बैठा है और उसका मस्तिष्क उसकी बुद्धि काम नहीं कर रही है...उसका आत्मा कुनील की पकड में है...अन्य लोग तुरत उसे हौस्पीटल ले जाते हैं...कुछ समय पश्चात्‌कुनील उसके आत्मा को छोडता है पर आत्मा के रूप में वहां उपस्थित रहता है...मुख्यमन्त्री को चेत आता है...वह उपस्थित लोगों की ओर देखता है...सभी प्रसन्नता दर्शाते हैं...
"यह तभी हुआ जब मैंने उसे अरेष्ट करने को सोचा..."
"किसे...?" सभी उत्सुक हुए...
"वो..." कहते-कहते वह ’आह्‌आह्‌...’ कराहता पुनः अचेत हो गया...आत्मा कुनील उसे आत्मिक मुक्कों से मारने लगता है कि वह पुनः अचेत हो  गया...मुख्यमन्त्री कुनील के सम्बन्ध में पूर्व ही बहुत कुछ सुन चुका था, पर अब मार खाकर वह बहुत सावधान हो गया था...मुख्यमन्त्री स्वयम्‌ही गुण्डा-टाइप का व्यक्ति था जो मार-धाड और छल-प्रपंच की राजनीति करते-करते विधायक से मन्त्री से मुख्यमन्त्री तक का पद पा गया पर इस भूत गुण्डे के समक्ष वह टिक न सका...

कुनील ने रुपये अर्जित करने में मन लगाना छोड दिया था और ईर्ष्या, शत्रुता और हिंसा भरा जीवन बीताने पर उतारु हो गया था...उसका मन करता था कि पूरे देश में और पूरे विश्व में भी अशान्ति. हिंसा, युद्‍ध आरम्भ हो जाये और लोग मारे जाने लगें....कोई शेष न रहे इस पृथिवी पर...पोर्नोग्रैफी का पर्याप्त मनोरंजन करते रहने से माइण्ड करप्ट हो कुछ भी अनुचित करने को रेडी हो जाता है ऐसा उसने स्वयम्‌के संग और कई अन्य के संग भी घटते अनुभव किया था...अतः उसने जिस किसी के मन को पोर्नोग्रैफी देखने में बहुत आनन्द लेनेवाला बनाना आरम्भ कर दिया, विशेषकर जो उसके विरुद्‍ध विचारे...वह आत्मा के रूप में नगर में निकला और कुछ गडबड कर मनोरंजन करने को एक स्थान से द्वितीय स्थान को भ्रमण करने लगा...एक पर्यटक बस उसकी दृष्टि में आयी जो तीव्र गति से चली जा रही थी....उसने उसके ड्राइवर्‌को प्रेरणा दी कि वह तुरत गाडी से बाहर कूद जाये...ड्राइवर्‌का मन वैसा करने को रेडी हो गया और विना विचार किये वह तीव्र चलती बस से बाहर कूद पडा....बस विना ड्राइवर के यात्रियों को लिये तीव्र दौडती एक अन्य वाहन से टकरा रोड पर पलट गयी....कई लोग घायल हुए और कई मारे गये...कुनील के जलते मन को वर्षा की बून्दें पडती जान पडीं...उसने कुछ सन्तोष अनुभव किया...अभी वह आनन्द ले रहा था कि उसे षड्‍यन्त्र रचा जाता अनुभव हुआ....उसने मनसा जाना कि एक गाडी यहां बम से भरी जा रही है जो देश में विस्फोटों के काम आने हैं...उसने उन्हें प्रेरणा दी कि वे गाडी को किसी मार्केट में ले जायें...यद्‍यपि उन्हें सावधानी से गन्तव्य पर पहुंचाना था पर उनका मन रेडी  हो जाता है मार्केट जाने को...उनका मन कुनील के नियन्त्रण में आ जाता है और वे वहां उसकी इच्छानुसार एक बम अन्य बमों पर दे मारते हैं...इससे भयंकर विस्फोट होता है और जिससे कई बिल्डिंग्स क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और सैंकडों घायल और मारे जाते हैं....
कुनील आत्मा के रूप में मानवजाति को चुनौती बन गया था...वह किसी भी व्यक्ति से कुछ भी करवा ले सकता था...उसने विचारा भारत शासन के अधीन तो बम और बारुद के कई भण्डार हैं, यदि उनमें वह विस्फोट करवा दे तो क्या रंगीन दृश्य होगा....! जिस समय वह ऐसा विचार रहा था उसी समय उसने राघवेन्द्र की ध्यान साधना से प्रकाश प्रसरता अनुभव किया...जिससे उसके मन का सम्पर्क राघवेन्द्र के मन के संग हो गया और राघवेन्द्र विस्फोट आदि बातों का रहस्य जान जाते हैं...अगले दिन जब यह समाचार समाचार पत्रों में प्रकाशित होता है तो राघवेन्द्र तुरत पीएम से मनोवार्ता कर बताते हैं कि कुनील ने ही करवाया बस-ऐक्सीडेण्ट और मार्केट में विस्फोट क्योंकि उन्हें उसी समय अनुभव हो गया था कुनील के मस्तिष्क का...उसी ने बस-ड्राइवर का मन बना दिया था चलती बस को छोड बाहर कूद जाने का...
"पर ऐसे तो कुनील ट्रेन के ड्राइवर और एयरोप्लेन के पायलेट का भी मन बना दे सकता है कि वे यात्रियों को चलते में छोड बाहर कूद जायें....?"
"हां...और अब हमारे परमाणु संयंन्त्र, आयुधशाला, संसद्‌भवन आदि कोई भी स्थान सुरक्षित नहीं रह गया है, क्योंकि कुनील कहीं भी कुछ भी करवा दे सकता है...इससे पूर्व कि यह संकट विकराल रूप ले, इस संकट को कुचल देना होगा..."
पर पीएम इस भय से कि कुनील उनकी बातें सुन ले सकता है, चुप ही रहता है...उसे भय है कि वह भी मुख्यमन्त्री जैसी या अधिक भी दुर्गति पा जा सकता है कुनील से...जानने वाले जान चुके हैं यह कुनील शैतान है पर कोई भी व्यक्‍ति उसके विरुद्‍ध बोलने का भी साहस नहीं कर पाता है....कुनील का ऐसा आतंक प्रसरा है... यद्‍यपि कुनील का मन अभी ट्रेन, वायुयान आदि की दुर्घटनाओं पर नहीं गया है पर कार, बस आदि ऐक्सीडेण्टस वह जब इच्छे तब करवाता रहता है...पर लोग अभी भी ड्राइव करना छोडे नहीं हैं...पर कुनील इस चिन्ता को जान जाता है और कहता है कि वह दिन भी अब शीघ्र आयेगा...क्या पायलेट एयरोप्लेन छोड नीचे कूद जाये...नहीं...अभी रेलगाडी ही ठीक रहेगी...पर ऐसा विचार करते समय उसके मन का सम्पर्क राघवेन्द्र के मन से बना है और यह बात उनको ज्ञात हो जाती है...राघवेन्द्र कुनील के पुराने संगी धनंजय को मनोवार्ता में यह बात बताते हैं...
धनंजय -"हमें इतनी बडी दुर्घटना को रोकने का कोई उपाय करना होगा..."
"हूं...पर एक रोक भी लेनेपर द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ आदि या कोई अन्य दुर्घटनायें...और समस्या यह है कि जो कोई कुनील के विरुद्‍ध जाना इच्छता है उसे या तो तीखी मार मिलती है या उसे कामोत्तेजित कर जिस-किसीके संग उसका यौन सम्बन्ध बनवा दिया जाता है...ऐसे में कामभ्रष्ट व्यक्ति कुनील के विरुद्‍ध साहस खो देता है..."
"मैं भी मनसा देखता हूं कि कुनील क्या प्लान बना रहा है...."
पर कुनील ने तो यह विचारा और वह कर डाला...कुछ ही समय में एक चलती ट्रेन का ड्राइवर अचेत या सो गया होता है और ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है...सैंकडों घायल हुए और मारे गये...पर कुनील का मन प्रसन्नता के झोंके पा रहा है...धनंजय यह समाचार सुनते ही  कुनील पर क्रुद्‍ध हो जाता है पर उसका क्रोध कुनील के मस्तिष्क को छू जाता है....कुनील यह जान तुरत धनंजय के तन-मन को इतना अधिक कामोत्तेजित करता है कि धनंजय निज पुत्री को पकड उससे सम्भोग करने लगता है...सम्भोग के पश्चात्‌धनंजय का मन पोर्नोग्रैफी देखने का होने लगता है...वह वह भी करता है...तत्पश्चात्‌सोचता है -’कुनील के विरुद्‍ध कुछ कर पाना उसके वश की बात नहीं... जो हो रहा है होने दो...’ राघवेन्द्र समझ जाते हैं कि धनंजय के मन में उभरी बातों को जान कुनील ने उसे शिथिल कर दिया है...
कुनील राघवेन्द्र के मन को देखते रहता है कि वे किससे क्या बातें कर रहे हैं, क्या विचार रहे हैं...इस बात को ध्यान में रखते हुए अपने ब्लौग्‌वेब्साइट्‌पर उनने प्रकाशित किया कि शैतान इन-इन कर्मों को कर चुका है और उसकी ऐसी-ऐसी शक्‍तियां हैं, और वह ऐसा-ऐसा और कर सकता है...इस संकट से मुक्ति पाना सरल नहीं है क्योंकि जैसे ही कोई उसके सम्बन्ध में सोचता है वह उस व्यक्ति के मन की सारी बातें जान लेता है...तत्पश्चात्‌वह कुनील के विरुद्‍ध क्या प्लान बनायेगा, कुनील किसी अन्य व्यक्ति के मन को पकड उसके माध्यम से उस व्यक्तिकी हत्या तक करवा दे सकता है....तत्पश्चात्‌वह अन्य व्यक्ति यह सोचता ही रह जायेगा कि उसने ऐसा क्यों किया...! शैतान का अन्त विषाक्त भोजन से किया जा सकता है...पर जो व्यक्ति इस कार्य को रूप दे वह निज मन में शैतान का रूप उभरे विना या शैतान के सम्बन्ध में कुछ भी सोचे विना सारा कार्य करे...

तीन मित्रों की दृष्टि में यह लेख आया...उन्होंने भी ऐसा कुछ सुना था पर यह शैतान है कौन...?लेख पढ उन्होंने विचार किया कि अब वे उस शैतान का न तो चित्र देखेंगे और न ही उसके सम्बन्ध में सोचेंगे पर लक्ष्य को पायेंगे...केवल उसके भोजन में विष मिला देना है इस बात पर मस्तिष्क केन्द्रित रखेंगे...प्रयास कर वे तीनों मुख्यमन्त्री से मिलने में सफल हुए और उससे यह स्वीकार करवा ही लिया कि शैतान ने उसे मारा है और विभिन्न दुर्घटनाओं, हत्याओं आदि दुःखद घटनाओं में कुनील का ही हाथ निश्चित रूप से है...पर भय के कारण उसने उन तीनों को कुनील का ऐड्रेस बताना अस्वीकार कर दिया कि यदि कुनील क्रुद्‍ध हो गया तो...अब उन तीनों ने कुनील का ऐड्रेस जानने के लिये राघवेन्द्र को ईमेल किया...संयोग से एक सप्ताह में उत्तर आ गया फोन पर जिसमें शैतान का नाम और ऐड्रेस बताया राघवेन्द्र की ओर से किसी व्यक्ति ने....पर यह व्यक्ति यदि शैतान न निकला तो...! इस आशंका से उन्होंने पुनः राघवेन्द्र को ईमेल किया और स्वयम्‌मिलने की इच्छा व्यक्त की निश्चितता के लिये...पर राघवेन्द्र ने उत्तर में ईमेल किया कि उस व्यक्ति ने वास्तविक जानकारी दी है...इससे तीनों निश्चिन्त हुए पर कुछ ही घण्टों पश्चात्‌वे पुनः चिन्तित हो गये यह सोचकर व लोगों के जीवन की रक्षा के लिये ही वे शैतान को मार डालना इच्छते हैं...पर शैतान के नाम पर कोई अन्य मारा गया तो यह अपराध हो जायेगा...अतः शैतान की शैतानियत का स्वयम्‌अनुभव कर ही हत्या जैसे कर्म को रूप दिया जायेगा...ये तीनों हैं हिमेश, ईशान, और जयेश...
"हम तीनों के अतिरिक्त किसी अन्य को कुनील की परीक्षा लेने भेजा जाये कि वह शैतान है या नहीं..."
"हूं...सुखद को केवल कहने की आवश्यकता है, वह हमारा कार्य करने को रेडी हो जायेगा..."
"मेरी जानकारी के अनुसार कुनील ने लम्बे समय से निज कार्यालय में नयी नियुक्तियां न की हैं और न ही करने का मन है...सांसद अब वह है नहीं...कोई बहाना दिखता नहीं उससे मिलने का...वैसे भी, वह किसी से मिलना नहीं इच्छता है..."
"बाहर कहीं मिला जा सकता है..."
"कहां...? और कैसे...?"
"मेरा एक मित्र सीनियर्‌कष्टमर्‌केयर्‌एग्जीक्यूटिव्‌है वायुवार्ता में...अपनी कम्पनी के फोन कनेक्शन्स हों या इतर (अन्य) कम्पनी के, वह चाहे जिस किसी के लैण्ड्लाइन्‌या मोबाइल्‌फोन्‌के कौल्स को और उस फोन के निकट हो रही बातचीत को सुनते रह सकता है...हमें यह सुविधा प्राप्त हो जा सकती है..."
"वेरी गुड्‍...देन्‌आवर्‌वर्क्‌इज्‌डन्‌..."
वह एग्जीक्यूटिव्‌सुखद के मोबाइल को यह सुविधा दे देता है कि वह एक नम्बर डायल कर कभी भी कुनील के मोबाइल स्क्रीन पर हो रही सारी गतिविधियों को, सारे कौल्स को, और निकट हो रही बातचीत को सुनते रह सकता है...सुखद सुनते रहता है...दो घण्टे पश्चात्‌सुनता है कि ३.३० की फ्लाइट्‍से उसका कोई सम्बन्धी विदेश से आ रहा है जिसे लेने वह स्वयम्‌एयर्‌पोर्ट्‍जायेगा...हिमेश विना विलम्ब किये सुखद को कुनील का फोटो दे एयर्‌पोर्ट्‍जाने कहता है...सुखद वहां पहुंच कुनील की प्रतीक्षा कर रहा है...हिमेश, ईशान, और जयेश सुखद के मोबाइल के निकट हो रही ध्वनियों को निज मोबाइल से सुन रहे हैं...कोई ३.१५ बजे एक कार पार्किंग में आकर लगी...सुखद ने उस व्यक्ति के मुखडे को कुनील के फोटो से बहुत मैच करता पाया...वह आगे की ओर धीरे-धीरे बढने लगा...सामने की ओर से कुनील आ रहा था...पर सुखद अन्य दिशा में देखने का बहाना करते कुनील से टकरा जाता है...टकराकर उसने कुनील से कहा -"यू बाष्टर्ड्‍..." कुनील ने उसे घूरकर देखा...पांच-दस सेकेण्ड्स में ही निकट से जा रहे चार-पांच स्त्रियां और पुरुष सुखद पर टूट पडते हैं यह कहते हुए कि ’गाली देता है...’ आश्चर्यजनक रूप से स्त्रियां भी सुखद को मारने लगीं...कुनील केवल यह मनोरंजक दृश्य देख रहा था...सुखद को यह बात समझ में आ गयी कि कुनील ने लोगों का मन बना दिया कि वे उसे मारें...पर इतनी परीक्षा ही पर्याप्त नहीं थी, अतः सुखद ने मन ही मन कुनील को मुक्कों से मारना आरम्भ किया...कुनील ने क्रोध में आंखें फाडीं और उसने जब अपने मानसिक मुक्के मारने आरम्भ किये तो सुखद को लगा कि कोई उसे तपे हुए लोहे के हण्टर से मार रहा है...वह शीघ्र अचेत हो गया...तीनों तुरत कार ले एयरपोर्ट की ओर चल निकले...वहां पहुंच उन्होंने देखा कि सुखद वैसे ही अचेत पडा है और किसी भी का ध्यान उसकी ओर नहीं है...वे तुरत सुखद को हौस्पीटल ले गये...वहां दो दिन ऐड्मिट्‍रह ही सुखद स्वस्थ हो पाया...तीनों इस निष्कर्ष पर आये कि कुनील में प्रबल आत्मिक-मानसिक शक्तियां हैं...ऐसा व्यक्ति इच्छे तो संसार को बहुत लाभ पहुंचा सकता है और इच्छे तो बहुत हानि...सुखद के संग हुई घटना से उन्हें विश्वास हो गया कि मुख्यमन्त्री ने हत्याओं और दुर्घटनाओं के कारण कुनील को अरेष्ट करवाने को सोचा और कुनील ने उसे ऐसा ही तीखा मार मारा, अर्थात्‌कुनील अपराधी आत्मा है इसमें सन्देह नहीं...तो अब कुनील की मृत्यु निश्चित करनी है...
हिमेश, ईशान और जयेश कुनील के मोबाइल से वहां की बातें सुन रहे हैं...तीनों अपना मस्तिष्क बन्द रखते हैं कुनील के सम्बन्ध में कुछ भी सोचने से...कुनील उनका आखेट (शिकार) है और उन्हें कुनील को मार गिराना है, ऐसा लक्ष्य है उनका...कुनील निज आवास में है....उसका सहायक उससे कह रहा है- "सर, किचन आदि के लिये कई वस्तुएं मंगानी हैं....यदि आपकी अनुमति हो तो लिष्ट बना दूं...?" कुनील के हूं कहने पर सहायक लिष्ट बनाता है...तीनों तुरत कुनील के आवास के निकट पहुंच जाते हैं और कुनील तथा सहायक दोनों के मोबाइल्स सुनते रहते हैं...कुछ ही समय में सहायक कुनील की कार को ले बाहर निकलता है...इन तीनों की कार उसके पीछे है...सहायक एक शौपिंग मौल में प्रवेश करता है...वस्तुएं चुन-चुन दो बास्केट्स में रख रहा है...तीनों विचार करते हैं कि बडी सरलता से इसकी चुनी वस्तुओं में विष मिला दिया जा सकता है...पर ऐसा तभी जब वे पूर्व से व्यवस्था करके आयें...अब वे पुनः सहायक के मोबाइल को सुनते रहते हैं कि पुनः (अगेन्‌) वह कब क्रय करने जाता है...उन्हें पुनः अवसर मिल ही जाता है और इस बार वे सहायक की आंखों से बचते हुए उसके बास्केट्स के वस्तुओं में घातक विष मिला देते हैं...इनमें से कुछ खाद्‍य-पदार्थों का उपयोग तीन दिन पश्चात्‌सहायक करता है...भोजन बना वह कुनील से खाने को कहता है पर कुनील कहता है उसका मन अभी फाइव ष्टार होटल में खाने को कर रहा है...ऐसा कह वह कार से निकल जाता है...तब सहायक और कुनील भोजन करते हैं और तुरत यमलोक चले जाते हैं विष के प्रभाव से...लौट जब कुनील आता है तो दोनों को डायनिंग टेबल पर मरा पा समझ जाता है ऐसा घातक विष के प्रभाव से ही हुआ है...उसे यह समझते भी विलम्ब नहीं होता कि लक्ष्य वह स्वयम्‌था जो बच गया...उसका क्रोध उच्चतम स्तर पर आ पहुंचा...उसने रोड की ओर देखा....जो-जो वाहन उसकी दृष्टि में आये वे ड्राइवर के नियन्त्रण से बाहर हो पलटते गये...लोग मरने लगे और रोड वहां जाम हो गया...क्या मुख्यमन्त्री ने उसे मरवाने की चेष्टा की...? उसका क्रोध अब मुख्यमन्त्री पर उतरा और वह उसके बौडीगार्ड के मन को अपने नियन्त्रण में ले उसे मुख्यमन्त्री को मार डालने को प्रवृत्त कर दिया...पर जैसे ही गार्ड ने मुख्यमन्त्री को शूट करने को हाथ बढाया, निकट खडे एक व्यक्ति को उसकी मनःप्रवृत्ति का आभास हो गया और उसने उसके हाथ पर दे मारा कि पिस्तौल दूर जा गिरा...वह अरेष्ट कर लिया गया...और किसपर वह सन्देह करे ऐसा कुनील सोच रहा था कि उसे दूर एयरोप्लेन उडता दिखा...उसने विना विलम्ब किये पायलेट के मन को शिथिल कर दिया और प्लेन क्रैश हो गया...
इधर इन तीनों को इतनी दुर्घटनाओं की जानकारी मिली जो आश्चर्यजनक थी...उन्होंने कुनील के मोबाइल को सुनना आरम्भ किया...कुनील की बडबडाहट सुनायी पडी कि उसके भाई के मारे जाने के पश्चात्‌अब कोई भी जीवित नहीं बचेगा...
आज होलिकादहन की रात है...कुनील स्वयम्‌को बहुत असुरक्षित और अशान्त अनुभव कर रहा है...क्योंकि उसे भय है कि कभी भी कहीं भी फूड्‍प्वायज्निंग से उसकी मृत्यु हो जा सकती है...रात धीरे-धीरे बढती जा रही है...कुनील कार से बाहर निकला...तीनों उसके मोबाइल को सुनते हुए उसका पीछा कर रहे हैं...’लीला का टीला’ पर लोगों ने होलिकादहन के लिये एक बडा मंच बना लकडियों-लट्‍ठों का एक विशाल समूह एकत्र किया जा रहा है...अभी भी लोग मंच पर चढ लकडियां आदि उस विशाल समूह में फेंक रहे हैं...कुछ समय पश्चात्‌लकडियों के इस विशाल समूह में आग लगायी जायेगी...कुनील कार से उतर अन्धेरे में खडा हो चुपचाप यह दृश्य देखने लगता है...रोड किनारे के शौप्स अभी ओपेन हैं...एक शौप में लकडियों के लट्‍ठे आदि बेचे जा रहे हैं जिन्हें क्रय कर लोग उस समूह में मंच से डाल रहे हैं...इन तीनों ने भी लकडियां क्रय कर एक बडे बोरे में बन्धवा लिया...उसे ले वे कुनील के समीप पहुंचे...कुनील का मन अशान्त और भयभीत होने के कारण वह अन्य लोगों के मन पढना नहीं इच्छ रहा है...कुनील वैसे ही अशान्ति में खडा सोच रहा था...उन तीनों ने विना विलम्ब किये लकडी के लट्‍ठों से कुनील के सिर पर प्रहार किया...कुनील के सिर से रक्त निकलने लगा...वह भूमि पर गिर अचेत हो गया...तीनों ने उसे उस बोरे में अन्दर बान्धा और मंच पर चढ उस विशाल लकडी समूह में फेंक डाला...तत्पश्चात्‌क्रय की गयी लकडियां भी ले जा उसके ऊपर फेंक डाली...न तो मारते समय और न ही कुनील को समूह में फेंकते किसी अन्य का ध्यान गया उस ओर....तीनों प्रतीक्षा करने लगते हैं उन लकडियों में आग लगाये जाने की...कुनील के ऊपर अब और भी लकडियां पड रही हैं...समय पर आग लगा दी जाती है...लकडियों का विशाल समूह धू-धू कर जलने लगता है...पूरा जल जाने तक वे देखते रहते हैं...तत्पश्चात्‌प्रसन्नता से एक-दूसरे को देखते और हाथ पकडे लौटने लगते हैं....इस दृश्य के संग ही The End 



 

'Mitra-Shatru' - a story plot for making film

20/01/2012 10:48

 

" मित्र-शत्रु "

लेखक - राघवेन्द्र कश्यप

फिल्म्‌ बनाने के उद्‍देश्य से लिखा गया यह कथा-प्लौट्‍ अधिकतर काल्पनिक घटनाओं पर आधारित है....

 

सीमा और किशोर तथा अन्य मित्रगण मनोरंजन कर रहे हैं यूनिवर्सिटी कैम्पस्‌ में....सभी मिलकर प्लान्‌ बनाते हैं गोवा घूमने जाने का, किन्तु फीमेल्‌ ष्‍टूडेण्ट्स्‌ जाने से मना करने लग जाती हैं....पर अन्ततः सीमा और किशोर कुछ फीमेल्‌ ष्‍टूडेण्ट्स्‌ को संग चलना स्वीकार करवा ही लेते हैं....

गाते-गुनगुनाते सभी ट्रेन्‌ से जा रहे हैं....

गोवा में सभी एक होटल्‌ में ठहरते हैं....दो-दो मेल्‌ और दो-दो फीमेल्‌ ष्‍टूडेण्ट्स्‌ एक-एक कक्ष में ठहरे हैं....

गोवा में विभिन्न रमणीय स्थानों पर घूमने जाते हैं....विभिन्न दृश्य मनोरंजन के....

रात में डिनर्‌ के पश्‍चात्‌ किशोर सीमा के कक्ष मे आता है....उस समय सीमा की रूम्‌मेट्‍ वहां उपस्थित नहीं थी....उसे पूर्व ही किशोर ने किसी और कक्ष में बुला वहां बातों में फंसा रखा था....किशोर शनैःशनैः सीमा संग सेक्सुअल्‌ मैटर्स्‌ पर बातें करने लग जाता है....सीमा को यह अच्छा नहीं लगता पर वह शान्त है....सम्भवतः किशोर ने पी रखा है, उसके हाथ धीरे-धीरे सीमा की ओर बढने लगते हैं....सीमा क्रुद्‍ध हो डांटती है....पर किशोर के आगे बढते हाथों ने सीमा की बांहों को पकड लिया....सीमा चिल्लाने लगी....

किशोर - "इसमें घबडाने की क्या बात है!!! मैं तुमसे विवाह भी तो करूंगा.....???"

"पर मैं तुम जैसे विलासी से विवाह करना नहीं इच्छती....फ्रेण्ड्शिप्‌ यूनिवर्सिटी पर्यन्त ही सीमित रखो...."

जब वह किसी भी प्रकार नहीं मानती तो किशोर -"यह मेरा तेरहवां आखेट है....बारह को मैं इसी प्रकार यौन सुख प्रदान कर चुका हूं.... अब तुम्हारा नम्बर्‌ तो लग कर ही रहेगा...."

उस रूम्‌ के बाहर से गुजरते समृद्‍ध को अन्दर चीखने-जैसा कुछ गडबड हो रहे होने की आशंका जान पडी....वह द्वार खटखटाता है....पुनः चीख सुनायी पडती है....वह द्‍वार और भी तीव्रता से खटखटाता है....सहसा सीमा किशोर के बन्धन से छूट तुरत द्वार की ओर दौड खोलना  चाहती है....समृद्‍ध अन्दर की स्थिति का अनुमान लगा रहा है....तभी किशोर पिस्तौल निकाल लेता है....परन्तु सीमा हाथ पीछे कर किशोर के ध्यान में आये विना द्वार का हैण्डल्‌ घुमा देती है और समृद्‍ध झटके-से अन्दर घुसता है....किशोर निर्भयता से दोनों को हाथ ऊपर उठा द्वार बन्द करने को कहता है....सहसा समृद्‍ध निज हाथ में लिये पुस्तक को किशोर के पिस्तौल पर दे मारता है....पिस्तौल नीचे गिर जाता है और किशोर और समृद्‍ध दोनों एक दूसरे से मारामारी करने लगते हैं....सीमा अन्य मित्रों को सूचित करती है....सभी लोग वहां आ दोनों को अलग करते हैं....सभी किशोर को धिक्कारते हैं और कहते हैं कि वे इच्छें तो अभी उसे पुलिस्‌ को सौंप दे सकते हैं....किशोर क्षमा मांगता है....सभी उसे तुरत वहां से चले जाने को कहते हैं....किशोर लौट जाता है....सभी पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार मनोरंजन करते हैं....जब सीमा समृद्‍ध से उसका पता पूछती है तो ज्ञात होता है कि समृद्‍ध सीमा के निकट के ही एक अपार्ट्मेण्ट्‍ में रहता है....समृद्‍ध के पिता एक अधिवक्‍ता हैं वहीं सीमा के पिता की प्लाष्‍टिक्‌ व कांच के विभिन्न वस्तुओं को बनानेवाली एक फैक्ट्री है....जब सभी वापस लौट आते हैं तब एक दिन सीमा के माता-पिता समृद्‍ध के आवास पहुंचते हैं और समृद्‍ध की समय पर की गयी सहायता के लिये उसकी बहुत प्रशंसा करते हैं, संग ही निज आवास सीमा के जन्मदिवस के अवसर पर आने का निमन्त्रण भी देते हैं....

सीमा और समृद्‍ध दोनों एक-दूसरे के प्रति अधिक और अधिक आकर्षित होते चले जा रहे हैं....सीमा के जन्मदिवस पर सीमा के पिता समृद्‍ध  के माता-पिता को बहुत आग्रह कर बुलवाते हैं और उनका खाने-पिलाने-घूमाने आदि के रूप में बहुत सत्कार करते हैं....इससे सीमा के पिता और समृद्‍ध के पिता की मित्रता जड पकडने लगती है....

यूनिवर्सिटी में परीक्षा के लिये सभी फार्म्‌ भर रहे हैं....सीमा और समृद्‍ध भी फार्म्‌ भरते हैं....सीमा जब फार्म्‌ भरती है तो उसे उसकी रसीद नहीं दी जाती है यह कहकर कि अभी नेट्वर्क्‌ सिष्‍टम्‌ में कुछ फौल्ट्‍ आ गया है, पश्चात्‌ ले लेना....पश्चात्‌ कहा जाता है कि एग्जाम्‌ हौल्‌ में ही सबकुछ मिल जायेगा....परन्तु परीक्षा-हौल्‌ में सीमा का नाम नहीं है और उसे परीक्षा नहीं देने दिया जाता है....रघुराज को जब यह जानकारी मिलती है तो वह तुरत एक रिट्‍ कोर्ट्‍ में प्रस्तुत कर देते हैं....तर्क यह देते हैं कि सीमा एक मेधाविनी विद्‍यार्थिनी है जो एक भी दिन क्लास्‌ मिस्स्‌ नही करती तो वह परीक्षा फार्म्‌ भरना कैसे भूल जा सकती है...!.. रघुराज के तर्कों से सहमत हो सीमा को परीक्षा देने की अनुमति मिल जाती है....विशेष इसके लिये भी रघुराज को बहुत धन्यवाद देते हैं....

सीमा और समृद्‍ध में मित्रता शनैःशनैः प्रेम में परिवर्तित होने लग जाती है....दोनों कल्पनाओं में प्रेमगीत गा रहे हैं....

सीमा के पिता की फैक्ट्री में प्लाष्‍टिक्‌ और कांच की विभिन्न प्रकार की कलात्मक वस्तुयें भी बनती हैं....विशेष एक कांच का एक सुन्दर टेबल्‌ और ऐक्वेरियम्‌ रघुराज को उपहार देते हैं....इसपर रघुराज बहुत प्रसन्नता अनुभव करते हैं....

विशेष की फैक्ट्री में वेतन-वृद्धि को लेकर ष्‍ट्राइक्‌ हो जाती है....रघुराज इस बात पर विशेष से बातें करते हैं....रघुराज का परामर्श है कि जितने दिन ष्‍ट्राइक्‌ पर कर्मचारी रहेंगे उतने दिन का वेतन नहीं मिलेगा, पर बढती महंगायी को देखते हुए उचित वेतन-वृद्धि अवश्य की जाये....विशेष ऐसी ही घोषणा करते हैं....पर कर्मचारी संघ का नेता वेतन-कटौती को मानने से अस्वीकार कर देता है....ऐसे में रघुराज इस बात को कोर्ट्‍ में ले जाते  हैं और कहते हैं कि मांग मनवाने के इच्छे जितने भी हथकण्डे अपनाये जायें पर काम रोककर फैक्ट्री को हानि पहुंचाना स्वीकार नहीं....दैनिक कार्य अवधि के पूर्व दिन में अथवा पश्चात्‌ शाम-रात में नारे लगाये जा सकते हैं....टोकन्‌-ष्‍ट्राइक्‌ या सांकेतिक ष्ट्राइक्‌ की जा सकती है....न्यायालय इस बात से सहमत होता है और वेतन-कटौती के संग-संग उचित वेतन-वृद्धि का अनुमोदन भी करता है....विशेष एसपर रघुराज को बहुत ही धन्यवाद देते हैं और फीस्‌ देना इच्छते पर रघुराज लेने से अस्वीकार कर देते हैं....

अब सीमा और समृद्‍ध के परिवार वाले एक-दूसरे के आवास प्रायः ऐसे आने-जाने लगे मानो दोनों निकट के सम्बन्धी हों....सीमा और समृद्‍ध दोनों  में प्रेम हो जाता है और दोनों प्रेमगीत गा रहे हैं....

ष्‍ट्राइक्‌ के पश्चात्‌ फैक्ट्री के उत्पादन और गुणवत्ता में गिरावट आयी जान पड रही है....फैक्ट्री से आय में बहुत न्यूनता आ गयी है.... विश्व के उद्योगपतियों का सम्मेलन यूएसए में हो रहा है जिसमें सम्मिलित होने का निमन्त्रण विशेष को भी मिला है....वे अमेरिका जाते हैं....वहां सम्मेलन के समय एक अमेरिकी उद्योगपति से कुछ विशेष लगाव हो जाता है....वह रघुराज के व्यक्‍तित्व से विशेष प्रभावित हो अपने उद्‍योग में उन्हें उच्च पद पर कर्म करने का औफर्‌ देता है जिसका वेतन इतना अधिक है जितना विशेष को फैक्ट्री से अपनी व्यक्‍तिगत मासिक आय भी नही हो रही थी....विशेष इस औफर्‌ को स्वीकार कर लेना इच्छते हैं पर भारत में उनकी फैक्ट्री कौन चलायेगा यह प्रश्न उनके मन में गूंजने लगा....क्या फैक्ट्री को बेच दिया जाये!.... उनने रघुराज से इस सम्बन्ध में परामर्श किया.... रघुराज ने स्वयम्‌ फैक्ट्री चलाने का भार उठाने की बात कही....यदि फैक्ट्री अच्छा लाभ न दे पायी तो फैक्ट्री को बेच दिया जायेगा ऐसा निर्णय लिया गया....

विशेष भारत लौटकर पत्नी और पुत्री को संग अमेरिका ले चलने की बात कहते हैं, पर वे दोनों भारत में ही रहना प्रियतर कहते हैं....रघुराज को अपना परम मित्र कह उसपर विश्वास कर विशेष अमेरिका चले जाते हैं.... रघुराज फैक्ट्री के मैनेजिंग्‌ डाय्‌रेक्‌टर्‌ के पद पर आसीन हो गये....व्यवहार में वे फैक्ट्री के स्वामी समान हो फैक्ट्री के विकास में संलग्न हो गये....फैक्ट्री में विभिन्न समस्यायें ऐसी थीं कि फैक्ट्री का अन्त कर दिया जाये, पर रघुराज ने प्रत्येक कर्मचारी को टार्‌गेट्‌ दे दिया और वे स्वयम्‌ सभी बातों का निरीक्षण मृदु व्यवहार और तत्परता के संग करने लगे....अधिवक्तृत्व का कर्म भी संग-संग कभी-कभी देख लिया करते थे....फैक्ट्री के उत्पादन और गुणवत्ता में शनैःशनैः सुधार आने लगा....

रघुराज न केवल फैक्ट्री अपितु सीमा के परिवार की भी देखभाल कर रहा था....कोई समस्या हो या विशेष शौपिंग्‌ करनी हो तो रघुराज भी सीमा, सीमा की मां के संग हो लिया करता था....सीमा के आवास में उसकी मां के अतिरिक्त एक सेविका भी रहती थी....

समृद्‍ध विशेष रूप से सीमा की देखभाल कर रहा था....दोनों का यूनिवर्सिटी में ही नहीं बाहर भी संग-संग घूमना चल रहा था....

फैक्ट्री को निज उत्पादों के विक्रय के लिये निज विक्रय प्रतिनिधियों के द्‍वारा विभिन्न व्यक्‍तियों, बिल्डिंग्स्‌, औफिसेज्‌, कम्पनियों आदि से सम्पर्क बनाना पडता था....ऐसे में फैक्ट्री का सम्पर्क एक फिल्म्‌-प्रोडक्शन्‌ कम्पनी के संग बना....कम्पनी ने प्लाष्‍टिक्‌ और कांच की कुछ कलात्मक वस्तुओं का क्रय किया....संग ही निज फिल्मों को दर्शानेवाले होर्डिंग्स्‌ (बोर्ड्स्‌) फैक्ट्री के बाहर लगवाने का प्रस्ताव रघुराज के समक्ष रखा....रघुराज ने स्वीकार कर लिया, और संग ही फिल्म्‌-प्रोड्‍यूसर्‌ से सम्पर्क किया - "मैं एक अधिवक्‍ता और इस फैक्ट्री का मैनेजिंग्‌-डाय्‌रेक्टर्‌ तो हूं ही, संग एक और विशेषता मुझमें है....और वह है फिल्म्‌ बनाने के उद्‍देश्य से मैंने कुछ कथायें लिखी हैं, और उनके अनुरूप गीत भी....मैं यह इच्छता हूं कि मेरे किसी एक कथा-प्लौट्‍ व गीतों पर आधारित एक फिल्म्‌ बनायी जाये..." फिल्म्-निर्माता ने इ्‍सपर विचार करने का आश्वासन दिया....पुनः सम्पर्क करने पर निर्माता ने कहा -"आपकी कथायें अच्छी हैं....पर मेरा इस सम्बन्ध में विचार यह है कि पार्ट्नर्‌शिप्‌ में फिल्म्‌ बनायी जाये....कुछ रुपये आप लगायें कुछ हम....लाभ-हानि भी उसी अनुपात में शेयर्‌ की जायेंगी...." रघुराज ने इस सम्बन्ध में सीमा, सीमा की मां और पिता से बातें कीं.... सभी ने सहमति व्यक्‍त की और सभी प्रसन्न हुए कि रघुराज की लिखी कथा और गीतों पर आधारित फिल्म्‌ बनेगी....इस सम्बन्ध में गतिविधियां चल रही थीं....विशेष ने फैक्ट्री की बढती आय और प्रगति से सन्तुष्‍ट हो अमेरिका छोड भारत में ही रहने का विचार किया....वे भारत लौट आये....उनके परिवार के सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए....अब विशेष फैक्ट्री के स्वामी के रूप में कार्यरत हो गये....

 जबकि रघुराज ने पुनः अधिवक्‍ता के कर्म को विशेष महत्त्व देते हुए उसमें ही लगे रहने का निर्णय लिया परन्तु फिल्म्‌ बन जाने के पश्‍चात्‌ ही....अभी उनका सारा तन-मन अपनी फिल्मी कथा को एक हिट्‍ फिल्म्‌ बनते हुए देखने में रमा हुआ था....फिल्म्‌-निर्माण के लिये कलाकारों व शूटिंग्‌-स्थलों के चयन की तैयारियां चल रही थीं....

इसी समय उस फिल्म्‌-निर्माता के समक्ष एक कथा व गीत लेखक राघवेन्द्र कश्यप के फिल्मी कथा-प्लौट्स्‌ व गीतों का संग्रह प्रस्तुत हुआ....उसके औफिस्‌ के लोगों ने उन कथाओं व गीतों को बहुत प्रिय माना था....प्रोड्यूसर्‌ ने भी माना कि इन कथाओं से किसी एक पर यदि फिल्म्‌ बनायी जाये तो बडी ही मनोरंजक व कुछ अलग ही बात वाली फिल्म्‌ बन सकती है....संग ही कई गाने ऐसे हैं जिनको अच्छा म्यूजिक्‌ दिया जाये तो ये बहुत प्रसिद्‍ध हो जायेंगे....जबकि रघुराज की कहानियां साधारण स्तर की थीं जिनमें हीरो-हीरोइन्‌-विलेन्‌ मार-धाड आदि थे....प्रोड्यूसर्‌ ने विचार किया कि यदि वास्तव में कोई हिट्‍ फिल्म्‌ बनाने का प्रयास करना है तो राघवेन्द्र कश्यप की किसी एक कथा पर ही फिल्म्‌ बनायी जाये....उसने तुरत विशेष से सम्पर्क किया....यह बात बतायी पर विशेष ने कहा कि वह रघुराज के उपकारों के इतने अधिक ऋणी हैं कि वह सोच भी नहीं सकते कि रघुराज की कथाओं को छोड किसी और की कथा पर फिल्म्‌ बनायें....प्रोड्यूसर्‌ ने इसपर बहुत विचार किया और निज औफिस्‌ के लोगों से परामर्श लिया तो यही निष्कर्ष निकला कि यदि हिट्‍ फिल्म्‌ बनानी है तो राघवेन्द्र कश्यप की किसी एक कथा पर ही फिल्म्‌ बनायी जाये....अन्ततः प्रोड्यूसर्‌ ने राघवेन्द्र कश्यप की कथाओं व गीतों की एक कौपी विशेष को भिजवा दी तथा कहा एकबार वे इन कथाओं को देख लें तभी निर्णय लें, क्योंकि वह रघुराज की लिखी कथा पर फिल्म्‌ बना धन गंवाना नही इच्छता.... इस प्रकार जब प्रोड्यूसर्‌ ने रघुराज की कथा पर फिल्म्‌ बनाने से मना कर दिया तो हारकर विशेष ने राघवेन्द्र कश्यप की कथाओं व गीतों को स्वयम्‌ देखा तथा सीमा और उसकी मां को भी पढने दिया....पढकर सीमा और उसकी मां दोनों ने ही उन कथा-प्लौट्स्‌ की बहुत प्रशंसा की... पर समस्या की बात जान दोनों के मुखों पर उदासी छा गयी कि फिल्म्‌-निर्माण तो रघुराज निज कथाओं को पर्दे पर लाने के लिये कर रहे थे....तब भी, राघवेन्द्र कश्यप की कथाओं से जहां हिट्‍ फिल्म्‌ बनने की अच्छी सम्भावना बनती जान पडी, वहीं रघुराज की कथाओं से फिल्म्‌ के फ्लौप्‌ होने की ही अधिक सम्भावना दिख रही थी....काश यह कडवी सच्चाई रघुराज समझ पाते....!

राघवेन्द्र कश्यप की कथायें व गीत इण्टर्‌नेट्‌ पर भी उपलब्ध थे.... सीमा की मां राघवेन्द्र कश्यप की लेखनकला से बहुत प्रभावित हो उन्हें निज आवास आने का अनुरोध करती है....राघवेन्द्र वहां जाते हैं....सीमा और उसकी मां दोनों ही उनकी लेखन-क्षमता और आध्यात्मिकता पर बहुत प्रसन्नता व्यक्‍त करते हैं....उसी समय रघुराज वहां आ जाते हैं....सीमा और उसकी मां दोनों राघवेन्द्र और रघुराज को एक-दूसरे का परिचय देते हैं, तथा रघुराज को यह बोध कराते हैं कि राघवेन्द्र कश्यप के लिखे कथा-प्लौट्स्‌ के आधार पर जहां एक हिट्‍ फिल्म्‌ बनने की पूरी सम्भावना दिखती है वहीं उनकी लिखी कथाओं के आधार पर एक साधारण फिल्म्‌ ही बन पायेगी....रघुराज स्वयम्‌ राघवेन्द्र कश्यप के लिखे कथा-प्लौट्स्‌ व गीतों का अवलोकन कर उनकी प्रशंसा करते हैं - "यदि ऐसी बात है तो इनके लिखे कथा-प्लौट्स्‌ के आधार पर ही फिल्म्‌ बनाओ....मैं क्या निज कथाओं को पर्दे पर लाने के प्रयास में तुम्हारी कम्पनी को एक - दो करोड की हानि पहुंचाने की सोचूंगा....!"

"अंकल....यू आर्‌ ग्रेट्‍....!" कह सीमा बहुत प्रसन्न होती है....

जब रघुराज ने सहमति दे दी तो झट सीमा ने ’विनय ठाकुर का भूत’ कथा पर फिल्म्‌ बनाने का प्रस्ताव रखा....तत्पश्‍चात्‌ शूटिंग्‌ आदि की व्यस्तता हो गयी पर इन्हीं दिनों रघुराज कुछ अस्वस्थ हो गये....उनका अधिकतर समय आराम करने में बीतने लगा....

एक दिन एक सेल्स्‌-रीप्रेजेण्टेटिव्‌ कांच के कुछ बहुत ही आकर्षक सैम्पल्स्‌ ले सीमा के फ्लैट्‍ वाली बिल्डिंग्‌ में भी गया....जब विशेष को यह ज्ञात हुआ तो उनने उन सैम्पल्स्‌ को देखा और कुछ को निज प्रोडक्ट्स्‌ की तुलना में कुछ अच्छतर भी पाया....विशेष को तब बहुत ईर्ष्‍या अनुभूत हुई....उनने दो-तीन पडोसियों को एकत्र किया और उस रीप्रेजेण्टेटिव्‌ को धक्के मार अपमानित कर वहां से भगा दिया कि किसी भी सेल्स्‌मैन्‌ का इधर अन्दर आना मना है....वह रीप्रेजेण्टेटिव्‌ कुछ आंसू बहाता वहां से चला जा रहा था....उसके एक-दो सैम्प्ल्स्‌ टूट भी गये थे....

"पुत्‍तर....क्यों रो रहा है...?" किसी ने उससे बहुत सहानुभूति से पूछा....उसने उसका कारण बताया....

"कोई बात नहीं....आओ....मैं तुम्हारी इन अनुपम कलाकृतियों का क्रय करूंगा....आभूषण का मूल्य स्वर्णकार ही जान सकता है...."

वह रीप्रेजेण्टेटिव्‌ उस व्यक्‍ति की कार्‌ में बैठ चला गया....

वह फैक्ट्री भी उस फिल्म्‌ की शूटिंग्‌ में दर्शायी जा रही थी....सीमा का परिवार एवम्‌ समृद्‍ध ये चारों बहुत ही मन लगा इस शूटिंग्‌ में संलग्न थे....इन चारों ने भी उस फिल्म्‌ में कहीं-कहीं अभिनय किया था....सहसा तम्बु में आग लग गयी और फैक्ट्री में फैलने लगी....यद्‍यपि समय रहते आग पर नियन्त्रण कर लिया गया पर यह आग कुछ हानि तो पहुंचा ही गयी....अब आगे की शूटिंग्‌ फैक्ट्री से कहीं दूर ही करने का निर्णय लिया गया....दो मासों में फिल्म्‌ का निर्माण पूरा हो गया....रिलीज्‌ होने पर फिल्म्‌ मध्यम से अच्छतर स्थिति में रही, अर्थात्‌ फिल्म्‌ से कुल मिलाकर लाभ ही मिला....राघवेन्द्र कश्यप का नाम धीरे-धीरे प्रसरने लगा....उन्हें प्रशंसायें मिलनी लगीं....सीमा के परिवार ने विशेष रूप से फोन्‌ कर रघुराज को सारी सूचना दी....रघुराज ने प्रसन्नता व्य‍क्‍त की....

एक दिन सीमा की मां जब आवास में एकाकिनी थी तब सहसा किसी ने द्‍वार का लौक्‌ खोल अन्तः प्रवेश कर उनका बलात्कार किया और आराम से चला गया....एमां ने तुरत विशेष को सूचित किया....वे तुरत दौडे आये पर अब क्या किया जा सकता था...!...कब किसके आवास में ऐसी घटना घट जाये कौन सुरक्षित है इस संसार में..!...कहीं सीमा के संग भी ऐसा हो गया तो..!...यह चिन्ता दोनों के मन में समाने लगी....उन्होंने तुरत रघुराज से सीमा और समृद्‍ध के विवाह की बात की....रघुराज ने स्वीकार किया पर कहा कि समृद्‍ध एल्‌.एल्‌.एम्‌. पूरी कर अधिवक्‍ता बन निज पैरों पर खडा हो जाये तभी वे उसके विवाह की बात सोंचेंगे....निराश सीमा के माता-पिता ने सीमा का विवाह कहीं और करने को सोंचा....

एक दिन प्रातःकाल जब एमां बाथ्‌रूम्‌ में जब हाथ धो रही थी तब उसे हाथ कुछ जलता-सा लगा....उसने तुरत विशेष को सूचित किया....विशेष ने भी पानी को हानिकारक माना....उसने तुरत मेकैनिक्‌ को बुला वाटर्‌-टेष्‍टिंग्‌ करवायी.....वाटर में एसिड्‌ मिक्स्ड्‍ मिला....पर क्या पूरी वाटर्‌-सप्लाई में दोष था!....उस बिल्डिंग्‌ के अन्य फ्लैट्स्‌ में वाटर्‌-सप्लाई दोषरहित पायी गयी....यह कैसे हुआ....मेकैनिक्‌ ने सीमा के फ्लैट्‌ के पाइप्स्‌ की चेकिंग्‌ आरम्भ की....ज्ञात हुआ कि छत पर रखे विशाल वाटर्‌-टैंक्‌ से सीमा के फ्लैट्‍ को जानेवाले पाइप्‌ की कुंजी खोल किसी ने एसिड्‍ डाल पुनः कुंजी कस दिया था जिससे एसिड्‍ सीमा के फ्लैट्‍ में स्थापित वाटर्‌-टैंक्‌ में आ मिला था....ऐसा कौन दुश्मन प्रकट हो गया जिसकी पहुंच यहां पर्यन्त है!....विशेष ने रघुराज को सूचित किया....रघुराज ने दुःख व्यक्‍त किया और कहा कि वे ऐसा वाटर्‌-फिल्टर्‌ का उपयोग करें जो एसिड्‌ आदि सभी प्रकार के दोषों को पानी से निकाल दे....विशेष ने ऐसा ही किया....अब वे सभी फिल्टर्ड्‌ वाटर्‌ का ही उपयोग सभी कार्यों में करने लगे थे....

सीमा और समृद्‍ध दोनों के मस्तिष्क तीव्र गति से कार्य कर रहे थे कि ऐसी विपत्तियां आ कैसे रही हैं.....कौन हो सकता है इन सभी षड्यन्त्रों के पीछे..!....

समृद्‍ध और सीमा दोनों नगर में घूम रहे हैं और मनोरंजन कर रहे हैं....एक गाना भी चल रहा है.....दोनों एक शौपिंग्‌ मौल्‌ के ऊपरी फ्लोर्‌ पर हैं....तभी समृद्‍ध की मोबाइल्‌ पर एक कौल्‌ आती है कि ’अभी तुरत एकाकी मुझसे नीचे मिलो, तो सम्भवतः तुम्हें वह रहस्य की बात ज्ञात हो सके कि कौन है तुम्हारे पीछे पडा....!’ यद्‍यपि वे दोनों वहां एकाकी हैं तथापि समृद्‍ध सीमा को कुछ मिनट्‍ वहीं रुकने कह स्वयम्‌ नीचे जाता है.... जैसे ही समृद्‍ध नीचे जाता है वैसे ही एक नकाब पहना व्यक्‍ति वहां आ पीछे से सीमा का मुंह बन्द कर बगल के कक्ष में ले जा अन्दर ले जाता है और बलात्कार की चेष्‍टा करने लगती है....सीमा को सन्देह होता है कि कहीं समृद्‍ध ही तो नहीं ऐसा कर रहा है....! सीमा उस व्यक्‍ति की पकड से छूटने का प्रयास करती है....वह चिल्लाती है पर वहां कोई है ही नही जो उसकी सुने....पर इसके पूर्व कि सीमा का बलात्कार हो जाये, समृद्‍ध नीचे किसी को न पा पुनः ऊपर आता है और सीमा को चारों ओर ढूढता है....सहसा सीमा की चिल्लाहट उसके कानों पर्यन्त पहुंच ही जाती है और वह तीव्र गति से उस कक्ष के द्वार को पहुंच नौक्‌ करता है....द्वार नहीं खुलने पर समृद्‍ध द्वार पर धक्का मारता है....द्वार अन्ततः टूट जाता है और अन्दर से नकाबधारी उछलकर बाहर भागता है.... समृद्‍ध उसे पकड लेता है और दोनों में मारामारी होने लगती है....संघर्ष में नकाबधारी रेलिंग्‌ से नीचे लटक जाता है और गिर मरने की स्थिति में आ जाता है....ऐसे में समृद्‍ध उसका नकाब उतारने का प्रयास करता है....वह व्यक्‍ति एक हाथ से नकाब उखडने से रोकने का प्रयास करता है पर ऐसे में केवल एक हाथ पर टिके रहने का सन्तुलन खो नीचे गिर जाता है....वह मर गया होगा ऐसा भय कर समृद्‍ध और सीमा दोनों वहां से भाग निकलते हैं....

समृद्‍ध और सीमा निज-निज आवासों को पहुंचते हैं....समृद्‍ध सोचता है कि उसने उस बलात्कारी को नहीं मारा है, वह स्वयम्‌ अपनी मौत मरा है....रघुराज कहीं बाहर गये हुए हैं....समृद्‍ध जहां भयपूर्वक निज आवास में बैठा है वहीं निज पिता के यूं अदृश्य हो जाने से वह बहुत चिन्तित भी है.... न कोई फोन्‌ आया और न ही उनके मोबाइल्‌ से कोई उत्तर मिला अतिरिक्त स्विच्ड्‍ औफ्‌ होने के.... एक दिन रघुराज का बैंक्‌ ष्टेट्मेण्ट्‍ आता है जिसमें इन दिनों के कैश्‌-विथ्‌ड्रावल्‌ का उल्लेख है जबसे वे अदृश्य हैं....समृद्‍ध का मस्तिष्क तीव्र गति से काम करने लगता है....वह तुरत उस बैंक-ब्रांच्‌ में पहुंचता है और अनुरोध करता है कि उसे बताया जाये इस दिनांक से लेकर अभी पर्यन्त के कैश्‌-विथ्‌ड्रावल्‌ किन स्थानों के एटीएम्‌ से किये गये हैं....उसे उस स्थान का पता बता दिया जाता है जहां से ये सारे विथ्‌ड्रावल्‌ किये गये थे.... समृद्‍ध वहां पहुंच जाता है....वह स्थान उसके आवास से बहुत दूर पर उसी नगर के एक किनारे पर है....समृद्‍ध उस एटीएम्‌ पर दृष्‍टि जमाये बैठा है....दूसरे ही दिन वह देखता है कि रघुराज को एक ऐम्बुलेंस्‌ से लाया गया....वे किसी प्रकार नीचे उतरे और कैश्‌-विथ्‌ड्रावल्‌ कर पुनः ऐम्बुलेंस्‌ में बैठ चले गये....समृद्‍ध उस ऐम्बुलेंस्‌ का पीछा करता है....उस हौस्पीटल्‌ में पहुंच रघुराज के कक्ष में भी पहुंच जाता है....रघुराज उसे देख पूर्व तो घबडाये पर पुनः मन शान्त कर बोले-"मैं नहीं इच्छता था कि तुमलोगों को मेरी अस्वस्थता के कारण चिन्तित होना पडे इसलिये यहां एकाकी पडा हूं...."

"पर विना सूचित किये यूं अदृश्य हो जाने से तो हमलोग और भी अधिक चिन्तित हो गये थे....!"

कुछ और प्रेम और स्नेह की बातें होती हैं जिसके पश्चात्‌ वह आवास लौट मां को भी संग ले आने की बात कहता है....उस कक्ष से बाहर निकल वह सम्बद्‍ध डौक्टर्‌ से रघुराज के स्वास्थ्य के सम्बन्ध में पूछता है तो डौक्टर्‌ बताता है कि यह तो ईश्वरीय चमत्कार है कि इतनी ऊंचाई से गिर भी अभी जीवित हैं....कहां कितनी ऊंचाई से गिरे यह जिज्ञासा होने पर डौक्टर जो बताता है वह वही मौल् है तथा वही दिन और समय भी है जब समृद्‍ध के हाथों वह बलात्कारी गिरा था....समृद्‍ध आश्चर्यचकित रह जाता है....वह पुनः रघुराज के कक्ष में लौट उनसे सारी बात बताने को कहता है....रघुराज विवश हो उसे बताता है- "मेरी यह हार्दिक इच्छा थी कि मेरी लिखी एक कथा पर एक अच्छी फिल्म्‌ बने जिससे मैं न केवल एक कथाकार के रूप में प्रसिद्धि पाउं अपितु होनेवाले करोडों की आय भी मेरी अपनी आय होती....पर उसी समय विशेष ने भारत लौटकर न केवल मेरे करोडपति बनने की आशा तोड दी अपितु मेरे फिल्मी कथाकार के रूप में उभरने के सपने को भी चूर कर दिया....मैंने उसकी डुबती फैक्ट्री को करोडों की वार्षिक आय देनेवाली फैक्ट्री बनाया और उसके स्थान पर मुझे क्या मिला....?...निराशा....! मैं राजा की भांति जीवन जी रहा था जो मुझसे छिन गया....बौलिवुड्‌ में उभरने की सम्भावना भी छिन गयी....ऐसे में मेरे संग एक ही कामना जन्म ले चुकी थी....और वह थी प्रतिशोध की.... एक सेल्स्‌ रीप्रेजेण्टेटिव्‌ को विशेष ने मार भगाया था....मैंने उसकी सहायता से फैक्ट्री में आग लगवायी....मैंने उसकी सहायता से सीमा के फ्लैट्‍ की वाटर्‌-टंकी में एसिड्‍ मिलवा दिया....मैंने सीमा की मां का रेप्‌ किया....तत्पश्‍चात्‌ मैंने ही सीमा का रेप्‌ करना इच्छा....(आह्‌ आह्‌ करता वह कुछ तीव्र सांसें लेता है) इस संसार में केवल सनातन अध्यात्म दर्शन के अनुसार सम्यक्‌ रूप से जीवन जीनेवाले ही निज मन पर नियन्त्रण रख पाते हैं....अन्य सभी न जाने कब मित्रता से शत्रुता पर उतर आयें....मन परिवर्तित होते विलम्ब नहीं होता....मैं आत्मसुधार करना इच्छता हूं पर अब जीवन के अन्तिम चरण में मैं आ चुका हूं.... अब और जीने की इच्छा नहीं रह गयी है यह सारा रहस्य खुल जाने के पश्चात्‌....मैं स्वेच्छा से मृत्यु का आलिंगन कर रहा हूं...." ऐसा कहते-कहते रघुराज ने आंखें बन्द कर लीं और देखते-देखते उसके प्राण निकल गये....

समृद्‍ध इन सारी घटनाओं को गुप्त रखता है....रघुराज का वह दाह-संस्कार करवाता है....राघवेन्द्र कश्यप की लिखी कथा पर बनी वह फिल्म्‌ हिट्‍ सिद्‍ध होती है जिससे करोडों की आय विशेष को होती है....सीमा और समृद्‍ध विवाह कर दोनों सानन्द जीवन जीने लगते हैं....

समाप्‍त

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Locks continues 9

25/05/2011 17:10

बट इण्डियन ष्‍टाइल है.... फकर तो कोई इण्डियन ही जान पडता है..... फेस छुपा रखा है.... लगता है कभी मैंने इसे कहीं देखा है..... इसका फेस सुनील के फोटो से मिलता-जुलता है.... और ये तो साधारण स्तर की गायिका राधिका है.....!... तो इससे यह स्पष्‍ट होता है कि राधिका को गायन क्षेत्र में सफल बनाने का आश्वासन दे सुनील से उसकी फकिंग की... और चुपके-से उसकी ब्लू फिल्म भी बना ली.... यह वीडियो तो सुनील के नाश के लिये पर्याप्त है..... वह राज को फोन लगाता है पर राज उसकी कौल देख सम्पर्क-विच्छेद कर देता है..... हूं.... तो राज अप्रसन्न है मुझसे.... कोई बात नहीं.... मैं स्वयम्‌ ही देखता हूं क्या करना चाहिये.... वह सौफ्ट्वेयर इंजीनियर से इस सम्बन्ध में बात करता है.....इंजीनियर भी यह देख स्पष्‍ट करता है कि यह सुनील ही है....और अब सुनील को निज अपराध स्वीकार के संग-संग राज सर से क्षमाप्रार्थना के लिये विवश करना चाहिये.... इंजीनियर राज से बात करता है.... राज समर को - "सोच-विचार कर कार्य करो.... कहीं इससे सुनील हमारे लिये संकटकारी न बन जाये....."

"सुनील से मुझे इस सम्बन्ध में कोई भय नहीं जान पडता.... वो दब जायेगा...."

"तो ऐसा ही करो..."

समर सुनील को - "हमें एक वीडियो फाइल कहीं से मिली है.... जिसमें तुम गायिका राधिका का रेप कर रहो हो..."

"मैंने उसका कभी रेप नहीं किया है....."

"ओहो.... रेप नहीं किया है....पर पूजा तो की है, न? जो तुमने राधिका देवी की पूजा की है उसके दृश्य हमारे संग हैं...क्या कहते हो.....?"

"तुम...तुम क्या इच्छते हो.....?"

"बहुत कुछ नहीं....केवल इतना ही सा....कि जितने अपराध तुमने राज म्यूजिक के विरुद्‍ध किये हैं उन सबके सम्बन्ध स्पष्‍ट और सार्वजनिक अपराध-स्वीकृति करो...और राज जी से सबके समक्ष क्षमायाचना करो....."

"नहीं तो...?"

"नहीं तो, वो अभी मैं नहीं जानता.... यदि तुम ’न’ बोलो...तो हम रणनीति निश्चित करेंगे कि आगे क्या करना है.... हम तुम्हें छोडेंगे नहीं इतना निश्चित है...और तब तुम नष्ट हो जाओगे यह भी निश्चित जान पडता है...."

"कहां से बोल रहे हो अभी...?"

समर कुछ भी उत्तर नहीं देता है..... कुछ क्षणों तक शान्ति छायी रहती है....तत्पश्चात्‌ कौल डिस्कनेक्ट हो जाता है....समर का मन अशान्त होने लगता है.... उसे लगता है सुनील उसपर आक्रमण करा सकता है....वह इंजीनियर से इस सम्बन्ध में बात करता है.....

"क्या आवश्यकता थी उसे सीधे धमकी देने की....किसी और से कहलवा सकते थे यही बात....वो वीडियो कहीं और शो करवा दे सकते थे..... अब हो गयी गुण्डों मवालियों से दुश्मनी और अशान्ति एवम्‌ भय का आरम्भ...और ये राज सर क्यों अप्रसन्न हैं ...?”

समर सारी बात इंजीनियर को बताता है और उसे बोध कराता है कि वह कोई रौंग व्यक्ति नहीं है...बाइ मिष्टेक ही जो हुआ...वह सभा को बहुत प्यार करता है... सभा उसके जीवन में आयी प्रथम स्त्री है.....इंजीनियर यही बात राज को बताता है...राज - "मैं तो मान लूं....पर सभा जो बहुत क्रुद्‌ध है समर पर....वह तो केवल यह बोली कि समर ने ही उसके एक लाख रुपये चुराये थे.... वह यह भूल गयी कि समर ने उसका उस दिन रेप भी किया था..."तभी सभा राज के कक्ष में प्रवेश करती है -"किसने मेरा रेप किया था...?"

"वो मैं किसी और की बात कर रहा था...."

"यहां कोई और सभा नहीं है.....समर ने मेरा रेप किया और मुझे इसकी जानकारी नहीं...!"

"तुम भूल रही हो....उस दिन चोरी के संग-संग....."

"हां....हां.... मैं समर को एक अच्छा मनुष्य मानती थी....वह इतना गिरा हुआ निकलेगा ऐसा मैंने कभी सोचा भी नहीं था...."

"नहीं....ऐसा नहीं है...समर एक अच्छा ही मनुष्य है... उसने जो भी किया केवल तुम्हारे संग ही किया.... हो सकता है कि उसे ही तुम्हारा पति बनना तुम्हारे भाग्य में लिखा हो.... वह तुम्हें बहुत प्रेम करता है...."

सभा के मन सहसा समर के प्रति प्रेम उमडने लगता है..."अच्छी बात है...कहां है वह, उससे मैं मिलना इच्छती हूं....." तभी रिसेप्शन से फोन आता है कि सभा के परिवारवाले उससे मिलने आये हैं..... सभा रिसेप्शन को जाती है.... वहां खडा एक व्यक्ति बताता है कि सामने के गेष्ट हाउस में वे ठहरे हैं....आइये.....वह उसके संग जाती है..... इधर इंजीनियर लौट अपने कार्यकक्ष में आता है तो समर वहां बैठा इण्टरनेट सर्फ कर रहा है...."समर... अब तुम्हारे ग्रह पुनः तुम्हारे पक्ष में आ रहे लगते हैं....सभा मान गयी है तुमसे विवाह करने को और अभी तुमसे मिलने ही आ रही थी...."

"तो...! क्या हुआ...अब नहीं आ रही है..?"

"रिसेप्शन से फोन आया कि उसके परिवार वाले उससे मिलने आये हैं...अतः वह उधर ही गयी है....."

समर सीसीटीवी से रिसेप्शन का दृश्य देखता है पर वहां न तो सभा दिखी न ही सम्बन्धित कोई व्यक्ति.... वह चिन्तित हो इंजीनियर से कहता है कि वह देखने जा रहा है कि कहां गये सब...!....रिसेप्शन से जानकारी मिली कि वह सामने के गेष्ट हाउस में गयी है.....रिसेप्शन से कुछ आगे बढ उसने सभा को फोन किया पर सभा का मोबाइल स्विच्ड औफ मिला...इधर जब सभा वहां गेष्ट हाउस के कम्यूनिटी हौल में पहुंची तो अन्दर घुसते ही उस व्यक्ति ने बाहर से द्वार बन्द कर दिया.... अन्दर एक व्यक्ति कुर्सी पर सर पीछे किये बैठा है....

"कौन हो तुम..? और मुझे इस प्रकार से यहां लाने का उद्‍देश्य...?"

"राज की दिन-प्रतिदिन हो रही उन्नति के पीछे तुम हो...यदि तुम न रहो संग उसके तो हमारी कम्पनी बहुत सरलता से राज म्यूजिक को बहुत पीछे छोड दे सकती है....."

"तुम्हारी कम्पनी? क्या करते हो तुम...? क्या है तुम्हारा नाम?"

"जिसपर मेरी दृष्टि टेढी हो जाये.....करा दूं उसकी हाय हाय... नाम है मेरा.....सुनील उपाध्याय....." उसकी चेयर सभा के समक्ष मुडती है...."तुमने मुझे अभिजान लिया होगा....तुम यदि कौण्ट्रैक्ट के अनुसार हमारे संग काम करती  होती तो राज म्यूजिक के स्थान पर सुनील म्यूजिक की धूम मची होती.... पर तुमने हमारे संग विश्वासघात किया.... कोई बात नहीं...हम उसे भूलने को तैयार हैं... यदि तुम अब भी हमारी कम्पनी में आ जाओ....."

"कभी नहीं....मैं राज सर से ऐसा विश्वासघात कभी नहीं कर सकती...."

"अओऽऽऽऽ...राज के संग विश्वासघात विश्वासघात है.....और हमारे संग विश्वासघात क्या कुत्ते की मुंह पर मारी लात है...!!!!!!"

सभा अपने हाव-भाव से दृढ जान पडती है....सुनील क्रुद्‍ध होता है - "अरे ओझा....कहां गया ओझा रे धरती का बोझा.....शीघ्र पान ला....!"

ओझा पान ले अन्दर घुसता है - "का रे उपधिया....चिल्लाता क्यों है....तुम्हारा मैं पीयून हूं का??? फ्रेण्ड्ली वे में ला दिया....ले पकड...."

"अरे....का बोला...उपधिया?????? यहां लोग मुझे कितने सम्मान से गुरुजी गुरुजी कहते हैं....और तुम मुझको उपाध्याय जी भी नहीं, उपधिया कह दिया....दुबारा बोला तो तेरा टिकट कटवा दूंगा...सीधे जौनपुर का....कुछ बात पल्ले पडी...!"

"जो स्त्रियां होती हैं उनका पल्ला होता है.....जो पुरुष होते हैं उनका बल्ला होता है.... और मेरा कोई कुछ बिगाड नहीं सकता....क्योंकि मैं जहां खडा हो जाऊं...वहां केवल धूंये का छल्ला होता है....."

"तुझे तो मैं अभी देखता हूं..." सुनील का मोबाइल बजता है....-"हां...हलो...क्या...वह रिसेप्शन से चल पडा है....अच्छा....अरे ओझा...फटाफट इस देवी जी का मोबाइल छीनकर ला...."

ओझा पहुंचता है सभा के समीप तो सभा उसे निकाल कर मोबाइल दे देती है....ओझा वह मोबाइल स्विच औफ कर सुनील को दे देता है.....सुनील -"सभा....अन्तिम बार पूछ रहा हूं... संग मेरे आती क्या....? नहीं??????????? तो मरने को अब मन बना ले.....न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी.... न रहेगी सभा राज के संग... न लगेगी उन्नति राज के अंग... ओझा, इसे इसके चिताकक्ष में ले चल...."

"मुझ एकाकी से यह नहीं ले जा पायेगी...तू भी इसे पकड...."

दोनों उसे पकड एक खम्भे से बान्ध देते हैं और सभी लकडी की वस्तुओं पर एवम्‌ चारों ओर पेट्रोल छिडक कर आग लगा देते हैं..... आग अभी सभा से दूर है... ऐसे में दोनों द्वार से बाहर निकल बाहर से द्वार का हैण्डल लगा देते हैं... पर संयोग से उनके जाते समय अन्दर आते हुए समर की दृष्टि उनपर पडती है.... सुनील उसे देख कुछ घबडाया-सा तेजी से आगे बढने लगता है तो समर का साहस बढ जाता है - "....तुम सुनील हो, हां ??"

"कौन सुनील ??"

पर समर को विश्वास हो जाता है कि यह सुनील ही है, और उसने सभा के संग कुछ गडबड की है....वह तुरत फोनकर इंजीनियर व अन्य कर्मचारियों को वहां पहुंचने कहता है...और सुनील को ललकारता है....इसपर सुनील उसे मारने को आगे बढता है....दोनों में मारामारी आरम्भ हो जाती है.....इतने में इंजीनियर आदि भी वहां आ सुनील को मारने लग जाते हैं.....ओझा वहां से भागना चाहता है पर समर उसे पकड मारने लग जाता है और कहता है बता कहां है सभा? वह बता देता है....

"तो चल मेरे संग और उसे बचा...." उधर सबलोग सुनील से मारामारी में लगे हैं इधर समर और ओझा गेष्ट हाउस से हाथवाला अग्निशामक यन्त्र ले हौल में अन्दर घुसते हैं....किसी प्रकार बचते और कुछ संघर्ष करते सभा तक पहुंचते हैं....दोनों किसी प्रकार सभा को खम्भे से खोल निकालना चाहते हैं...पर आग ही आग तबतक पूरा फैल गया है कि जीवित बच निकलना सम्भव नहीं लग रहा है....तभी समर  विपरीत दिशा के द्वार को अपने बहुत समीप देखता है जिधर आग भी न्यून है....दोनों जलते लट्‍ठे से मार-मार वह द्वार तोड देते हैं और उधर से बाहर रोड पर निकल टैक्सी ले हौस्पीटल पहुंचते हैं....तीनों ही को भर्ती कर लिया जाता है.... सभा जलने से अधिक नर्वस हो अचेत हो गयी है....

उधर सभी सुनील को अपने वश में कर इतना मारने लग जाते हैं कि वह त्राहि-त्राहि करने लग जाता है.....सभी उससे पूछते हैं कि चल बता सभा कहां है नहीं तो हम तुम्हें यहीं मारकर गाड देंगे... हारकर कहता है कि वह सामने के हौल में है.... तब उसे ले सब उस हौल की ओर बढते हैं तो देखते हैं कि आग की लपटें उस द्वार को भी जलाते बाहर निकल रही हैं.... तब वे सुनील को और मारने लग जाते हैं....सुनील अपने प्राणों की भिक्षा मांगता है....सभी - "यदि हमारे हाथों से नहीं मारा जाना चाहता है तो सभा को अन्दर से जीवित बचाकर ला...नहीं तो तेरी मौत निश्चित है"

....सुनील विवशता में अन्दर घुस जाता है सभा को जीवित निकाल लाने को... तब सभी का ध्यान समर की ओर जाता है....समर कहां है....समर को इंजीनियर फोन करता है....समर बताता है कि वे तीनों हौस्पीटल पहुंच गये हैं..... कुछ चोटें लगी हैं, कुछ जल भी गया है पर सब कुछ दिनों में ठीक हो जायेगा...सभा नर्वस हो कुछ अचेत हो गयी थी पर अब धीरे-धीरे उसकी स्थिति में सुधार हो रहा है....तब सबलोग यह सोचते हैं कि अब क्या किया जाये अन्दर तो सुनील फंस गया होगा.... तभी पुलिस भी सूचना पा आ जाती है... सब उसे सारी बात बताते हैं.... तुरत अग्निशामक यन्त्र मंगवाया जाता है....जब सारी आग बुझाकर हौल को शीतल कर दिया जाता है तब सबलोग अन्दर घुसते हैं.... अन्दर मध्य में सुनील का जला शव पडा है.... सब एकसह बोल पडे -"अरे इसकी तो हो गयी हाय-हाय....नाम था जिसका सुनील उपाध्याय...." और ठहाके फूट पडते हैं...अब दृश्य में सभा और समर विवाहित हो किसी गार्डेन में और समुद्रतट पर एक-दूसरे की बांहों में प्रेमगीत गाते हुए...

                                                                       समाप्‍त

आनेवाले सम्भावित कथा-प्लौट्स --

१. वाय्‌रस्

२. विनय ठाकुर का भूत

 

 

 

 

 

 

Locks continues 8

25/05/2011 17:08

नामपट्‍ट से सभी औफिसेज के नाम देखता है....देखते-देखते एक औफिस के नाम पर उसकी आंखें चौडी हो रुक जाती हैं ---’सुनील म्यूजिक’......वह फोन कर राज को बताता है कि वह अभी वहां से बोल रहा है और उसने ऐसा-ऐसा देखा है....अभी वह राज से बातें कर ही रहा था कि लिफ्ट से निकल तीन बदमाश जैसे व्यक्तियों को उसकी ओर आते देखता है....वह मोबाइल नीचे कर नामपट्‍ट से अन्य दिशा में देखने लग जाता है....वे तीनों वहां आ  बात करते हैं - "वो समर का बच्चा यहीं से बोल रहा था...दूर नहीं निकला होगा...चलो बाहर देखें...." वे मेन रोड पर जाते हैं, समर समानान्तर द्वितीय सडक पर निकल टैक्सी ले सीधे राज को पहुंचता है..."मैं जीवित तो हूं...! कहीं मुझे कोई चोट तो नहीं लगी है...?"

"क्या बात है..?बडे भयभीत जान पडते हो.....!"

"आपको बताया नहीं मैंने!!!!"

"हां.....तो अब भयभीत तो उन्हें होना चाहिये.....तुम क्यों हो रहे हो...!"

"वो उस समय मोबाइल पर हो रही हमारी बातचीत सुन रहे थे, और तुरत तीन व्यक्‍ति मुझे पकडने वहां पहुंचे भी थे...पर वे मुझे अभिजानते नहीं थे....संयोग से मैं अभी सकुशल आपके समक्ष खडा हूं....."

"हूं....इसका अर्थ कि वे न केवल रिकार्डिंग के समय अपितु निजी वार्ताओं को भी सुनते रहते हैं...ओः....मोबाइल कम्पनियों से सांठ-गांठ कर कोई किसी की भी सारी बातों को सुनते-रिकार्ड करते रह सकता है जबतक कि मोबाइल औन है....”

दोनों चिन्ता और विचारों में मग्न बैठे सोच रहे हैं....तभी राज को एक कौल आती है किसी लैण्ड्लाइन फोन से - "बहुत दौड-भाग लगा रहे हो समस्याओं के समाधान के लिये....पर आज तुम पुनः लुट गये...पूछो कैसे....."

राज यह स्वर अभिजान गया कि यही वह स्वर था जब द्वीप से लौटने पर इसने किसी पीसीओ से कौल किया था...-"कैसे ?"

"तुमने आज जो मधुर गीत रिकार्ड किया वह हमारे अधिकार में आ चुका है...."

"पर मैंने तो सुरक्षा की सारी व्यवस्था की थी....रिकार्डेड सौंग अभी मेरे लैपटौप में सुरक्षित है....!!!!!!!"

"कहीं न कहीं तो कुछ न्यूनता रह गयी होगी......"

"मेरी टीम से किसी ने विश्वासघात किया है.!!!!!!"

"न.....”

"तब यह कैसे हो पाया?????"

"तुम जानो....." सम्पर्कविच्छेद हो गया....

राज सभा को फोन कर इस कौल के सम्बन्ध में बताता है....सभा दुःखी होती है....अभी राज और समर बातें कर रहे हैं कि सभा का फोन आता है -"सर.....मुझे राघवेन्द्र कश्यप सर के दिये परामर्श स्मरण में आ रहे हैं...उनने यह भी बताया था कि इण्टरनेट सर्विस प्रोवाइडर कम्पनी के अधिकारियों/एग्जिक्यूटिव्स से सांठगांठ कर जिस किसी के कम्प्यूटर से सारे फोल्डर्स और फाइल्स कौपी कर लिये जा सकते हैं जब इण्टरनेट उस कम्प्यूटर पर औन हो....यही काम हमारे दुश्मनों ने इस बार किया जान पडता है...."

राज और समर पुनः बातें कर रहे हैं....."सर....आप तुरत अपना मोबाइल औफ करें..."

राज तुरत मोबाइल औफ करता है - "हूं....अब बोलो.... मोबाइल अब अधिकतर बन्द ही रखना पडेगा...."

"ये दो बार जो कौल आपको आये हैं...बोलनेवाला सुनील ही है या उससे निकट का कोई व्यक्ति यह जानने को एक युक्ति मेरे मन में आयी है.....अपने फिल्म का निर्माता आपका मित्र है.....उसके किसी व्यक्‍ति को सुनील के समीप आनेवाली फिल्म में संगीत देने के सम्बन्ध में बात करने भेजें....वह निज मोबाइल से आपका...नहीं...यहां किसी और का नम्बर डाय्ल कर औन रखेगा जिससे वहां की सारी बात हम सुनते रहें....सुनील और अन्य भी वहां के लोगों से उसके बात करते समय देखते हैं किसका स्वर उस स्वर से मेल खाता है.... प्लान के अनुसार एक व्यक्‍ति सुनील को जाता है.... राज और समर बहुत मानसिक मन्थन पाने से बच गये, क्योंकि सर्वप्रथम वह व्यक्ति सुनील से बातें करता है, और सुनील का ही स्वर पूर्णतया उस स्वर से मेल खाता प्रतीत होता है....दोनों को यह जान बहुत आराम अनुभूत होता है कि दुश्मन कौन है यह स्पष्ट हो गया है....अब दोनों प्रोड्यूसर की सहायता से प्रिया म्यूजिक से सम्पर्क कर यह जान जाने में सफल होते हैं कि उसे वे राज की कम्पनी से चुराये गये गीत सुनील के ही व्यक्‍तियों ने बेचा था....

"सर...जैसा सुनील हमारे संग कर रहा है वैसा उसके संग भी तो किया जा सकता है....?"

"हां....पर अन्यों को सतानेवाले ये मानकर दुष्टता करते जाते हैं कि ऐसा केवल वही कर सकते हैं, कोई उनके संग ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता...किसका साहस है जो हमारे विरुद्‌ध सोच भी पाये ?"

"आपको हानि पहुंचाने की जो-जो युक्तियां उसने लगायीं , वे सभी उसके संग भी की जा सकती हैं.....तबतक...जबतक कि वह आ आपसे क्षमायाचना न करे...."

"तो जान लो कि सभा भी तुमको मिल गयी......"

"पर, हीरो बने विना वह मुझे स्वीकार नहीं करेगी...."

"तुम्हें हीरो बनवाना मेरा काम है...तुम अपना प्लान देखो...."

 

 २० समर राज की कम्पनी के गेट से निकल रोड पर चला जा रहा है.....सहसा एक कार उसकी दायीं ओर सर्र्‌ से आ रुकी....-अरे....समर.....तू मर गया है या जीवित है!!!!!!" समर उसे देख भी अनदेखा कर चुपचाप चलता जाता है...."अरे..तू सुन नहीं रहा क्या....?" वह व्यक्ति कार से निकल समर के कन्धे पर हाथ रख बोलता है- "अरे...मुझे भूल गया क्या??? दो बार तेरे आवास गया पर वहां ताला लटका था....तेरे मोबाइल पर तीन बार कौल किया पर स्विच्ड औफ.....हैं..?????"

"अं...कौन बोल रहे...अच्छा, क्या बोल रहे....?"

"अरे...तू क्या मुझे नहीं अभिजाना!!!!!!!!!"

समर ने ध्यान से उसकी आंखों में देखा और सोचा -"राज ने मुझे जो हीरो बनवाने का आश्वासन दिया है वह समर्थ है मुझे ऐसी प्राप्ति करवा देने में....इस जौन के बच्चे से तो कोसों दूर रहने में ही अपनी भलाई है.... सभा को पाना है तो स्वच्छ जीवन ही जीना होगा.... जौन से सम्बन्ध का परिणाम होगा ऐसी सम्पत्ति पाना जो अशान्ति के संग किसी दिन विनाश ला देगी...-"कौन हो तुम? मेरा तुमसे न कभी परिचय रहा है न रहेगा......"

"क्या तुझे मुझसे लाखों रुपये नहीं लेने हैं?????"

"न...."

"पश्चात्‌ यह न कहना कि मैंने तुम्हें चीट किया है......!"

"तुमसे मैं कभी मिला नहीं....और भविष्य में कभी मुझसे मिलने का प्रयास भी न करना...."

"तू स्वच्छ जीवन जीना चाहता...मैं समझा...ओके डियर....गुड्बाई....." जौन चला गया......

समर ने चारों ओर देखा कहीं कोई उसे जौन संग बात करते देख रहा था क्या.......वह निज आवास पहुंचता है....वहां पडोस में एक नवयुवक है जो एक मोबाइल कम्पनी में कष्टमर केयर एग्जिक्यूटिव है....समर उससे मिलने जाता है....वह उसकी बहुत प्रशंसा करता है कि अब तो आप हीरो भी बन जायेंगे!!!!!!! समर उसे सारी आपबीती सुनाता है....

"जो सुनील आपलोगों के संग करता रहा है वह तो उसके संग भी किया जा सकता है... इसमें आप इतना टेंशन न लें.... हमलोग तो जब चाहें जिसके भी मोबाइल से उसकी निजी बातों को सुनते रहें... जिसपर मन अप्रसन्न हो जाये उसके टाक-बैलेन्स को न्यून कर दें.... कौल रेट अधिक चार्ज कर लें.... इण्टर्नेट सर्फिंग में चाहे तो दस गुणा बीस गुणा बढाकर दिखा दें इतना अधिक डेटा सर्फ कर लिया है.... कष्टमर कम्प्लेन करे भी तो कोई अन्तर पडता.... ऊपर से नीचे पर्यन्त सब मिलीभगत रहती है....एक दोषी का कम्प्लेन किसी अन्य दोषी से करने पर कुछ अन्तर नहीं पडता.... कष्टमर कन्ज्यूमर कोर्ट भी नहीं जा सकता, क्योंकि कष्टमर के संग न तो टाक-बैलेन्स का न ही सर्फिंग टाइम या टाकिंग टाइम का कोई वैध प्रमाण होता है....ही ही ही....."

’मन तो करता है इस कमीने को मारकर यहीं गाड दूं...’..."भई सूरज....अभी पर्यन्त जो कुछ भी तुम करते रहे उससे तुम्हें कोई धनार्जन हुआ ?"

"नहीं...पर रंजन बहुत आया.... बहुत मनोरंजन हुआ करता है....."

"इसी काम के लिये तुम्हें अब धन मिलेगा...सहस्रों रुपये....."

"वो कैसे !!" वह गम्भीर और उत्सुक हो गया....

समर ने सारा प्लान उसे विस्तार से समझा दिया...संग ही चेतावनी भी दी कि यदि यह बात किसी को बता दी तो.....अगले दिन एक मोबाइल फोन सिम कार्ड ले समर राज को गया.... दोनों कोई भी बात करते तो मोबाइल औफ रखते हैं.... "यह सिम अपने दूसरे मोबाइल में लगा लें....अब देखें कितना रंजन आता है हमें...." राज सिम लगा औन करता है... समर कुछ विशेष नम्बर दबाता है तो कहीं की बातें और ध्वनि मोबाइल से आने लगती हैं.... "ये सुनील के मोबाइल से आ रही हैं...."

"क्या !!!!!!! " राज की आंखों में प्रसन्नता की किरणें तेज उभरीं....

"आप इस नम्बर से कहीं बात न करना.... केवल सुनना है सुनील को....और देखना है...शीघ्र बहुत कुछ करना है..."

"आज के दिनांक में सुनील म्यूजिक हमारी प्रतिस्पर्धा कर रहा है.... कभी-कभी हमारी पोजिशन उससे लो होती भी जान पडती है....मैं उसे तबतक झटके देना चाहता हूं जबतक वह आकर मुझसे क्षमा नहीं मांगता है...."

वे दोनों उधर की बातें सुन रहे हैं .... कोई सुनील को रिपोर्ट दे रहा है - "लगातार विलम्ब करने से, और गीत चोरी चले जाने की भी बात सुनकर वह प्रोड्यूसर राज से बहुत अप्रसन्न है....कह रहा था कि क्या जाने कहीं फिल्म प्रदर्शित होने के पश्चात्‌ किसी ने क्लेम कर दिया कि ये गाने चोरी के हैं तो बडी समस्या हो जायेगी........ मैंने कहा हमारा म्यूजिक प्रोडक्शन बहुत सेफ और राज से हायर ष्टैण्डर्ड का है.... वह चुप रहा...."

"हां... लगे रहो....और... हमारे नये ऐल्बम का क्या हुआ...?"

"आज आठवें गाने की रिकार्डिंग पूरी हो रही है....इसके पश्चात्‌ शूटिंग होनी है....."

"सबकुछ सुरक्षित तो है न???"

"अरे हमलोग भी क्या कोई राज म्यूजिक वाले हैं....!....पक्षी का भी साहस नहीं घुस जाये अन्दर विना हमारी अनुमति के.....सारा कुछ वैसे ही रिकार्डिंग रूम के कम्प्यूटर में रखा है...." सुनील इसके पश्चात्‌ लंच करने चला जाता है....

"सर...हमलोगों का कम्प्यूटर इंजीनियर पास्वर्ड तोडने में कुशल है...उसे और एक कीमेकर को संग ले हमलोग उन सारे गानों की कौपी अपने हाथों में भी ले लें....."

"जैसा भी प्लान बनाओ, केवल इतना है कि सफलता मिलनी चाहिये....."

तीनों प्लान के अनुसार रात को सुनील म्यूजिक में सफलतापूर्वक प्रवेश कर जाते हैं....अन्दर भी एक व्यक्ति सोया मिलता है...उसे अनेस्थेटिक सूंघा गहरी निद्रा में भेज दिया जाता है... तत्पश्चात्‌ कीमेकर सेफ का लौक खोलने में लग जाता है तो इंजीनियर कम्प्यूटर का पास्वर्ड तोडने में लग जाता है....कीमेकर सेफ का लौक खोल देता है....पर उसके अन्दर एक और लौक लगा है....अब उस लौक को खोलने में वह लग जाता है.....तबतक इंजीनियर पास्वर्ड तोड लेता है.....औपरेटिंग सिष्‍टम खुल जाता है....तब कीमेकर भी उस द्वितीय लौक को खोल लेने की प्रसन्नता जताता है....पर यह क्या!! अब अन्दर एक और लौक है.....कीमेकर उसे भी खोल जब एक और लौक खोलता है तब जाकर अन्दर एक बौक्स निकलता है... इंजीनियर निज संग लाये लैप्टौप के २५० जीबी हार्ड डिष्क में उस कम्प्यूटर के सेव्ड महत्त्वपूर्ण फोल्डर्स और फाइल्स कौपी करने में लगा है... लौकर के बौक्स में कुछ नोटों की गड्डियां, डाक्युमेण्ट्स, और सीडी-डीवीडीज रखे हैं..... गड्डियां छोड दी जाती हैं पर डाक्युमेण्ट्स स्कैण्ड और सीडी-डीवीडीज कौपी कर लिये जाते हैं..... सारा कार्य निबटा, सबकुछ यथापूर्व छोड वे तीनों लौट आते हैं.....राज इंजीनियर को सभी फाइल्स और फोल्डर्स से निज उद्‌देश्य की वस्तु-सामग्री निकालने को कहता है...समर आवास जा सो जाता है.....अगले दिन आने पर उसे इंजीनियर बताता है कि सभी नये ऐल्बम आदि प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण फाइल्स अपने हाथ लग चुकी हैं.... पर... किस प्रकार अब क्या किया जाये ?....समर एक पिम्प से बात करता है जिसकी बौलिवुड में अच्छी पकड है.....वह इस सम्बन्ध में गुप्त रूप से कहीं बात करने का वचन देता है.... इधर राज एक फिल्म निर्माता से समर के लिये बात करता है और उसे समर के मौडलिंग और ऐक्टिंग के वीडियोज दिखाता है.... कुछ अधिक ही रुचि दिखाने पर निर्माता मान जाता है समर को हीरो ले फिल्म बनाने पर... समर वहां जा कौण्ट्रैक्ट साइन करता है...... राज आराम से बैठा सभा को बता रहा  है कि समर ने आज हीरो के रूप में अभी कौण्ट्रैक्ट साइन किया है.... सभा अनुमान कर लेती है कि समर अब आकर कौन्ट्रैक्ट पेपर्स दिखा उससे विवाह की बात कर सकता है.... कुछ समय पश्चात्‌ जब समर समक्ष गेट से प्रवेश करता दिखता है तो वह वहां स्थित उद्‍यान के पुष्पों को निहारती खडी है.... पर समर उसके समीप से उसे ’हाय’ कह हथेली हिलाता औफिस में चला जाता है.....सभा कुछ उदास हो जाती है यह सोच कि कहीं इसे कोई और तो नहीं मिल गयी..!... अन्तः जा समर राज के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है.... तत्पश्चात्‌ आराम से बैठ पिम्प से सम्पर्क करता है.... पिम्प तुरत कहीं बातें कर समर को फोनकर बताता है कि प्रिया म्यूजिक इन गानों के क्रय के लिये मान गया है... पर एक तो वे रेट न्यून बता रहे हैं द्वितीय वह स्वयम्‌ उस रेट का आधा लेगा..... समर राज से बात करता है.... राज कहता है कि सारा रेट वह पिम्प ही ले ले....हमें रुपये नहीं सुनील को हानि पहुंचती दिखनी चाहिये.... समर यही बात पिम्प को बता २४ घण्टे के अन्तर्गत उस ऐल्बम के रिलीज कर देने की बात कहता है.... वैसा ही होता है... सुनील और उसके संगी प्रिया म्यूजिक से क्रोध में बात करते हैं......प्रिया वाले बोले -"जैसा तुमलोग अभी तक करते आये हो वैसा ही किसी ने तुमलोगों के संग आज कर दिया है.... और तुम तो जानते हो कि ऐसे सम्बन्धों में हम किसी का नाम उजागर नहीं करते.... और तुमलोग हमारी शक्ति जानते हो.... पुनः ऐसे हमपर क्रोध दिखाने का साहस नहीं करना...."  

समर राज को बताता है कि काम हो गया है.... कल उसका औडियो अल्बम रिलीज हो जायेगा.... राज- "पर गीतकार ने तो उन गीतों को कौपीराइटेड करा रखा होगा..?"

"नहीं....सुनील विकेड होने के संग-संग डेयरडेविल भी है....वह अपने गीतकारों को कौपीराइट लेने नहीं देता... फिल्म की कथा के अनुसार गीत लिखने को देता और कहता है अल्बम या फिल्म में उसका गीत उसके नाम के संग प्रकाशित हो जायेगा तो वही उसका कौपीराइट भी हो जायेगा कि वह गीत उसने लिखा है....."

"हमलोग तो ऐसा नहीं करते.... क्योंकि ऐसा कर सुनील किसी गीतकार की रचनाओं को चुरा भी ले सकता है....!"

"वो तो है...."

राज को सन्तोष है कि चलो कुछ तो झटका दिया.... अब वह बहुत सावधानी से रिकार्डिंग आदि सभी कार्य करता करवाता है....अब उसका व्यवसाय पुनः प्रगति के पथ पर आगे बढ रहा है...

 

२१ राज मन ही मन सभा के मन को समर के प्रति आकर्षित करने का प्रयास करता है..... सभा आजकल नये-नये फिल्मों में गाने गा रही है जिनमें अधिकतर लोकप्रिय हो रहे हैं....इधर समर ने भी हीरो के रूप में शूटिंग आरम्भ कर दी है.... उसके प्रोड्यूसर ने फिल्म की शूटिंग एक से दो मास पर्यन्त में पूरा कर लेने की बात दुहरायी है....सभा और समर एक-दूजे के निकट आ रहे हैं.... संग समुद्र किनारे भ्रमण कर रहे  हैं.... हाथ में हाथ लिये प्रेमगीत गा रहे हैं.... एक मनोहर उद्यान में दोनों बेंच पर आराम से बैठे बातें कर रहे हैं...."सभा, तुम्हारे जीवन में और कौन तुम्हारे निकट आया है?...."

"बहुत सारे.... मैं कितने नाम गिनाऊं.....!"

समर गम्भीरता से - "हंसी कर रही हो या सच कह रही हो...?"

"सच्‌च्च्च्च्च्च्च्च कह रही हूं......"

"पर...जब प्रथम बार गाते ही तुम्हारा मधुर गीत बहुत प्रसिद्‌ध हुआ था, और तुम्हारा इण्टरव्यू हुआ था...तब तो तुमने कहा था कि न केवल वर्जिन हो अपितु तुम्हारा आजतक कोई ब्वाय्‌फ्रेण्ड भी नहीं रहा है....?"

"हूं.... आई हैड टोल्ड द ट्‍रुथ....."

"अर्थात्‌ ????????"

"इसका अर्थ यह है कि मैं वर्जिन हूं...और मेरा किसीसे कोई प्रेम-जैसा कोई सम्बन्ध नहीं रहा है.....मेरी तो बहुत छानबीन कर रहे... अपने सम्बन्ध में भी तो बताओ...तुम कितने अच्छे  हो.....?"

"मेरा सम्बन्ध केवल एक से ही बना है....इसी मार्च ....और अब मैं उससे विवाह करने वाला हूं....."

"अच्छा....अर्थात्‌ तुम्हारे भी जीवन में इससे पूर्व कोई नहीं आयी....पर...तुम मुझसे मार्च में कब मिले हो...??"

"बता दूं!!!!!!.."

"हां बताओ...."

"पर मुझे भय है कहीं तुम मुझे छोड न दो...."

"तुम्हें तो मैं कभी नहीं छोडूंगी...."

"छोडो...कोई और बातें करते हैं...."

"नहीं.....अब तो तुम्हें बताना ही होगा.... बताओ.....हां बताओ....“

उसके बार-बार आग्रह पर समर को बताना ही पडा - "मैं आज जिस भी ऊंचाई पर पहुंचा हूं वह सब तुम्हारी सहायता से ही सम्भव हो पाया....."

"मैंने कब तुम्हारी सहायता की??"

"तुम्हारे एक लाख रुपयों से ही मैं मौडल बनने योग्य अच्छी स्थिति में आ सका...."

"कौन-से एक लाख रुपये..????"

"जो तुम्हारे पर्स से लुप्त हुए थे...."

"क्या !!!!!!!!"

"उसके लिये मुझे क्षमा कर दो....."

सभा को इतना क्रोध आ रहा था कि वह उसे एक थप्पड तो अवश्य मारे पर उस गार्डेन से वह चुपचाप उठकर एकाकिनी चली गयी.....समर उदास कुछ समय उपवन में इधर-उधर टहलता हुआ पुनः राज म्यूजिक पहुंचा... वहां अन्तः प्रवेश करते समय राज को बाहर निकल जाते देखा.... उसने राज को ’गुड नून’ कहा, पर राज अनसुना कर निकल गया....समर बोध गया कि सभा ने राज को बता दिया है.... तब भी चिन्ता की कोई बात नहीं....राज उसे नहीं छोडने वाला.....वह इधर-उधर निरीक्षण करता कम्प्यूटर रूम में गया और सुनील की कम्पनी से प्राप्त फाइल्स का निरीक्षण करने लगा.....लम्बे अन्वेष पश्चात्‌ एक फोल्डर के अन्दर के अन्दर के अन्दर कुछ वीडियो फाइल्स दिखीं..... ये.... ये तो पोर्नोग्रैफी है..... हूं... वाह... क्या फाष्‍ट फकिंग है......ऊंह... बट इण्डियन ष्‍टाइल है.... फकर तो कोई इण्डियन ही जान पडता है..... फेस छुपा रखा है.... लगता है कभी मैंने इसे कहीं देखा है..... इसका फेस सुनील के फोटो से मिलता-जुलता है.... और ये तो साधारण स्तर की गायिका राधिका है.....!... तो इससे यह स्पष्‍ट होता है कि राधिका को गायन क्षेत्र में सफल बनाने का आश्वासन दे सुनील से उसकी फकिंग की... और चुपके-से उसकी ब्लू फिल्म भी बना ली.... यह वीड

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25/05/2011 17:04

भगवान्‌...मैं अब औनेष्ट्ली ही धन एकत्र करूंगा....सभा चाहे मुझे मिले अथवा निकल जाये हाथ से....

 

१५  उधर दोनों भागे-भागे रेल्वे ष्‍टेशन पहुंचे....पर तबतक कितनी ही रेलगाडियां दोनों ही दिशाओं में निकल जा चुकी थीं.....अर्थात्‌....अर्थात्‌ वह चोर गया हाथ से....अब क्या करें!!! इस्पेक्टर की कडी चेतावनी थी कि यदि वे उस चोर को पकडे विना लौटे तो उन्हें सस्पेण्ड कर दिया जायेगा...उन्हें आकाश घूमता दिख रहा था....कुछ समय वे सर थामे भूमि पर बैठे... तत्पश्चात्‌ उठे और उन्हीं पदचिह्‌नों का अनुसरण करते प्रत्यागमन करने लगे....ऐसा बोले तो वे रिटर्न होने लगे....क्या जाने मार्ग में कोई उनका अभिज्ञान बताने वाला मिल जाये... पीछे लौटते-लौटते उन चिह्‌नों से मेल खाते एक युग्म जूते-चिह्‌न और मिले....समान आकार था...उनके पीछे चलते-चलते वे एक बस-ष्‍टैण्ड पहुंचे जहां एक साधारण-सा व्यक्‍ति हाथ में बैग लिये बस की प्रतीक्षा कर रहा था..... एक पुलिस्वाले ने द्वितीय की आंखों में देखा - "क्या बोलता तू ?"

"क्या मैं बोलूं ?...."  दोनों ने ही आंखों ही आंखों में बातें कीं... "तो चलो.."

"हां चलो....."

"ए...."

"मुझे बस पकडनी है...."

"कहां जाने के चक्कर में है?"

"मुझे अपने पैतृक आवास जौनपुर जाना है...."

"अच्छा...माल जौनपुर ले जाकर रखेगा....!चल, माल यहां रख दे और फूट ले....हम कह देंगे अपराधी माल छोडकर भाग गया...."

"माल...! कैसा माल..?"

"अरे...यह शौप के अन्दर गया कब...? ये तो बाहर ही अभी ताले खोलने में लगा था..."

"हूं....तब तो इसे पकडना ही होगा...चोर....अन्ततः पकडा गया न तू......."

"चोर....कौन चोर ???????????"

"चुप्प स्साले.... गार्ड को अचेत कर ज्वेलरी शौप लूटने चला था!!!! अब चल थाने...." दोनों उसे पकड लेते हैं......

"छोड दे...तू लोग पुलिस्वाला है या कोई गुण्डा बदमाश है?????? चल हट...."

"अरे....तू हमें छाती दिखा रहा है?? तेरा ये दुःसाहस कि तू मुझसे आंखें दिखा बात करे....अरे...इसके विरुद्‍ध आरोप लिखो......इसने हमें गालियां दीं....पुलिस्वालों पर हाथ उठाया....पिस्तौल छीनने का प्रयास किया....और यह एक देशी पिस्तौल, जो कि हम कल एक भागते अपराधी के हाथ से गिर जाने पर उठा लिये थे, इसके पौकिट में डाल देते हैं कि साला इसके पौकिट से एक देशी पिस्तौल निकला....  "

वह चिल्लाना चाहता है पर वे दोनों उसका मुंह पकड लेते हैं और देख रहे हैं कि कोई आटो इधर आये... एक औटो आया तो उसमें उसे पकड बिठा चल देते हैं....थाने पहुंच उसे अन्दर बन्द कर देते हैं....वह कितना भी अपनी निर्दोषता बताये कोई उसकी सुनता नहीं....पुलिस अधिकारी समर के जूते के समान ही जूता उसे पहना देख दोनों पुलिस्वालों की पीठ थपथपाते  हैं....वह व्यक्‍ति मोबाइल से परिवारवालों को बताता है....उस समय परिवार में केवल  महिलायें थीं...वे दो-तीन और महिलाओं को संग ले आ उसे निर्दोष बता छोड देने का बार-बार आग्रह करती हैं....इसपर सभी पुलिस्वाले उनपर क्रुद्‌ध हो लाठी चार्ज का आदेश देते हैं....लाठियां चलने पर वे स्त्रियां वहां से भाग खडी होती हैं....एक प्रेस-रिपोर्टर इनका फोटो खींचता है...समाचारपत्र में प्रकाशित भी होता है....पर इन पुलिस्वालों के विरुद्‍ध कोई कार्यवाही नहीं होती....

दृश्य - वह व्यक्ति थाने में अन्दर बन्द -"भाग्य फूटा मेरा...देखो मैं कहां आ गया......!"

वे दोनों पुलिस्वाले - ष्टाइल में - "भाग्य निखरा हमारा...देखो हमदोनों न्यूज में छा गया....!"

 

१६ समर अपनी फिल्म की शूटिंग के क्रम में व्यस्त है....तभी राज निर्माता से मिलने वहां आता है....राज सारी आपबीती निर्माता को सुना रहा है.....संयोग से कुछ बातें समर भी सुन जाता है..... वह राज से इस सम्बन्ध में बात करता है.....यह जानकर कि सभा उसी की म्यूजिक कम्पनी के लिये गाती है, समर राज में विशेष रुचि लेता है, क्योंकि सहायता के नाम पर उसे सभा से निकटता प्राप्त होने का सुनहरा अवसर दिख रहा है.....

"मिष्टर राज.....मुझे आपके ऊपर आ रहे संकटों के सम्बन्ध में कुछ जानकारी यहां बैठे सुनते मिली....रियलि आइ सिम्पैथाइज विथ यू....नौट ओन्लि सिमपैथि बट आइ विश टू हेल्प यू आल्सो....बताइये मैं आपकी किस प्रकार से सहायता कर सकता हूं...?"

"आप सारी बात समझ रहे हैं....आप स्वयम्‌ विचार करें...."

"वैसे आपने मुझे अभिजाना?.....मैं आपसे कुछ दिनों पूर्व द्वीप पर मिला था....मेरे बोट की छींटें आपलोगों पर पडी थीं..."

"हं....मौडल!!!"

"पर अब मैं केवल मौडल नहीं हूं......इस फिल्म में छोटा-सा ही, पर अच्छा रोल मिला है...."

"नाइस...बी ग्रोइंग आल्वेज....."

"और यही कामना मेरी आपके लिये भी है....अभी मैं फ्री हूं....आपको यदि स्वीकार हो तो मैं चलुं आपकी कम्पनी आपके संग..."

"हां, अवश्य..." राज ने सोचा क्या जाने इससे कुछ अच्छी सहायता मिल ही जाये...पर वो क्या जाने समर सभा के चक्कर में जाने को उत्सुक था वहां....राज अपनी कार में उसे ले जाता है.....सभा आज वहां नहीं आयी है....तब भी समर अपनी पकड बनाने के लिये इधर-उधर घूमकर निरीक्षण करता रहा कि चोर कैसे आया होगा...क्या हथकण्डे अपनाये होंगे उसने...सभा के प्रेम में उसे सच में रुचि आने लगी इन बातों में....उसपर निज प्रभाव छाने के विशेष उद्‍देश्य से उसने सारी छानबीन आरम्भ की...कोई दुश्मन तो नहीं...कभी किसी के संग.....सभा जी के पीछे तो कोई नहीं पडा...इतनी अच्छी गायिका जो हैं....!"

"हां...सभा की नियुक्‍ति प्रथम सुनील म्यूजिक में हुई थी...पर मैंने रातों-रात उसे यहां राज म्यूजिक के लिये गाने को मना लिया जिसपर सुनील बहुत क्रुद्‍ध हुआ था....इस बात पर तो मैंने अभी पर्यन्त ध्यान नहीं दिया था....सुनील भी हमारा दुश्मन हो सकता है..."

"हूं....पर यह कन्फर्म तो करना होगा कि दुश्मन वही है इन सभी चोरियों के पीछे......”

"वो कैसे..?"

"मैं बताता हूं..."

"एक नये गाने की रिकार्डिंग की जाये...अपने मोबाइल्स और इण्टरनेट आदि पूर्व की भांति स्विच्ड औफ रखें....रात को पूर्व की भांति ही सबकुछ यहां छोड जायें, पर एक अन्तर होगा... वह यह है कि कक्ष में डिम लाइट में भी वीडियो रिकार्डिंग चल रही होगी....तब देखते हैं हमें क्या सफलता मिलती है...."

राज को यह परामर्श बहुत रुचिकर लगा....उसने समर की बहुत प्रशंसा की...अगले दिन एक नये गाने को साधारण संगीत दिया गया पर बताया गया कि मोष्ट हिट सौंग यह है.....रात को वाच्मैन भी असावधान ऊंघता रहा.....पर प्रातःकाल राज पहुंचा और उसने रिकार्डिंग रीप्ले की जिसमें चोर पकडा गया था...पर यह था कौन !....कोई उसे अभिजान न सका....इस घटना से दो बातें हुईं....एक तो चोर का अभिज्ञान न हो सका...द्वितीय, सुनील इस साधारण गाने को सुन सम्भवतः सावधान हो गया था...क्योंकि पुनः ऐसे ट्रिक अपनाये गये पर कोई नहीं आया....राज पुलिस इंस्पेक्टर से मिल सीक्रेट्ली इस वीडियो रिकार्डिंग की एक कौपी उसे सौंप देता है कि यदि वे लोग उस चोर को कभी आइडेण्टिफाइ कर पायें...

 

१७ एक दिन संयोग से समर और सभा दोनों राज म्यूजिक में एक स्थान पर मिल जाते हैं....सभा उसे देख आंखें फाड अप्रसन्नता से कुछ कहना ही चाहती है कि तभी राज वहां आ सभा को बताता है - "ये मिष्‍टर समर....मौडल टर्ण्ड ऐक्टर....आजकल मेरी बहुत सहायता कर रहे हैं....आइ रियलि एम वेरी ग्रेट्फुल टू हिम...."

राज समर संग बातें कर रहा है...."समर, तुम्हारे बताये ट्रिक्स से मैं आजकल आराम की नीन्द सो पा रहा हूं....मोबाइल आदि औफ...कुछ भी रिकार्डिंग यहां न रख संग अपने आवास लेता जाता हू...वहां भी रात-दिन वीडियो रिकार्डिंग सीसीटीवी से चलती रहती है....मैं तुम्हें क्या प्रतिदान में दूं...?"

"आप दे सकते हैं कुछ मुझे...ऐसी ही सहायता...."

"सहायता!!! किस काम में...?"

"मैं सभा से विवाह करना चाहता हूं...."

सुनते ही प्रथम तो राज के मन में कुछ क्रोध-सा उभरा...पर तत्पश्चात्‌ समर को ध्यान से परखते समझते बोला - "पर वो तुमसे क्यों विवाह करेगी!! निःसन्देह वह स्वयम्‌ से अधिक प्रगत पति का चयन करेगी....."

"मैं भी तो प्रगति कर रहा ही हूं...कुछ नहीं से मौडल....मौडल से फिल्म अभिनेता....और अब आप यदि मेरी सहायता करें तो मैं हीरो भी बन जा सकता हूं....."

"हां....हीरो बन जाओ यदि तो तुम दोनों का पेयर अच्छा लग सकता है....पर तुम तो हीरो हो नहीं...."

"इसीलिये तो कह रहा हूं आप सहायता करें मेरी हीरो बनने में..."

"अभी ये रोल तो दिखाओ....कैसा कर रहे हो...."

 

१८ समर मन लगाकर अच्छा से अच्छा अभिनय करने का प्रयास कर रहा है....वह अब अधिक स्मार्ट भी लगने लग गया है....सभा उससे कम्पनी में कभी-कभी बात कर लेती है....समर उसके प्रेम में गीत गा रहा है....उसने निज टेबल पर एक फोटो अल्बम रखा है जिसमें मध्य में एक बडा गोल छेद है...उस रिक्त गोले से कुछ आगे बढकर उस गोले के आकार का ही फोटो किनारे से लगा है...वहां सभा का फोटो लगा है....गाते-गाते आंखें मूंदे वह सभा के चित्र को चूमता है....पर तभी एक छोटी बिल्ली वहां आ उस गोले में सर डाल देती है जिससे वह चित्र तो बिल्ली के सर के ऊपर चला जाता है और समर उस बिल्ली के ओष्‍ठों को चूमता है...-"आः...ऐसा लगता है सच में सभा को चूम लिया...गीला मांसल ओष्ठ...." वह आंखें खोलता है तो समक्ष बिल्ली का सर...बिल्ली की म्याऊं...’ समर उछल भागता है.... 

 

१९ समर के उस फिल्म में अभिनय को देख सभा भी उसकी अच्छी प्रशंसा करती है -"प्रशंसनीय अभिनय किया है तुमने....पर इस छोटे-से रोल से तुम्हारा हीरो की ऊंचाई को पा पाना बहुत दूर की यात्रा जान पडती है......हाउएवर...मेरे संग फ्रेण्ड्ली रिलेशन के योग्य तो तुम बन गये हो.... आओ, तुम्हें मैं अपने कार में तुम्हारे आवास ड्रौप कर दूं...." समर अभी भी अपनी कार न ले औटो/टैक्सी और लोकल ट्रेन-यद्यपि फर्ष्ट क्लास में ही यात्रा करता है.... सम्भवतः अभी भी स्वयम्‌ को बहुत नीचे ही अनुभव कर रहा है....मार्ग में जाते समय एक बिल्डिंग से एक व्यक्ति निकल बाहर आता दिखता है जिसे देख समर चौंकता है.....-"सभा जी....ये वही व्यक्‍ति नहीं है जो हमारी उस दिन की वीडियो रिकार्डिंग में है...?" सभा उसे ध्यान से देख नहीं पाती है और वह व्यक्‍ति कार में घुस चला जाता है....समर सोचता ही रह जाता है और वह उस कार का नम्बर नोट करना भी भूल गया...." आप अभी जाइये...मैं कुछ देखता हूं यदि यहां से कोई जानकारी मिल पाये...." वह उतर उस बिल्डिंग में जाता है.....नामप

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25/05/2011 17:01

....पांच मिनट आराम की सांस लेने के पश्चात् वह बोला- "डार्लिंग....प्रेरित की क्या रिपोर्ट है?....."

"आपने जैसा कहा, उसने वैसा ही किया है.....शुभम् कम्पनी के औफिस में रात को कीमेकर को संग ले जा उसने डुप्लीकेट चाभी बनवा वहां के सारे महत्त्वपूर्ण डाक्युमेण्ट्स स्कैन कर लिये, और सीडीज कौपी कर ली....तत्पश्चात् सबकुछ यथावत् रखा हुआ छोड बाहर ताला लगा ऐसे लौट आये जैसे वहां कोई घुसा ही नहीं था....और शोभन की भी सूचना....नेहा के गर्भवती हो होनेवाले बच्चे के डीएनए टेष्ट के द्वारा पिता ज्ञात हो जाने पर विवाह का क्लेम की बात पर कल रात भेजे गये दो व्यक्‍तियों ने उसके कक्ष में घुस उसे इतनी फाष्ट  फकिंग दी उसका होनेवाला बच्चा गर्भ में ही मर गया....इस प्रकार इस समस्या का समाधान हो गया..... पर एक सूचना अच्छी नहीं है...."

"क्या हुआ....?"

"आपने राज को किसी को परेशान करने को कहा था.....राज इसपर बोला -”अब बौस बौस नहीं रह गये, गैंग्लीडर हो गये हैं.....अपने ऐम्प्लौयिज से क्या नहीं करवा लें.......जो न करें उनके लिये एक ही धमकी है - ’जौब से निकाल दूंगा’.....और ऐम्पलौयिज भी अब कुर्सी से चिपके ही रहना चाहते हैं....बौस के आदेश पर चोरी, धमकी, बलात्कार, हत्या आदि चाहे जो भी अनुचित करना पडे वे करने को उद्यत हैं....फीमेल्स भी कुर्सी नहीं छोडना चाहती, भले ही इसके लिये अपना तन एक बार अनेक बार एक व्यक्ति को अनेक व्यक्ति को सौंपना पडे.....भारत में अधिकतर छोटी ही कम्पनियां, औफिसेज, शौप्स आदि हैं जहां एम्प्लायर्स फीमेल ष्टाफ की मार दनादन करते हैं.......पर भारत में कुछ प्रतिशत में बडी कम्पनियां, औफिसेज, मौल्स आदि शौप्स आदि भी हैं जहां एम्प्लायर्स और सीनियर्स दोनों फीमेल ष्‍टाफ्‌स की मार दनादन फकिंग करते हैं....क्या दशा हो जाती होगी स्त्री के मुख और पूरे शरीर की....!.. कुछ एम्प्लायर्स ने अभी ऐसा करना आरम्भ नहीं किया होगा....पर जिस तीव्र गति से और निर्भयता से यह बढता जा रहा है उससे प्रेरणा ले वे भी शीघ्र या विलम्ब गड्ढों में कूद ही पडेंगे.... बहती गंगा में हाथ धोना सबको अच्छा लगता है....जान पडता है कि फीमेल्स को कहीं काम करने भेजना अब उनको वेश्या बना देने जैसा हो गया है ’..."

"हूं....देखता हूं.....इसे यहीं सोने दो...तुम चलो अन्दर....प्रातः चार-पांच बजे अब जाना...." दोनों अन्दर चले जाते हैं....समर यह देख वह भी प्रातः चार बजे तक सोने का विचार कर सिकुडा सोया रहता है....प्रातः काल उसकी नीन्द उस डार्लिंग के स्वर से टूटती है....वह अपनी पुत्री को तुरत आने को कह द्वार बाहर निकल जाती है...पुत्री अंगडायी ले उठने का प्रयास कर रही है...अवसर देख समर वहां से निकल जाता है...वह गेट की ओर झांककर देखता है तो वहां एक पुलिस्वाला कभी आंखें खोलता तो कभी इधर-उधर घूरता दिखता है...जबकि वाच्मैन झुकता-झुकता सो रहा है....समर ने मन में सोचा कि एक पुलिस्वाला इधर है तो द्वितीय पीछे के साइड होगा...वह पीछे की ओर जा देखता है तो वहां वह द्वितीय घूमता दिखता है....वह बहुत सावधान नहीं जान पडा....समर ने सावधानी से उसे दीवार की विपरीत दिशा में निहारता देख दीवार फान्द विना ध्वनि किये तीव्र गति से चलना आरम्भ किया....कुछ मिनटों पश्चात् पुलिस्वाले ने पुनः दीवार से लगे-लगे चारों ओर देखता चलना आरम्भ किया...अभी कुछ उजाला होता जा रहा था....सहसा उसके टार्च की किरण समर के जूते के चिह्नों पर पडी....वह चिल्लाया...तुरत उसने सीटी बजायी....उसका सहकर्मी दौडा आया....उसने भी वह देख तुरत उन चिह्नों के पीछे दौड लगायी....समर वहां से भागता-भागता नाले-खेत-रोड सब पार करता एक प्रातःकालीन विद्यालय को पहुंचा....गेट से अन्दर घुस एक कक्षा में किसी शिक्षक को न देख उसमें घुस गया...

"सर...आप हमलोगों को क्या पढायेंगे? सर, बताइये न...."

समर चुप रहा।

द्वितीय, तृतीय छात्र ने भी ऐसे ही प्रश्न दुहराया...

समर को तब भी चुप देख एक छात्र ने पूछा- "सर, हमलोग इतने समय से पूछ रहे कि आप क्या पढायेंगे, आप बताते क्यों नहीं?"

"तुमलोग ही तो कह रहे हो कि बताइये न अर्थात् मैं न बताऊं....तब मैं क्यों बताऊं ?..."

"पर सभी लोग तो ऐसे ही बात करते हैं - आइये न, खाइये न...जाइये न...."

"जो-जो ऐसे बोला करते हैं वे सभी उल्लु हैं....."

"पर मेरे मां-पिता श्री भी ऐसे ही बातें किया करते हैं, तो क्या वे भी उल्लु हैं?????”

"अं....!!!...." समर ने आंखें फाडीं....

"मेरा जन्म दो उल्लुओं से हुआ है....अंऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ" वह गला फाड चिल्लाया....सारी कक्षा हंसने लगी.....

"चुप....तुम हंसी कर रहे हो मेरे संग!!!!!!"

इतने में एक शिक्षक आ बाहर खडा हुआ....

"सर...अभी जो हमारा विषय है उसके शिक्षक आ गये हैं...."

समर उस शिक्षक की ओर मुस्कुरा देखता बाहर निकल जाता है....वह इधर-उधर टहल एक बेंच पर बैठ जाता है....उधर पुलिस्वाले विचार करते हैं कि यहां से यदि भीड बाहर निकलने लगी तो किसी का भी जूता-चिह्न अभिजाना नहीं जा पायेगा...अतः एक अन्दर जा पदचिह्नों का अनुसरण करे....एक पुलिस्वाला अन्दर घुसता है....तुरत ही उसे उस जूते के चिह्न मिलने लग जाते हैं....वह द्वितीय को भी दिखलाता है....दोनों ही पीछा करते जाते हैं....चिह्न उसी कक्षा की ओर जा रही है....पर समर यह बात देख लेता है....और अभी दोनों पुलिस्वाले उस कक्षा से बहुत दूर हैं तभी समर कक्षा की ओर जाते चिह्नों को मिटा वहां से वह बढता विद्यालय के पिछवाडे में दीवार फान्द बाहर भाग निकलता है....वह जानता है शीघ्र ही दोनों उसके पीछे इधर भी आयेंगे पर इस बात का सन्तोष है कि वे कक्षा में जायेंगे...क्योंकि वहां जानेपर छात्र उसकी रूपरेखा बता दे सकते थे...कभी अभिजान भी ले सकते थे....आगे बढते वह एक चाल-जैसे क्षेत्र में घुस जाता है....एक स्त्री चश्मा पहने एक खाट पर बैठी है...उसके समक्ष एक समाचारपत्र रखा है.....जब समर वहां से गुजरता है तो वह उसे स्वर देती है..."एऽऽऽऽ..सुन इधर.... पढना-लिखना आता है तुझे????" समर हां कहता है... "तो चल, यह समाचारपत्र पढ सुना....."

"आज वर्षा अच्छी होने की सम्भावना है....चुनाव प्रत्याशियों ने निज सम्पत्तियों की घोषणा की....केरल के बाढ-पीडितों की सहायता के लिये पूरे देश में चन्दे एकत्र किये जा रहे हैं...."

"अरे मुझे अच्छे-से दिखता नहीं..पर मैंने टीवी पर इतना देखा कि वे बाढ-पीडित अब भी वैसे ही कठिनाइयों में जी रहे हैं....चन्दा एकत्र करो.....कोक-पेप्सी पीओ, व्यंजन पर व्यंजन खाओ...आराम की यात्रा करो....कितने परिश्रम से इतना एकत्र किया....तो इसका उपभोग क्या बाढ-पीडित लोग करेंगे? नहीं...ये एकत्र करनेवाले ही करेंगे...और वस्त्र जो पीडितों के नाम एकत्र किये गये उन्हें थोक में बेच दो....उन्हें सी-सिला पुनः विक्रय-योग्य बना बेच दिया जायेगा...."

वह स्त्री जबतक बोलना बन्द करे तबतक समर वहां से खिसक चुका था....कुछ समय पश्चात् दोनों पुलिस्वाले आ उस स्त्री से पूछे पर वह समर के सम्बन्ध में कुछ बता नहीं पायी....समर उस क्षेत्र से निकल एक स्थान में घुसा...देखा तीन-चार खिडकियों पर लोगों की पंक्तियां लगी हैं....

"ये यहां पर लाइन क्यों लगी है?...."

"टिकट, टिकट....कहां जाने का??"

"लोकल ट्रेन का भी?.."

"और क्या....कहीं और जाने का तो अगले ष्टेशन पर जाओ...."

समर ने विना विलम्ब किये अपने आवास लौटने को एक दिन का  औलरूट पास लिया और विना विलम्ब किये उससे विपरीत दिशा में जा रही एक ट्रेन में बैठ अगले ष्टेशन पर उतर पुनः निज आवास की दिशा में जा रहे ट्रेन में बैठ निज आवास पहुंच गया....विस्तर पर लेट उसने आराम की सांस ली....उसे विश्वास थी कि पुलिस उसे अब कभी पकड नहीं पायेगी.....कुछ समय आराम करने के पश्चात् वह उठा और टीवी खोला...टीवी पर समाचार आ रहे थे....पर यह क्या!!! प्रमुख समाचारों में उस ज्वेलरी शौप में लूट के प्रयास की घटना दिखायी जा रही थी....उसके जूते के चलने के चिह्न भी दिखाये गये.....समर को अपनी सांसें रुकती-सी जान पडीं....उसने विना विलम्ब किये दोनों जूतों को तेज धार से काटना आरम्भ किया....तत्पश्चात् उन्हें एक पौलिथीन में पैक कर अपने बैग में रख बाहर निकला....कुछ दूर जानेपर एक बहता खुला नाला दिखा....उसने इधर देखा और उधर देखा और उसमें वह पौलिथिन खोल सभी टुकडे एक संग डाल दिये....टुकडे अलग-अलग बहते-डूबते नाले में खो गये....पुनः आवास आ आराम से लेटा...अब वह स्वयम् को कुछ निश्चिन्त अनुभूत कर रहा था....-यह जौन की दी बुद्‍धि थी जो मैंने धनवान् बनने को ऐसा उपाय विचारा....जीवन मेरा डूबते-डूबते बचा....भगवा

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25/05/2011 16:58

सडक पर आते-जाते वाहनों और व्यक्तियों की दृष्टि में कभी-कभी आ जा सकती है.....अल्प ही आवागमन हो रहा है....कोई उधर ध्यान भी नहीं दे रहा कि उस घुप्प अन्धेरे में क्या हो रहा है..... ऐसे में समर बहुत सरलता से सफल हो सकता है....पर...ये कौन-सा वाहन आ रहा है....ये तो पैट्रोलिंग पुलिस की जिप्सी है....चारों ओर आंखें फाड निरीक्षण करते गुजरते हैं....उनमें एक की दृष्टि समर की ओर पड ही जाती है कि वहां अन्धेरे में कोई किरण निकली-छुप गयी सी दिखी है...वह जीप रुकवाता है....उसके हाथ में बडा टार्च  है पर वह विना टार्च जलाये ही वहां की बात जानना चाहता धीमे-धीमे पगों से आगे बढता है....इधर समर जीप रुकते ही तुरत सभी उपकरण वहीं छोड वहां से आगे की ओर सरकने लगता है....अन्धेरे में पुलिस्वाला उसे देख नहीं पाता है....पुलिस्वाला शटर को पहुंच कुछ भी समझ न आने पर टार्च जलाता है....देखता है ताले खोलने के उपकरण पडे हैं.....वहां से किसीके जूते के चिह्न भी आगे बढते दिख रहे हैं....चिह्नों का अनुसरण करता वह कुछ आगे बढता है तो छोटी दीवार के पीछे गार्ड अचेत पडा मिलता है..........वह मुंह खोलता है और टार्च की लाइट जूते के चिह्नों पर आगे बढाता जाता है.....फोकस दूर जाते समर पर पडती है....दूर स्थित समर अभिजाना तो नहीं जाता है पर वह तुरत वहांसे भागना आरम्भ करता है जबकि जिप्सी से दो पुलिस्वाले उसके पदचिह्नों...नहीं... जूते चिह्नों को देखते उसका पीछा करने दौड पडते हैं....वायरलेस पर इन दोनों पुलिस्वालॊं को सन्देश मिलता है कि उस व्यक्ति ने गार्ड को अचेत कर ज्वेलरी शौप लूटने का प्रयास किया है....चाहे जैसे भी हो उसे पकड कर ही लौटना....यदि रिक्‌‍त हाथ लौट आये...तो तुम दोनों....यह सुन दोनों घबडा गये....एक समर के पदचिह्नों के पीछे दौड लगा रहा था तो द्वितीय ने कुछ रुककर उन जूते-चिह्नों की अपने मोबाइल से कुछ रिकार्डिंग भी कर ली....पुनः उसने तीव्रगत्या दौड लगायी और वह निज सहकर्मी के संग हो लिया...समर भागता-भागता एक अपार्ट्मेण्ट की दीवार फान्द अन्दर घुस गया....वह वाचमैन की दृष्टि से बचता सीढियों से ऊपर चढने लगा....इधर ये दोनों अपार्ट्मेण्ट की दीवार के समीप से जूते-चिह्नों को अदृश्य पाते हैं....वे तुरत वाचमैन से कहते हैं कि अन्दर एक चोर घुसा है...

"कब घुसा?..."

"अभी...कठिनाइ से दो-चार-पांच मिनट हुए होंगे..."

"मैं बडी सावधानी से...सचेत इधर चारों ओर देख रहा हूं....अभी आधे घण्टे से न तो कोई यहां आया है, न ही कोई बाहर निकला है..."

"पर जूते के चिह्न यहीं आकर अन्त हो रहे हैं....वो सामने दीवार से चोर अन्दर कूदा है...."

"और मैं क्या उस समय कहीं बाहर गया था...या सो रहा था जो उसे नहीं देखा?.. मेरी क्या यहां से छुट्टी करवाना चाहते?...”

"देख वाच्मैन...मुझसे बहस न कर....इस अपार्ट्मेण्ट की चार दीवारों से इन दो दीवारों को मैं देख रहा हूं....ये मेरा सहकर्मी तुम उस साइड की दोनों दीवारों पर दृष्टि रखो....और तुम वाच्मैन....अन्दर प्रत्येक फ्लैट में बारी-बारी से जा सर्च करो, कोई चोर कहीं घुसा मिल ही जायेगा...यदि बाहर निकल भागता नहीं है तो....चलो....जाओ......" दोनों वैसा ही करते हैं.... उधर समर ऊपर चढता एक फ्लैट के द्वार को हाथ लगाता है तो वह खुल जाता है....वह चुपके से अन्दर घुसता है....समीप उस फ्लैट की पानी की टंकी दिखती है....वह वहां चढ उसके पीछे छिप जाता है....चुप सिकुडा लेटा है...धीरे-धीरे उसे नीन्द आने लग जाती है.....वह जानता है कोई वहां तो किसी काम से, वह भी रात में तो आयेगा नहीं....कुछ समय पश्चात् सहसा खट-खट-खट सुनायी देती है जिससे उसकी नीन्द खुल जाती है....वह चुपके से देखता है....समक्ष हौल है....अन्दर वाले कक्ष से एक अधेड निकलता है - "अरे डार्लिंग...तुम्हारे लिये तो मैं द्वार खुला ही रखता हूं....इतनी खटखट....आज तुम..." द्वार खोलता है तो समक्ष वाच्मैन को पाता है....

"सर....अन्दर कोई चोर तो नहीं आया है ?...."

"क्यों! आज चोरों की मीटिंग है क्या...?"

"नहीं, दो पुलिस्वाले आये हुए हैं....कहते हैं इस अपार्ट्मेण्ट में एक चोर घुसा है....मुझे सभी फ्लैटों में अन्वेषने भेजा है..."

"हूं....मेरी जानकारी में तो नहीं है...तुम सर्च करो...क्या जाने कहीं से निकल जाये...."

"सर...आप यहीं द्वार पर रहिये...मैं सभी कक्षों में अन्वेषता हूं..."

"ऐं....बहुत चतुर समझता अपने को?....अन्दर नोटों के बण्डल खुले पडे हैं....एटीएम, क्रेडिट कार्ड्स रखे पडे हैं....वे सब मैं तुझे सौंप दूं और यहां द्वार पर खडा-खडा मैं भिखारी बन जाऊं!!!! ये मैंने सिटकिनी अन्दर से लगा दी...अब चल मेरे संग....देखता हूं....चोर पूर्व आया था या अभी आया है...." दोनों संग में अन्दर सभी स्थानों पर अन्वेषते हैं....तत्पशचात् निकल द्वार के समीप पहुंचते हैं..."ये देख सिटकिनी अभी भी लगी हुई है....यदि कोई चोर अन्दर आया रहा होता तो सिटकिनी खोल अभी तक भाग गया होता...क्या बोलता तू...?"

"क्या मैं बोलूं!!!"

"चल, अदृश्य हो जा मेरी आंखों से..." ऐसा कह वह द्वार खोल पुनः सिटकिनी चढा देता है....ये...डार्लिंग को आ जाना चाहिये था...अभी तक आयी क्यों नहीं...!’ वह वहां खडा सोच रहा था जिसके ऊपर पानी टंकी के पीछे छिपा समर यह सब देख-सुन रहा था....तभी उस व्यक्ति को द्वार कुछ हिलता-सा जान पडा....यह देख वह घबडाया-कहीं चोर तो नहीं द्वार खोलने का प्रयास कर रहा है....पर मेरा साहस भी किसीसे न्यून नहीं....अन्य स्थानों पर फियर्लेस्ली की जा रही ऐसी बातों की सूचना से प्रेरणा पा मैंने एक ही दिन औफिस में सभी के संग मार दनादन किया...इतना साहस कितनों के संग है!!! अभी देखता हूं इस चोर के बच्चे को....ऐसा विचार वह अन्दर गया और पिस्तौल ले आया....धीमे से सिटकिनी खोल द्वार के पीछे छुपा....दो पैर अन्दर घुसते देखा उसने...उसने उसके सर पर पिस्तौल सटाया और बोला -"हैण्ड्स अप...." वह एक स्त्री थी....वह चिल्लायी.... "अरे...डार्लिंग तुम....." उसने फटाक से द्वार बन्द किया और उसे बांहों में ले उस हौल में सोफा पर बैठ गया...."इतना विलम्ब कैसे हुआ!....."

"बेटी को मना रही थी...वह आने को तैयार नहीं हो रही थी...”

"अब मान तो गयी हां...कहां है वो?"

"द्वार पर ही खडी होगी..."

वह व्यक्ति द्वार खोल एक १५ - १६ वर्ष की लडकी के कन्धे पर हाथ रख कहता है - "आजा बेटी, अन्दर आ जाओ...."

"बेटी??????" वह क्रोध दिखलाती है....अन्दर आ मां के संग बैठ जाती है....

"अरे...यहां कहां...अन्दर चलो...." उसे उठा ले जाने लगता है...पीछे से मां बेटी को संकेत करती है कि वह आगे वाले कक्ष में जाये... तब जैसे ही वह व्यक्ति उसे उससे पूर्व वाले कक्ष में ले जाना चाहता है, वह उसके अगले कक्ष में ही चलने का आग्रह करती है....हारकर वह उसे उसी कक्ष में ले जाता है....अन्दर घुसते ही वह देखती है विस्तर पर नोटों की कई गड्डियां पडी हैं....

"ये तीन-चार गड्डियां मुझे दे दो...मैं निज जीवन संवारुंगी...."

"ये क्या बोल रही हो तुम...मैंने तो आजतक विना रुपये दिये ही लिया है...."

"लिया होगा....अपनी ऐमप्लौयिइज को....मैं उनमें नहीं....यदि चाहिये तो देने ही होंगे..."

"अच्छा....ये एक ले ही लो तो....."

"एक नहीं, ऐट लीष्ट दो...” वह दृढ स्वर में बोली....                 

"अं....अच्छा...चलो...तुम निज मन को तृप्त कर लो....मैं भी निज मन को तृप्त किये विना नहीं छोडुंगा...."

कुछ समय पश्चात् दोनों बाहर हौल में निकल आये....लडकी थकी-सी निज ब्लाउज में दोनों गड्डियां डाली हुई सोफे पर लेट सो गयी...वह व्यक्ति भी द्वितीय सोफे पर आराम से प्रसर बैठ गया....<

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25/05/2011 16:52

"हूं...ठीक अभिजाना आपने...."

समर ने हाथ मिलाने के उद्‍देश्य से हाथ बढाते हुए कहा -"मैं समर....एक उभरता हुआ मौडल हूं....अभी रूपा च्यवनप्राश और गोल्डन अण्डरवियर के लिये माड्लिंग की  है जो टीवी  पर और सिनेमाहाल में भी आ रहे हैं...." सभा हाथ मिलाये विना मुस्कुराती हुई सिर हिलाती है....राज सबको चलने को कहता है....सभी उद्यत हो जाते हैं...राज समर से हाथ मिला बाई कहता है, और वे सभी वहां से चले जाते हैं....समर उन्हें जाता देख रहा है -’अभी मौडल हूं इसलिये तुमलोगों को वैल्यूएबल नहीं जान पडा....अब मैं तुमलोगों से हीरो बन ही मिलुंगा....

 

१२ पिक्निक से लौट सभी अपने-अपने आवास चले जाते हैं पर राज पुनः औफिस लौटता है नये गीतों का पुनर्मूल्यांकन करने....वाचमैन गेट खोलता है.....राज अन्तः प्रवेश कर हौल में प्रवेश करता है कि उसका मोबाइल फोन बजता है....राज -"हलो..."

"मिष्टर राज....बहुत मनोरंजन कर लिया....अब तुम्हारे हंसने नहीं रोने का समय है...."

"कौन बोल रहा है????"

"तुम्हें मिथ्या आनन्द से बचानेवाला...व्यर्थ में समय नष्ट करोगे, उससे भी बचानेवाला....समय रहते तुम्हें वास्तविकता का बोध करानेवाला...."अजित-सम स्वर में बोला...

"व्हाट डू यू मीन.....कहां से बोल रहे हो....ये फोन नम्बर???"

"पीसीओ से बोल रहा हूं.....बूथ वाला भी मेरा मुखडा नहीं देख रहा है....न ही देख पायेगा...."

"कहना क्या चाहते हो...?"

"इन दोनों गीतों के संगीत भी अब तुम्हारे नहीं रहे...."

राज को तीव्र दुःख की अनुभूति हुई, पर तुरत सम्भलकर बोला- "कितने रुपये चाहते हो?...."

"कितना भी नहीं....क्योंकि उन गीतों के संगीत तो मैंने प्रिया म्यूजिक को बेच दिये हैं....वे किन्हीं और गीतों पर वे संगीत सेट कर रिलीज कर देंगे.....हूउउउउउउउउउउउउउउ..."

....इसका अर्थ हुआ कि मेरा दुश्मन प्रिया म्यूजिक वालों से कोई इतर है...’ "पर...ये तुम्हारे हाथ लगे कैसे????"

"चमत्कार है....वो मैं तुम्हें क्यों बताउं?????"

राज सोचता है कि यदि एक बार भी इस व्यक्ति को इसके नाम के संग बात कर लूं तो इसका स्वर पकड में आ जायेगा...तभी कौल डिस्कनेक्ट हो गया....उसने वाचमैन से पूछा कोई आया था क्या....वाचमैन ने बताया कोई-कोई आया तो था पर बाहर से ही पूछकर चला गया....राज समझ गया कि वाचमैन की दृष्टि से बचकर किसी ने द्वार अन्लौक किया होगा...ओह्...ये ताले उन्नीसवीं शताब्दी के~!!!!!!!

थके मन से राज आवास लौटता है और पत्नी आदि को उसे न जगाने को कह नीन्द की गोली खा सो जाता है.....सभा आदि सारी टीम यह बात जान ऐसा अनुभव करती है मानो मिठाइयों का डब्बा खा अब किसी ने कडवे मिर्च मुंह में डाल दिये हों....

 

१३ समर के भाग्य ने उसका कुछ और अच्छा संग दिया.....उसे एक फिल्म में एक साधारण पात्र के रूप में ही पर कोई पन्द्रह-बीस मिनट पर्यन्त कहानी में अभिनय का रोल मिल गया था...उसकी प्रसन्नता की सीमा नहीं थी....उसने विचार किया- ’अन्दाज में अक्षय कुमार विवाह करने का प्लान बनाते ही रह जाता है और उधर जिससे वह विवाह करना चाहता है उसका किसी और से विवाह हो जाता है....पर मैं विलम्ब न कर शीघ्र उसके समक्ष अपना प्रेम अभिव्यक्त कर दूं.....कल मैं सभा से बात करता हूं....वैसे, कल क्यों आज ही....आज कब.....अभी..और कब....शुभम् सुशीघ्रम्....वह सभा से मिलने उसके आवास पहुंचता है...वहां स्वयम् को सभा से पूर्व-परिचित बताता है और किसी विशेष कार्यवश मिलने की बात कहता है....समर!!! इस नाम का कौन व्यक्ति मेरा बहुत परिचित है!!! ऐसा चिन्तन करती वह अपार्ट्मेण्ट के गेष्ट रूम में आती है....

"हलो...आपने मुझे अभिजाना....मैं समर...आपलोग जब द्वीप पर पिक्निक मनाने आयी थीं तब मेरे बोट से आपलोगों पर छींटें पड गयी थीं...."

"हां....मौडल....."

"तब मैं केवल मौडल था...अब मैं फिल्मों में भी आ गया हूं....ये देखिये कौण्ट्रैक्ट पेपर....आज ही मुझे इतना अच्छा रोल मिला है..."

"हूं...अच्छी बात है...पर....मुझसे सम्पर्क का कारण?"

"आपने अन्दाज फिल्म देखी है ? अक्षय कुमार की.....?"

"देखी होगी...अभी ध्यान नहीं है मुझे इस बात का...."

"उसमें अक्षय कुमार विवाह करने का प्लान बनाते ही रह जाता है और उधर जिससे वह विवाह करना चाहता है उसका किसी और से विवाह हो जाता है....पर मैं विलम्ब न कर शीघ्र अपना प्रेम अभिव्यक्त कर देना चाहता हूं...."

"किससे अभिव्यक्त कर देना चाहते  हैं? और उसमें मुझसे क्या सहायता आपको चाहिये...?"

"मैं आपसे ही विवाह करना चाहता हूं....द ग्रेटेष्ट फैन औफ यू....”

"मुझसे?????" उसे कुछ क्रोध आ गया - ’आज न जाने किसका मुंह देख उठी थी....’ "आप हैं कौन? और क्या बायो-डेटा है आपका?..."

समर फटाफट अपना बायो-डेटा निकाल देता है....सभा ध्यान से पढती है...."इतना अच्छा बायो-डेटा है....कहीं सर्विस के लिये क्यों नहीं प्रयास किया....?"

"कहां आजकल गुणवान्विद्वान् लोगों सर्विस मिलती है....सर्विस तो अब जन्म के आधार पर मिलने लग गयी है....इस जाति या सम्प्रदाय में जन्म लिया  है तो उसे सर्विस मिल जाती है..इन लोगों को सर्टिफिकेट्स और मार्क्शीट्स भी मनचाहा मिल जाते  हैं....और सच में जो विद्वान् है उसे लात मार दिया जाता  है - क्लेम करो तो ढूंढ-ढूंढ कर उनमें त्रुटियां दिखायी जायेंगी...."

"मेबी...बट तुमने ऐसी कौन-सी सफलता पा ली कि तुम अपने को मुझसे विवाह के योग्य समझने लग गये....जानते हो...मेरा केयरियर कितना संवरा हुआ है...और मुझे गाने के लिये गीतों की लाइन लगी है....कई फिल्मों से औफर आ रहे हैं - मेरा गायन राज के संगीत के संग......डू यू अण्डर्ष्टैण्ड द रियलिटी...ऐण्ड द डिफ्रेन्स बिट्वीन यू ऐण्ड मी...?"

"हां...पर आप मेरा केयरियर भी तो देखिये...कितना ग्रो कर रहा है...तीव्र गति से.....आपको स्मरण होगा एक बार आपके किसी और्डिनरी फैन ने आपको फोन किया था, तो आपने उसे विना किसी वैल्युएवल पोजीशन में आये बौलिवुड सेलिब्रेटीज को फोन करने से मना किया था.....?"

सभा कुछ स्मरण करने का प्रयास करती कहती है - ”अं...हं...."

"वो फैन मैं ही था....तब मैं कुछ नहीं था....उसके पश्चात् मैं मौडल बना...आपकी कृपा से...और अब फिल्मों में भी आ गया....एक दिन हीरो भी बन जाउंगा...."

"तो तभी तुम मुझे प्रोपोज करने की सोचना....वैसे तुम्हारे लुक्स अच्छे हैं, पर मेरी कामना है कि मेरा पति मुझसे हायर ष्टेटस का हो....."

"हायर ष्टेटस की परिभाषा मैं क्या समझुं?"

"रिचनेस हो...तुम्हारे संग ऐट लीष्ट एक-दो करोड रुपये तो हों ही....तभी तुम्हारा संग करना अपने ष्टैण्डर्ड के अनुकूल जान पडेगा...."

"मैं न्यूनतम इतना धनवान् बनने का प्रयास करता हूं....पर कहीं ऐसा न हो कि आप इस अवधि में किसी और से विवाह कर लें...."

"अभी इस वर्ष तो विवाह नहीं कर रही...अगले वर्ष की बात अगले वर्ष देखी जायेगी.....अभी इस वर्ष भी सात-आठ मास शेष हैं....और तुम....विना इतना रिच बने मुझसे फोन पर भी बात न करना, मिलने की तो बात भूल जाओ...." सभा वहां से चली जाती है.....समर गम्भीरता से उसे जाता देख रहा है.....

            

१४ समर ने धनवान् बनने का संकल्प लिया, क्योंकि सभा उसके मन और हृदय में समाती चली जा रही थी....उसने जौन का दुःसाहस अपने बल पर करने का विचार किया....उस ज्वेलरी काम्प्लेक्स में सिक्युरिटी बहुत टाइट हो चुकी होगी..या प्रत्येक व्यक्ति सन्देह की दृष्टि से देखे जा रहे होंगे, ऐसी आशंका कर उसने कहीं और कुछ कर डालने को सोचा...रात के आठ बए वह आवश्यक उपकरणों के संग वह बाहर निकला....वह सडक पर आते-जाते ऊंचे-ऊंचे भवनों को देख रहा है...चलते रोड पर के किसी शौप में घुसपैठ करना अच्छा रहेगा....ऐसा सोच वह मुख्य मार्ग के एक बडे ज्वेलरी शौप को लक्ष्य बनाता है.....शौप का शटर गिर चुका है और गार्ड वहीं मंडरा रहा है....वह सावधानी से शटर के ऊपर के जल रहे लाइट को लक्ष्य बनाता है....लाइट चटाक से फूट जाती है....इसके पूर्व कि गार्ड कुछ निश्चय कर पाये, समर उसे पीछे से अनेस्थेटिक सूंघा देता है...शरीर को खींच साथ लगे छोटे दीवार के पीछे छुपा देता है....तत्पश्चात् सावधानी से शनैःशनैः चाभी बनाना आरम्भ करता है....उसके पेन्सिल टार्च की किरण यद्यपि उसके शरीर से छिपी है तथापि समक्ष

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25/05/2011 16:48

"आपको जिस काम के लिये लाखों रुपये मिल रहे हैं उस काम को सुनील आपसे फ्री में नहीं करा सकता है....उस डौक्युमेण्ट को आप फाड डालिये....विशेषकर ऐसी स्थिति में जबकि आपने अभी काम वहां आरम्भ भी नहीं किया है...."

"पर वे यदि कोर्ट गये तो????’

"कोर्ट भी सुनील को आपका शोषण करने की अनुमति नहीं देगा....न ही उसे आपकी गायन क्षेत्र में होनेवाली प्रगति में उसे बाधा डालने की अनुमति देगा....हम लडेंगे आपकी ओर से केस....आप उसकी चिन्ता न करें..."

"तो ठीक है...मैं कब आपसे मिलुं?"

"अभी रिकार्डिंग करनी है...मैं कार भेज रहा हूं आपके ऐड्रेस पर.....आ जाइये..."

"पर इतनी रात मैं बाहर कहीं कैसे जा सकती हूं???"

"ठीक है....आप प्रातः आठ बजे कम्पनी में स्वयम् आ जाइये....वैसे मैं आपको रिमाइण्ड करा दूंगा...."

"ओके....गुड नाइट...."

"गुड नाइट"

अगले दिन समय से सभा वहां पहुंच जाती है...राज उसे रिकार्डिंग रूम में ले जाता है.....उसकी व्वाइस-टेष्टिंग आदि कई प्रक्रियाओं से गुजरना पडता है.....अन्ततः गाने के लिये सर्वथा उपयुक्त मान उसका गायन रिकार्ड होता है...सप्ताह पश्चात् वह फिल्म रिलीज होती है जिसके सभा द्वारा गाये दोनों गीत हिट सिद्ध होते हैं.....उसे बहुत प्रशंसा मिलती है....इसी मध्य सुनील का फोन आता है -"सभा जी, आपने हमारे संग कौण्ट्रैक्ट साइन किया था?????"

"पर सुनील जी....यहां मुझे डायरेक्ट फिल्म में एण्ट्री मिल गयी है....और रुपये कितने मिले आप जान गये होंगे!!! फिल्म रिलीज होने से सप्ताह भर पूर्व ही दो गाने इन्सर्ट करने थे जिन्हें मैंने गाया...आपको तो प्रसन्न होना चाहिये कि यदि मैं आपके संग रहती तो कहीं अन्धेरे में भटकती रहती...."

"व्हाट??" मन में यदि इसके सर पर राज का हाथ नहीं होता तो मैं इसे बताता ऐग्रिमेण्ट तोडने का अर्थ क्या होता है...

जान पडता है सभा उसके मन की बात जान गयी...बोली -"वैसे, कोर्ट भी....लिखित ऐग्रिमेण्ट होने पर भी किसी के शोषण की अनुमति नहीं देता है...और न ही किसी की प्रगति में बाधा डालनेवाले ऐग्रिमेण्ट को स्वीकार्य मानता है....."

सुनील फोन रख देता है। पर उसका हृदय जला हुआ है....उसने एक अन्य नयी गायिका को ले एक एल्बम रिलीज किया...पर कठिनाइ से वह मात्र लगायी पूंजी जितना ही धन अर्जित  कर पाया उससे....जैसे-जैसे वह राज म्यूजिक की उन्नति होता देखता, वैसे-वैसे उसके हृदय में पीडा बढती जाती -"यदि सभा मेरे संग होती तो आज सुनील म्यूजिक इस ऊंचाइ को पा रहा होता....उसने कुछ प्लान बनाया....

 

१० सभा बौलिवुड के प्रसिद्‍ध गीतकार और कथा-लेखक राघवेन्द्र कश्यप से प्रेरणा ले स्वयम् गीत लिखने का अभ्यास करती है....एक अच्छा-सा गीत लिख उसे राघवेन्द्र को दिखाती है....राघवेन्द्र उसकी प्रशंसा करते हैं....राज को भी यह गीत प्रिय जान पडता है....वह उसे संगीत देता है....तब सभा उसे बहुत ही मधुर गाती है.....राज ऐसे-ऐसे आठ-दस गीतों का संग्रह कर एक एल्बम बनाने की बात कहता है....तभी एक फोन आता है - ”मैं प्रिया म्यूजिक से बोल रहा हूं....अभी-अभी हमें ज्ञात हुआ है कि एक गीत आंखों में आधी रात है...जो हमने चार-पांच दिन पूर्व ही रजिष्टर्ड करा लिया था, तथा कल उसे संगीत में ढाल हमारी गायिका प्रिया ने उसे स्वर भी दिया....उसे उसी संगीत के संग आपने आज अपनी गायिका सभा से गवाया है?????"

"क्या बोल रहे!!! वह सभा जी की मौलिक रचना है....और उसकी धुन भी मैंने कल पूर्ण की है....!!!"

"वह तो कल शाम ही हमने टीवी पर प्रस्तुत करने भेज दिया है जिसका प्रूफ भी हमारे संग है...."

"क्या प्रूफ है तुम्हारे संग??? अपने गाने की रिकार्डिंग आदि हमें ईमेल करो...."

"पांच मिनट प्रतीक्षा करो...”

ईमेल आता है जिसकी फाइल में किसी और के स्वर में यही गाना इसी धुन के संग गाया हुआ मिलता है... राज आश्चर्यचकित रह जाता है....सभा भी मूक देखती रह जाती है.... चोरी हुई...पर कैसे हुई!!! किसने विश्वासघात किया!!!

दोनों पुनः साहस करते हैं...सभा नया गीत लिखने बैठती है....राज को एक नयी फिल्म में संगीत देने का औफर मिला है....सभा ने बहुत लगन से इस फिल्म के लिये दो गीत लिख अपनी गीतों का भावार्थ राज को समझा दिया है...राज तीन-चार दिन लगा बहुत परिश्रम से अभी द्वितीय गाने को भी संगीत में ढाल आराम कर रहा है....विचारता है कि अभी दो-तीन दिन पश्चात् अन्य तीन गानों को भी मधुर संगीत दे देगा....रिकार्डिंग रूम बन्द है...कोई इन्ष्ट्रूमेण्टलिष्ट भी आज नहीं आयेगा....पर अपनी गायिका सभा तो आ ही सकती है.....राज ने टीवी औन किया....न्यू रिलीज में नये गाने आ रहे थे....अच्छा संगीत है....पर यह क्या!! अभी चार दिन पूर्व जिस गाने को उसने सुरों में ढाल संगीत से सजाया था वह इस शुक्रवार को रिलीज होनेवाली एक नयी फिल्म के गाने के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था.... कितना धन व्यय हुआ था इस गाने के निर्माण में, और इसे कोई फ्री में ही उडा ले गया....द्वितीय गीत जो उसने संगीतबद्‍ध किया है वह भी निश्चय ही हाथ से जा चुका होगा!!! कुछ समय वह हताश लेटा रहा....तत्पश्चात् सभा व अन्य इन्ष्ट्रूमेण्टलिष्टों को यह बताता है -"ऐसा कैसे हुआ?????" सभी की बोलती बन्द थी....सभा आदि सभी वहां पहुंचते हैं....राज उन सबको टीवी की वह रिकार्डिंग दिखाता है.....सब चकित हैं....कार्यक्रम आगे बढता है....आनेवाले ऐल्बमों के गीतों की आरम्भिक पंक्तियां दिखायी जा रही हैं...."अरे...ये क्या!!! ये तो वो गाना है जिसे मैंने अभी परसों लिखा है और इसे मैं अभी राघवेन्द्र सर को दिखाने को विचार कर रही थी...!!!" सभा चिल्लायी...

  

१० सभा राघवेन्द्र से बात करती है....सारी बात बताती है...."सर...मुझे तो लगता है कोई एक ही दुश्मन राज और मुझे दोनों को हानि पहुंचाने पर उतारु है...."

"सुरक्षा के कुछ उपाय बता रहा हूं....लम्बे समय पर्यन्त मुझे ऐसी समस्यायों से संघर्ष करना पडा है....तुम मिलो तो मैं तुम्हें विस्तार से बताता हूं...”

सभा उनसे मिलने जाती है....राघवेन्द्र -"ये मोबाइल फोन और इण्टरनेट कनेक्शन दो ऐसे माध्यम हैं जिनसे होकर ये सारी जानकारियां लीक हो अन्यों के हाथ में पहुंच जाती हैं....यदि अपने मध्य ही कोई विश्वासघाती न हो तो....”

"फोन और इण्टरनेट!! कैसे???"

"फोन चाहे मोबाइल हो या लैण्ड्लाइन...दोनों ही से सीनियर एग्जिक्यूटिव्स आदि फोन के चारों ओर एक निश्चित दूरी पर्यन्त सीमा में हो रही सारी वार्ताओं व ध्वनियों को सुनते व रिकार्ड करते भी रह सकते हैं....मेरी जानकारी में तीन-चार मोबाइल कम्पनियों में ये सीनियर एग्जिक्यूटिव्स इतने दुष्ट प्रतीत हुए हैं कि जब चाहो तुम्हारे मोबाइल के टाक बैलेन्स से कितना भी रुपया काट लें... तत्पश्चात्‌ कोई सुनने वाला नहीं...और तो और जानने में ऐसा आया है कि ये जिसे चाहे उस फीमेल एगजिक्यूट्व्स का फियरलेस्ली रेप करते हैं, और वहां भी कोई सुननेवाला नहीं....!!!! एक बार एक अभिनेत्री वेब्साइट्स सर्फ करते-करते पौर्न वेब्साइट्स पर चली गयी.... इण्टरनेट सर्विस प्रोवाइडर ने यह देखा और उस अभिनेत्री के सौतेले अभिनेता भाई को सूचित कर दिया....भाई ने पिताश्री को सूचित किया प्रेरणा देते हुए....पिताश्री ने पुत्री को.... तत्पश्चात्‌ सौतेले भाइयों ने भी.... ऐसा है कि जब पौर्न वेब्साइट्स तुम देख रहे हो तो समझ लो कि तुम्हारा माइण्ड इतना करप्ट हो चुका है कि तुम अब पुत्री, पुत्र, भाई, स्वसा, मां, पिता किसी के भी संग विना हिचकिचाहट के सम्भोग कर सकते....करते ही जाते...तृप्ति नहीं मिलती ऐसी प्यास जग जाती है....इससे आत्मा का - मानव का सर्वनाश बहुत निकट आता चला जाता है.... पौर्न वेब्साइट्स का ऐसा विनाशकारी प्रभाव है... सोचो...इन मोबाइल और इण्टरनेट सर्विस के एग्जिक्यूटिव्स और औफिसर्स को किसी भी उपभोक्ता के निजी जीवन में अवैध प्रवेश की छूट नागरिक और समाज दोनों के लिये कितनी हानिकारक है!!!! इसलिये अपने लिखे गीत आदि को फोन या इण्टरनेट के औन रहते न तो गुनगुनाओ, न किसी को सुनाओ, और न ही कम्प्यूटर में या फोन मेमोरी में कहीं रखो...क्योंकि वहां से भी शेयर्ड नेट्वर्क से चोरी से कौपी कर लिये जाते हैं....”

"पर...इतने...लाखों कष्टमरों को कुछ कर्मचारी कैसे इन माध्यमों से देखते-सुनते रह सकते हैं????"

"राइट...सबको नहीं...पर जिनके पीछे पडने का उन्हें निर्देश मिला हो...या जिस किसी की निजी बातों को सुनने-जानने का उनका मन बन जाये..."

"समझी...ऐसे ही हमारा सारा गीत-संगीत अन्यों के हाथों में पहुंचा है.....!!!! तो क्या अब सावधानी से अपने फोन्स और कम्प्यूटर्स को बन्द रखने पर सब सुरक्षित रहेगा???"

"वहां उपस्थित सभी के फोन्स औफ होने चाहिये...साथ ही यह भी चेक करवा लो कि कहीं कोई माइक्रोफोन तो नहीं लगा है..... एक बात और...नयी रचना या म्यूजिक कम्पोजिशन को सर्वप्रथम रजिष्टर्ड या कौपिराइटेड आदि किसी विश्वसनीय रूप में सुरक्षित करवा लो, तत्पश्चात् ही कहीं उसे ईमेल करो या भिजवाओ...."

"आह....अब सुरक्षा की आशा जगी है....इतनी लाभदायक जानकारी के लिये मैं किस प्रकार से आपको धन्यवाद दूं....."

"सभी किसी-किसी से लाभ पाते ही रहते हैं...."

 

११ राज राघवेन्द्र से हुई बात सभा से जान बहुत प्रसन्न होता है...उसे भी लगता है कि अब वह सुरक्षित है...वह स्वयम् भी राघवेन्द्र से बातकर उनको धन्यवाद देता है....सभी फोन्स और इण्टर्नेट आदि बन्द रखते हुए सुरक्षित रूप से उन दोनों गानों को पुनः संगीत में ढाल सारी टीम बहुत प्रसन्न है कि इसके लीक होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता.....राज आज अपनी जीत सेलिब्रेट करने सारी टीम के संग निकटवर्ती द्वीप पर जाता है.....पिकनिक मनाते हैं, गाना गाते हैं...शाम होने को है और अब सभी लौटने को उद्यत हैं.....तभी एक व्यक्ति बोट तीव्र गति से चलाता आता है जिससे छींटें पडती हैं सभी और राज दोनों को....वह कोई और नहीं, समर है...समर उनके समीप आता है और इन छींटों के लिये सौरी कहता है... राज - "इट्स औल राइट"

"और आपसे भी मैं क्षमाप्रार्थी हूं....यदि मैं भूल नहीं कर रहा तो आप प्रसिद्‍ध गायिका सभा हैं!!!"

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25/05/2011 16:37

"सभा जी, बधाई हो....आपके गाने इतने सुमधुर कि आह...मैं क्या बताऊं.....एक पर एक हिट होते जा रहे हैं...."

"आप कौन?"

"सभा जी, मेरी यह शुभ कामना है कि आप भारत की नम्बर वन गायिका बनने का भी सौभाग्य प्राप्त कर पायें...मैं आपका एक साधारण-सा फैन बोल रहा हूं...."

"आपने गायन में अभी क्या स्थिति प्राप्त कर ली है....?"

"गायन ! और मैं ! मैं तो केवल वैसे ही गुनगुना लेता हूं...."

"तो आप किस क्षेत्र में काम करते हैं?"

"मुझे तो कोई कला नहीं आती...मैं अनेम्प्लौय्ड हूं.....कहीं कोई अच्छा-सा जौब मिल जाये..."

"यदि तुम्हें  गाने, लिखने, अभिनय, आदि की कोई कला अच्छे-से आई होती, और तुम बौलिवुड में अवसर पाने के अन्वेष में मुझसे सम्पर्क करते, तो यथासम्भव मैं तुम्हारी सहायता कर सकती थी...क्योंकि प्रतिभाशाली लोग गिनती के ही होते हैं....पर तुम तो लाखों करोडों साधारण लोगों में से एक के रूप में मुझसे बात कर रहे हो....यदि इसी प्रकार तुम्हारे जैसे ही अन्य करोडों लोग मुझे फोन करने लग जायें तो मेरा क्या होगा????? इस साधारण अवस्था में रहते मुझे या किसी और कलाकार को भी फोन करने का साहस नहीं करना....फोन रख दो..." समर रिसीवर रख देता है.....मिनट दो मिनट शान्त खडा रहता है...तत्पश्चात् फोनकौल के रुपये दे वहां से चला जाता है....

  

एक व्यक्‌ति लम्बे-लम्बे पग बढाते रोड्‍पर चला जा रहा है.....उसके संग एक छोटा-सा बैग्‌कन्धे से लटक रहा है...अभिजानने की मुद्रा बनाते वह एक अपार्ट्‍मेण्ट्‍में घुसता है....लिफ्‍ट्‍में घुस तृतीय तल पर जाता है....एक-एक द्वार से होते हुए वह एक किनारे के द्वार पर रुकता है.....इस फ्लैट्‍का द्वार अन्य आते-जाते लोगों की दृष्‍टि से छिपा-सा है, जिसे देख वह व्यक्‍ति प्रसन्नता से ...माइ लक्‌...बुदबुदाता है....वह जानता है कि अभी अन्दर कोई नहीं है.....सावधानी से पर शीघ्रता से वह उस द्वार की चाभी बना अन्दर घुसता है....इधर-उधर निरीक्षण कर वह बाहर आ द्वार लौक कर वहां से चला जाता है....पुनः रात आठ बजे वह वहां आ द्वार खोल अन्दर लाइट जलाता है....प्रकाश में उसका मुख दिखता है....अरे ये तो कोई और नहीं, समर ही है....वह पुनः द्वार अन्दर से लौक कर लाइट बुझा पलंग के नीचे घुस जाता है....कोई आधे घण्टे पश्चात् सभा द्वार अन्लौक कर अन्दर प्रवेश करती है....यह गायिका सभा पटेल का ही आवास है....वह डिनर कर ही आ रही थी....थकी...एसी चला सैण्डल उतार वह आराम से वैसे ही पलंग पर लेट जाती है.....लाइट जल रही है....वह आराम का मात्र आलिंगन करना चाह रही थी पर उसकी आंखों ने यह दिखाया कि वह आराम में डूबती जा रही थी....जब समर को यह विश्वास हो गया कि वह सो गयी है तो वह पलंग के नीचे से बाहर निकला.....उसने विना विलम्ब किये अचेत करने वाली औषधि क्लोरोफार्म सभा को सुंघायी....अब सभा प्रायः अचेत हो चुकी थी....समर ने बडे आराम से सभा को कुछ प्यार किया....तत्पश्चात् संग उसके सम्भोग करना आरम्भ किया, विचारा - ’कण्डोम लगा ही लूं....इसके शरीर में मेरे वीर्य का अभिज्ञान भविष्य में कभी भी न हो पाये....कुछ मिनट सम्भोग कर तत्पश्चात् उठा, सभा के पर्स को टटोला....उसमें आज उसे मिले एक सहस्र रुपयों के सौ नोटों की एक गड्डी मिली....उसे उसने अपने पौकिट में डाला...सभा के शरीर के वस्त्रों को पूर्ववत् ही कर, अन्य भी परिवर्तित स्थितियों को पूर्ववत् कर आराम-आराम से द्वार से बाहर निकल उसे लौक कर, आंखों पर काला चश्मा चढा, लिफ्ट से उतर वाच्मैन के समीप से ही आराम से निकल चला गया...अभी रात के नौ बजने वाले थे पर चहल-पहल  अभी भी बनी थी इसलिये वाच्मैन ने उसपर विशेष ध्यान नहीं दिया....

 

सभा की जब नीन्द टूटी तब रात के कोई ढाई बज रहे थे....वह चिन्तित हुई...उसने पर्स से रुपये निकाल अल्मीरा में रख देने को सोचा....पर यह क्या!!! पर्स में तो कोई गड्डी नहीं थी....सबकुछ वैसा ही था पर वह लुट चुकी थी....उसने तुरत राज अपने म्यूजिक डायरेक्टर को फोन किया - "मुझे भलीभांति स्मरण है कि वह एक लाख रुपये की गड्डी मेरे पर्स में थी जब मैं निज फ्लैट में प्रवेश की थी....मेरे सोये में ही यह चोरी हुई जबकि कहीं किसी के अन्दर आने का कोई चिह्न नहीं दिख रहा...."

"किसी ने तुम्हारे फ्लैट की डुप्लिकेट चाभी बना अन्दर प्रवेश कर वे रुपये उडा लिये....अभी भी हम तालों के सम्बन्ध में तो उन्नीसवीं शताब्दी में ही जी रहे हैं....कहीं तुम्हारे संग तो कुछ नहीं किया?"

"कुछ लगता तो है पर मैं श्योर नहीं हूं...."

"अभी तीन बजने वाले हैं....तुम आठ - साढे आठ बजे पर्यन्त आ जाओ.... हमारा डौक्टर तुम्हारी वर्जिनिटि चेक कर लेगा...."

सभा का चेकप होता है तो उसकी वर्जिनिटि तो सिद्‍ध होती है पर विथ कण्डोम सेक्सुअल इण्टरकोर्स भी दिख रहा है...किसने किया होगा!!! तब भी, थैंक गौड बच गयी..

....’"क्या मैं चोरी की कम्प्लेण्ट पुलिस को दूं..?"

"सभा, तुम मेरा कहना मानो और ऐसा कुछ न करो जिससे समस्या न्यून न होकर और बढ जाये....क्योंकि जिन-जिन प्रदेशों में मैं अभी तक रहा हूं वहां की घटनाओं से व कभी व्यक्तिगत अनुभव से भी मेरे अनुभव में ऐसा आया कि पुलिस तुम्हें कम्प्लेण्ट के नाम पर थाने बुला सकती है.... तू, तेरा बोलना, गाली भी देना, अन्दर कर देने की धमकी देना, मिथ्या आरोप में फंसा देना, कभी जान भी मार देते हैं लौकप में....मदिरा पीये हुए ये ऐसे डेंजरस वर्दी वाले अपराधी हो सकते हैं जिनके पीठ पर प्रशासन, शासन, पूरे संसार की पुलिस और शासन का हाथ रहता है....पुलिस और क्रिमिनल्स दोनों से निर्दोष और अच्छे लोगों को बहुत दूर रहना चाहिये....क्योंकि ये निर्दोष और सीधे लोगों के संग विना भय के दुर्व्यवहार या अन्याय कर सकते हैं, तथा धनवान्‌ और पावरफुल लोगों को सैल्यूट मारते हैं चाहे वे कितने भी दुष्ट हों...अपराधियों के संग इनकी सांठ-गांठ हो सकती है....इसलिये तुम मेरा कहना मानो...तुम्हारे एक लाख के स्थान पर तुम्हें मैं न्यूनतम दस लाख की आय तुरत करवा देता हूं...केवल मैं यह इच्छता कि तुम्हारा मन प्रसन्न रहे....कोई चिन्ता तुम्हारे मन में न रहे....और तुम मधुर से मधुर स्वर में गाते रहो.... तुम फ्लैट के अन्दर सिटकिनी लगाना न भूलो....और मैं केवल विशेष लेसर बीम से ही खुलने वाले लौक्स के सम्बन्ध में जानकारी लेता हूं....."

 

सभा ने एक मास की इस लघु अवधि में ही कोई आठ-नौ हिट गाने गा निज के केयरियर के संग-संग राज की म्यूजिक कम्पनी को भी उन्नति के मार्ग पर आगे बढा दिया था....पर.... पर राज की इस उन्नति पर किसी की दृष्टि टेंढी हो गयी थी....वह है --- एक व्यक्ति खडा पीछे से आगे की ओर मुडता स्क्रीन पर उभरता है....कहता है---"जिसपर मेरी दृष्टि टेढी हो जाये.....करा दूं उसकी हाय हाय... नाम है मेरा.....सुनील उपाध्याय....." वह निज औफिस में बैठा सोच रहा है - ’सभा मेरे लिये गायेगी ऐसा निश्चित हो चुका था...पर रातों-रात राज ने उसे मुझसे छीन अपनी कम्पनी के संग कर लिया...यदि आज वह मेरी कम्पनी के संग होती तो मेरी कम्पनी नम्बर वन म्यूजिक कम्पनी बनने की ओर बढ चुकी होती....राज ने मेरी उन्नति छीनी है...मैं उसकी उन्नति छीन लूंगा....इयाह्...."

पर वास्तविकता यह है कि -(फ्लैश बैक) कहीं ब्रेक मिले इस अन्वेष में उसने कई म्यूजिक कम्पनियों और म्यूजिक डायरेक्टरों से उसने सम्पर्क किया था....अन्ततः उसने सुनील की म्यूजिक कम्पनी के लिये गाना स्वीकार कर लिया, और डौक्युमेण्ट्स भी साइन कर दिये.....अगले दिन प्रातःकाल उसे वहां गाने का रिहर्सल आदि आरम्भ कर देना था....पर....इस प्रातःकाल से पूर्व ही रात में राज की कम्पनी में एक फिल्म-विशेष के लिये ही गानों की रिकार्डिंग हो रही थी.....गायिका का स्वर राज को गाने के उपयुक्त नहीं लग रहा था....उसने नयी गायिकाओं के आवेदनों को परखना आरम्भ किया....सभा का स्वर उसे बहुत मधुर और आकर्षक जान पडा....उसने उसका मोबाइल नम्बर डायल किया.....एक बार घण्टी बज-बजकर थक गयी....पुनः डायल किया...इस बार सभा की नीन्द टूट गयी....उसने कौल रिसीव किया....-"मिस सभा पटेल?"

"यस...स्पीकिंग..."

"मैं राज....राज म्यूजिक से.....हमने आपका मधुर गायन सुना, और अपनी नयी रिकार्डिंग के लिये आपको अवसर देने का विचार किया है....."

"पर मैंने आज ही सुनील म्यूजिक से कौन्ट्रैक्ट पेपर पर साइन किया है...अभी कुछ समय के लिये तो मुझे केवल उन्हीं के लिये गाना है....."

"-ऽऽऽऽ.....पर....रुपये कितने मिलेंगे आपको वहां से?"

"अभी एक एल्बम में मुझे प्रायः फ्री गाना है...इसकी सफलता मेरा पारिश्रमिक निश्चित करेगी..."

"ऐसे तो आपका शोषण होगा....आपका स्वर इतना मधुर है कि आपको अभी से लाखों रुपये मिलने चाहिये, जो मेरी कम्पनी में सम्भव है...."

"पर....ये कौण्ट्रैक्ट जो साइन कर दिया है मैंने???"

 

Locks continues 1

25/05/2011 16:17

सारा रौंग मैं करूंगा....उस शौप में अभी कुछ और घण्टों के लिये हीं कहीं और से उडाया हीरे का एक छोटा पीस रखा है....मुझे वह चाहिये....कोई एक करोड उसका मूल्य होगा....सुन रहा है?????" समर हूंकहता है....

"अब प्लान सुन...जैसे ही गार्ड रेष्टोरेण्ट की ओर बढेगा, हम शौप की ओर बढेंगे...मैं शौप के तीनों तालों को खोल अन्दर घुसुंगा...तू शटर गिरा कम्बल लपेट ऐसा लेट जायेगा कि आते-जाते लोगों को ताले खुले न दिखें.....जैसे ही मैं अन्दर से नौक करूं, तू प्रथम यह देखेगा कि किसी की दृष्टि शौप की ओर है या नहीं....तब शटर उठायेगा.....आज इस शौपिंग काम्प्लेक्स में केवल टी-ष्टाल और रेष्टोरेण्ट ही खुले हैं...."

योजनानुसार वैसा ही उन दोनों ने किया....कोई पन्द्रह-बीस मिनट अन्दर रह जौन सफलतापूर्वक हीरा ले बाहर निकला...पर शटर गिरा जैसे ही ताले लगाना चाहा कि समर ने कहा कि सामने से इस गली में कोई मुडा है, इधर ही आयेगा.....जौन का काम हो चुका था, इसलिये वह ताले शौप के अन्दर डाल शटर भूतल से सटा छोड समर संग दूसरी ओर से निकल जाता है....मार्ग में रेष्टोरेण्ट है.....देखता है कि गार्ड आराम से खा रहा है.....जौन रेषटोरेण्ट के कोने पर बैठ सिगरेट बेच रहे लडके से एक सिगरेट लेने को मुडता है....वह सिगरेट जला एक कश मारता है और गार्ड की ओर देखता है तो उसका हृदय धक्क से रह जाता है....गार्ड वहां बैठा नहीं था.....दोनों वहां से भाग निकलने को अभी सोचते ही हैं कि संकटकालीन सायरन बजता है....दोनों के पांव आगे की ओर बढते हैं कि रेष्टोरेण्ट स्वामी बोलता है- "ये चोरी होने की सूचना देनेवाला सायरन बजा है....कोई भी अपने स्थान से हिलेगा भी नहीं....नहीं तो उसे ही चोर समझा जायेगा.....”

जौन को मिला स्वर्ग छिनता-सा लगा....दोनों ही अभी भौंचक्के खडे थे कि कोई पांच-दस मिनट पश्चात् उस शौप का गार्ड आया और बोला - "चोर ने शटर से ताले खोल हीरे का एक आभूषण चुरा लिया है.....केवल उसी का बौक्स खुला पडा है....चोर इस शौपिंग काम्प्लेक्स में ही है....आप सभी आराम खाना-पीना कर सकते हैं, पर यहां से बाहर आप तभी जा पायेंगे जब यहां इंच-इंच स्थान की छानबीन कर हीरे के आभूषण को पुनःप्राप्त कर लिया जाता है...इसमें घण्टों लग जा सकते हैं" गार्ड के ऐसी घोषणा से जौन की फंसी-फंसी सी सांस आराम से चलने लग गयी....दो-चार मिनट में पुनः चहल-पहल आरम्भ हो गयी.....जौन समर को वहीं रुकने को कह अन्दर की ओर जाता है....कोई आधे घण्टे पश्चात् वह लौट कर आया और बडे धीमे स्वर में निश्चिन्तता की सांस लेता समर से बोला -"समझ लो हमलोग अब राजा बन गये....हीरा किसी को मिल नहीं पायेगा और हमलोग आराम से बाहर निकल जायेंगे....आ कुछ खाया-पीया जाये...." दोनों ने निश्चिन्तता से खाना-पीना किया....पुलिस और वहां के कर्मचारियों ने चप्पा-चप्पा छान मारा, प्रत्येक व्यक्ति को पूरा सर्च किया, पर कहीं कुछ नहीं मिला...वे चिल्लाये- "चोर कोई भूत रहा होगा...चुराकर कहीं अदृश्य हो गया..." अन्ततः सबको वहां से जाने दिया गया.....पर जाने देते समय कुछ कर्मचारियों की दृष्टि जौन पर पडी और वे परस्पर परामर्श किये - ’यह व्यक्ति बहुत समय इधर बैठा नहीं दिखा है...’ "....चोरी होने से पहले और पश्चात् भी तू बहुत समय इधर बैठा नहीं दिखा है, जबकि अन्य सभी लोगों का कर्मचारियों ने अभिज्ञान कर लिया है कि ये इधर बैठे या घूमते दिखे हैं...कहां था उतने समय????"

"ये कर्मचारी न हो कोई आइंष्टीन हैं जिनकी स्मृति में सबकी छवि बन्धी हुई है....अरे एकाध व्यक्ति ध्यान से उतर गया भी तो हो सकता है!!!"

वाच्मैन - "अच्छा, हो सकता है ऐसा ही हो...पर हो सकता है ऐसा न भी हो....इसलिये तुम अब इधर इस शौपिंग काम्प्लेक्स में नहीं आओगे....प्रवेश प्रतिबन्ध....."

जौन तिरस्कारपूर्वक हूंकह कन्धे उचकाता वहां से निकल चला जाता है.... 

 

कोई आठ-नौ दिन बीत गये तो जौन ने समर को बुलाया - "तू आज जायेगा ज्वेलरी शौपिंग काम्प्लेक्स.....मेन गेट से घुसकर राइट से पांचवी गली में अन्दर घुसेगा....सबसे अन्तिम शौप का शटर तुझे गिरा मिलेगा, क्योंकि वे इस साइड का शटर गिरा ही रखते हैं....शटर के राइट साइड वाले ताले के समीप पहुंचते ही तेरे हाथों से फाइल गिर जायेगी और तू गिरे कागजों को उठाने अपने जूतों पर बैठ जायेगा....इस प्रकार कि तेरा मुख ठीक उस ताले के ऊपर होगा....तू विना विलम्ब किये अपने छोटे हैण्ड बैग से अपने उदर के समक्ष उस ताले को खोल उस ताले के सर्वांग समरूप इस ताले को निकाल वहां लगा देगा...यह काम आधे मिनट में हो जाना चाहिये....कोई तुझे ऐसा करते देख न पाये...और उस ताले को ले यहां तू यथाशीघ्र आ जा....." समर - "मैंने कहा था मैं कोई रौंग वर्क नहीं करूंगा..."

"अरे, वाच्मैन ने रोका नहीं होता तो मैं ही जाता....किसी को उसके पुराने ताले के स्थान पर कुछ नया-सा ताला देना कोई रौंग वर्क होता है क्या??? ये तो भलाई का काम है....जा फटाफट...." समर निर्देशानुसार सारा कुछ कर सफलतापूर्वक वह ताला ले लौट आता है....तब जौन द्वार की सिटकिनी चढाता है, आराम से बैठ ताले को उपकरणों से खोलता है...उसके हाथ की कुशलता ऐसी कि कोई विशेष ध्वनि भी नहीं होती ताले के अन्दर की बौडी खोल देने में....खोलते ही समर की आंखें फैल जाती हैं....हीरे का एक जगमगाता टुकडा अन्दर से निकला....

"समर, तू आगे की सुन....इस हीरे को बेचने मुझे बाहर जाना है.....कितने समय में लौटकर आउंगा यह अभी बता नहीं सकता....पर जब भी लौटकर आउंगा....तुझे कुल आय का पच्चीस प्रतिशत अवश्य दूंगा....पर तुझे यह बात किसी को भी नहीं बतानी है....समझ ले, ऐसी कोई बात हुई ही नहीं है....” समर हां में सर हिलाता है....सायंकाल पर्यन्त में जौन नगर से बाहर चला जाता है....

 

कितने ही दिन बीत गये, जौन की कोई सूचना नहीं.....समर एकाकी ही अब निज भविष्य बनाने की चिन्ता में बैठा है....टीवी पर बौलिवुड समाचार आ रहा है...एक नयी गायिका अपने प्रथम गीत से ही चारों ओर छा गयी है....सभी उसके मधुर स्वर की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा कर रहे हैं.....नाम है सभा.....सभा पटेल.....उसका इण्टरव्यू दिखाया जा रहा है...."आपको निज प्रथम गीत पर ही मिल रही इतनी प्रशंसा पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?"

"इससे मेरा उत्साह बहुत बढा है....यह मेरे सुखद भविष्य का सूचक है...."

"अपने पति या ब्वाय्फ्रेण्ड के सम्बन्ध में बतायें?"

"विवाह मेरा हुआ नहीं है....और ब्वाय्फ्रेण्ड मैंने कभी किसी को बनाया नहीं....मेरा पति ही मेरा ब्वाय्फ्रेण्ड होगा..."

"आपकी इस चौबीस वर्ष की अवस्था पर्यन्त में कभी किसी से कुछ भी रिलेशन तो रहा होगा?"

"नहीं....मेरा फर्ष्ट रिलेशन मेरे पति के संग ही बनेगा..."

"इतने आत्मविश्वास से बोलने का कारण?"

"इस सम्बन्ध में मैं अपना भविष्य जानती हूं....." वह मुस्कुरायी।

 

समर सभा की ओर बहुत आकर्षित हुआ - ’काश ये मेरी पत्नी बन जाये.....पर मेरी तो कोई ऐसी स्थिति ही नहीं है कि मेरा इससे विवाह सम्भव हो सके....कुछ दिन और बीते....सभी के एक पर एक हिट गाने आते गये....संयोग से एक समाचार में सभी का ऐड्रेस और फोन नम्बर लिखा उसे दिखता है....वह उससे बात करने का मन बनाता है....उसका पुराना मोबाइल फोन अच्छे-से काम नहीं कर रहा है....नये मोबाइल का क्रय कर उससे सभा से बात करूंगा..ऐसा विचार कर कुछ रुपये ले एक शौप पर जाता है...."ये मोबाइल फोन कितने का है?..."

"जितना एम आर पी उसपर लिखा है..."

"अभी मेरे एक मित्र ने एक मल्टीमीडिया मोबाइल फोन का क्रय किया....एम आर पी लिखा था दस सहस्र रुपये....जबकि मिला केवल पांच सहस्र रुपये में....कोई पुराना नहीं...पूरा नया....उसका मार्केट रेट ही ऐसा है.....तुम तो उसे भी दस सहस्र में ही बेचते!!!....."

"हां..निःसन्देह.....सौ-दो सौ रुपये...या बहुत अनुरोध करने पर पांच सौ रुपये पर्यन्त भी छोड दे सकता हूं..."

"और बोलोगे, ये ही दो-चार सौ रुपये तो मिलेंगे मुझे इसे बेचने पर...यदि वह भी छोड दिया तो मुझे क्या मिलेगा???’

"ही ही ही....बुद्धिमान् हो...."

समर का मन अप्रसन्न हो गया....देश में जिसे देखो वही एक-दूसरे को लूटने के प्रयास में लगा है.....पर लूटकर भी धन आदि सुरक्षित कहां रखेंगे!!! क्योंकि ताले अब भी उन्नीसवीं शताब्दी के चलते आ रहे हैं जिन्हें बहुत सरलता से कोई भी खोल अन्दर घुस इच्छापूर्वक अपने कार्य कर बाहर आ पुनः ताले वैसे ही लगा दे सकता है जैसे कि वह अन्दर घुसा नहीं था...हाय रे मानव-बुद्‍धि!!! कितनी की साइण्टिफिक उन्नति!!! कहां हैं तुम्हारे साइण्टिफिक ताले???? जिसे कोई और खोल न पाये?.......’ 

उसने पीसीओ से सभा को फोन करने को विचारा....नम्बर लगा....सभा ने रिसीव किया - "हलो..."

"

Locks - taale rahasya bhare - a story plot for making film

25/05/2011 15:37

फिल्म बनाने के उद्‍देश्य से लिखा गया यह कथा-प्लौट काल्पनिक घटनाओं पर आधारित है...

 

Locks - ताले रहस्य भरे

लेखक - राघवेन्द्र कश्यप

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

ताले ही ताले स्क्रीन पर दिख रहे हैं - चक्कर खाते.....मन्त्री निज कार्यालय में बैठा, क्रुद्‍ध स्वर में - "शीघ्र ज्ञात करो....यह कैसे हुआ??? किसका हाथ है इसके पीछे????" वह रिसीवर रखता है कि एक नेता अन्तः प्रवेश करता है - "ये क्या गडबड कर डाले? हाइकमान आपपर बहुत क्रुद्‍ध हैं....शाम चार बजे उनसे मिलने पहुंच जाइयेगा....  ...... ..... वैसे...आपने ऐसा किया क्यों, कुछ मुझे भी समझ नहीं आया....???" मन्त्री - "नेता विश्वास करो मुझपर....मैंने ठीक वैसी ही रिपोर्ट बनवायी थी जैसा हाइकमान ने मुझे निर्देश दिया था....पर रातों रात न जाने कैसे किसी ने उस रिपोर्ट में टैम्परिंग कर दी....!!!" नेता - "टाइप कौन किया था?" मन्त्री - "अरे किया तो यही अपना असिष्‍टेण्ट राजु था.....पर...वह भी आश्चर्यचकित है कि यह इस रिपोर्ट में इतना परिवर्तन कैसे हो गया!!!....कक्ष रात भर लौक रहा है....फाइल अल्मीरा में लौक थी....साला कैसे अक्षर सब....इतने सारे वाक्य कैसे परिवर्तित हो गये???? मेरी बुद्‍धि तो काम नहीं कर रही है.....नेता, तुम ही सोचो...मैं ऐसी मूर्खता का काम कर सकता हूं कि मन्त्रिपद से हाथ धोना पड जाये!!!!!!"

"तब ये काम राजु के बच्चे का ही है....लटका दो साले को शूली पर....विरोधी दल ने उसे लाखों रुपये अवश्य खिलाये हैं......"

"हूं.....ऐसा ही होता, यदि उसपर मेरा विश्वास इतना नहीं होता......वह मेरा पूरा विश्वासपात्र है.....गडबड कहीं और है.....क्या जाने रात में यहां कोइ जिन्न प्रकट हुआ होगा....मैंने रिपोर्ट बनावायी थी अपने दल के पक्ष में...पर लिखा मिला कि चुंकि मेरे दल के लोगों ने ही हिंसा का आरम्भ किया था इसलिये विरोधी दल के अर्ध मृत व घायल बीस सदस्यों को बीस-बीस लाख रुपयों की क्षतिपूर्ति दी जाये जिसमें आधा अपनी पार्टी और आधा शासन वहन करेगा....साथ ही पदारूढ दल के घायल पांच सदस्यों को भी एक-एक लाख रुपयों की सहायता दी जाये..."

"चलो, मैं तुम्हारी बात मान लेता हूं...हाइकमान को भी मनाता हूं....पर कुछ तो अवश्य ही तुम्हें सुनना पडेगा....."

 

सनसनी - टीवी समाचार चैनलों पर यह घटना बहुत ही रोचक और रोमांचक रूप में प्रस्तुत की जा रही हैं....नगर प्रशासन ने कल एक ही समय पदारूढ और विपक्षी दोनों ही दलों को विशाल मैदान में भाषण देने की अनुमति दे जो भूल की उसका परिणाम आपसी संघर्ष और चिकित्सकों की दौडा-भागी तक ही सीमित न रहा....न्यायालय ने त्वरित सुनवायी में दोनों ही दलों की ओर से रिपोर्ट मांगी थी....उस समय मैदान में उपस्थित मन्त्री ने अपनी पार्टी की ओर से जो रिपोर्ट सौंपी उसपर त्वरित कार्यवाही करते हुए न्यायालय ने विपक्षी पार्टी के अर्धमृत/घायल बीस सदस्यों को दस-दस लाख रुपयों की सहायता तुरत भिजवा दी तथा पदारूढ दल को तुरत दो करोड रुपये इन पीडितों को सौंपने का निर्देश भी दिया....पर चौंकने वाली बात यह है कि पदारूढ दल ने अपनी ही रिपोर्ट में दिये परामर्शों से असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि यह रिपोर्ट कल रात ११ बजे के लगभग निर्मित हो गयी थी पर पांच-छः घण्टे के अन्दर ही किसी ने इसमें परिवर्तन कर इसे विपक्षी दल के पक्ष में बना दिया...जिसके आधार पर न्यायालय ने दोनों ही दलों की रिपोर्टों को प्रायः समान मानते हुए दिये परामर्शों पर त्वरित कार्यवाही का आदेश दिया....चूंकि दोनों ही रिपोर्टें वैध रूप से सौंपी गयी थी जिनके आधार पर कार्यवाही भी की जा चुकी है यतः न्यायालय ने अब किसी प्रकार के परिवर्तन को अस्वीकार कर दिया.....परन्तु----यह बात सनसनी की रह जाती है कि रिपोर्ट परिवर्तित हुई....तो कैसे हुई!!!!!!!! स्पष्‍ट है कि किसी ने कार्यालय के द्वार का लौक खोला...तत्पश्चात्‌अल्मीरा का भी लौक खोल लिया....या तो उसने कम्प्यूटर का भी पास्वर्ड जान लिया था या अपने संग लाये छोटे लैप्‌टौप पर सारा कुछ परिवर्तन के संग टाइप किया....दो व्यक्ति रहे होंगे.....बडी सावधानी से कार्यालय में रखे उस पत्र-विशेष पर ही वह प्रिण्ट-आउट निकालता है....मूल प्रपत्र को इस नये प्रपत्र से स्थानान्तरित करते हुए बडी सावधानी से सबकुछ यथावत्‌रहने देते हुए वह वहां से निकल जाता है....ताले वैसे ही पडे हैं......कागज, टेबल, अल्मीरा सब वैसे ही हैं.....लगता सबकुछ सामान्य और यथापूर्व है, पर वास्तविकता में ऐसा ही नहीं है....चिन्ता की बात यह है कि यह घटना किसी भी आवास में भी घट सकती है....आज एक भी आवास सुरक्षित नहीं है....चोर को ताले की चाभी बनाना आना चाहिये - वह गेट, द्वार, अल्मीरा आदि सभी के तालों की चाभियां देखते-देखते बनाकर उन्हें खोल पुनः वैसे ही बन्द कर दे सकता है जैसे कहीं कुछ चोरी हुई ही नही हो....कहने को संसार ने बहुत साइण्टिफिक उन्नति कर ली है, पर ताले अभी भी पुराने प्रकार के ही लग रहे हैं जिनकी चाभियां बना लेना या बनवा लेना बहुत ही सरल है....तीन अंकों वाला डिजिटल लौक मार्केट में आया, पर वह भी सफल नहीं रहा क्योंकि कुछ ही समय में सम्भव सभी अंकों का प्रयास कर ऐसे ताले खोल लिये जा सकते हैं....अब इलेक्ट्रोनिक लेसर बीम वाले लौक्स की आवश्यकता है जिससे चोरी इतनी सरल नहीं रह जायेगी.....कहने को ही ऐसे प्रोडक्ट्‍स हैं मार्केट में, पर व्यवहार में कितने आवासों में ऐसे लौक्स का प्रयोग हो पा रहा है!!!.....

 

   जौन ने सारा समाचार बडी उत्सुकता से सुना....उसकी आंखों में एक विचित्र-सी ज्योति थी....उसने मोबाइल पर एक नम्बर डायल किया....."समर....क्या कर रहा है अभी...तुझे जौब का अन्वेष था हां.....आजा...तेरे लिये एक अच्छा जौब मुझे मिला है....लाखों मिल सकते हैं तुझे...हां सच में....आ मिल बैठ विस्तार से बातें करते हैं...."

"आ गया जौन.....बता ये कैसा जौब है जिसमें लाखों मिल सकते हैं!!!....पर एक बात तुझे स्पष्‍ट कर दूं कोई रौंग वर्क मैं करूंगा नहीं....."

"अरे तू तो विना सुने ही बोलना आरम्भ कर दिया.....बैठ तुझे समझाता हूं....बहुत हो गया धन के लिये तरसना...अब मुझे मिल गया है मार्ग - धनी...समृद्‍ध बन जाने का....केवल एक विश्वसनीय सहायक की आवश्यकता है....जिस पद पर मैंने तेरी नियुक्‍ति कर दी है...तू आजा कल से ड्यूटी पर...."

"अरे आण्टी, कहीं इसका माइण्ड बिगड तो नहीं गया!!!"

"मुझे भी ऐसा ही कुछ कह रहा था...देख तो ले, कैसा प्लान इसके माइण्ड में उभरा है..."

"समर, तू दुविधा में न पड....कल प्रातः आठ बजे ही यहां आजा...हमलोग साथ चलेंगे.....अभी तो तू जा, आराम कर..."

 समर चुप रहा, चलो, देखुं सच में कुछ लाभ होता है या नहीं....प्रातः आठ बजे वह उपस्थित था जौन के समक्ष....जौन की आंखों में प्रसन्नता उभरी - "तुम्हारी सिन्सियरिटी को देखकर अपना सक्सेस श्योर जान पडता है.....चलो...." दोनों निकल पडते  हैं....

जौन की बाइक एक चाभी बनानेवाले के समीप रुकी...उसने एक ताला निकाल उसकी चाभी बनाने को कहा और सारी प्रक्रिया की हैण्डीकैम से रिकार्डिंग करने लगा....चाभी बनानेवाले से बात ही बात में उसने सारी विद्‍या सीखी-समझी, और पर्याप्‍त रुपये दे उसने उसकी प्लेन चाभियां आदि सारे उपकरण पर्याप्‍त रुपये दे क्रीत कर ली....बाइक का बौक्स और समर के हाथ दोनों ही इन वस्तुओं से भरे पडे थे....आवास पहुंच जौन उसे अपने कक्ष में ले जा अन्दर से सिटकिनी लगाता है और आराम से विस्तर पर प्रसर जाता है....समर इन वस्तुओं को एक ओर रख सोफे पर बैठता है - "ये तुम क्या करने जा रहे हो???"

"अरे, चाभी बनाने का धन्धा आरम्भ करना है.....तू ग्राहक पकड कर लायेगा....दस रुपये की एक चाभी...चार रुपये उससे तुझे मिलेंगे....समझा क्या...."

"....तूने मुझे समझ क्या लिया है....जानता है मेरी एडुकेशनल क्वालिफिकेशन क्या है....तू इतना लो ग्रेड निकलेगा इसका मुझे अनुमान न था...." समर उठ अप्रसन्नता से जाने लगता है....

"अरे रुक...ये तो मैं हंसी कर रहा था....ऐसे क्या कभी लाखों रुपये मिल पायेंगे....आज तुम्हारी ड्यूटी पूरी...ध्यान रहे, इन सब बातों की किसी को कुछ भी जानकारी न मिलने पाये... कल पुनः इसी समय यहां आ जाना....हां???"

समर हां में सर हिला चला गया। अगले दिन जौन समर को संग ले ज्वेलरी मार्केट जाता है....मार्केट - शौपिंग कौम्प्लेक्स आज किसी कारणवश क्लोज्ड है....वहां की एक विशेष ज्वेलरी शौप के आगे से गुजरते हुए जौन समर को बताता है - "अभी साढे आठ बजे हैं....इस शौप का गार्ड प्रायः नौ बजे सामनेवाले टी-ष्‍टाल पर चाय-बिस्कुट के लिये जाता है....वहां वह कोई बीस-तीस मिनट पर्यन्त समय चाय, बिस्कुट, और समाचारपत्र में बीताता है, पर कभी-कभार अपने शौप की ओर भी देख लेता है....इसी अन्तराल में मुझे इस शौप के तीनों तालों की चाभियां द्रुत गति से बनानी हैं.....तुझे क्या करना है कि उसी टी-ष्‍टाल पर बैठ उससे कुछ आश्चर्यजनक बातें कर उसे वहां कुछ और समय रोकने का प्रयास करना है....इतनी बुद्‍धि तो तेरे संग है ही....बहुत पढा-लिखा जो है....."

"मैंने तुमसे स्पष्‍ट कहा था कि मैं कोई रौंग वर्क नहीं करूंगा..."

"तुम्हें कोई रौंग वर्क नहीं करना है....जो भी रौंग है वह मैं करूंगा....तू केवल राइट-राइट किया कर....अरे...ये किसी से प्यारी-प्यारी बातें करना क्या कोई रौंग वर्क होता है????"

समर नहीं में सर हिलाता है....

"तब चल, और कर जैसा-जैसा मैं कहता हूं...."

जैसे ही गार्ड टी-ष्‍टाल की ओर चलना आरम्भ करता है जौन एक कम्बल लपेटे शौप के शटर के नीचे ऐसे लेट जाता है कि दोनों-तीनों ताले उसके कम्बल से ढंक जाते हैं....इधर टी-ष्‍टाल पहुंचकर जैसे ही गार्ड अपने शौप की ओर देखता है, ’चिल्लाता वह दौडा-दौडा लौटता है, और धकेलकर पुनः पैर से ठोकर मार उसे उठाने का प्रयास करता है....पर कम्बल के  अन्दर घुसा जौन उठने का नाम ही नहीं लेता है...."अच्छा, अभी आता हूं चाय पीकर, तब देखता हूं तुझे..." ऐसा कह गार्ड पुनः टी-ष्‍टाल को चला जाता है.....अब जौन सर कम्बल के अन्दर ही रख फटाफट एक ताले की चाभी बनाने लगता है...बनाकर निकटस्थ दूसरे की बनाता है.....तृतीय ताले की चाभी बनाने को वह उलटकर लेट जाता है....वह सफलतापूर्वक इसकी चाभी भी बना लेता है इसके पूर्व कि समाचारों व समर संग गप्प में उलझा गार्ड लौट आये.....तत्पश्चात्‌कम्बल लपेटा जौन वहां से निकल चुका था.....समर के मोबाइल की घण्टी बजी - "समर, फटाफट मेरे आवास पहुंच जा..." जौन बोला....

समर जौन के आवास पहुंचता है....जौन निज कक्ष में तीनों चाभियां एक रिंग में डाल उंगली पर घुमाता लम्बा मुस्कुरा रहा है।

"इन चाभियों से क्या करोगे?" समर बैठता  हुआ पूछा....

"अभी गार्ड डेढ बजे लंच खाने रेष्टोरेण्ट में जायेगा....कोई आधा घण्टे से चालीस मिनट तक का समय वह वहां बीता सकता है....इसी मध्य हमें सारा काम पूरा कर वहां से निकल जाना है..."

"क्या....कौन-सा काम कर निकल जाना है!......"

"घबडा मत...तू केवल राइट-राइट क